श्रीकृष्ण समिति ने तेलंगाना पर रिपोर्ट पेश की : लोगों को जानबूझकर भड़काने की कोशिश की निंदा करें!

तेलंगाना के विषय पर बिठाई गई श्रीकृष्ण समिति ने 30 दिसम्बर, 2010 को केन्द्रीय सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में समस्या को हल करने के 6 विकल्प दिये गये हैं। एक प्रस्ताव को ”सबसे पसंद प्रस्ताव” बताया गया है और दूसरे प्रस्ताव पर इसके बाद विचार किया जायेगा। बाकी चार विकल्पों के बारे में समिति ने खुद ही कहा है कि इन्हें अमल में नहीं लाया जा सकता। श्रीकृष्ण समिति को संप

तेलंगाना के विषय पर बिठाई गई श्रीकृष्ण समिति ने 30 दिसम्बर, 2010 को केन्द्रीय सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की। रिपोर्ट में समस्या को हल करने के 6 विकल्प दिये गये हैं। एक प्रस्ताव को ”सबसे पसंद प्रस्ताव” बताया गया है और दूसरे प्रस्ताव पर इसके बाद विचार किया जायेगा। बाकी चार विकल्पों के बारे में समिति ने खुद ही कहा है कि इन्हें अमल में नहीं लाया जा सकता। श्रीकृष्ण समिति को संप्रग सरकार ने फरवरी 2010 में, आंध्रप्रदेश में तेलंगाना के पक्ष और विपक्ष के बीच चल रहे आंदोलन के समाधान में मदद के लिये गठित किया था। अब संप्रग सरकार को यह फैसला करना है कि कौन सा प्रस्ताव अपनाया जायेगा।
प्रस्तावित ”सबसे पसंद प्रस्ताव” यह है कि तेलंगाना वर्तमान आंध्र प्रदेश राज्य का ही हिस्सा बना रहे और एक तेलंगाना प्रांतीय परिषद स्थापित की जाये जिसे कुछ ताकतें दी जायें। दूसरा प्रस्ताव यह है कि तेलंगाना को हिन्दोस्तानी संघ के अन्दर एक अलग राज्य का दर्जा दिया जाये, जिसकी राजधानी हैदराबाद हो, और बाकी आंध्र प्रदेश राज्य की एक नयी राजधानी हो। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रथम प्रस्ताव ज्यादा अच्छा होगा क्योंकि दूसरे प्रस्ताव को तटवर्ती आंध्र प्रदेश और रायलसीमा के राजनीतिक प्रतिनिधि नहीं मानेंगे और इससे हिंसक प्रतिक्रिया हो सकती है। परन्तु प्रथम प्रस्ताव तेलंगाना की राजनीतिक ताकतों को मंजूर नहीं है। इस तरह उस राज्य के सभी लोगों के बीच आपसी भावनाओं को और भड़काने वाली हालत पैदा की गई है।
श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट ऐसे समय पर पेश की गई है जब हमारे देश के शासन को चलाने में टाटा, अंबानी और दूसरे इजारेदार पूंजीपतियों की महत्वपूर्ण भूमिका का खुलेआम पर्दाफाश हो रहा है। यह रिपोर्ट ऐसे समय पर पेश की गई है जब मजदूर और किसान बहुत गुस्से में हैं और पूंजीपति वर्ग तथा सत्ता में बैठी उसकी पार्टियों का जमकर विरोध कर रहे हैं, आसमान छूने वाली खाद्य कीमतों के कारण अपने जीवन स्तर पर प्रतिदिन पड़ने वाले दबाव के खिलाफ़ आवाज उठा रहे हैं।
इन हालतों में तेलंगाना के विषय पर आग में घी डालकर शासक वर्ग संघर्षरत ताकतों को आसानी से गुमराह कर सकता है, बांट सकता है और जनप्रतिरोध को खून में बहा सकता है।
कांग्रेस पार्टी नीत संप्रग सरकार और बड़े पूंजीपति राष्ट्रीय अधिकारों और मानव अधिकारों के योध्दाओं समेत सभी प्रगतिशील लोगों को एक फजूल के वाद-विवाद में बांधकर रखना चाहते हैं। वे श्रीकृष्ण समिति के ”विकल्पों” पर आंध्र प्रदेश के मजदूरों और किसानों को आपस में लड़ाना चाहते हैं। वे यह कोशिश कर रहे हैं कि मीडिया का ध्यान लोगों के बीच की लड़ाई पर हो और मेहनतकश लोगों तथा इजारेदार पूंजीवादी मुनाफाखोरों के बीच के संघर्ष से हट जाये। कांग्रेस पार्टी पूंजीपतियों की पुरानी भरोसेदार पार्टी है जो ‘बांटो और राज करो’ के उपनिवेशवादी तरीके में प्रशिक्षित है।
उपनिवेशवादी विरासत
1857 का महान ग़दर जनता को संप्रभु बनाने वाले एक नये हिन्दोस्तान की परिभाषा दिलाने के आन्दोलन की संकेन्द्रित अभिव्यक्ति थी। पूरे देश के लोग, संस्कृति और भाषा, जाति और लिंग के भेदभाव को भूलकर, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ़ एकजुट होकर विद्रोह में आगे आये थे। उन्होंने ऐलान किया था कि ”हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा”!
उपनिवेशवादियों ने अमानवीय बेरहमी के साथ विद्रोह को कुचल दिया था। हिन्दोस्तानी उपमहाद्वीप में ब्रिटिश कब्जे क़े इलाके पर ब्रिटिश ताज की संप्रभुता घोषित करके, नाजायज़ और विदेशी उपनिवेशवादी शासन को वैधता दी गयी। ब्रिटिश हिन्दोस्तानी राज्य में किसी भी राष्ट्र या लोगों के अधिकारों को कोई मान्यता नहीं दी गई। अधिकतम उपनिवेशवादी लूट को सहूलियत देने के लिये, सभी लोगों के अधिकारों को पांव तले कुचल दिया गया। परन्तु 1857 के ग़दर से हमारे देश के लोग आज भी अपने संघर्षों में प्रेरणा पाते हैं।
निज़ाम द्वारा शाषित हैदराबाद राज्य के हिस्सा बतौर तेलंगाना इलाके में सामंतवाद विरोधी और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों ने अगुवाई दी थी। यह तेलंगाना सशस्त्र किसान संघर्ष के नाम से जाना जाता है। यह 20वीं सदी के प्रथम पचास वर्षो में, हमारे देश में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन के खिलाफ़ संघर्ष के इतिहास का एक सबसे क्रांतिकारी अध्याय था। 40 के दशक में वहां की जनता ने गांवों में अपनी परिषद बनाकर, निज़ाम की सामंती हुक्मशाही की जगह पर, खुद अपना शासन करती थी।
1947 में जब उपनिवेशवादी शासन समाप्त हुआ, तब सामंतवाद विरोधी और उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को अपने तर्कसंगत परिणाम तक नहीं ले जाया गया। इस देश की जनता का खुद अपने भविष्य के मालिक बनने का सपना अधूरा रह गया। बड़े पूंजीपतियों और बड़े जमीनदारों के प्रतिनिधि, कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने राज्य सत्ता की उपनिवेशवादी बुनियादों को बरकरार रखने का फैसला किया। इसके फलस्वरूप, 1950 के संविधान में हिन्दोस्तान की सिर्फ इलाकों के आधार पर परिभाषा दी गयी है और इसके अन्तर्गत सभी राष्ट्रों के अधिकारों को नकारने की उपनिवेशवादी विरासत को कायम रखा गया।
1947 में जो स्थापित किया गया और 1950 के संविधान से जिसे वैधता दी गयी, वह महान ग़दर के लक्ष्य को हासिल करने के संघर्ष के साथ विश्वासघात था। हिन्दोस्तानी गणतंत्र, जिसे राज्यों का संघ कहा जाता है, वह बस्तीवादी विरासत की ही निरंतरता है, बेशक उस पर राज करने वाला श्वेत आदमी नहीं है। संविधान में हिन्दोस्तानी समाज के राष्ट्रों और लोगों की कोई परिभाषा नहीं है, उनके अस्तित्व और अधिकारों को मान्यता नहीं दी जाती। उपनिवेशवादी कब्ज़े और राष्ट्रों व लोगों के दमन के जरिये हथियाये गये इलाके को हिन्दोस्तानी संघ का इलाका माना जाता है। संविधान के अनुसार, बड़े पूंजीपतियों की पार्टियों की प्रधानता वाले संसद को नये राज्यों की रचना करने की विशेष ताकत दी जाती है। केन्द्रीय संसद पुराने राज्यों को खत्म करके किसी भी नये तरीके से उन्हें पुनर्गठित कर सकता है, जबकि पूरे हिन्दोस्तानी संघ की क्षेत्रीय अखंडता को हमेशा बरकरार रखा जाता है। अगर कोई आन्दोलन केन्द्रीय संसद की प्रधानता को नहीं मानता है, तो उसे ”हिन्दोस्तान की एकता और अखंडता” के लिये खतरा माना जाता है।
आजादी के बाद नेहरू की सरकार के प्रारंभिक राजनीतिक कदमों में एक था हैदराबाद राज्य के जन आंदोलन को कुचलना। 1948 में, हैदराबाद को हिन्दोस्तानी संघ के साथ जोड़ने के लिये ”पुलिस अभियान” की आड़ में, सेना को हैदराबाद भेजा गया। संघर्षरत किसानों और कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों को बड़ी क्रूरता से दबाया गया और बड़ी संख्या में मुसलमानों का कत्लेआम किया गया।
1947-1950 के बीच शाही राज्यों को हिन्दोस्तानी संघ के साथ जोड़ा गया और उसके बाद ‘राज्यों के भाषा के आधार पर पुनर्गठन’ के रूप में राजनीतिक धोखाधड़ी और दांवपेंच चलाये गये। भाषा के असूल पर चलने के बहाने, अनेक राष्ट्रों और लोगों के अधिकारों को कुचल दिया गया, कहीं मनमानी से बंटवारा किया गया तो कहीं कृत्रिम तरीके से इलाकों को जोड़ दिया गया। ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा पैदा किये गये पुराने घावों को वैसे ही सड़ने दिया गया।
उपनिवेशवादी विरासत के ढांचे के अंतर्गत राज्यों के भाषा पर आधारित पुनर्गठन से हमारे बहुराष्ट्रीय देश में राष्ट्रीय समस्या का कोई समाधान नहीं हुआ। बल्कि इससे समस्या और बिगड़ गयी। पुराने घावों के साथ-साथ कई नये घाव भी पैदा हुये। देश के कई भागों से ऐसे अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। मिसाल के तौर पर, पंजाब के राष्ट्र को न सिर्फ सांप्रदायिक बंटवारे से तोड़ा गया, बल्कि हिन्दोस्तानी राज्य द्वारा, तथाकथित भाषा के आधार पर, फिर से बांटा गया।
राजनीतिक आज़ादी के बाद के पहले दशक के दौरान, बड़े पूंजीपतियों और उनकी कांग्रेस पार्टी द्वारा राष्ट्रीय भावनाओं के साथ दांवपेच के शिकार बनने वाले लोगों में तेलंगाना के बहादुर लोग थे। तेलंगाना में जो गांवों के परिषद बन रहे थे, उन्हें बलपूर्वक खत्म कर दिया गया। आंध्रप्रदेश का एक नया राज्य बनाया गया, जिसमें (1) हैदराबाद के भूतपूर्व शाही राज्य से तेलंगाना, (2) भूतपूर्व मद्रास प्रेसिडेंसी से तटवर्ती आंध्र और (3) मद्रास प्रेसिडेंसी से रायलसीमा, इन इलाकों को जोड़ा गया। सभी तेलुगु भाषी लोगों का यह नया राज्य ऊपर से थोपा गया। इसे केन्द्रीय संसद के फैसले के मुताबिक गठित किया और इसमें शामिल किये जाने वाले लोगों के अधिकारों को कोई मान्यता नहीं दी गयी।
भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश के गठन से तेलंगाना में मेहनतकशों की सत्ता के लिये जन आंदोलन को नकार दिया गया। सत्ता राज्य की विधान सभा के हाथों में आ गयी, जिसमें कांग्रेस पार्टी का प्रभुत्व था और बाद में आंध्र प्रदेश की स्थानीय पूंजीवादी पार्टियों का प्रभुत्व भी बना।
जब से इस आंध्र प्रदेश का गठन हुआ, तब से ही तेलंगाना को हिन्दोस्तानी संघ के अंतर्गत अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिये बार-बार, बड़े-बड़े आंदोलन छेड़े गये हैं। यह दिखाता है कि पुराने घाव अब तक नहीं सूखे हैं। केन्द्रीय सरकार में आने वाली विभिन्न पार्टियों और गठबंधनों ने इस मांग को मंजूर नहीं किया, बल्कि तेलंगाना आंदोलन के विभिन्न नेताओं को खरीदने का काम किया। उस इलाके को खास ताकतें देने के नाम पर, समय-समय पर तरह-तरह के विशेष समझौते किये गये हैं।
आज हैदराबाद शहर और उसकी कीमती जमीन, जो तेलंगाना के अन्दर है, पर बड़े पूंजीपतियों के बीच तीखे अन्तरविरोध हैं। कई पूंजीवादी समूह हैदराबाद में मोटे मुनाफे कमा रहे हैं और आगे भी कमाने की अच्छी संभावना देखते हैं। कुछ और पूंजीवादी समूह अपने प्रतिस्पर्धियों को कमजोर करके, खुद अपना स्थान विस्तृत करने की कोशिश कर रहे हैं। वे सभी पूंजीपति वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को हिलाना नहीं चाहते हैं। वे कम से कम कुछ और थोड़े समय के लिये यथा स्थिति को बनाये रखना चाहते हैं और वर्तमान आंध्र प्रदेश के अंतर्गत तेलंगाना को कुछ सीमित स्वायत्ताता ही देना चाहते हैं। इनके प्रतिस्पर्धी पूंजीवादी समूह तेलंगाना आंदोलन के साथ दांवपेच करना चाहते हैं, ताकि अलग राज्य की मांग की आड़ में वे हैदराबाद पर नियंत्रण पाने के अपने तंग और खुदगर्ज अजेन्डे को हासिल कर सकें। बड़े पूंजीपतियों और राज्य के स्थानीय पूंजीपतियों की पार्टियां इस या उस प्रतिस्पर्धी पूंजीवादी खेमें के हित में काम कर रही हैं और कुछ पार्टियों के तो दोनों खेमों में पैर हैं।
उपनिवेशवादी तरीके से हमारा शासक वर्ग और उसके पूंजीवादी लोकतंत्र की पार्टियां लोगों के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं, लोगों की भावनाओं से दांवपेच कर रही हैं, लोगों के अधिकारों का हनन कर रही हैं और लोगों के गुस्से को एक दूसरे के खिलाफ़ भड़का रही हैं, ताकि मुट्ठीभर परजीवी शोषकों की हुक्मशाही बनी रहे। इन हालतों में यह स्पष्ट है कि तेलंगाना समस्या का कोई सही समाधान नहीं हो सकता है।
निष्कर्ष
जब तक उपनिवेशवादी विरासत बरकरार रहेगी, तब तक किसी भी राष्ट्रीय समस्या का कोई स्थाई समाधान नहीं हो सकता है।
हिन्दोस्तानी संघ का जिस प्रकार गठन किया गया है, उसके मुताबिक यह संघ एक ऐसा साधन है जिसके जरिये टाटा, अंबानी, बिरला और दूसरे इजारेदार पूंजीपतियों की प्रधानता में पूंजीपति वर्ग पूरे समाज पर अपनी हुक्मशाही चलाता है। यह देश के सभी राष्ट्रों और लोगों के लिये एक कैदखाना जैसा है। सभी लोगों को संप्रभुता से वंचित किया गया है – चाहे वे नगा हों या मेइतेइ, असमीय या बोडो, तेलगांना के लोग हों या तटवर्ती आंध्र या रायलसीमा के।
वर्तमान हिन्दोस्तानी संघ में संप्रभु ताकत सिर्फ पूंजीपतियों और उनकी पार्टियों के हाथों में है, न कि लोगों के। श्रीकृष्ण समिति के किसी भी प्रस्ताव को अपनाने से यह स्थिति नहीं बदलने वाली है। मौजूदे संविधान के ढांचे के अन्दर इसे नहीं बदला जा सकता है।
तेलंगाना की समस्या का समाधान, आत्मनिर्धारण के अधिकार के लिये प्रत्येक राष्ट्रीय आंदोलन की समस्याओं के समाधान की तरह, हिन्दोस्तान के नवनिर्माण में है। नवनिर्माण का मतलब है उपनिवेशवादी विरासत को खत्म करना और मौजूदे हिन्दोस्तानी संघ की जगह पर मजदूरों और किसानों के गणतंत्रों का एक नया, स्वेच्छा पर आधारित संघ स्थापित करना। इसका मतलब है कि सभी राजी लोग एकजुट होंगे और एक नया संविधान अपनायेंगे, जिसमें प्रत्येक राष्ट्र के लोगों को खुद अपने भविष्य का मालिक बनने के अधिकार की गारंटी होगी। यह पुनर्गठित संघ सभी लोगों के पारस्परिक हित में, अलग-अलग लोगों के हितों में सामनजस्य लायेगा। यह इस उपमहाद्वीप के सभी लोगों की साम्राज्यवाद के खिलाफ़ और राष्ट्रीय व व्यक्तिगत अधिकारों के सभी प्रकार के हनन के खिलाफ़ लोगों की सद्भावना बनायेगा।
देश के हर भाग में मजदूर और किसान की संख्या सबसे ज्यादा है। मजदूर वर्ग की अगुवाई में मेहनतकश जनसमुदाय के हाथों में जब फैसले लेने का अधिकार होगा, तो वह अधिकतम पूंजीवादी लूट की आर्थिक दिशा को बदलकर सबको खुशहाली और सुरक्षा दे सकता है।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी आंध्र प्रदेश के सभी लोगों को आह्वान देती है कि वे शासक वर्ग द्वारा लोगों के गुस्से को आपस में भड़काने की कोशिशों से चौकन्ने रहें। हम सभी कम्युनिस्टों और जनाधिकार कार्यकर्ताओं को आह्वान करते हैं कि शासक पूंजीपति वर्ग के खिलाफ़ और श्रीकृष्ण समिति की खतरनाक सिफारिशों के खिलाफ़ एकजुट हो जायें।
हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के उद्देश्य के इर्द-गिर्द हम एकजुट हो जायें! तभी तेलंगाना के लोग और सभी तेलुगु भाषी लोग तथा हर एक राष्ट्र के लोग अपने अधिकार पाने में कामयाब होंगे।

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