अमरीकी साम्राज्यवादियों ने उत्तरी कोरिया पर एक बार फिर दबाव डालना और उसे धमकाना शुरू किया। इस बार उनका बहाना उत्तरी कोरिया द्वारा 13 अप्रैल को एक उपग्रह प्रक्षेपित करने की कोशिश थी। जबकि उपग्रह प्रक्षेपण पर संयुक्त राष्ट्र का या किसी और अंतर्राष्ट्रीय संधि का उल्लंघन नही होता है, फिर भी अमरीका ने उत्तरी कोरिया को जा रहे 2,40,000 टन खाद्य पदार्थों से भरे एक जहाज को रद्द कर दिया और जापान ने उत
अमरीकी साम्राज्यवादियों ने उत्तरी कोरिया पर एक बार फिर दबाव डालना और उसे धमकाना शुरू किया। इस बार उनका बहाना उत्तरी कोरिया द्वारा 13 अप्रैल को एक उपग्रह प्रक्षेपित करने की कोशिश थी। जबकि उपग्रह प्रक्षेपण पर संयुक्त राष्ट्र का या किसी और अंतर्राष्ट्रीय संधि का उल्लंघन नही होता है, फिर भी अमरीका ने उत्तरी कोरिया को जा रहे 2,40,000 टन खाद्य पदार्थों से भरे एक जहाज को रद्द कर दिया और जापान ने उत्तरी कोरिया पर एकतरफा प्रतिबंध एक साल के लिये फिर बढ़ा दिया है। इन दोनों देशों ने उपग्रह प्रक्षेपण देखने के समारोह में शामिल होने से मना भी कर दिया है।
जैसा बर्ताव अमरीका व दूसरी साम्राज्यवादी शक्तियां ईरान के साथ कर रही हैं, उसी तरह ''गुप्त'' परमाणु हथियार कार्यक्रम का झूठा आरोप लगा कर उत्तरी कोरिया पर हमला किया जा रहा है। सभी मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय संधियां किसी भी आज़ाद देश को शांतिपूर्ण मकसद के लिये परमाणु ऊर्जा पैदा करने की अनुमति देती हैं। परन्तु साम्राज्यवादी मनमाने तरीके से इस अधिकार को किसी देश पर लागू होने देते हैं और किसी देश के खिलाफ़ पक्षपात करते हैं। यह सभी को ज्ञात है कि मध्यपूर्व के अमरीकी वफादार सेवक इस्राइल ने बिना किसी प्रतिबंध के सैंकड़ों परमाणु हथियार जमा किये हैं। दूसरी तरफ, उत्तरी कोरिया में बार-बार संयुक्त राष्ट्र के, और यहां तक कि अमरीकी विशेषज्ञों व एजेंसियों के निरीक्षण के बाद भी परमाणु बमों का कोई सबूत नही मिल पाया है। इसके अलावा, हाल के उपग्रह प्रक्षेपण का परमाणु हथियार कार्यक्रम से कोई भी ताल्लुक नहीं था। परन्तु दुनियाभर में साम्राज्यवादी प्रचार माध्यम ऐसे दिखा रहे थे मानो उत्तरी कोरिया मानवता के हित के खिलाफ़ कुछ कर रहा हो। अमरीका व दूसरी साम्राज्यवादी शक्तियों ने इस कदर उत्तरी कोरिया को राक्षस बतौर दिखाने का प्रचार किया है जैसे कि मानो उत्तरी कोरिया को एक गैर-जिम्मेदार और खतरनाक सत्ता बताने के लिये किसी सबूत की जरूरत नहीं है।
अमरीकी साम्राज्यवादी उत्तरी कोरिया को अस्थिर करने और दबाव डालने पर इतने उतारू क्यों हैं? छ: दशक पहले, कोरियाई युध्द के समय से कोरियाई प्रायद्वीप में अमरीका की जबरदस्त सैनिक मौज़ूदगी रही है। एशिया प्रशांत महासागरीय क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमाने के लिये और चीन को धमकी देने के उसके प्रयास के लिये दक्षिण कोरिया में अमरीकी मौज़ूदगी जरूरी है। दक्षिण कोरिया में अपनी छावनियां व फौज़ रखने की सफाई में अमरीका उत्तरी कोरिया से हमले का खतरा बताता आया है। इस शताब्दी के शुरुआती सालों में उत्तरी कोरिया और दक्षिणी कोरिया द्वारा खुद आपसी मतभेदों के समाधान के लिये और कोरियाई प्रायद्वीप में शांति स्थापित करने के प्रयासों से अमरीकी साम्राज्यवाद भयभीत होने लगा। इस नीति को ''सनशाईन नीति'' के नाम से जाना गया। इस अवधि में अमरीका के एक और नजदीकी मित्र देश, जापान ने भी उत्तरी कोरिया के साथ सामान्य संबंध स्थापित करने के लिये शुरुआती कदम उठाये। इन गतिविधियों से भयभीत होकर अमरीका, जो खुद उत्तरी कोरिया के साथ वार्तालाप कर रहा था, उसने अचानक यह प्रचार करना शुरू कर दिया कि उत्तरी कोरिया उस इलाके की और दुनिया की शांति के लिये एक ख़तरा है। उस समय के अमरीकी राष्ट्रपति, जॉर्ज बुश ने अपने सन 2002 के कुप्रसिध्द वक्तव्य में उत्तरी कोरिया को ''शैतान की धुरी'' बताया। चीन की पहलकदमी में, 2003 में छ: पक्षीय वार्तालाप में अमरीका ने औपचारिक रूप से भाग तो लिया, परन्तु सिर्फ इसलिये कि उसका पर्दाफाश न हो। असलियत में अमरीका की पूरी कोशिश थी कि वार्तालाप को सफल न होने दे। उसने उत्तरी कोरिया पर एक के बाद एक उकसाने वाली बातें रखीं यह सुनिश्चित करने के लिये कि चर्चा बीच में ही अटक जाये। इस बीच, दक्षिणी कोरिया और जापान दोनों में शांति वार्ता की हिमायत करने वाली सरकारें बदल गयी और ऐसी सरकारें आयी हैं जो पूरी तरह से अमरीका की उत्तरी कोरिया-विरोधी रणनीति से सहमत हैं।
अमरीकी साम्राज्यवाद का उत्तरी कोरिया पर आक्रमक इतिहास कई चीजें दिखाता है। पहला कि अमरीका को कोरियाई प्रायद्वीप में शांति स्थापित करने में कोई रुचि नहीं है। चाहे वह शांति के गीत गाता है या युध्द के नगाड़े, अमरीकी साम्राज्यवाद सिर्फ अपने आधिपत्य और खुदगर्ज़ हितों के लिये ही काम करता है। दूसरा कि अमरीका और उसके तले अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों से स्वतंत्र होकर, किन्हीं भी देशों द्वारा सांझे हित में आपस बीच शांति समझौतों का अमरीका विरोध करता है। ऐसे प्रयत्नों को नाकामयाब करने के लिये अमरीका झूठ और फरेब का और आंतरिक मामलों में दखलंदाजी का सहारा लेता है। तीसरा कि ''पापी'' या ''दुष्ट'' देशों के हाथों में परमाणु हथियार, ''सामूहिक जनसंहार के हथियार'' हैं, ऐसा प्रचार करना अमरीकी और सहयोगी साम्राज्यवादियों का आजकल का पसंदीदा तरीका है जिससे वे उनके रास्ते में आने वाले देशों पर दबाव डालते हैं और उन्हे ब्लैकमेल करते हैं।
हिन्दोस्तान और दूसरे देशों के लोगों को उत्तरी कोरिया के बारे में झूठे प्रचार को समझना चाहिये और इसे पूरी तरह ठुकरा देना चाहिये। हमें हरेक देश की संप्रभुता और अपनी जरूरत के आधार पर परमाणु कार्यक्रम के अपनाने के अधिकार की रक्षा करनी चाहिये और मुट्ठीभर सरासर गलत शक्तियों के स्वघोषित हक को ठुकराना चाहिये कि सिर्फ उन्हें ही तय करने का अधिकार है कि किस देश को परमाणु कार्यक्रम चलाने का अधिकार है और किसे नहीं। हमें दुनिया के हर कोने में साम्राज्यवादी सैनिक मौजूदगी को ठुकराना होगा चाहे वह कोई भी बहाना क्यों न दें।