मजदूर वर्ग और मेहनतकशों की हिमायत करने वाले अखबार और संगठन बतौर, हम मेहनतकशों के नेताओं से यह सवाल कर रहे हैं कि 20 वर्ष पहले शुरू किये गये सुधारों के परिणामों के बारे में हिन्दोस्तान के मेहनतकशों का क्या विचार है। क्या उन सुधारों से मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय को फायदा हुआ है या नुकसान?
मजदूर वर्ग और मेहनतकशों की हिमायत करने वाले अखबार और संगठन बतौर, हम मेहनतकशों के नेताओं से यह सवाल कर रहे हैं कि 20 वर्ष पहले शुरू किये गये सुधारों के परिणामों के बारे में हिन्दोस्तान के मेहनतकशों का क्या विचार है। क्या उन सुधारों से मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय को फायदा हुआ है या नुकसान? 16-31 अक्तूबर, 2011 के अंक में हमने हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के महासचिव, कामरेड लाल सिंह से साक्षात्कार के साथ इस श्रृंखला की शुरुआत की थी। पिछले अंकों में हमने अर्थव्यवस्था के बैंक, पोर्ट, रेल चालकों, डाक कर्मचारी यूनियनों, बीमा क्षेत्र, एअर इंडिया इंजीनियर्स एसोसियेशन, वेस्टर्न रेलवे मोटरमैंस एसोसियेशन के नेताओं, वोल्टास एम्प्लॉईज फेडरेशन तथा मेहनतकशों के विभिन्न संगठनों के नेताओं के साक्षात्कार प्रकाशित किये थे। इस अंक में अर्थव्यवस्था के कुछ और क्षेत्रों के मजदूर नेताओं से साक्षात्कार प्रकाशित कर रहे हैं।
दक्षिण रेलवे एम्प्लॉइज़ यूनियन (डी.आर.ई.यू.) के कार्यकारी अध्यक्ष कॉमरेड इलांगोवन से साक्षात्कार के कुछ अंश
म.ए.ल. : कृपया अपने यूनियन के बारे में बतायें।
इलांगोवन : दक्षिण रेलवे एम्प्लॉइज़ यूनियन (डी.आर.ई.यू.) ग्रुप सी/तीसरी श्रेणी और ग्रुप डी/चतुर्थ श्रेणी के मज़दूरों की यूनियन है। दक्षिण रेलवे में करीब 98,000मज़दूर इन श्रेणियों में हैं। इसमें करीब 40,000सदस्य हैं।
म.ए.ल. : निजीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम से किसका भला हुआ है?
इलांगोवन : बड़े पूंजीपतियों की ही भलाई हुई है। 2004में जब संप्रग-1सरकार आयी थी, तब सबसे बड़े 10पूंजीपतियों की सम्पत्ति 2लाख 34हजार करोड़ रुपये थी। 2009में यह बढ़कर 10लाख करोड़ रुपये हो गयी।
इसी दौरान भूमिहीन किसानों की संख्या 28प्रतिशत से बढ़कर 35प्रतिशत हो गयी है। करीब 2लाख किसानों ने कर्जे के बोझ की वजह से आत्महत्या की है।
गरीबी बढ़ी है, नौकरियों में छंटनी हुयी है। दर्जी, सुनार, दूध और रबड़ जैसे क्षेत्रों की पारंपरिक नौकरियां खत्म हो गयी हैं। सरकारी आंकड़े करीब 9.4प्रतिशत बेरोजगारी दिखाते हैं। इस दौरान करीब एक करोड़ लोगों ने नौकरियां खोई हैं।
म.ए.ल. : मज़दूरों और आम लोगों की परिस्थिति बिगड़ने के क्या कारण हैं?
इलांगोवन : सरकार ने पूरी अर्थव्यवस्था को निजी कंपनियों के लिये खोल दिया है। मज़दूरों व किसानों की सुविधाओं में कटौतियों और रोजमर्रा की जरूरी वस्तुओं की मंहगाई ने मेहनतकश लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया है।
हिन्दोस्तानी अर्थव्यवस्था को आयात-निर्यात पर आधारित कर दिया गया है। इसका मज़दूरों व किसानों पर बेहद बुरा असर हुआ है। आवश्यक वस्तुयें भी लोगों की पहुंच के बाहर हो गयी हैं क्योंकि वे उन्हें खरीद नहीं पा रहे हैं। चीन ने लौह-अयस्क खरीदना बंद कर दिया है और इसकी मांग गिर गयी है। बेल्लारी जिले में करीब 2 लाख लोगों ने नौकरियां खो दी हैं। रेलवे को भी इससे नुकसान है क्योंकि रेलवे की 17 प्रतिशत आय लौह-अयस्क के यातायात से आती है। विदेशों में हीरे की मांग गिरने से गुजरात के हीरा उद्योग में मंदी आयी और मज़दूरों की नौकरियां गयीं।
पूंजीपतियों को 2 लाख 81 हजार करोड़ रु. की रियायत दी जा चुकी है। इससे सरकार की आय में कमी निम्नलिखित आंकी गयी है :
2008-09 4,40,000करोड़ रु.
2009-10 5,00,000करोड़ रु.
2010-11 5,40,000करोड़ रु.
म.ए.ल. : रेलवे पर किस तरह का असर हुआ है?
इलांगोवन : 1990-91 में रेलवे में 16.4 लाख मज़दूर नौकरी पर थे। आज यह संख्या गिर कर 12.32 लाख हो गयी है।
ममता बैनर्जी के तहत रेलवे मंत्रालय ने विजन 2020 नामक एक स्वेत पत्र प्रकाशित किया था। इस श्वेत पत्र के अनुसार, हिन्दोस्तानी रेलवे के लिये 14 लाख करोड़ रुपयों की जरूरत है। 1950 से 2007 के बीच रेल की पटरियों में सिर्फ 15 प्रतिशत वृध्दि हुई! इस दौरान माल वाहक डिब्बों में 12 गुना माल ढोया गया जबकि इनकी क्षमता में सिर्फ 3 गुनी बढ़त हुई है। यात्रियों की संख्या में 11 गुना बढ़ोतरी हुई है जबकि यात्रियों के डिब्बे सिर्फ 3 गुना बढ़े हैं। इंजनों की क्षमता भी सिर्फ 3 गुनी बढ़ी है। हिन्दोस्तानी रेलवे बढ़ती मांग के मुताबिक अपनी क्षमता बढ़ाने में असफल रही है। रेलवे का विकास जरूरत के अनुसार नहीं हुआ है। सरकार रेलवे में पूंजी नहीं डाल रही है। सातवीं पंचवर्षीय योजना में रेलवे के लिये 7.6प्रतिशत आबंटन किया गया था। दसवीं पंचवर्षीय योजना में यह 4प्रतिशत रह गया है।
म.ए.ल. : सरकार इन मुद्दों के लिये क्या कर रही है?
इलांगोवन : रेल मंत्रालय कहता है कि हमें ज्यादा पूंजी निवेश की जरूरत है परन्तु पैसा नहीं है। अर्थात, उन्हीं डिब्बों, इंजनों, पटरियों और मज़दूरों का प्रयोग कई गुना ज्यादा करना है। इसे ''अनुकूलतम उपयोग'' का नाम दिया गया है। सभी रेलवे के दस्तावेजों में इसका वर्णन ''सबसे कम से सबसे ज्यादा निचोड़ने'' या ''कम से ज्यादा'' से किया गया है। इसका नतीजा रहा है कि दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ी है।
''अनुकूलतम उपयोग'' की नीति के अनुसार, रेलवे फाटकों पर गार्ड को दिन में 12 घंटे काम करना होगा। ''कम से ज्यादा'' की नीति के अनुसार, रिक्त पदों पर नियुक्ति बंद है। 2 लाख 54 हजार रिक्त पद हैं। 2008 में सिर्फ सुरक्षा संबंधी विभागों में 20,000 रेल चालकों सहित 84,000 रिक्त पद थे। मौजूदा मज़दूरों पर कार्यभार बढ़ गया है। एक टिकट निरीक्षक 4 से 5 डिब्बों का निरीक्षण करता है। चालक व स्टेशन मास्टरों को काम में ज्यादा समय बिताना पड़ता है। अब भी वे दैनिक 12 से 14 घंटे काम करते हैं। 1919 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने 8 घंटे कार्य अवधि का नियम बनाया था, परन्तु 92वर्ष बाद आज भी रेलवे में इस मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो रहा है। इससे दुर्घटनायें होती हैं।
इंजनों, माल व यात्री डिब्बों की साफ-सफाई व देख-रेख में कटौती की गयी है। उन्होंने घोषणा की है कि रेलगाड़ियों की देख-रेख सिर्फ 3500 कि.मी. के बाद ही की जायेगी। माल डिब्बों की देख-रेख हर साल की जाती थी। अब यह डेढ़ साल में एक बार होती है। इन सभी से दुर्घटनायें हो रही हैं और रेलगाड़ियां पटरियों से उतर रही हैं।
माल डिब्बों में 50 टन की भार सीमा होती थी। अब उसे बढ़ाकर 60 टन कर दिया गया है। इससे पटरियां प्रभावित होती हैं और रेलगाड़ियों की रफ्तार भी। माल डिब्बों के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिये उन्हें जल्दी से जल्दी वापस भरा जाता है। इन सब बदलावों से, उन्होंने 250 नये इंजनों को लगाने में कटौती की है। चालकों के विश्राम समय में कटौती की गयी है और उनका कार्यभार बढ़ाया गया है।
भारतीय रेलवे में करीब 17,000 ऐसी लेवल क्रोसिंगें हैं, जहां गार्ड नहीं होते हैं। दक्षिण रेलवे में ही करीब 1156 फाटक हैं जिन पर गार्ड नहीं होते। लेवल क्रोसिंगों में दुर्घटनाओं में बहुत लोग मारे जाते हैं। लेवल क्रोसिंग दुर्घटनाओं में जिन लोगों की मौत होती है उनमें से 90 प्रतिशत बिना गार्ड वाली क्रोसिंग होती हैं। मौजूदा फाटकों के लिये ही 5000 लोगों की कमी है। ट्रैकमैन की भी कमी है जो पटरियों का निरीक्षण करते हैं। तामिल नाडु में 5000 ट्रैकमैन की कमी है। रेल मंत्रालय के विज़न दस्तावेज़ में फाटकों पर गार्ड नियुक्त करने की घोषणा तो की गयी है परन्तु कुछ किया नहीं जा रहा है।
डिब्बे बनाने के दो कारखाने हैं। 2006 में सोनिया गांधी के मतदान क्षेत्र, रायबरेली में एक और कारखाना स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया था। इसका अनुमानित खर्चा 1650 करोड़ रु. था। उन्होंने इसके लिये एक अंतर्राष्ट्रीय टेंडर निकाला परन्तु किसी ने भी इसके लिये अपना प्रस्ताव नहीं भेजा। सरकार ने सिर्फ 100करोड़ रु. लगाया है। आज तक डिब्बा कारखाना नहीं बना है।
सिर्फ एक ही कारखाने में डिब्बे, इंजन, डीज़ल इंजन व बिजली के इंजन बनते हैं। लालू प्रसाद यादव ने बिहार के मरोना नामक स्थान पर बिजली के इंजन बनाने के कारखाने का प्रस्ताव रखा था। रेल मंत्रालय ने इसके लिये सार्वजनिक निजी भागीदारी (पी.पी.पी.) का प्रस्ताव रखा था। एक भी निजी कंपनी इसमें निवेश करने के लिये तैयार नहीं थी। यह कारखाना नहीं बना है।
पूंजीपति इन कारखानों के लिये आगे नहीं आते हैं क्योंकि इनमें पूंजी पर मुनाफा आने में बहुत लंबी अवधि लगती है। पूंजीपति तुरन्त मुनाफा चाहते हैं। रेलवे के विकास के लिये सरकार को ही इनमें निवेश करना होगा।
म.ए.ल. : क्या आप हमें रेलवे में ठेकेदारी श्रम और आऊटसोर्सिंग के बारे में बता सकते हैं?
इलांगोवन : 2002से, उन्होंने नियमों में फेरबदल किया है। रेल पटरियों की देख-रेख ठेके पर करायी जाती है। डिब्बों की मरम्मत व डिब्बों के लिए स्टेशनों पर पीने के पानी की उपलब्धि निजी कंपनियों को ठेके पर दी गयी है।
बहुत सी चीजों के लिये उत्पादन को भी निजी कंपनियों के हाथ में दिया गया है। दूरांतो रेलगाड़ियों के लिये समझौते में लिखा गया है कि 5 साल के लिये इनकी पूरी सर्विस करने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु दो ही वर्षों में साईड बेयरर, जिस पर डिब्बे का वजन आता है (चार चक्के का यूनिट), उसकी धुरी में दरार आ गयी है। पहले ऐसे साईड बेयररों को सरकारी कारखानों में बनाया जाता था। अब इनका उत्पादन आऊटसोर्स किया गया है। पहले इसे स्वाभाविक तरीके से ठंडा किया जाता था। अब आऊटसोर्स वाले कारखाने में इसे पानी से जल्दी ठंडा किया जा रहा है। इसकी वजह से यह धचकों को नहीं झेल पा रहा है और इसमें दरार आ रही है। अपने मुनाफे को अधिकतम बनाने के लिये ठेकेदार कम गुणवत्ता वाला दोषपूर्ण माल देगा। बहुत से उदाहरण हैं जहां ठेके पर दिया काम पूरा नहीं किया गया है। इसे फिर रेलवे को पूरा करना पड़ता है। ठेका पध्दति हिन्दोस्तानी रेलवे के लिये एक सिरदर्दी है। इससे दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ी है।
हिन्दोस्तानी रेलवे में 7.5 लाख ठेका मज़दूर हैं। 20 साल पहले 50,000 ठेका मज़दूर थे। इरोड के बिजली इंजन के कारखाने में बहुत सा काम ठेका मज़दूरों से कराया जाता है। ठेका मज़दूरों का वेतन बहुत कम है। चेन्नई स्टेशन पर शौचालयों की सफाई करने वालों को सिर्फ 90 रु. प्रति दिन दिया जाता है। न्यूनतम वेतन कानून के तहत उन्हें कम से कम 251रु. प्रतिदिन दिया जाना चाहिये। ठेकेदार को तो रेलवे 251रु. देती है, परन्तु यह मज़दूरों तक नहीं पहुंचता है। इन मज़दूरों को पहचान पत्र भी नहीं दिया जाता है।
ठेका मज़दूरों का कोई अधिकार नहीं है। अगर उन्हें चोट लगती है तो उपचार के लिये उन्हें पैसा अपनी जेब से देना पड़ता है। हमने ठेका मज़दूरों के लिये यूनियन स्थापित की है। हम उनके अधिकारों के लिये लड़ रहे हैं। जब ठेके पर काम दिया जाता है, तब उत्पादन की गुणवत्ता कम होती है, काम की परिस्थिति बहुत खराब होती है, ज्यादा काम कराया जाता है और वेतन बहुत कम होता है। रेलवे लाईन पर ठेका मज़दूरों को सुरक्षा के लिये औजार और यूनिफॉर्म नहीं दिये जाते हैं। बहुत से मज़दूर रेलगाड़ी की चपेट में आकर मर जाते हैं। इसके लिये कोई मुआवज़ा नहीं दिया जाता है। हम मज़दूरों के मुआवजे क़े लिये लड़ रहे हैं।
म.ए.ल. : रेलवे कर्मचारियों के स्वास्थ्य सेवा के विषय में क्या परिस्थिति है?
इलांगोवन : राकेश मोहन समिति ने सिफारिश की थी कि रेलवे की स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण होना चाहिये। उन्होंने रेलवे के लिये छपाई और रेलवे कालोनियों की साफ-सफाई के काम को भी निजी क्षेत्र में डालने की सलाह दी थी। चूंकि हमने संघर्ष किया, इसलिये वे रेलवे कर्मचारियों के लिये स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण नहीं कर पाये हैं। इसकी जगह, उन्होंने बहुत सा काम ठेके पर करवाना शुरू किया है। बहुत से डॉक्टर ठेके पर नियुक्त किये जाते हैं। ठेके के डॉक्टर ज्यादा समय तक नहीं टिकते। जब उन्हें अच्छा मौका मिलता है तो वे छोड़ कर चले जाते हैं। इससे रेलवे कर्मचारियों के लिये अच्छे डॉक्टर लगातार नहीं रहते हैं। पहले रेलवे अस्पतालों में ही टेस्ट होते थे। अब उन्हें आऊटसोर्स करके बाहर निजी लैबों में कराया जाता है। इससे सेवाओं का स्तर गिरा है। कर्मचारियों को अस्पतालों और दूसरे स्थानों पर स्थित सेवा केंद्रों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। खर्चे ज्यादा हैं और सेवा की गुणवत्ता कम है। पर्याप्त मात्रा में दवाइयां उपलब्ध नहीं होती हैं। उपचार कर्मियों के पास पूरी सेवायें उपलब्ध नहीं होती हैं। अत: निजीकरण और जहां भी संभव हो रेलवे कर्मचारियों की स्वास्थ्य सेवा में ठेकेदारी प्रथा को लागू करने के कारण, बहुत सी कमियां महसूस हो रही हैं।
कर्मचारियों के आवासों की देखरेख के लिये पर्याप्त बजट नहीं दिया जा रहा है। तीन साल पहले कर्मचारी आवासों की देख-रेख के लिये 20 करोड़ रु. खर्च किया जाता था। दो साल पहले वह 18 करोड़ रु. हो गया। पिछले साल यह 15 करोड़ रु. था और इस साल वह घटकर सिर्फ 12 करोड़ रु. रह गया है। जैसे-जैसे कीमतें बढ़ती हैं बजट कम होना चाहिये कि ज्यादा? बहुत से घर, देखरेख की कमी की वजह से, रहने योग्य नहीं रहे। रेलवे आवास में रहने वाले कर्मचारियों की संख्या घट कर 28 प्रतिशत बची है। न तो वहां पुताई होती है और न ही सड़कों की मरम्मत और न ही सुरक्षित घेरा बनाया जा रहा है।
दूसरी तरफ, सी.ए.जी. ने रिपोर्ट दी है कि 2005-06 और 2008-09 के बीच रेलवे कर्मचारियों की उत्पादकता 1.5 गुना बढ़ी है। ऐसा मज़दूरों के बढ़ाये गये शोषण से किया गया है।
म.ए.ल. : रेलवे सेवा का उपभोग करने वालों पर इसका क्या प्रभाव पड़ा है?
इलांगोवन : सरकार और सी.ए.जी. रेलवे के घाटे में चलने की रट लगाये हुये हैं। हमें यात्री किरायों और माल ढुलाई की दरों में वृध्दि का आसार दिख रहा है।
रेलवे का दावा, कि उन्होंने यात्री किराया और माल ढुलाई की दरें नहीं बढ़ायी हैं, यह झूठ है। पहले माल ढुलाई के लिये 4000 अलग-अलग वस्तुओं पर अलग-अलग दरें होती थीं। अब वस्तुओं के सिर्फ 12 दर्जे हैं। इससे बहुत सी वस्तुओं का माल वाहन खर्चा बढ़ा है जिसमें खाद्य पदार्थ भी शामिल हैं। यात्री किरायों में बहुत चतुराई का रास्ता अपनाया गया है। करीब 200 रेलगाड़ियों को एक दिन अचानक ही सुपरफास्ट रेलगाड़ी का नाम दे दिया गया। सुपरफास्ट रेलगाड़ी की परिभाषा है कि उसे 55 कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से चलना चाहिये, उसमें भोजनयान और दूसरी सुविधायें होनी चाहिये। वही रेलगाड़ी, उतने ही स्टेशनों पर रुकती है, पर अब उसे सुपरफास्ट बताया जा रहा है। इसके किरायों को, बिना सुपरफास्ट के मानक सुनिश्चित किये, बढ़ाया गया था। बहुत सारी सीटों को तत्काल श्रेणी में लाकर भी किरायों में दूसरी तरह से वृध्दि की गयी है। अगर जाने वाले स्टेशन से वापसी टिकट लेते हैं तो इनके लिये ज्यादा पैसे लगते हैं। रेलवे के टिकटों को निजी कंपनियों के द्वारा बेचा जा रहा है जो ज्यादा महंगें होते हैं। अत: तरह-तरह से यात्रियों से ज्यादा किराया वसूला जा रहा है।
म.ए.ल. : आपका निष्कर्ष क्या है?
इलांगोवन : उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण का मकसद है कि सार्वजनिक सम्पत्ति को सर्वाधिक मुनाफा बनाने के लिये निजी पूंजीपतियों के हाथ सौंपना। मज़दूरों पर सबतरफा हमला हो रहा है। बजट में रेलवे के लिये आबंटन को कम किया गया है। रेलवे के संसाधनों और मज़दूरों का शोषण बहुत बढ़ा दिया गया जिससे कठिनाइयां और दुर्घटनायें दोनों ही बढ़ी हैं। हमें पूरे पूंजीवादी कार्यक्रम के विरोध में एक होना चाहिये।