निजीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम को हरायें!
मजदूरों और किसानों की सत्ता स्थापित करने के उद्देश्य से संघर्ष करें!
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का आह्वान, 23 फरवरी, 2012
मजदूर साथियो!
निजीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम को हरायें!
मजदूरों और किसानों की सत्ता स्थापित करने के उद्देश्य से संघर्ष करें!
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का आह्वान, 23 फरवरी, 2012
मजदूर साथियो!
अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्रों – बैंकिंग और बीमा, मशीनरी और यंत्रों का विनिर्माण, रेलवे, बंदरगाह, सड़क परिवहन, स्वास्थ्य, शिक्षा, आदि – के मजदूर यूनियनों के बहुत से संघों ने 28 फरवरी को सर्व हिंद आम हड़ताल आयोजित करने का फैसला घोषित किया है। यह हड़ताल मजदूर वर्ग की सांझी तत्कालीन मांगों को आगे रखने के लिये की जा रही है। इन मांगों में शामिल हैं उच्चतर न्यूनतम वेतन, पेंशन की रक्षा और विस्तार, पूंजीपतियों के हित में प्रस्तावित श्रम कानून सुधार को खारिज़ करना, निजीकरण को रोकना, खाद्य पदार्थों की कीमतों को घटाने के कदम, सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की मांग, इत्यादि।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी इस फैसले का स्वागत करती है और मजदूर वर्ग के सभी कार्यकर्ताओं को आह्वान देती है कि इस सर्व हिंद आम हड़ताल को सफल बनायें!
यह हड़ताल ऐसे समय पर की जा रही है जब सारी दुनिया में पूंजीवाद का संकट गहरा हो रहा है। हमारे देश के पूंजीपति कम पूंजी निवेश कर रहे हैं और अपनी पूंजी से ज्यादा सट्टेबाजी कर रहे हैं। खाद्य की बढ़ती कीमतों और अतिरिक्त कर वसूली के ज़रिये वे वेतनभोगी परिवारों को और ज्यादा लूट रहे हैं। वे यूरोप, अमरीका, अफ्रीका, एशिया और ऑस्ट्रेलिया में कंपनियां खरीदने के लिये हमसे ज्यादा से ज्यादा बेशी मूल्य निचोड़ कर उसे निर्यात करते हैं ताकि वे दुनिया में एक बड़ी पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकत बन सकते हैं।
निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये हिन्दोस्तानी पूंजी के भूमंडलीकरण के बीते 20 वर्षों के दौरान मजदूरों की रोजी-रोटी और अधिकारों पर भारी हमले किये गये हैं। अब वैश्विक आर्थिक संकट का सामना करने के बहाने, बड़े पूंजीपति और उनकी केन्द्रीय सरकार हमारे ऊपर फिर से चौतरफा हमला कर रहे हैं।
मजदूर साथियो!
14 फरवरी को इंडियन लेबर कांफरेंस (हिन्दोस्तानी श्रम गोष्ठी) को संबोधित करते हुये प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने यह दावा किया कि मौजूदे नीतियां ''इस समय रोज़गार शुदा'' लोगों के हितों की ''नाजायज़'' रक्षा करती हैं और नई नौकरियों को रोकती हैं। उन्होंने दावा किया कि कानून इतने लचीले नहीं हैं कि औद्योगिक इकाइयां अधिक उत्पादन के समय ज्यादा मजदूरों को काम पर लगा सकें और जब बाज़ार में मांग घट जाती है तब अतिरिक्त मजदूरों को काम से निकाल सकें। उन्होंने उन राज्य सरकारों की सराहना की, जिन्होंने मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के स्तर को घटाने के लिये अपने कानूनों में सुधार किये हैं। उन्होंने यह तर्क दिया कि केन्द्रीय कानूनों में भी ऐसे सुधार ज़रूरी हैं।
तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि हमारे देश में अधिक पूंजीवादी संवर्धन की अवधि, 2002-08 के दौरान, निर्यात उन्मुख उद्योगों और सेवाओं में बहुत से नये मजदूरों को लिये गये। और फिर जब दुनिया में मांग घट गयी, तब उन्होंने इनमें से बहुत सारे मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया। सिर्फ तीन महीनों, अक्तूबर-दिसंबर 2008, में ही संगठित औद्योगिक क्षेत्र में लगभग 5लाख नौकरियां इस तरह बरबाद हुयीं। इससे साफ हो जाता है कि श्रम कानून पूंजीपतियों को मजदूरों को काम पर लगाने और काम से निकालने में कितना लचीलापन देते हैं।
हमारे देश में वास्तविकता यह है कि हमारी नौजवान मेहनतकश आबादी को काम के अधिकार और सामाजिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है। 2002 से जिन क्षेत्रों में सबसे तेज़ संवर्धन हुआ है, जैसे कि मोटर गाड़ी और पुर्जे, इलेक्ट्रॉनिक सामान, मोबाइल फोन सेवायें, आई.टी. और आई.टी. युक्त सेवायें, समाचार मीडिया और मनोरंजन, इनमें मजदूरों को सबसे मूल अधिकार भी नहीं मिलते हैं। स्वाभाविकत: इन क्षेत्रों में मजदूरों को लंबे घंटों तक काम करना पड़ता है और उन्हें कभी भी काम से निकाला जा सकता है। उनकी नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं होती। उनमें से बहुत से मजदूरों के अधिकारों की कोई कानूनी सुरक्षा नहीं है, उन्हें यूनियन बनाने का मूल अधिकार भी नहीं है। मिसाल के तौर पर, देश की सबसे बड़ी मोटर गाड़ी कंपनियों में से एक, मारुति के मजदूरों को अपनी पसंद का यूनियन बनाने को कोशिश करने के लिये, उत्पीड़न, पुलिस दमन और बर्खास्तगी का भी सामना करना पड़ा है।
''मजदूरों के अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले ट्रेड यूनियन पूंजीनिवेश के वातावरण के लिये बुरे हैं''।यह मंत्र जपते हुये पूंजीपति वर्ग कई ऐसे कदम उठा रहा है ताकि मजदूर कानूनी तौर पर क्या अपना अधिकार मान सकता है, उसका मापदंड घटाया जाये। ठेके की मजदूरी अब आम बात बन गई है। यह सिर्फ निजी कंपनियों में ही नहीं; राजकीय क्षेत्र में काम करने वाले लगभग आधे मजदूर ठेके पर हैं।
विशेष आर्थिक क्षेत्र मजदूरों के अधिकारों का खुलेआम हनन करने का एक तरीका है। मजदूरों के अधिकारों का हनन करने में अधिक से अधिक लचीलापन दिलाकर, राज्य सरकारों ने बड़े-बड़े पूंजीनिवेशकों को आकर्षित करने में, आपस में होड़ लगा रखी है।
जब श्रम कानूनों का इतना खुलेआम हनन हो रहा है, तो पूंजीपति वर्ग केन्द्रीय श्रम कानूनों को क्यों सुधारना चाहता है?
केन्द्रीय श्रम कानून उन मजदूरों पर लागू होते हैं जो बड़े उत्पादन में काम करते हैं, जैसे कि राजकीय भारी उद्योग, बंदरगाह, रेलवे, डाक व बैंकिंग सेवा। ये मजदूर यूनियनों में संगठित हैं, मजदूरों के अधिकारों की मान्यता के सबसे ऊंचे मापदंड हासिल कर चुके हैं और अपने अधिकारों की रक्षा करने में संगठित और अनुभवी हैं। केन्द्रीय श्रम कानूनों को सुधारने के पूंजीपतियों के प्रस्तावों का इरादा है मजदूर वर्ग के इसी सबसे संगठित और अनुभवी तबके पर हमला करना। इन प्रस्तावों का इरादा है संपूर्ण मजदूर वर्ग की स्थिति को कमज़ोर करना। जब तक ऐसे केन्द्रीय कानून हैं जो कुछ मजदूरों के लिये लाभों के उच्चतर स्तर को परिभाषित करते हैं, तब तक दूसरे मजदूरों के लिये अपने संघर्ष में कुछ मापदंड होंगे, जिनके अनुसार वे अपने अधिकारों की मांग कर सकते हैं और अपनी हालतों को सुधारने की कोशिश कर सकते हैं। बड़े पूंजीपतियों और केन्द्रीय राज्य का इरादा है इस मापदंड को नीचे लाना ताकि श्रम अधिकारों को नकारा जा सके और सभी मजदूरों के शोषण को और तेज़ किया जा सके।
जब कि केन्द्र सरकार केन्द्रीय श्रम कानूनों को और लचीला करने की बात कर रही है, तो वह ''असंगठित क्षेत्र'' के मजदूरों के लिये एक तथाकथित सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 के तहत कुछ अलग लाभों को देने का वादा कर रही है। यह बताया जा रहा है कि इस नये अधिनियम से उन मजदूरों की जरूरतों को पूरा किया जायेगा जिन्हें भूतपूर्व श्रम कानूनों से कोई लाभ नहीं मिल रहा था। परन्तु इस प्रकार के मजदूरों के सबसे बड़े तबकों को इस अधिनियम से बाहर रखा गया है। कृषि मजदूरों को इस अधिनियम के तहत नहीं शामिल किया गया है, न ही तथाकथित संगठित क्षेत्र के ठेके मजदूरों को। किसे कितना लाभ मिलेगा, यह भी नहीं स्पष्ट किया गया है, बल्कि यह केन्द्र सरकार के भावी फैसलों पर छोड़ दिया गया है। यह कहा जा रहा है कि इस अधिनियम के तहत मजदूरों को सारा भुगतान केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा तथा पूंजीवादी मालिकों और खुद मजदूरों द्वारा किया जायेगा; परन्तु अधिनियम में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इस खर्चे का कितना हिस्सा कौन उठायेगा।
कुछ गिने-चुने ''असंगठित क्षेत्र''के मजदूरों के लिये अनिर्धारित लाभों समेत अलग कानून बनाने का मकसद है हमारे वर्ग को बांटना, मजदूर बतौर हमारी पहचान को नष्ट करना और उन सभी अधिकारों को पांव तले रौंद देना, जो मजदूर बतौर हमारे अधिकार बनते हैं।
मजदूर साथियो!
हम मजदूरों को बहादुरी के साथ, काम करने और सामाजिक सुरक्षा पाने तथा मजदूर बतौर दूसरे मूल अधिकारों की अपनी परिभाषा पेश करनी होगी। हमें यह मांग करनी होगी कि इन अधिकारों को मूल कानून में मान्यता दी जाये, सर्वव्यापी व अलंघनीय माना जाये और इनका हनन करने वालों को सख्त सजा दी जाये।यह मजदूर वर्ग के स्वतंत्र राजनीतिक कार्यक्रम को बनाने में पहला कदम होगा।
काम करने की उम्र का प्रत्येक व्यक्ति जो काम करना चाहता है, उसे सामाजिक श्रम की प्रक्रिया में हिस्सा लेने का अधिकार है। अगर ऐसे व्यक्ति को उत्पादक और लाभदायक रोज़गार नहीं मिलता, तो यह सिर्फ उस व्यक्ति की अपनी समस्या नहीं मानी जा सकती। काम के अधिकार तथा सामाजिक सुरक्षा की गारंटी देना, बेरोज़गारों को पर्याप्त मुआवज़ा और सेवानिवृत्ति की उम्र के बाद पर्याप्त समर्थन देना राज्य का दायित्व है।
हम, जो सामाजिक धन के उत्पादक हैं, हमारे लिये यह मांग करना जायज़ है कि हमारी सुरक्षा समाज का दायित्व है। यह राज्य का फर्ज है। पूंजीपति मालिकों को अपने कर्मचारियों की सामाजिक सुरक्षा के लाभों की कीमत उठानी चाहिये, और राज्य का दायित्व है यह सुनिश्चित करना कि सामाजिक सुरक्षा किसी का अपवाद किये बिना, सर्वव्यापी तौर पर उपलब्ध हो।
वेतनभोगी मजदूर कोई गुलाम नहीं है। वह पूरे समय के लिये किसी मालिक की सम्पत्ति नहीं है। वह प्रतिदिन नियत घंटों के लिये, हफ्ते में 5 या 6 दिन के लिये, अपना श्रम बेचता है; बाकि समय उसका अपना है, अपने परिवार के साथ बिताने के लिये। अत: काम के घंटों पर कानूनी तौर पर लागू की गई सीमा सभी वेतनभोगी मजदूरों के अधिकार है।
प्रतिदिन या प्रतिमाह काम का वेतन कम से कम उतना होना चाहिये जो मजदूर और उस पर निर्भर परिजनों की देखभाल के लिये आवश्यक है। अत: निर्धारित न्यूनतम वेतन, जिसे समय-समय पर जिन्दगी चलाने के खर्चों के बढ़ने के साथ-साथ और न्यूनतम मानव जीवन स्तर की उन्नति के अनुसार बढ़ाया जाये, यह भी सभी मजदूरों का अधिकार है। प्रत्येक रोजगार शुदा मजदूर को दिनभर के काम के बीच में पर्याप्त अवकाश, बीमारी के लिये छुट्टी, वार्षिक छुट्टी, स्वास्थ्य सुविधाओं और महंगाई के साथ-साथ मुआवजे, आदि का अधिकार है।
महिला मजदूरों को समान काम के लिये, पुरुषों के बराबर वेतन पाने का अधिकार है। पर्याप्त प्रसूती की छुट्टी काम के स्थान पर शिशुपालन सुविधा और देर रात काम करने पर सुरक्षा भी उनका अधिकार है।
सभी रोजगार शुदा मजदूरों को अपना यूनियन और संगठन बनाने तथा अपने मालिक के साथ सामूहिक सौदा करने का अधिकार है। यह सुनिश्चित करने के लिये कि मालिक अपना दायित्व निभाये, मजदूरों को हड़ताल करने का अधिकार भी है।
उपरोक्त अधिकार सर्वव्यापी हैं। सर्वव्यापी का मतलब है कि ये बिना किसी अपवाद लागू होते हैं। रोजगार और सामाजिक सुरक्षा प्रत्येक काम करने की उम्र वाले व्यक्ति के अधिकार हैं। न्यूनतम वेतन, प्रतिदिन काम के घंटों की सीमा, यूनियन बनाना, हड़ताल करना, ये सभी रोजगार शुदा मजदूर के अधिकार हैं। वेतन समेत प्रसूती का अवकाश जैसे अधिकार प्रत्येक महिला मजदूर को मिलने चाहियें।
अपने मूल अधिकारों के अलंघनीय और सर्वव्यापी होने की मन्यता प्राप्त करने के लिये हम मजदूरों को संघर्ष करना होगा। हमें एक ऐसे सर्वव्यापी केन्द्रीय कानून की मांग करनी होगी, जो समाज के हर सदस्य के अधिकारों और सामाजिक दौलत के उत्पादक बतौर मजदूरों के अधिकारों की आधुनिक परिभाषा की हिफ़ाज़त करता है। इन अधिकारों का हनन करने वालों को कड़ी सजा दिलाने के लिये सक्षम तंत्रों की भी हमें मांग करनी चाहिये।
मजदूर साथियो!
जब भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजरती है, तो कौड़ियों के मोल पर राजकीय संस्थानों को खरीदने की इजारेदार पूंजीपतियों की भूख बढ़ने लगती है। इस समय राजकीय कंपनियों के निजीकरण का खतरा फिर से बढ़ रहा है। एअर इंडिया और कई दूसरी राजकीय कंपनियों के मजदूर इस खतरे का सामना कर रहे हैं। विभिन्न क्षेत्रों – स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, बिजली, पेयजल सप्लाई तथा कई और सुविधाओं, जिन्हें मुहैय्या कराना लोग राज्य का दायित्व मानते हैं, उनमें निजीकरण का खतरा बढ़ रहा है।
निजीकरण अलग-अलग तरीकों से किया जाता है। सार्वजनिक कंपनियों की सीधी रणनैतिक बिक्री या विनिवेश के नाम से, समय-समय पर छोटे-छोटे भागों में उन्हें बेचना, ये दोनों ही निजीकरण के अलग-अलग तरीके हैं। निजी कंपनियों को उन क्षेत्रों में विस्तार करने की इज़ाजत देना, जो अब तक राज्य के हाथ में थे, यह भी निजीकरण का एक तरीका है। हाल के दिनों में निजीकरण ने एक और रूप लिया है, जहां सार्वजनिक-निजी सांझेदारी के नाम से, निजी पूंजीनिवेशकों के मुनाफे सुनिश्चित किये जाते हैं और नुकसान सरकारी बजट पर लाद दिये जाते हैं।
चाहे यह किसी भी तरीके से किया जाये, निजीकरण मजदूर वर्ग की रोजी-रोटी की सुरक्षा और दूसरे मूल अधिकारों पर हमला है। यह ''इजारेदारों के अधिकार'' को प्राथमिकता देने पर आधारित है, यानि बड़ी पूंजीवादी कंपनियों के कहीं भी अधिकतम मुनाफों की तलाश में जाने के अवैध अधिकार को प्राथमिकता देने पर आधारित है। यह आवश्यक सार्वजनिक सेवायें मुहैय्या कराने के दायित्व से राज्य का पीछे हट जाना है।
निजीकरण का उद्देश्य है आर्थिक और सामाजिक कार्यवाहियों के हर क्षेत्र को इजारेदार पूंजपतियों के अधिकतम मुनाफों के स्रोत में बदल देना। यह दबाव उन कंपनियों पर भी डाला जा रहा है, जिनकी मालिकी सरकार के हाथ में है, जैसे कि बैंकों में।
बैंकिंग क्षेत्र को सुधारने के बड़े पूंजीपतियों के कार्यक्रम का मकसद है निजी बैंकों का दायरा विस्तृत करना और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर निजी बैंकों के रास्ते पर चलने और ''वैश्विक स्पर्धाकारिता''हासिल करने का दबाव डालना। बैंक कर्मियों के यूनियनों ने यह सही सवाल उठाया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को क्यों हमेशा निजी बैंकों के साथ स्पर्धा करके, अधिकतम मुनाफे पाने की कोशिश करनी चाहिये। उन्होंने हर गांव में और देश के दूर-दूर के इलाकों में बैंकिंग सुविधायें विस्तृत करना जैसे सामाजिक लक्ष्यों को पूरा करने की ज़रूरत पर जोर दिया है।
समाज की समस्याओं को हल करना तो दूर, निजीकरण से ये समस्यायें और बढ़ जाती हैं तथा भविष्य में और गहरे संकटों की हालतें पैदा होती हैं। यह न सिर्फ मजदूर-विरोधी हमला है बल्कि पूरे समाज के आम हितों पर हमला है।
हमारे देश में भौतिक सामग्रियों और सेवाओं का उत्पादन बहुत ही सामाजिकृत है, जब कि उत्पादों का बंटवारा निजी संपत्ति के अधिकारों पर आधारित है, यानि बड़ी इजारेदार कंपनियां उत्पादों का अधिकतम हिस्सा हड़प लेती हैं। अधिकतम मुनाफे कमाने की इजारेदार पूंजीपतियों की लालच ही अहम पूंजीनिवेश के फैसलों की प्रेरक शक्ति है। ज्यादा से ज्यादा सामाजिकृत उत्पादन और ज्यादा से ज्यादा संकेंद्रित निजी लूट के बीच मूल अन्तर्विरोध ही बार-बार होने वाले संकटों की बुनियादी वजह है। निजी इजारेदार कंपनियों के हाथों में अधिक से अधिक संसाधनों को सौंपने का मतलब है समस्या को और गंभीर बनाना।
पूंजीपति वर्ग बार-बार निजीकरण के बारे में झूठे विचार फैलाता रहता है, ताकि मजदूर यह मानने लग जाये कि निजीकरण अनिवार्य है। एक ऐसी झूठ यह है कि ''नुकसान पर चल रही'' सार्वजनिक क्षेत्र कंपनियों के लिये निजीकरण ही सबसे अच्छा विकल्प है। 2000 में माडर्न फूड के निजीकरण को जायज़ ठहराने के लिये यही तर्क दिया गया था। भूतपूर्व इंडियन एयरलाइंस और एयर इंडिया के विलयन से बनी राजकीय विमान कंपनी, एयर इंडिया के निजीकरण को जायज़ ठहराने के लिये यही तर्क अब दिया जा रहा है।
मुनाफेदार कंपनी को ''नुकसान पर चलने वाली''कंपनी बताकर, इजारेदार पूंजीपतियों को उसे बेच देना जायज़ ठहराने की इस धोखेबाज चाल के बारे में सभी राजकीय उद्यमों के मजदूरों को सतर्क रहना चाहिये।
प्राप्त सबूतों से यह देखने में आता है कि इजारेदार पूंजीपतियों और केन्द्र सरकार ने एयर इंडिया को एक नुकसान पर चलने वाली कंपनी बनाने की साजिश की। सबसे मुनाफेदार उड़ान मार्गों को निजी प्रतिस्पर्धियों को सौंपा गया, बहुत सारे विमान सिर्फ खाली रखने के लिये ही खरीदे गये। प्रबंधकों द्वारा इस प्रकार के बहुत सारे कदमों की वजह से एयर इंडिया के नुकसान बढ़ते गये। एयर इंडिया के विमान चालकों के यूनियन की अगुवाई में मजदूर यूनियनों ने शासक वर्ग की इस साजिश का बहादुरी से पर्दाफाश किया। निजीकरण की योजना को कुछ समय के लिये रोकने में वे कामयाब हुये। परन्तु वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में, एयर इंडिया पर मंत्री समूह की रिपोर्ट के बाद, यही योजना फिर से सामने रखी गई है।
किसी भी बहाने से, राज्य की मालिकी की उत्पादक कंपनियों को निजी मुनाफाखोरी के लिये सौंप देना जायज़ नहीं ठहराया जा सकता और मजदूर वर्ग की पार्टियों और संगठनों को यह कभी नहीं स्वीकार करना चाहिये। यह मान लेना कि ''नुकसान पर चल रही'' सार्वजनिक क्षेत्र कंपनियों का निजीकरण किया जाना चाहिये, यह पूंजीवादी कार्यक्रम के साथ समझौता होगा। मजदूर वर्ग आन्दोलन में ऐसे समझौताकारी विचारों को फैलने की इजाज़त नहीं देनी चाहिये।
मजदूर वर्ग की यह मांग है कि सभी प्रकार के निजीकरण को फौरन रोक देना चाहिये, जो सौदे किये जा चुके हैं उनकी पुन: समीक्षा की जानी चाहिये और जहां उपयुक्त हो वहां इसे वापस लेना चाहिये। हमें यह भी मांग करनी होगी कि बैंकिंग को सामाजिक जरूरतों को पूरा करने की दिशा में चलाया जाना चाहिये, और जो निजी बैंक ऐसा नहीं करते, उनका राष्ट्रीकरण किया जाना चाहिये।
इससे संबंधित एक और मुद्दा यह है कि जब कोई निजी पूंजीपति अधिक से अधिक मुनाफा कमा रहा होता है और अपना निजी मुनाफा समाज के साथ नहीं बांटता है, तो उसके लिये नुकसान के समय राज्य से ''राहत पैकेज'' की मांग करना बिल्कुल जायज़ नहीं है। मजदूरों का यह जायज़ अधिकार है कि वे अपनी रोज़गार की सुरक्षा की मांग करें, परन्तु पूंजीवादी मालिकों द्वारा राज्य से कुछ मांग करने का कोई जायज़ आधार नहीं है। हमें इस असूल के सवाल पर कोई समझौता नहीं करना चाहिये, कि पूंजीपतियों को राज्य से कोई राहत नहीं मिलनी चाहिये।
मजदूर साथियो!
केन्द्र सरकार के वक्ता बार-बार यह दोहराते हैं कि किसी भी तेज़ी से आगे बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति और महंगाई अनिवार्य हैं। सच यह है कि मुद्रास्फीति सिर्फ ऐसी परजीवी अर्थव्यवस्था में अनिवार्य है, जिसका उद्देश्य बड़े इजारेदार पूंजीपतियों की अमिट भूख और वैश्विक प्रसारवादी इरादों को पूरा करना है।
जब इजारेदार वित्त पूंजी आर्थिक फैसलों और सरकारी नीति की प्रेरक शक्ति बन जाती है, तो सरकारी राजस्व का अनुत्पादक व्यय होता है, घाटा बढ़ता है और सामग्रियों के वितरण की जरूरत से अधिक मात्रा में पैसा पैदा किया जाता है। अगर मेहनतकशों की बढ़ती भौतिक जरूरतों को पूरा करना अर्थव्यवस्था का उद्देश्य होता है, तो सामाजिक श्रम से उत्पादित बेशी मूल्य का, देश की उत्पादक ताकत को बढ़ाने में, पुन: निवेश किया जाता है। तब कोई घाटा नहीं होता है, कोई अधिक पैसा नहीं पैदा किया जाता है, अत: कोई मुद्रास्फीति नहीं होती। ऐसी समाजवादी अर्थव्यवस्था में, जैसे-जैसे समय के साथ सामाजिक श्रम की उत्पादकता बढ़ती है, वैसे-वैसे चीज़ों की कीमतें भी घटती जायेंगी।
हमारे देश में 2009 से, दाल, मांस, अंडे, दूध आदि जैसी कई जरूरी खाद्य पदार्थों की कीमतें दुगुनी और तिगुनी हो गई हैं। प्राथमिक वस्तुओं का थोक मूल्य सूचकांक 2009-11 के बीच में लगभग 100 प्रतिशत बढ़ गया है, जब कि विनिर्मित वस्तुओं का थोक मूल्य सूचकांक सिर्फ 40 प्रतिशत बढ़ा है। यह कई खाद्य पदार्थों के वार्षिक उत्पादन और उनके उपभोग की वार्षिक मांग के बीच में बढ़ते असंतुलन को दर्शाता है। हमारी अर्थव्यवस्था में जब कि विश्व बाज़ार के लिये तेज़ी से बढ़ती मात्रा में चीजों और सेवाओं का उत्पादन हो रहा है, तो बढ़ते मजदूर वर्ग की विविध खाद्य पदार्थों की बढ़ती व बदलती मांग पूरी नहीं हो रही है।
निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये भूमंडलीकरण की वजह से उत्पादन तो एकतरफा और असंतुलित हो गया है। इसके अलावा, इजारेदार पूंजीवादी कंपनियां कृषि व्यापार में अधिक से अधिक घुस रही हैं, जबकि अत्यंत गरीब लोगों की जरूरत पूरी करने के नाम पर, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को बहुत घटा दिया गया है। निजी व्यापारियों द्वारा जमाखोरी और वायदा बाजार में सट्टेबाज़ी की वजह से बढ़ती खाद्य कीमतों की समस्या और गंभीर होती जा रही है।
खाद्य कीमतों की वृध्दि की तुलना में, श्रम के वेतनों में वृध्दि बहुत पीछे रह गई है। अत: मजदूर वर्ग ज्यादा गरीब हो गया है, हालांकि सकल घरेलू उत्पाद पहले से ज्यादा तेज़ गति से बढ़ा है। पूंजीपति वर्ग और खास तौर पर वे इजारेदार घराने जो अपना वैश्विक साम्राज्य विस्तृत कर रहे हैं, वे बहुत ज्यादा अमीर हो गये हैं।
खाद्य पदार्थों की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिये सप्लाई क्यों नहीं बढ़ायी जा रही है? इसका कारण उत्पादन व्यवस्था और व्यापार व्यवस्था दोनों की सीमाओं में है। छोटे और मंझोले किसानों के पास उत्पादन बढ़ाने की सीमित क्षमता है, और जिस चीज़ का वे उत्पादन करते हैं, उसकी बढ़ती कीमत का बहुत कम हिस्सा ही उन्हें मिलता है। बड़े पूंजीपति और बैंक सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में पूंजीनिवेश करते हैं जिनमें उन्हें अधिकतम मुनाफा मिलता है। खाद्य कीमतें इतनी ज्यादा बढ़ रही हैं कि प्रसंस्कृत और पैकेज खाद्यों की आयात अब एक मुनाफेदार धंधा बन गया है।
इस समय, बड़े पूंजीपति वॉलमार्ट और दूसरी वैश्विक इजारेदार कंपनियों के लिये बहुब्रांड खुदरा व्यापार के खोले जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मनमाहेन सिंह ने वादा किया है कि उत्तार प्रदेश में चुनाव हो जाने के बाद इसे लागू किया जायेगा। बहरहाल, ये पूंजीपति सट्टेबाजी से पैसे कमा रहे हैं, जिसके कारण चीजों की कीमतें बढ़ रही हैं और समस्या भी बढ़ रही है।
खाद्य पदार्थों की महंगाई की समस्या का समाधान अर्थव्यवस्था को नई दिशा दिलाने में है। इजारेदार पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफों को सुनिश्चित करने का उद्देश्य बदलना होगा। मेहनतकशों के जीवन स्तर और उत्पादक क्षमता में लगातार उन्नति लाने के उद्देश्य से अर्थव्यवस्था को चलाना होगा। इस समाधान की दिशा में पहला कदम है एक सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था स्थापित करना, जिसमें जनता के उपभोग की सभी जरूरी चीजों की सप्लाई होगी और यह सभी को उपलब्ध होगा।
सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का यह मतलब है कि समाज और राज्य को खास कर खाद्य पदार्थों और आम उपभोग की सारी जरूरी चीजों के प्रापण, भंडारन, परिवहन व आपूर्ति का दायित्व लेना होगा। ये चीजें मेहनतकशों को मुनासिब दाम पर उपलब्ध होनी चाहिये और खाद्य का उत्पादन करने वालों को अपने उत्पादों के लिये स्थायी व लाभदायक दाम सुनिश्चित होने चाहिये।
पूंजीपति वर्ग और उसके नेता सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को सिर्फ गेहूं और चावल तक, और सिर्फ ''गरीबी रेखा के नीचे'' (बी.पी.एल.) परिवारों तक सीमित रखना चाहते हैं। पर आज खाद्य की समस्या सिर्फ गेहूं और चावल तक सीमित नहीं है। सबसे तेज़ गति से मूल्यवृध्दि दाल, दूध, अंडे व मांस में हुई है जब सब्जियों के दाम में सबसे ज्यादा उतार-चढ़ाव रहे हैं। अधिकतम मजदूरों की क्रय शक्ति घट गयी है, सिर्फ बी.पी.एल. परिवारों की ही नहीं।
खाद्य कीमतों को स्थायी बनाने के लिये कृषि उत्पादन को बड़े पैमाने पर संगठित करने और शीत भंडारन में पूंजीनिवेश करने की जरूरत है। हमारे देश में अभावों को कम करने तथा खाद्य पदार्थों की अत्यधिक सड़न को कम करने की जरूरत है। मजदूर वर्ग की मांग है कि यह सामाजिक तौर पर संगठित होना चाहिये, न कि निजी मुनाफाखोरों को सौंप दिया जाना चाहिये।
सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को कामयाब करने के लिये व्यापार की सामाजिक मालिकी और नियंत्रण आवश्यक है। जरूरी चीजों के अधिकतम भंडार निजी मुनाफाखोरों के हाथों में नहीं छोड़े जाने चाहियें।
मजदूर साथियो!
अर्थव्यवस्था को नई दिशा दिलाने के लिये हमें अपने हाथ में राज्य सत्ता लेने की जरूरत है। हमें मजदूरों और किसानों का राज स्थापित करना होगा, यह सुनिश्चित करने के लिये कि खाद्य का उत्पादन, प्रापण, भंडारन और वितरण समाज के आम हितों के अनुसार किये जायें और मजदूरों व किसानों, दोनों के हितों की रक्षा की जाये।
जीवन के अनुभव ने हमें यह दिखाया है कि हम सिर्फ वोट डालकर, किसी एक पार्टी को सत्ता से हटाकर किसी दूसरी पार्टी को सत्ता पर बिठाकर, राज्य सत्ता के नज़दीक नहीं पहुंच सकते हैं। बीते 20 वर्षों में सरकारें बहुत बार बदली हैं परन्तु हमारे देश की दिशा नहीं बदली है। चाहे यह कांग्रेस पार्टी, भाजपा या तीसरे मोर्चे की अगुवाई वाली सरकार रही हो, निजीकरण और उदारीकरण का कार्यक्रम जारी रहा है। इसकी यह वजह है कि इजारेदार घरानों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग ने राज्य और संपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था पर अपनी पकड़ को मजबूत कर ली है।
जैसा कि राडिया टेप्स और तमाम अन्य घोटालों से साबित होता है, टाटा, अंबानी और दूसरे बड़े इजारेदार पूंजीपति ही इस देश को चला रहे हैं। हर सरकार के गठन में, मंत्रियों के चयन में तथा नीति निर्धारण में उन्हीं की निर्णायक भूमिका होती है। वर्तमान लोकतंत्र वास्तव में इजारेदार घरानों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग का अधिनायकत्व है।
इजारेदार पूंजीपति नियमित तौर पर मुख्य राजनीतिक पार्टियों और उनके चुनाव अभियानों के लिये धन देते हैं, मंत्रियों और वरिष्ठ अफसरों को रिश्वत देते हैं, जिसके बदले में उन्हें लुभावने ठेके, लाईसेंस और दूसरे लाभ मिलते हैं। यह राज्य विदेशी उपनिवेशवादी शासन की विरासत है और सबसे बड़े इजारेदार घरानों के हित में अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप करता है।
सर्वोच्च फैसले लेने का अधिकार, संप्रभुता 1947में बर्तानवी ताज से हिन्दोस्तान के राष्ट्रपति और संसद को हस्तांतरित हुआ। पर संप्रभुता अभी भी वहां नहीं पहुंची है जहां उसे होनी चाहिये, यानि मेहनतकश जनसमुदाय के हाथों में।
वर्तमान संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था इस या उस पूंजीवादी पार्टी या मोर्चे के हाथों में फैसले लेने का अधिकार संकेंद्रित करती है। शासक पार्टी या गठबंधन सर्वोच्च अधिकरण बन जाता है और बड़े पूंजीपतियों के हितों में काम करता है, जब कि जनता की बहुत सीमित भूमिका होती है और वह भी सिर्फ मतदान के दिन पर।
अपराध दंड संहिता, जो हमारे समाज में अपराधों के लिये दंड देने का कानूनी ढांचा है, वही है जो बर्तानवी उपनिवेशवादी शासकों द्वारा परिभाषित और घोषित किया गया है। भूमि अधिग्रहण अधिनियम भी वही है। संपूर्ण राज्य तंत्र – हिन्दोस्तानी प्रशासन सेवा (आई.ए.एस.) की अगुवाई में अफसरशाही और बर्तानवी उपनिवेशवादी मूल्यों में प्रशिक्षित अफसरों की अगुवाई में सशस्त्र बल – आज भी जनता को प्रताड़ित करने, दबाने, धन की वसूली करने तथा हमारी भूमि और श्रम को लूटने का साधन है।
जो भी प्रधान मंत्री बना है, उसने हिन्दोस्तानी समाज का नवीकरण करने, भ्रष्टाचार घटाने और 21वीं सदी के लायक समाज बनाने का वादा किया है। पर वास्तविकता यह है कि वर्तमान आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था दिन-ब-दिन ज्यादा से ज्यादा परजीवी, शोषक और भ्रष्ट होती जा रही है।
सुप्रीम कोर्ट का हाल का फैसला, कि मोबाईल फोन आपरेटरों को जारी किये गये 122 लाईसेंस रद्द कर दिये जायें, इसे ''भ्रष्टाचार-विरोधी'' कदम बताया जा रहा है। पर सच्चाई तो यह है कि सिर्फ कुछ पूंजीपतियों के लाइसेंस रद्द किये गये हैं, जब कि कुछ और पूंजीपतियों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बहुत लाभ हुआ है। ''भ्रष्टाचार-विरोध'' की आड़ में देश के सर्वोच्च न्यायालय को पूंजीवादी कंपनियों के बीच के झगड़े में इस्तेमाल किया गया है।
हिन्दोस्तानी समाज के नवीकरण और सब-तरफा प्रगति के लिये यह जरूरी है कि उपनिवेशवाद की विरासत को पूरी तरह मिटाया जाये। वर्तमान राज्य को खत्म किये बिना, न तो शोषण और लूट को कम किया जा सकता है और न ही परजीविता या भ्रष्टाचार।
इस पुराने राज्य, जो पूंजीवादी शोषण उपनिवेशवादी और सामंती अत्याचार और साम्राज्यवादी लूट की हिफ़ाजत करता है, इसे खत्म करके इसकी जगह पर एक आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य स्थापित करना जरूरी है, जिसका इस्तेमाल करके मजदूर वर्ग पूंजीवाद को उखाड़ फेंक सकता है और एक समाजवादी समाज बना सकता है। हमें एक नये संविधान, नये राजनीतिक संस्थानों व तंत्रों के साथ नई शुरुआत करनी पड़ेगी, ताकि संप्रभुता लोगों के हाथ में हो।
नये संविधान को इस असूल पर आधारित होना होगा कि निर्वाचित निकाय सभी फैसलों को लेने तथा उन्हें लागू करने के लिये मतदाताओं के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह है। मेहनतकश जनसमुदाय को निर्वाचित प्रतिनिधियों पर नियंत्रण रखना होगा और उन्हें जवाबदेह ठहराना होगा।
वर्तमान व्यवस्था में लोगों को जिन उम्मीदवारों में से किसी एक को वोट देना पड़ता है, उन्हें लोगों की सहमति से चयनित नहीं किया जाता है। मजदूर वर्ग के आधुनिक लोकत्रंत में कानून और तंत्र होंगे यह सुनिश्चित करने के लिये कि प्रत्येक मजदूर और किसान को चुनने और चुने जाने का अधिकार मिले। नया संविधान यह सुनिश्चित करेगा कि मजदूरों, किसानों और सभी इंसानों के अधिकार सुरक्षित होंगे और किसी भी बहाने से उनका हनन नहीं होगा।
काम और आवास के स्थानों पर संगठित होकर मजदूर-मेहनतकश चुनाव के लिये उम्मीदवारों का चयन करने, उन पर सहमति जताने और उम्मीदवारों को पद से हटाने का अधिकार पायेंगे। उन्हें चुने गये उम्मीदवारों को वापस बुलाने, नये कानून शुरू करने और नीतिगत फैसले लेने के अधिकार भी होंगे।
1857 में हमारे महान ग़दर के वीरों ने ऐलान किया था कि ''हम हैं इसके मालिक, हिन्दोस्तान हमारा!'' आधुनिक समय में ''हम'' हैं मजदूर, किसान, औरत और जवान। हम समाज की दौलत को पैदा करते हैं। हम मानव जीवन को पुनरुत्पादित करते हैं और उसका पोषण करते हैं। हिन्दोस्तान हमारा है। हम इसके मालिक हैं।
हम मजदूर जो आधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करते हुये, बड़े पैमाने पर उत्पादन करते हैं, हमें जनता के हाथ में संप्रभुता लाने के संघर्ष में अगुवा भूमिका निभानी होगी।
मजदूर साथियो!
निजीकरण, उदारीकरण और हमारे अधिकारों पर सब-तरफा हमलों के खिलाफ़ संघर्ष सिर्फ कुछ तबकों का संघर्ष नहीं है बल्कि संपूर्ण वर्ग का संघर्ष है। एक आधुनिक श्रमजीवी लोकतंत्र स्थापित करने का संघर्ष भी संपूर्ण वर्ग का संघर्ष है। हमारे संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिये सभी क्षेत्रों के सभी मजदूरों की एकता आवश्यकता है। ''एक पर हमला सब पर हमला'', इस भावना के साथ हमें पूंजीवादी हमले का मुकाबला करना होगा।
हमें उन पार्टियों और यूनियन नेताओं के बारे में सतर्क रहना होगा, जो अपनी-अपनी पार्टियों के संसदीय लाभों के लिये हमारे संघर्ष के साथ दांवपेच करते हैं। कांग्रेस पार्टी को ''कम बुरा'' और भाजपा का ''धर्मनिरपेक्ष'' विकल्प मानने की लाईन पर चलने से हमारे एकजुट संघर्ष को बीते दिनों में नुकसान हुआ है। पार्टियों का तीसरा मोर्चा जो तथाकथित दोनों पूंजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग की सेवा करेगा, इसके बारे में फैलाये गये भ्रम से भी हमें नुकसान हुआ है।
उदारीकरण और निजीकरण के कार्यक्रम का डटकर विरोध करते हुये हमें अपने वर्ग की राजनीतिक एकता बनानी होगी। हमें मजदूरों और किसानों का राज बसाने के अपने स्वतंत्र कार्यक्रम के इर्द-गिर्द एक होना होगा। हमें अपने किसान भाइयों के अधिकारों की हिमायत करनी होगी, जो पूंजीवादी हमले और बड़ी कंपनियों द्वारा भूमि अधिग्रहण के कारण लूटे जा रहे हैं और तबाह हो रहे हैं।
एक वर्ग बतौर एकजुट होना और किसानों के साथ स्थायी संबंध बनाना – ये मजदूर वर्ग आन्दोलन के प्रमुख राजनीतिक कार्य हैं।
किसानों के साथ गठबंधन बनाकर हिन्दोस्तान के मालिक बनने के हमारे वर्ग के कार्यक्रम और उद्देश्य पर चर्चा करने के लिये गेट मीटिंग आयोजित करें!
इजारेदार पूंजीपतियों के शासन की जगह पर मजदूरों और किसानों का शासन स्थापित करने के उद्देश्य से, हम एक कार्यक्रम की मांगों की सांझी सूची के लिये अडिग संघर्ष करें!
सभी मजदूरों के सर्वव्यापी अधिकारों को कानून में मान्यता दो तथा अभ्यास में इनकी सुरक्षा करो!
पूंजीपतियों के हित में श्रम कानूनों को सुधारने के सभी प्रस्तावों का विरोध करो!
निजीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम को हराओ!
जनता के खर्च पर किसी पूंजीपति को राहत न दी जाये!
बैंकिंग और व्यापार का राष्ट्रीयकरण और सामाजीकरण किया जाये!
एक सर्वव्यापी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था स्थापित करो, जिसके तहत जनता के उपभोग की सभी जरूरी चीजें शामिल हों!
पूंजीवादी लोकतंत्र मुर्दाबाद! श्रमजीवी लोकतंत्र के लिये संघर्ष करें!
मजदूरों और किसानों का राज बसाने के उद्देश्य से संघर्ष करें!
इंकलाब जिन्दाबाद!