विधान सभा चुनाव : लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था को बदलने की जरूरत है

पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा – में विधान सभा चुनाव पूरे हुये और नई सरकारें बन गयी हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को संपूर्ण बहुमत मिला और उसने सत्ता में बहुजन समाज पार्टी का स्थान ले लिया है। पंजाब में अकाली दल-भाजपा गठबंधन फिर से सत्ता में आया है। गोवा में भाजपा ने कांग्रेस पार्टी का स्थान लिया है। मणिपुर में कांग्रेस पार्टी की ही सरकार फिर से बनी। उत

पांच राज्यों – उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा – में विधान सभा चुनाव पूरे हुये और नई सरकारें बन गयी हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को संपूर्ण बहुमत मिला और उसने सत्ता में बहुजन समाज पार्टी का स्थान ले लिया है। पंजाब में अकाली दल-भाजपा गठबंधन फिर से सत्ता में आया है। गोवा में भाजपा ने कांग्रेस पार्टी का स्थान लिया है। मणिपुर में कांग्रेस पार्टी की ही सरकार फिर से बनी। उत्तराखंड में त्रिशंकु विधान सभा की हालतों में, कांग्रेस पार्टी ने कुछ निर्दलीय उम्मीदवारों को खरीदकर बहुमत का दावा किया और अब कौन वहां मुख्य मंत्री बनेगा, इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस पार्टी के अंदर खूब कश्मकश चल रही है।

पूंजीपतियों की मीडिया चिल्ला-चिल्ला कर प्रचार कर रही है कि यह एक ''सजीव लोकत्रंत'' का चिन्ह है। उनके अनुसार, ''लोगों ने पार्टी को सत्ता में बनाये रखने या हटाने का फैसला करने के लिये मतदान किया है''। इस प्रचार का मकसद है यह सच्चाई छुपाना कि इस पूरी प्रक्रिया में अधिकतम लोगों की बहुत ही सीमित भूमिका है और वह भी, सिर्फ मतदान के दिन पर। चुनाव के लिये उम्मीदवारों का चयन करने में लोगों की कोई भागीदारी नहीं होती, क्योंकि यह फैसला पार्टियों के आला कमान द्वारा किया जाता है। मतदान करने के बाद लोगों की कोई भूमिका नहीं होती यह निर्धारित करने में, कि कौन सरकार बनायेगी या वह सरकार क्या फैसले लेगी।

वर्तमान लोकतंत्र की प्रणाली के चलते, सिर्फ वही पार्टियां सत्ता में आ सकती हैं जिन्हें पूंजीपति वर्ग का समर्थन प्राप्त है। अलग-अलग पूंजीपति घराने अलग-अलग पार्टियों को समर्थन देते हैं क्योंकि वे राज्य तंत्र पर नियंत्रण के जरिये अपने लिये सबसे अच्छा सौदा करना चाहते हैं। ये पार्टियां मेहनतकशों को बांटने के लिये तरह-तरह के तरीके इस्तेमाल करती हैं, जैसे कि जाति, धर्म और प्रांत के अधार पर, या किसी एक समुदाय को दूसरे की अपेक्षा थोड़ा कुछ लाभ देकर इत्यादि, ताकि बहुमत हासिल हो सके। इस तरह मजदूरों और किसानों की एकता तोड़ी जाती है। सभी पूंजीवादी पार्टियां लोगों के नाम पर शासन करती हैं और आपस में होड़ लगाती हैं कि कौन खुद को सबसे उत्पीड़ित तबके का प्रतिनिधि दर्शा सके। कोई मुसलमानों के नाम से शासन करती है तो कोई दलितों के नाम पर या फिर कोई और किसानों के नाम पर! वास्तव में वे सभी पूंजीपतियों की सेवा करने के लिये शासन करती हैं। इस बार भी, जिन पांच राज्यों में चुनाव हुआ, वहां ऐसा ही हुआ। कहा जाता है कि यह एक ''सजीव लोकतंत्र'' है क्योंकि अगर किसी पार्टी ने अपने वायदे पूरे नहीं किये तो अगले चुनाव में उसे हटाया जा सकता है। पर इस सवाल के जवाब पर पर्दा डाला जाता है कि यह किस वर्ग के लिये लोकतंत्र है?

वर्तमान व्यवस्था पूंजीपति वर्ग के लिये लोकतंत्र है और मजदूरों व किसानों पर हुक्मशाही है। उत्पादन के मुख्य साधनों के मालिकों के लिये लोकतंत्र है। चुनावों के जरिये पूंजीपति फैसला करते हैं कि किसी पार्टी या गठबंधन को सत्ता में रखना है या उसे हटाकर किसी और को बिठाना है। उन पार्टियों को बढ़ावा दिया जाता है जो पूंजीपतियों के कार्यक्रम को सबसे ज्यादा कुशलता के साथ लागू करती हैं और लोगों में यह भ्रम फैलाती हैं कि इससे उनका हित होगा।

हम कम्युनिस्टों को मजदूरों और किसानों को संगठित करना होगा और उन्हें पूंजीवादी लोकतंत्र की जगह पर श्रमजीवी लोकतंत्र स्थापित करने की जरूरत के बारे में जागरुक करना होगा। श्रमजीवी लोकतंत्र क्या है? यह मजदूरों और किसानों के लिये लोकतंत्र तथा शोषकों पर उनकी हुक्मशाही है।

पूंजीपतियों ने यह समझा है कि उनके शासन के पनपने के लिये उन्हें सत्ता पक्ष और विपक्ष की पार्टियों की जरूरत है। उन्हें संसद और विधान सभाओं की जरूरत है, जहां खूब बातें की जाती हैं परन्तु राज्य का असली काम-काज बंद दरवाजों के पीछे होता है और सांसद व विधायक खुलेआम बिकते हैं। पूंजीपतियों ने यह सुनिश्चित किया है कि कानून प्रस्तावित करना सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी का विशेष अधिकार है। मजदूर और किसान सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के पक्ष में, या भूमि अधिग्रहण कानून व सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम जैसे कानूनों को रद्द करने के लिये संसद में वोट की भी मांग नहीं कर सकते।

श्रमजीवी लोकतंत्र की राजनीतिक प्रक्रिया यह सुनिश्चित करेगी कि मजदूर और किसान अपने काम के स्थानों या रिहायशी इलाकों में संगठित होकर, अपने बीच में से उम्मीदवारों का चयन और चुनाव कर सकेंगे। जो चुने जाते हैं, उन्हें मेहनतकशों के प्रति जवाबदेही होना होगा। अगर वे अपना काम सही तरह नहीं करते तो लोगों के पास उन्हें वापस बुलाने का अधिकार होगा। मेहनतकश जनसमुदाय के पास कानून प्रस्तावित करने का अधिकार होगा, जिस पर विधायिकी को विचार विमर्श करना व मतदान करना होगा।

श्रमजीवी लोकतंत्र में निर्वाचित विधायिकी का सत्ता पक्ष और विपक्ष में बंटवारा नहीं होगा। पूरी विधायिकी मतदाताओं के प्रति जवाबदेह होगी। मंत्रियों को विधायिकी के फैसलों का पालन करना पड़ेगा, वे अपनी मन-मर्जी से काम नहीं कर सकते। न्यायधीशों को नामांकित नहीं, लोगों द्वारा चुना जायेगा।

श्रमजीवी लोकतंत्र उन हालतों को पैदा करेगा जिनमें लोग खुद शासन कर सकेंगे, समाज का कार्यक्रम तथा अपना भविष्य खुद तय कर पायेंगे। यह वर्तमान पूंजीवादी लोकतंत्र से बिल्कुल उल्टा होगा, जहां पूंजीपति सिर्फ अपना हित पूरा करते हैं और इसे करने के लिये, चुनावों के जरिये अपनी एक या दूसरी पार्टी या पार्टियों को सत्ता पर बिठाते हैं। इस परजीवी राजनीतिक व्यवस्था और इसकी पार्टियों का दिन-ब-दिन ज्यादा से ज्यादा पर्दाफाश हो रहा है और हमसे यह आह्वान दे रहा है कि इस लोकतंत्र को हटाकर, लोकतंत्र को पुनर्गठित किया जाये।

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