महिलाओं व लड़कियों की सुरक्षा व इज्ज़त को जो व्यवस्था सुनिश्चित नहीं कर सकती, उसे अस्तित्व में रहने का कोई औचित्य नहीं है!

हाल ही में, दिल्ली व गुड़गांव सहित आसपास के इलाकों में, महिलाओं व लड़कियों के अपहरण व हिंसा की घटनायें हुई हैं। अपने काम के स्थानों और स्कूलों से लौटती महिलाओं व लड़कियों के घात में बैठ कर उनका बलात्कार करने, उन्हें यातनायें देने और उनकी हत्याओं के हादसे हो रहे हैं। हिन्दोस्तान की सबसे ''आधुनिक'' प्रदर्शनीय जगह, जो चमचमाती गगनचुंबी इमारतों और बाजारों से भरी हुयी है, यहां महिलाओं

हाल ही में, दिल्ली व गुड़गांव सहित आसपास के इलाकों में, महिलाओं व लड़कियों के अपहरण व हिंसा की घटनायें हुई हैं। अपने काम के स्थानों और स्कूलों से लौटती महिलाओं व लड़कियों के घात में बैठ कर उनका बलात्कार करने, उन्हें यातनायें देने और उनकी हत्याओं के हादसे हो रहे हैं। हिन्दोस्तान की सबसे ''आधुनिक'' प्रदर्शनीय जगह, जो चमचमाती गगनचुंबी इमारतों और बाजारों से भरी हुयी है, यहां महिलाओं के खिलाफ़ सबसे मध्यकालीन पाश्विकता जारी है। शहर के कारखानों, दफ्तरों, दुकानों व सेवाओं को चलाने के लिये महिलाओं का श्रम अनिवार्य है,परन्तु बदले में, उनके घर से निकलने के बाद उनकी बुनियादी सुरक्षा की कोई सुनिश्चिति नहीं है।

महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों के लिये कौन जिम्मेदार है? गुड़गांव के पुलिस आयुक्त के अनुसार, खुद महिलाएं ही जिम्मेदार हैं। एक सार्वजनिक बयान में उसने कहा कि जो महिलायें 8 बजे के बाद बाहर रहती हैं वे मुसीबत को न्यौता देती हैं। यानि कि हिंसा करने वालों को बक्श कर खुद पीड़ितों पर दोष लगाया जा रहा है। यह सबसे पिछड़ी सोच का सूचक है कि महिलाओं को घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का कोई अधिकार नहीं है, और अगर वे बाहर निकलती हैं तो जो कुछ होता है उसके लिये वे स्वयं जिम्मेदार हैं। इसी पुलिस अफसर ने कहा कि महिलाओं को 8 बजे रात के बाद काम पर रखने वाले मालिक महिलाओं के वापिस घर पहुंचने तक जिम्मेदार होंगे। दूसरे शब्दों में, सड़कों को अपराधियों से मुक्त रखना ताकि महिलायें सड़कों पर निडर घूम सकें, यह सुनिश्चित करना पुलिस व अधिकारियों का काम नहीं है।

महिलाओं के खिलाफ लगातार बढ़ते अपराधों की वजह यही प्रवृत्ति है जो अपराधी की जगह खुद पीड़ित को जिम्मेदार ठहराती है और जो महिलाओं की सुरक्षा के लिये राज्य के अधिकारियों को जिम्मेदारी से मुक्त करती है। ऐसी सोच में गुड़गांव का पुलिस आयुक्त अकेला नहीं है। दिल्ली की मुख्यमंत्री, जो खुद एक महिला है, उसने भी कुछ वर्ष पहले ऐसी सोच व्यक्त की थी जब अपनी गाड़ी से घर लौटती एक महिला पत्रकार की हत्या कर दी गयी थी। अक्सर यौन हमलों व ऐसे दूसरे अपराधों के पीड़ितों को पुलिस थाने से ले कर कचहरी तक सताया जाता है। कभी खुले तौर पर और कभी छुपे तौर से उनकी नैतिकता या उनके कपड़े पहनने के ढ़ंग पर कीचड़ उछाला जाता है – इस सब से कुछ ऐसा व्यक्त किया जाता है मानो परिस्थिति के लिये वे स्वयं ही जिम्मेदार हैं। इसका मकसद है कि असली जिम्मेदार लोगों से ध्यान हटाया जाये, जिनमें अपराधी और अधिकारी शामिल हैं और जो अक्सर मिलीभगत में होते हैं।

यह सभी को मालूम है कि महिलाओं के खिलाफ़ अपराध करने वाले ऐसे व्यक्ति होते हैं जो सत्ता में होते हैं या सत्ता में बैठे लोगों के करीब होते हैं। फिर यह आश्चर्य की बात नहीं है कि महिलाओं को न्याय नहीं मिलता है। सबसे बड़े अफसरों, मंत्रियों, विधायकों और उनके सगे-संबंधी ही महिलाओं के खिलाफ़ बुरे से बुरे अपराध करते हैं और बच जाते हैं। और उस असाधारण से असाधारण केस में जब कोई पकड़ा जाता है और कचहरी में उसका इलजाम साबित हो जाता है, तब भी कानून की किताब के सभी नियमों को तोड़-मरोड़ कर यह सुनिश्चित किया जाता है कि उन्हें सबसे कम सजा मिले। जेल के अंदर से भी वे यह सुनिश्चित करते हैं कि पीड़ितों और उनके परिवारों की ज़िन्दगी खौफ और उत्पीड़न भरी रहे।

यह भी मानना होगा कि बलात्कार व महिलाओं के खिलाफ़ अपराधों में से सबसे भयंकर घटनाएं अधिकांश राजनीतिक स्वभाव के होते हैं। महिलाओं का हिरासत में बलात्कार या सामूहिक रूप से बलात्कार तब होता है जब, एक हथियार बतौर, पुलिस या सशस्त्र बलों को महिलाओं के खिलाफ़ उत्पीड़न की खुली छूट दी जाती है ताकि पूरी आबादी पर खौफ पैदा किया जा सके। कश्मीर और पूर्वोत्तर के बहुत से हिस्सों, आदिवासी व अन्य इलाकों में, जिन्हें ''नक्सल ग्रस्त'' कहा जाता है और जहां राज्य के विरोध में जन विरोध की स्थिति है, यहां ऐसी अपराधी घटनायें आम बात हैं। ऐसी स्थितियों में, अपराधियों को खुल्लम-खुल्ला बचाने के लिये कानून का इस्तेमाल किया जाता है। पीड़ित लोगों को सुरक्षा मिलने या न्याय मिलने की आशा की एक किरण भी नहीं होती।

हर एक महिला व लड़की का जन्मसिध्द अधिकार है कि वह समाज में सुरक्षित व इज्ज़त से जी सके। ऐसी स्थिति एक सभ्य समाज की पहचान है। जिस देश में महिलायें व लड़कियां अपने दैनिक जीवन में बिना डर और उत्पीड़न के साथ नहीं घूम-फिर सकती हैं, वैसा देश आधुनिक व लोकतांत्रिक नहीं कहलाया जा सकता है। यह अधिकार राज्य द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिये। जो भी व्यवस्था यह सुनिश्चित नहीं कर सकती उसे अस्तित्व में रहने का कोई अधिकार नहीं है।

हमें याद रखना चाहिये कि अपने देश की महिलाओं ने बार-बार एक सुरक्षित व इज्ज़त का जीवन जीने के अधिकार की मांग की है। 80 व 90 के दशकों में जब महिलाओं पर हिंसा के खिलाफ़ संघर्ष चरम पर था, तब राज्य को, महिलाओं को शाम के बाद पुलिस स्टेशन पर बुलावे से छुटकारा जैसे कुछ कदम लेने पड़े थे। ये कदम पर्याप्त नहीं थे और आज ऐसे कदमों का भी खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन हो रहा है।

आज की परिस्थिति महिलाओं को अपने अधिकारों की रक्षा में संगठित होने की जरूरत पर ध्यानाकर्षण करती है ताकि वे अपने मौलिक अधिकारों की सुनिश्चिति के लिये लड़ सकें। महिलाओं को एक ऐसे समाज के लिये लड़ने की जरूरत है जो उनके अधिकार और इज्ज़त के जीवन की सुनिश्चिति के लिये वचनबध्द होगा।

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