डा. बिनायक सेन को दोषी ठहराये जाने के खिलाफ : राजकीय आतंकवाद के खिलाफ़ व ज़मीर के अधिकार की हिफाज़त में संघर्ष को आगे बढ़ाएं

24 दिसम्बर, 2010 को रायपुर सेशंस कोर्ट ने डा. बिनायक सेन को ”देशद्रोह” और ”हिन्दोस्तानी राज्य के खिलाफ़ जंग छेड़ने” के लिए दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी। आई.पी.सी., छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सेफ्टी एक्ट और यू.ए.पी.ए.

24 दिसम्बर, 2010 को रायपुर सेशंस कोर्ट ने डा. बिनायक सेन को ”देशद्रोह” और ”हिन्दोस्तानी राज्य के खिलाफ़ जंग छेड़ने” के लिए दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा दी। आई.पी.सी., छत्तीसगढ़ स्पेशल पब्लिक सेफ्टी एक्ट और यू.ए.पी.ए. के विभिन्न दफाओं के तहत उन पर आरोप लगाये गये हैं। मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं, बुध्दिजीवियों, मजदूरों और सभी आजादी पसंद लोगों ने इसकी कड़ी निंदा की है और दिल्ली, रायपुर तथा देश के अन्य भागों में उन्होंने सैकड़ों की संख्या में आगे आकर इसका विरोध किया है, इंसाफ की मांग की है तथा इन फासीवादी कानूनों को रद्द करने की मांग की है।
विदित है कि डा. बिनायक सेन एक जाने-माने डाक्टर तथा मानव अधिकार कार्यकर्ता हैं, जो छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के बीच काम कर रहे थे। 14 मई, 2007 को उन्हें ”जेल में बंद किसी माओवादी को चिट्ठी पहुंचाने” के आधार पर गिरफ्तार किया गया था। दो साल तक हिन्दोस्तान और दुनिया भर में लगातार जन-विरोध के बाद और केन्द्र सरकार व राज्य सरकार को अनगिनत याचिकाएं पेश करने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 25 मई, 2009 को डा. बिनायक सेन को जमानत दी। अब तक राज्य डा. बिनायक सेन पर लगाये गये किसी भी आरोप को साबित नहीं कर पाया है। यह स्पष्ट है कि डा. बिनायक सेन को उनके विचारों के लिये निशाना बनाया जा रहा है – इसलिए कि उन्होंने राज्य द्वारा प्रेरित सलवा-जुडूम की अपराधी हरकतों का लगातार विरोध किया है और बड़ी इजारेदार खनन कंपनियों की हवस पूरी करने के इरादे से आदिवासियों की रोजी-रोटी पर हमला करने की छत्तीसगढ़ सरकार की भूमिका का पर्दाफाश किया है।
डा. बिनायक सेन को दोषी ठहराया जाना, यह फिर एक बार दिखाता है कि हिन्दोस्तानी राज्य कैसे हमेशा सबसे बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के हित में तथा जनसमुदाय के हितों के खिलाफ़ काम करता है। यह एक और उदाहरण है इस बात का कि हिन्दोस्तानी राज्य किस तरह इंसाफ की आवाज़ बुलंद करने वालों को फासीवादी कानूनों के जरिये दबाता है। यह दिखाता है कि हिन्दोस्तानी राज्य ज़मीर के अधिकार की इस हद तक उपेक्षा करता है, कि अगर किसी व्यक्ति के विचार शासकों से अलग हों या वह वर्तमान व्यवस्था में गरीबों के बेरहम शोषण का विरोध करता हो, तो राज्य ऐसे लोगों को तड़पाने और कत्ल भी करने से पीछे नहीं हटता है। पूरे देश में दसों-हजारों राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा अपने अधिकारों के लिये संघर्ष कर रहे आम लोगों को उन तमाम फासीवादी कानूनों के तहत गिरफ्तार किया जाता है और उत्पीड़ित किया जाता है, जिनके सहारे हिन्दोस्तानी राज्य अपने राजकीय आतंकवाद को वैधता का जामा पहनाता है। इसके अलावा, दसों-हजारों लोगों को ”आतंकवाद”, ”उग्रवाद”, ”राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता को खतरा”, आदि के नाम पर, राज्य द्वारा छेड़े गये दमन से मार डाला जाता है।
सुप्रीम कोर्ट अभी भी इन फासीवादी कानूनों की हिमायत करता रहता है – यह इस सच्चाई को सामने लाता है कि हमारे देश की न्याय व्यवस्था राजकीय आतंक और दमन का साधन है, इंसाफ और अधिकारों के लिये लोगों के संघर्षों को कुचलने का
साधन है। इससे जाहिर होता है कि राजकीय आतंकवाद, शोषण और दमन की व्यवस्था को भंग करने की अत्यधिक जरूरत है, ताकि मेहनतकश लोग मानव अधिकार, इंसाफ और सम्मान सहित जीवन जी सकें।

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