नौकरी और वेतन के बिना काम : महिला स्वास्थ्य कर्मियों का शोषण

एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट ‘मान्यताप्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) या ‘आशा’ – जिस नाम से वे आमतौर पर जानी जाती हैं – और आंगनवाड़ी कर्मी वे महिलाएं हैं, जिन्हें सरकार के स्वास्थ्य व पोषण (मां-शिशु) कार्यक्रम में काम करने के लिये गांव समुदाय से चुना जाता है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत महिला स्वास्थ्य कर्मी ‘आशा’ के नाम से जानी जाती हैं। रा

एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट ‘मान्यताप्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) या ‘आशा’ – जिस नाम से वे आमतौर पर जानी जाती हैं – और आंगनवाड़ी कर्मी वे महिलाएं हैं, जिन्हें सरकार के स्वास्थ्य व पोषण (मां-शिशु) कार्यक्रम में काम करने के लिये गांव समुदाय से चुना जाता है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत महिला स्वास्थ्य कर्मी ‘आशा’ के नाम से जानी जाती हैं। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन को 7 वर्ष पहले शुरू किया गया था। इसका घोषित उद्देश्य था ”देशभर में ग्रामीण आबादी को कुशल स्वास्थ्य सेवा दिलाना और 18 राज्यों पर खास ध्यान देना”। आशा इसका एक मुख्य खंड है। आंगनवाड़ी कर्मी समाकलित शिशु विकास सेवा (आई.सी.डी.एस.) कार्यक्रम को लागू करने का एक प्रमुख संसाधन है। इसे 1975 में शुरू किया गया था और इसका मुख्य उद्देश्य था शिशुओं और माताओं के पोषण व स्वास्थ्य की स्थिति में उन्नति लाना और इस तरह मातृ मृत्युदर तथा शिशु मृत्युदर को घटाना।

आशा और आंगनवाड़ी कर्मियों, दोनों में सामान्य बात यह है कि ये महिलायें स्थानीय समुदाय से निकलकर, परंपराओं की सीमाओं को लांघकर, काम करने और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा दिलाने के लिये आगे आयी हैं। ‘आशा’ की अवधारणा को एक नई अवधारणा बतायी गयी थी, और यह दावा किया गया था कि इस कार्यक्रम के लिये इतना निर्णायक संसाधन गांव की ही कोई सदस्या होनी चाहिए जो गांव समुदाय को मान्य हो। उन्हें इन कार्यक्रमों के लिये काफी भारी जिम्मेदारियां दी जाती हैं परंतु उनके काम व दायित्वों की तुलना में, उन्हें बहुत कम मुआवज़ा मिलता है। पहली बात, उन्हें सरकारी कर्मचारी नहीं माना जाता है हालांकि उनका काम इन कार्यक्रमों के लिये इतना निर्णायक है। दूसरा, उन्हें बहुत कम पैसा दिया जाता है और यह उम्मीद की जाती है कि वे स्वेच्छा से काम करेंगी! उन्हें अपने लक्ष्यों के पूरे किये जाने के आधार पर कुछ प्रोत्साहक मुआवज़ा दिया जाता है, जो विभिन्न कामों के लिये 75 रु. से 350 रु. तक है परंतु कोई भी आशा कर्मी साल भर में ज्यादा से ज्यादा 17,200 रुपये तक ही कमा सकती है।

इन कर्मियों ने अपना शोषण चुपचाप नहीं सहा है। हर राज्य में उन्होंने संगठित होकर नौकरी की सुरक्षा, उचित वेतन और सरकारी कर्मचारियों के बराबर दूसरी सुविधाओं के लिये आवाज़ बुलंद की है। वे एक संगठित ताकत हैं। इस समय 8.5 लाख से अधिक आशा और इतने ही आंगनवाड़ी कर्मी हैं। उन्होंने संयुक्त ट्रेड यूनियन प्रदर्शनों और महिला दिवस कार्यक्रमों में भाग लिया है। बीते दो वर्षों में आशा और आंगनवाड़ी कर्मियों ने देश के विभिन्न राज्यों में बार-बार आंदोलन किया है। (देखिये बाक्स 1)

आशा कर्मी की अनेक जिम्मेदारियां हैं। उसे टीकाकरण, बच्चे के जन्म से पूर्व व पश्चात की देखभाल के लिये महिलाओं और बच्चों का पंजीकरण करने में आंगनवाड़ी कर्मी की मदद करनी पड़ती है। इसका यह मतलब है कि आशा को इन सेवाओं का लाभ उठाने के लिये सक्रियता से महिलाओं और बच्चों को लाना पड़ता है। आगे उसे उपकेन्द्र/प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केेन्द्र में लोगों को भेजना पड़ता है। उसे जवान लड़कियों के पोषण कार्यक्रम में आंगनवाड़ी कर्मी की मदद करनी पड़ती है, गर्भ निरोधक बांटना पड़ता है, बच्चों को जन्म देने के लिये महिलाओं को तैयार करना तथा उन्हें अस्पताल जाने को प्रेरित करना व ले जाना पड़ता है, स्तन पान और शिशु के सही भोजन का प्रचार करना होता है, गांव में सभी जन्मों और मौतों का पंजीकरण सुनिश्चित करना पड़ता है।

इसका यह मतलब है कि आशा कर्मी से यह उम्मीद की जाती है कि वह गांव की लगभग 1000 स्त्री-पुरुषों की आबादी के स्वभाव में बदलाव लायेगी, जो बहुत ही मुश्किल है और जिसमें बहुत समय लगता है क्योंकि इसमें उसे समुदाय का भरोसा जीतना पड़ता है, जबकि गांव के कई लोगों का सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की सेवा से बहुत कड़वा अनुभव रहा है। आशा कर्मी की भूमिका और जिम्मेदारियां इस रूप से तय की गई हैं कि न तो इन पर कोई समय सीमा है और न ही इनकी खास परिभाषा है। यह उम्मीद की जाती है कि वह तरह-तरह के काम के लिये गांव में सभी अवसरों पर हमेशा उपस्थित होगी।

जब 1975 में समाकलित शिशु विकास सेवा कार्यक्रम को शुरू किया गया था, तो उस समय आंगनवाड़ी कर्मी को सिर्फ 500 रुपये का वेतन दिया जाता था और उसे स्थाई सरकारी कर्मचारी नहीं माना जाता था। आंगनवाड़ी कर्मी बार-बार संघर्ष करती रही हैं और सर्व हिन्द आंगनवाड़ी मजदूर फेडरेशन के तहत अपने संघर्ष द्वारा उन्होंने सरकार को प्रतिमाह 3000 रुपये वेतन देने को मजबूर किया है! लेकिन अन्य सरकारी कर्मचारियों की तरह स्थाई सरकारी कर्मचारी बनाये जाने और सबतरफा सेवा निवृत्ति लाभ दिये जाने की उनकी मांग अभी भी अपूर्ण है। केन्द्र में जो भी सरकार आयी है, उसने आंगनवाड़ी मजदूरों के विरोध संघर्षों और इस विषय पर सार्वजनिक वाद-विवाद को अनसुनी कर दी है।

आशा और आंगनवाड़ी कर्मियों के शोषण की निंदा करें और उनके संघर्ष का समर्थन करें

मजदूर एकता लहरराष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और समाकलित शिशु विकास योजना जैसे सरकारी स्वास्थ्य कार्यक्रमों में काम कर रही महिला स्वास्थ्य कर्मियों के शोषण की कड़ी निंदा करती है। यह बड़ी शर्म की बात है कि आज़ादी के 65वर्ष बाद भी हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा की इतनी दुर्दशा है। इस बात की भी उतनी ही निंदा करनी चाहिये कि जो भी सरकार सत्ता में आयी है, वह ग्रामीण महिलाओं और परिवारों को मूल स्वास्थ्य सेवाएं दिलाने के लिये इतनी धूम-धाम से और इतनी बड़ी-बड़ी बातें कह कर बड़े-बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम शुरू करती है परन्तु इन कार्यक्रमों को लागू करने के लिये जरूरी मुख्य मानव संसाधन का शोषण करती है।

महिला श्रम का शोषण पूंजीवादी व्यवस्था का एक लक्षण है। पूंजीवादी व्यवस्था में महिलाओं के श्रम को कम रखकर सभी श्रमिकों के वेतनों को कम किया जाता है। यह बहाना दिया जाता है कि अगर महिला अपने ही समुदाय में काम करती है तो उसे घर से दूर नहीं जाना पड़ेगा, इसलिये महिला के श्रम को इस अनौपचारिक हालत में रखना महिला के लिये फायदेमंद है। चूंकि इसमें कोई औपचारिक ठेका नहीं होता है, इसलिये सरकार स्थाई वेतन न देकर बच जाती है। परन्तु महिला विकास कार्यक्रम की साथिनों की तरह (देखिये बाक्स2) आशा और आंगनवाड़ी कर्मी भी अपने शोषण को अधिक से अधिक हद तक समझ रही हैं और अपने जिलों और राज्यों में खुद संगठित होने की जरूरत को समझ रही हैं। मजदूर एकता लहर महिला स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के संघर्ष का पूरा समर्थन करती है।

बीते वर्ष में आशा और आंगनवाड़ी कर्मियों के विरोध संघर्ष

  • 5 मई, 2012 – कर्नाटक राज्य आंगनवाड़ी कर्मचारी संघ के सदस्यों ने शिशु पालन केन्द्रों की देखरेख वेदांत रिसोर्स नामक विश्व खनन कंपनी की कॉरपोरेट सोशल रिस्पोंसिबिलिटी शाखा, वेदांत प्रतिष्ठान को आउटसोर्स करने की राज्य सरकार की कोशिशों के खिलाफ़ बैंगलूरू में विरोध प्रदर्शन किया।
  • 1 मई, 2012 – सर्व हिन्द आंगनवाड़ी कर्मचारियों और सहायकों के संघ (ए.आई.ए.डब्ल्यू.एच.एफ.) ने सर्व अरुणाचल प्रदेश आंगनवाड़ी कर्मचारी और सहायक यूनियन (ए.ए.पी.ए.डब्ल्यू.एच.यू.) के राज्य स्तरीय अधिवेशन में अरुणाचल प्रदेश की सरकार से मांग की कि आंगनवाड़ी कर्मियों के लिये विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं और लाभों को कार्यान्वित किया जाये।
  • 4 अक्तूबर, 2011 – जम्मु-कश्मीर मान्यताप्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आशा) कर्मचारी यूनियन द्वारा आयोजित प्रदर्शन में कश्मीर घाटी के सभी भागों से सैकड़ों आशा कर्मचारियों ने भाग लिया और अपनी मांगों को बुलंद किया। उनकी मांगें थीं सरकारी कर्मचारी का दर्जा, समय पर मासिक वेतन और वेतन वृद्धि, 6घंटे प्रतिदिन ड्यूटी, विशेष किट्स की सप्लाई, कार्य क्षेत्र में सुरक्षा, पहचान पत्र और अन्य प्रोत्साहक सुविधाएं। सर्व हिन्द आंगनवाड़ी कर्मी और सहायक संघ (ए.आई.एफ.ए.डब्ल्यू.एच.) के प्रतिनिधि आशा कर्मियों के समर्थन में उपस्थित थे।
  • 5 सितम्बर, 2011 – निर्धारित मासिक वेतन और स्थाई कर्मचारी के दर्जे की मांग करते हुये कर्नाटक राज्य आशा कर्मी संघ (के.एस.ए.डब्ल्यू.एफ.) ने फ्रीडम पार्क के पास विरोध प्रदर्शन किया। विरोध इस बात के लिये भी था कि आशा कर्मियों को उनके काम के आधार पर प्रोत्साहक सुविधाएं और यातायात के खर्चे की भरपाई नहीं मिली थी। वे ई.एस.आई. के जरिये सामाजिक सुरक्षा और प्रोविडेंट फंड सुविधा की मांग भी कर रही थी।
  • इन विरोध प्रदर्शनों में कई ऐसे उदाहरण दिये गये जहां आशा कर्मियों को प्रोत्साहक लाभ नहीं दिये गये और उन्हें गरीबी का सामना करना पड़ा। एक आशा कर्मी ने बताया कि उसे आज तक कोई प्रोत्साहक लाभ नहीं मिला है हालांकि वह पिछले तीन महीनों से काम कर रही है। ”मैंने अपने गांव में 6बच्चों को पैदा कराये और आधी रात को ही जरूरत होने पर महिलाओं की मदद की। मैं बहुत निराश हूं कि आज तक मुझे अपने काम के लिये किसी भी प्रकार का मुआवजा नहीं मिला है“।
  • एक भूतपूर्व बीड़ी मजदूर, जो अपने गांव वासियों की मदद करने के लिये आशा कर्मी बनी थी, उसने कहा कि ”अब मुझे घर चलाने में बहुत कठिनाई होती है क्योंकि बीड़ी बनाकर जो आमदनी होती थी वह अब नहीं रही है। मैं बड़ी दुर्दशा में हूं“।
  • 24 जुलाई, 2011 – पंजाब के आशा कर्मी यूनियन द्वारा लुधियाना में आयोजित एक रैली में हजारों ने भाग लिया और न्यूनतम वेतन, प्रोत्साहक राशि में वृद्धि, वरिष्ठता के अनुसार पदोन्नति और कानूनी सूचना के अनुसार इन्हें लागू करने की मांग उठायी। उन्होंने मांग की कि पंजाब सरकार आशा कर्मी यूनियन को किये गये वादे पूरी करे।
  • 24 फरवरी, 2011 – हजारों आंगनवाड़ी कर्मियों ने दिल्ली में जुझारू प्रदर्शन किया। देश भर से आयी महिलाओं ने इसमें भाग लिया। आंगनवाड़ी कर्मियों को अवैतनिक बतौर बहुत थोड़ा पैसा दिया जाता है। महिलाओं ने कांग्रेस पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी को इतने पैसों पर अपना परिवार चलाने की चुनौती दी। अपनी कठिन हालतों के लिये उन्होंने सरकार की निंदा की। उन्होंने श्रम कानूनों की सुरक्षा और पर्याप्त वेतन समेत मजदूर के दर्जे की मांग की। उन्होंने उचित वेतन तथा अपने व अपने परिवारों के लिये स्वास्थ्य एवं अन्य लाभों की मांग की।
  • देश भर के आशा कर्मी सर्वहिन्द स्वास्थ्य कर्मचारी और मजदूर महासंघ के झंडे तले उसी जगह पर इकट्ठे हुये। उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण को रोकने, ठेका मजदूरी और नौकरियों की आउटसोर्सिंग पर रोक लगाने, सामयिक, कैजुएल और ठेका मजदूरों को नियमित बनाने, समान काम के लिये समान वेतन और स्वास्थ्य कर्मियों को सम्मान व सुरक्षा की मांग की। उन्होंने आशा कर्मियों को स्थायी बनाने की मांग की।

साथिनों का संघर्ष

1980 के दशक में शुरू किये गये महिला विकास कार्यक्रम की मुख्य कार्यकर्ता साथिन थी, जिसे स्वैच्छिक कर्मचारी माना जाता था। कार्यक्रम का कथित उद्देश्य था महिलाओं को संगठित करना, ताकि वे सरकारी कार्यक्रमों से विकास के फल का अपना जायज हिस्सा पा सकें। उस कार्यक्रम के तहत, साथिनों ने तरह-तरह के मामलों में पहल लेनी शुरू कर दी जैसे कि सरकार द्वारा आयोजित राहत कार्यों में महिलाओं के लिये न्यूनतम वेतन सुनिश्चित करने से लेकर पारिवारिक झगड़ों को हल करने तक। उन्होंने भ्रष्टाचार के छोटे-मोटे मामलों को हल किया और गांव के स्तर पर महिलाओं की प्राथमिकताओं को आगे रखा। महिलाओं को सशक्त बनाने के विचार तथा महिलाओं को संगठित करने की सफलता के अपने अनुभव से प्रभावित होकर साथिन बहुत अच्छी तरह समझने लग गयीं कि उनके खुद के साथ कितनी नाइंसाफी हो रही है।

एक तरफ उन्हें स्वैच्छिक कर्मी मानकर सिर्फ 400 रुपये प्रतिमाह दिया जाता था, तो दूसरी तरफ सरकार उनसे यह उम्मीद करती थी कि वे किसी और कर्मचारी की तरह ही अपनी जिम्मेदारियां निभायेगी। उन्हें स्वैच्छिक कर्मी और गांव की महिलाओं की नेता कहा जाता था परन्तु हक़ीक़त में उन्हें सबसे निचले दर्जे पर रखा जाता था। उनसे उम्मीद की जाती थी कि वे गांव की महिलाओं को संगठित करेंगी क्योंकि ”एकता में बल है“, परन्तु जब वे खुद अपना संगठन बनाने की कोशिश कर रही थी तो उन्हें क्रूरता से दबाया गया। अन्त में, 1990 में साथिनों ने अपना ट्रेड यूनियन बनाया और बढ़ते कार्यभार तथा महंगाई की हालतों में, अवैतनिक के मूल्य को बढ़ाने की मांग को लेकर हड़ताल की। जुलाई 1993 तक उन्होंने अपना राज्य स्तरीय अधिवेशन किया और अपना प्रथम मांग पत्र जारी किया, जिसमें साथिनों के लिये मजदूर का दर्जा, उचित वेतन, गांव वासियों की समस्याओं को प्राथमिकता देना न कि सरकार द्वारा थोपी गयी बातों को, सरकारी अधिकारियों की मनमानी पर रोक और साथिनों के लिये सुरक्षित काम की हालतों की मांगें शामिल थीं।

साथिनों के संघर्ष से यह साफ स्पष्ट होता है कि हिन्दोस्तान की सरकार जिस ”स्त्री-सशक्तिकरण“ का इतना ढिंढोरा पीटती है, उसके पीछे असलियत क्या है। यह स्पष्ट होता है कि खुद संगठित होकर संघर्ष करके ही महिला कर्मचारी अपने अधिकार हासिल कर सकती हैं।

 

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