23-24 दिसम्बर, 2011 को मजदूर वर्ग गोष्ठी में प्रारंभिक दस्तावेज कामरेड लाल सिंह ने हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति की ओर से पेश किया। मजदूर वर्ग के लिये राज्य सत्ता को अपने हाथ में लेने की जरूरत शीर्षक के इस दस्तावेज को, गोष्ठी में हुई चर्चा के आधार पर, संपादित किया गया है और केन्द्रीय समिति के फैसले के अनुसार प्रकाशित किया जा रहा है।
23-24 दिसम्बर, 2011 को मजदूर वर्ग गोष्ठी में प्रारंभिक दस्तावेज कामरेड लाल सिंह ने हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति की ओर से पेश किया। मजदूर वर्ग के लिये राज्य सत्ता को अपने हाथ में लेने की जरूरत शीर्षक के इस दस्तावेज को, गोष्ठी में हुई चर्चा के आधार पर, संपादित किया गया है और केन्द्रीय समिति के फैसले के अनुसार प्रकाशित किया जा रहा है।
साथियो!
इस समय मजदूर वर्ग के लिये आगे के रास्ते के विषय पर, कम्युनिस्टों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच इस अहम चर्चा को शुरू करना मेरे लिये बहुत गर्व की बात है। आज पूंजीवादी व्यवस्था, जो अपने अंतिम पड़ाव पर है, सारी दुनिया में अप्रत्याशित संकट में आज पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के अन्तर्निहित अन्तर्विरोध मानव जाति को एक संकट के बाद दूसरे संकट में धकेल रहे हैं, जिसकी वजह से लोगों को अत्यधिक दुख-दर्द और असहनीय तीव्रता के शोषण का सामना करना पड़ रहा है। इसकी वजह से ऐसे-ऐसे जंग फैल रहे हैं, जिनका विनाशकारी असर अप्रत्याशित है और इससे पहले की जंगों से कहीं ज्यादा भयानक है।
सभी देशों में मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय यह समझ रहे हैं कि गरीबी, अति शोषण और बेरोज़गारी, संकट और कब्ज़ाकारी जंग, ये सब इस आदमखोर व्यवस्था के हमसफर हैं। सारी दुनिया में, लोग यह देख रहे हैं कि जिन बहुपार्टीवादी चुनावों का जीवन की हालतें खुद ही यह जरूरत पैदा कर रही हैं कि मजदूर वर्ग अपने हाथ में राज्य सत्ता ले और समाज को बदलने व आगे का रास्ता तय करने में अगुवाई दे। यह जरूरी है ताकि मानव जाति के सामने मंडरा रहे खतरों को मिटाया जा सके और सब तरफा प्रगति का रास्ता खुल सके। कम्युनिस्टों का फर्ज है उस राजनीतिक सत्ता का दृष्टिकोण और सिद्धान्त पेश करना, जिसे मजदूर वर्ग को स्थापित करना व सुरक्षित रखना होगा, ताकि अर्थव्यवस्था और समाज को उनके अगले पड़ाव, समाजवाद तक आगे ले जाया जा सके।
यह चर्चा बहुत सही समय पर हो रही है। आज यह बहुत जरूरी है कि मजदूर वर्ग के नेता इस सवाल पर चर्चा करें। क्या सभी कम्युनिस्ट इस बात पर सहमत हैं कि मजदूर वर्ग को अगुवाई देने और राजनीतिक सत्ता को अपने हाथ में लेने में सक्षम बनाना हमारा प्रथम कार्य है? यही मुख्य सवाल है।
साथियो!
गहराता वैश्विक आर्थिक संकट यह दिखाता है कि पूंजीवाद समाज के निरंतर संवर्धन को नहीं सुनिश्चित कर सकता है। पूंजीपति वर्ग के वक्ता इस सच्चाई को छिपाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं।
पूंजीपतियों के वक्ता संकट की गहराई को कम करके दिखाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। मनमोहन सिंह कहते हैं कि सारी दुनिया में फैली मंदी के बावजूद हमें फ़िक्र करने की जरूरत नहीं है क्योंकि अगले साल से हिन्दोस्तानी अर्थव्यवस्था फिर तेज़ी से पूंजीवादी अर्थशास्त्री कहते हैं कि कुछ बड़े बैंकों का गैर जिम्मेदार स्वभाव 2008 में आर्थिक संकट की वजह थी। वे इस बात को गहराई से नहीं समझाते कि सबसे बड़े बैंकों के इस तथाकथित गैर-जिम्मेदार स्वभाव की वजह क्या थी। यह वजह पूंजीवाद के वर्तमान पड़ाव, इजारेदार पूंजीवाद की गति के वस्तुगत नियमों में है। यह मुनाफे के औसतन दर के गिरने की प्रवृत्ति और इजारेदार वित्त पूंजी के अधिकतम से कम मुनाफों से संतुष्ट न होने की प्रवृत्ति के बीच अन्तर्विरोध की वजह से है। अधिकतम मुनाफों के लिये, अधिक से अधिक हद तक वित्तीय सट्टेबाज़ी और परजीवी उधार का विस्तार, तेज़ गति से सैन्यीकरण और जंग, आदि जैसे कदमों का सहारा लिया जाता है।
किसी सतही गतिविधि को संकट का तथाकथित कारण बताकर, पूंजीवादी अर्थशास्त्री किसी नीति को इसका समाधान बताते हैं। मिसाल के तौर पर, वे यह धारणा फैलाते हैं कि बैंकों और दूसरे वित्तीय संस्थानों के नियंत्रण को सुधारने से संकट को टाला जा सकता है। यह एक भ्रम है क्योंकि वित्त अल्पतंत्र ने राज्य पर अपना शिकंजा कस रखा है और वित्त पूंजी से यह उम्मीद कभी नहीं की जा सकती है कि वह अपनी लालच को नियंत्रित और सीमित करेगा।
मुट्ठीभर परजीवियों की लालच की वजह से, यह व्यवस्था समाज की दौलत का उत्पादन करने वाली मेहनतकश बहुसंख्या का अत्यधिक शोषण कर रही है। इसकी वजह से, मेहनतकश बहुसंख्या के पास उन सारी चीज़ों को खरीदने की क्षमता नहीं है, जो पूंजीपति बेचना चाहते हैं। यही अत्यधिक उत्पादन के संकट या कम उपभोग के संकट का सार है, जिसे मंदी कहा जाता है।
उत्पादक ताकतों को क्रमश: बढ़ाने के बजाय, यह व्यवस्था नियमित तौर पर व समय-समय पर उत्पादक ताकतों को नष्ट करती है, लोगों को नौकरी से निकाल देती है, मशीनों को अनुपयुक्त छोड़ देती है, हमलावर और कब्ज़ाकारी जंग के जरिये पूरे-पूरे शहरों, गांवों और राष्ट्रों को नष्ट कर देती है।
मार्क्सवाद हमें यह सिखाता है कि इन संकटों को खत्म करने और बेरोक-टोक, प्रकृति के साथ सामंजस्य में, समाज की व्यापक उन्नति सुनिश्चित करने का एक ही तरीका पूंजीवादी व्यवस्था के मूल अन्तर्विरोध को हल करना है। यह उत्पादन के सामाजिक चरित्र और उत्पादन के साधनों की मालिकी के निजी चरित्र के बीच अन्तर्विरोध है। इस अन्तर्विरोध को हल करने का मतलब है उत्पादन के साधनों की मालिकी और नियंत्रण का सामाजीकरण करना, उसे सम्पूर्ण जनता के हाथों में ले आना और इस तरह स्पर्धाकारी निजी हितों पर आधारित व्यवस्था की निहित अराजकता को समाप्त करना।
पूंजी द्वारा शोषित और उत्पीड़ित सभी वर्गों और तबकों में से सिर्फ मजदूर वर्ग में ही संघर्ष को अंत तक, सामाजिक उत्पादन के साधनों में निजी सम्पत्ति के पूरी तरह मिट जाने तक, संघर्ष को जारी रखने की रुचि है। मजदूर वर्ग वह वर्ग है जो धन को पैदा करता है पर खुद निजी सम्पत्ति से नहीं जुड़ा हुआ है। मजदूर वर्ग वह वर्ग है जो उत्पादन के दौरान एकत्रित किया जाता है, जो सामूहिक संगठन की ताकत और सामाजिक श्रम की उत्पादक शक्ति से लैस है। पूरे असंतुष्ट जनसमुदाय को अगुवाई देने की मजदूर वर्ग की क्षमता को उसके हिरावल दस्ते, कम्युनिस्ट पार्टी को सही दिशा में लामबंध करना होगा। कम्युनिस्टों का फर्ज़ है मजदूर वर्ग को, किसानों के साथ गठबंधन में, शासक वर्ग बनने की जरूरत के बारे में जागरुक करना।
कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र में मार्क्स और एंगेल्स ने अपना मुख्य राजनीतिक निष्कर्ष पेश किया था कि मजदूर वर्ग द्वारा लायी गयी क्रान्ति में पहला कदम है लोकतंत्र की लड़ाई को जीतकर शासक वर्ग का स्थान लेना।
अपने हाथ में राज्य सत्ता लेने की मजदूर वर्ग की पहली ऐतिहासिक कोशिश 1871 में पैरिस कम्यून थी। पैरिस के मजदूर थोड़े समय के लिये अपने हाथ में राज्य सत्ता रख पाये थे, जिस दौरान उन्होंने अपनी राज्य सत्ता के संस्थान, कम्यून की रचना की थी। इस अनुभव से मार्क्स और एंगेल्स ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सबक सीखा, जिसके बारे में उन्होंने कम्युनिस्ट घोषणापत्र के बाद के संस्करणों में विशेष रूप से ज़िक्र करना उचित समझा। वह सबक यह है कि लोकतंत्र की लड़ाई को जीतने के लिये, मजदूर वर्ग बने-बनाये राज्य तंत्र का इस्तेमाल नहीं कर सकता, बल्कि मजदूर वर्ग को उसे नष्ट करना होगा और श्रमजीवी राज्य सत्ता के अपने संस्थानों की रचना करनी होगी।
श्रमजीवी राज्य सत्ता की विजय का पहला उदाहरण 1917 की रूसी क्रान्ति थी, जो महान अक्तूबर समाजवादी क्रान्ति के नाम से जानी जाती है। उस क्रान्ति ने लेनिन के इस सैध्दान्तिक निष्कर्ष को अभ्यास में साबित किया, कि साम्राज्यवाद के इस युग में मजदूर वर्ग के लिये अपने हाथ में राज्य सत्ता लेना और पूंजीवाद से समाजवाद तक परिवर्तन को कामयाब करना जरूरी भी है और मुमकिन भी। शुरू में किसी एक देश में यह थोड़े से देशों में ऐसा करना मुमकिन है। और यह ऐसे देश में भी हो सकता है जो पूंजीवादी तौर पर उतना आगे नहीं है, जैसा कि 1917 में ज़ारवादी रूस।
लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग में पूंजीवादी देशों के असमान आर्थिक और राजनीतिक विकास के नियम का आविष्कार किया था। इस असमान आर्थिक और राजनीतिक विकास की वजह से साम्राज्यवादी ताकतें दुनिया को फिर से बांटने के लिये जंग शुरू करती हैं। लेनिन ने यह पूर्वाभास किया कि वैश्विक साम्राज्यवादी श्रृंखला की सबसे कमज़ोर कड़ी पर क्रान्ति होगी। बोल्शेविक पार्टी को अगुवाई देते हुये, उन्होंने रूसी मजदूर वर्ग को क्रान्ति की लहर पर सवार होकर, किसानों और सभी उत्पीड़ित राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं व लोगों के साथ गठबंधन बनाकर, अपनी सत्ता स्थापित करने को तैयार किया। उन्होंने उस राज्य सत्ता के सिध्दान्त पर विस्तार किया, जिसका निर्माण व हिफ़ाज़त मजदूर वर्ग को करनी होगी।
सोशल डेमोक्रेसी की पुरानी पार्टियां जो सिर्फ संसदीय संघर्ष के उद्देश्य से काम करती थीं, उनके विरोध में लेनिन ने मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के संगठनात्मक सिध्दान्त और असूलों का भी विस्तार किया। लोकतांत्रिक केन्द्रीयवाद के असूलों, जिनके आधार पर मजदूर वर्ग की हिरावल पार्टी को मजदूर वर्ग को अपना ऐतिहासिक कर्तव्य पूरा करने के लिये अगुवाई देनी पड़ती है, उन पर लेनिन ने विस्तार किया और अभ्यास में उन्हें प्रदर्शित किया।
बोल्शेविक पार्टी और सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ का निर्माण करने व उन्हें मजबूत करने के दौरान, लेनिन के सैध्दान्तिक योगदानों का अभ्यास में परीक्षण हुआ।
हमारी पार्टी स्तालिन की परिभाषा की हिमायत करती है कि ''लेनिनवाद साम्राज्यवाद और श्रमजीवी क्रान्ति के युग का मार्क्सवाद है। और यथार्थ रूप से, लेनिनवाद आम तौर पर श्रमजीवी क्रान्ति के सिध्दान्त और कार्यनीति है, खास तौर पर श्रमजीवी अधिनायकत्व के सिध्दान्त और कार्यनीति है।'' (जे.वी. स्तालिन, लेनिनवाद की बुनियादें) हम अभी भी उसी युग में जी रहे हैं, जिसका विश्लेषण करके लेनिन ने उसे पूंजीवाद से समाजवाद के क्रान्तिकारी परिवर्तन का युग बताया था।
अक्तूबर क्रान्ति के बाद के बीस से कम वर्षों में मानव समाज की जो अभूतपूर्व उपलब्धियां देखने में आयीं, वे लेनिनवाद के सबूत हैं। सोवियत अर्थव्यवस्था दुनिया की अगुवा औद्योगिक ताकतों में एक बन गई, जिसमें किसान सहकारी और राजकीय फार्मों पर आधारित, पनपती हुई कृषि अर्थव्यवस्था थी। निजी सम्पत्ति और निजी मुनाफे की लालच को सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया से पूरी तरह से मिटा दिया गया था। उसके साथ-साथ, कुछ व्यक्तियों द्वारा दूसरों का शोषण भी खत्म हुआ। पूरी आबादी का जीवन स्तर तेज़ी से बढ़ा, बिना किसी प्रकार की रुकावट या संकट के साथ बढ़ा। यह पूंजीवादी दुनिया की अर्थव्यवस्था का ठीक उल्टा था, क्योंकि पूंजीवादी विश्व अर्थव्यवस्था 1929-1939के दौरान लंबे समय की मंदी से गुजर रही थी।
दुनिया की अगुवा साम्राज्यवादी ताकतों ने मिलकर दूसरे विश्व युध्द को छेड़ा, इस उम्मीद से कि फासीवादी जर्मनी समाजवादी सोवियत संघ को नष्ट कर देगा। परन्तु समाजवादी सोवियत संघ द्वारा गठित फासीवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चे की वजह से इसका परिणाम समाजवाद और लोगों के पक्ष में हुआ।
अमरीका विश्व साम्राज्यवाद का नेता बन गया और उसने बहु तरफा आर्थिक, सैनिक और विचारधारात्मक हमला शुरू कर दिया, ताकि दुनिया के विभिन्न देशों के मजदूर वर्ग और लोगों के क्रान्तिकारी और मुक्ति संघर्षों को कुचल दिया जाये, और समाजवादी मोर्चे को अन्दर से नष्ट किया जाये।
1956-61 के दौरान, क्रुश्चेव की अगुवाई में हुये, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के 20वें और 22वें महाअधिवेशनों में अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की आम कार्यदिशा का संशोधन किया गया ताकि साम्राज्यवाद के साथ स्पर्धा तथा क्रान्ति के खिलाफ़ मिलीभगत को जायज़ ठहराया जा सके। क्रुश्चेववादी संशोधनवादियों ने क्रान्ति के बिना ही समाजवाद की ओर बढ़ने के तथाकथित रास्ते पर, सोशल-डेमोक्रेट और दूसरी पूंजीवादी पार्टियों के साथ एकता बनाने की हिमायत की। समाजवादी सोवियत संघ के अन्दर और सारी दुनिया के स्तर पर, उन्होंने यह प्रचार किया कि वर्ग संघर्ष खत्म हो गया है।
सोवियत राज्य को एक नये पूंजीपति वर्ग के साधन में तब्दील कर दिया गया। उस नये पूंजीपति वर्ग में संशोधनवादी पार्टी के नेता, सैनिक अफसर व वरिष्ठ अफसरशाही थे। मजदूर वर्ग ने अपनी सत्ता खो दी।
सोवियत अर्थव्यवस्था एक मिश्रित प्रकार के पूंजीवाद में तब्दील हो गयी। 60 के दशक में पूंजीवाद की सारी बीमारियां, बेरोज़गारी, खाद्य का अभाव, भ्रष्टाचार, पनपती कालाबाज़ारी, आदि फिर से वापस आ गयीं और साफ-साफ़ महसूस होने लगीं। सोवियत विदेश नीति साम्राज्यवादी बन गयी, नव-उपनिवेश और प्रभाव क्षेत्रों को स्थापित करने व उन्हें विस्तृत करने लगी, दुनिया पर रौब जमाने के लिये अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ मिलीभगत और स्पर्धा करने लगी।
सोवियत संघ का सामाजिक-साम्राज्यवादी चरित्र और स्पष्ट हो गया जब उसकी सेनाओं ने 1968 में चेकोस्लोवाकिया और 1978 में अफगानिस्तान पर हमला किया। अर्थव्यवस्था का तेज़ी से सैन्यीकरण किया गया, जिसकी वजह से खाद्य और दूसरी उपभोग की सामग्रियों की कमी की समस्या और गंभीर हो गयी। 80के दशक में, जनता का गुस्सा सोवियत संघ में, सड़कों पर बड़े-बड़े विरोध-प्रदर्शनों में प्रकट होने लगा। पूंजीवादी ताकतों ने इस जनविरोध के साथ दांवपेच करके समाजवाद के बचे हुये दिखावटी
80 के दशक में गोरबाचोव ने सोवियत संघ की आर्थिक समस्याओं का समाधान पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्ट,यानि निजीकरण और उदारीकरण बताया। 80 के दशक के अंत तक,गोरबाचोव की जगह दुस्साहसी येल्तसिन ने ले ली। सुप्रीम सोवियत का बलपूर्वक तख्तापलट किया गया। सोवियत संघ खुद विघटित हो गया और 1991 में खुलेआम पूंजीवादी रूस आगे आया। दुनिया के पूंजीपतियों ने खुशी मनायी। जो काम वे दूसरे विश्व युद्ध द्वारा हासिल नहीं कर पाये थे,वह उन्होंने अन्दरूनी विनाश को गुप्त प्रश्रय देकर हासिल किया।
20 वर्ष पहले जब सोवियत संघ का विघटन हुआ, तब से साम्राज्यवादी पूंजीपति मजदूर वर्ग और मेहनतकशों तथा राष्ट्रों और लोगों के खिलाफ़ बढ़-चढ़ कर हमले कर रहे हैं। बढ़ते शोषण और लूट के ज़रिये, जनता की बचत के धन के साथ अधिक से अधिक सट्टेबाज़ी करके, इजारेदार वित्त पूंजीपतियों ने सभी पूंजीवादी देशों में मेहनतकशों की क्रय शक्ति को अप्रत्याशित हद तक दबा दिया है। यही अत्यधिक उत्पादन के वर्तमान संकट का स्रोत है, जो तेज़ी से गहरी मंदी की ओर बढ़ रहा है।
अगुवा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतें कब्ज़ाकारी जंग के ज़रिये, अपने मुनाफों को बरकरार रख कर, संकट को पार करने की कोशिश कर रही हैं। बर्तानवी-अमरीकी साम्राज्यवादी रणनीति स्वतंत्र राष्ट्रों और लोगों को नष्ट करने, फिर से उपनिवेश बनाने और लूटने की रणनीति है। अफगानिस्तान और इराक में वे ऐसा कर चुके हैं, अब वे लिबिया में ऐसा कर रहे हैं और सिरिया, ईरान व पाकिस्तान में ऐसा करने की धमकी दे रहे हैं। बर्तानवी-फ्रांसीसी-अमरीकी दल और जर्मनी, रूस व चीन के बीच अन्तर्विरोध तेज़ हो रहे हैं। बर्तानवी-अमरीकी साम्राज्यवादी रूस, चीन और हिन्दोस्तान के बीच किसी गठबंधन को रोकने के लिये तरह-तरह की चालें चल रहे हैं और दबाव डाल रहे हैं। वे हिन्दोस्तान को पूर्व की ओर विस्तार करने तथा चीन को घेरने की अमरीकी साम्राज्यवादी योजना में योगदान देने के लिये उकसा रहे हैं। तीसरे विश्व युध्द की हालतें पैदा की जा रही हैं।
आज सिर्फ मजदूर वर्ग ही क्रान्ति और समाजवाद के सवाल को हल करने के लिये उठाकर मानव समाज को इन भयानक खतरों से बचा सकता है। आज की हालतें कम्युनिस्टों से मांग कर रही हैं कि वे मजदूर वर्ग को राज्य सत्ता अपने हाथ में लेने के लिये तैयार करें तथा अगुवाई दें।
प्रत्येक देश में कम्युनिस्टों का यह फर्ज बनता है कि आज इस अहम व ज्वलंत सवाल को उठायें। मजदूर वर्ग को अपने हाथ में सत्ता लेने, समाज को संकट से बाहर निकालने, समाजवाद का रास्ता खोलने और पुरानी दमनकारी सामाजिक व्यवस्थाओं के सभी अवशेषों को मिटाने के लिये, मजदूर वर्ग को संगठित करने और सक्षम बनाने के एक उद्देश्य के साथ क्या आप काम करने को सहमत हैं? या क्या आपका कोई और उद्देश्य है? इसी प्रमुख विषय पर आज चर्चा करना जरूरी है।
इतना उच्च उद्देश्य रखने से मजदूर वर्ग को अप्रत्याशित ताकत मिलेगी। मजदूर वर्ग आन्दोलन में यह उद्देश्य स्थापित करना, यही मजदूर वर्ग को क्रान्तिकारी बनाने और उसे राज्य सत्ता लेने के लिये तैयार करने की कुंजी है।
साथियो!
हमारे देश के मजदूर वर्ग आन्दोलन के विभिन्न नेता कहते हैं कि वे आम तौर पर कम्युनिस्ट घोषणापत्र से सहमत हैं, कि मजदूर वर्ग को एक दिन शासक वर्ग बनना होगा। परन्तु वे कहते हैं कि हमारे देश का मजदूर वर्ग अभी अपने हाथ में राज्य सत्ता लेने के लिये तैयार नहीं है या इसके काबिल नहीं है।
इनमें से कुछ नेता मजदूरों में जातिवादी और धार्मिक अंतरों या दूसरे बंटवारों का ज़िक्र करते हैं, या असंगठित मजदूरों की विशाल संख्या का ज़िक्र करते हैं, यह दावा करने के लिये कि इस समय मजदूर वर्ग के लिये राज्य सत्ता अपने हाथ में लेने की कोशिश करना मुमकिन नहीं है। कुछ और नेता यह तर्क पेश करते हैं कि मजदूर वर्ग अल्पसंख्या में है, अत: हमारे देश में क्रान्ति को किसानों और आदिवासियों पर आधारित होना चाहिये।
हमारी पार्टी की यह राय है कि समस्या मजदूर वर्ग के साथ नहीं है, बल्कि मजदूर वर्ग के नेताओं की भूमिका के साथ।
1857 में ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों की वीर भूमिका से शुरू होकर, मुंबई में कपड़ा मिल मजदूरों की प्रथम हड़तालों में, चेन्नई में प्रथम मई दिवस रैली में, हमारे देश के संगठित मजदूर वर्ग ने बार-बार अपना क्रान्तिकारी चरित्र दर्शाया है। वह उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष की रीढ़ की हवी थी।
1917 में महान अक्तूबर क्रान्ति की जीत के बाद, मजदूर वर्ग की बढ़ती जागृति के हालातों में, 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। पर शुरू से ही भाकपा के नेता पूंजीवादी विचारधारा के दबाव के शिकार बने रहे। भाकपा ने खुद को क्रान्तिकारी लेनिनवादी पार्टी बतौर मजबूत नहीं किया। उसके नेताओं ने कांग्रेस पार्टी के उद्देश्य, सामाजिक क्रान्ति के बिना राजनीतिक आज़ादी, के साथ समझौता किया।
जब हमारे देश में ब्रिटिश उपनिवेशवादी राज खत्म हुआ, तो पूंजीपति वर्ग ने अपनी हुक्मशाही स्थापित कर ली। उन्होंने उपनिवेशवादी राज्य और हिन्दोस्तानी संघ को बरकरार रखा तथा और कुशल बनाया, पर साथ ही साथ, सर्वव्यापक मताधिकार की लोकप्रिय मांग को स्वीकार किया। मजदूर वर्ग अपना स्वतंत्र कार्यक्रम पेश करने में नाकामयाब रहा क्योंकि भाकपा कांग्रेस पार्टी की पूंछ बन गई।
दूसरे विश्व युध्द के अंत में, जब एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमरीका के बहुत से देशों को उपनिवेशवादी शासन से राजनीतिक आज़ादी मिली, तब समाजवाद को बहुत सम्मान दिया जाता था। नये आज़ाद देशों को समाजवादी क्रान्ति का रास्ता अपनाने से रोकने के लिये, साम्राज्यवादियों ने पूंजीवादी शासक वर्गों के साथ मिलकर, तरह-तरह के दिखावटी समाजवाद के नमूनों को पेश किया। हमारे देश में बडे पूंजीपतियों के अपने वर्ग हित को पूरा करने के लिये, जनता के पैसे का इस्तेमाल करके भारी उद्योग और आधारभूत ढ़ांचे के राजकीय क्षेत्र का निर्माण करने की योजना को नेहरूवी समाजवाद के रूप में पेश किया गया। बर्तानवी-अमरीकी साम्राज्यवादियों, सोवियत संशोधनवादियों और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने इस धोखे का समर्थन किया। भाकपा ने औपचारिक तौर पर ''समाजवाद के शान्तिपूर्ण और संसदीय रास्ते'' की क्रुश्चेववादी संशोधनवादी कार्यदिशा को अपनाया। इस कार्यदिशा के अनुसार, हिन्दोस्तान जैसे नये आज़ाद हुये देश शान्तिपूर्ण सुधारों और संसदीय संघर्ष के ज़रिये, क्रान्ति के बिना समाजवाद की ओर बढ़ सकते हैं अगर उनके शासक पूंजीपति वर्ग सोवियत मोर्चे में शामिल हो जाते हैं। भाकपा के नेताओं ने मजदूरों और किसानों को बुध्दू बनाने में हमारे देश के पूंजीपति वर्ग की मदद की, और यह सोच फैलायी कि नेहरू समाजवादी है, कि उसकी सरकार हमारे देश को क्रमश: समाजवाद की ओर ले जा रही है। भाकपा के नेता कांग्रेस पार्टी और समाजवाद के नाम पर राजकीय इजारेदार पूंजीवाद का निर्माण करने की उसकी परियोजना की वाह-वाही करने लगे।
60 के दशक में, भाकपा की संशोधनवादी लाइन के खिलाफ़, देश में तथा विदेश में, हिन्दोस्तानी कम्युनिस्टों के बीच काफ़ी असंतोष फैल गया। भाकपा की केन्द्रीय समिति में एक गुट ने इस स्थिति का फायदा उठाकर, पार्टी में फूट डाल दी, और एक नई पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की स्थापना की। यह एक सकारात्मक घटना नहीं थी, क्योंकि इससे संशोधनवाद और पूंजीपति वर्ग के साथ समझौते की समस्या हल नहीं हुई। माकपा ने खुद को भाकपा से ज्यादा जुझारू रूप में पेश किया, परन्तु उसका नज़रिया भी मजदूरों और किसानों के पक्ष में संसदीय लोकतंत्र का तथाकथित इस्तेमाल करके, धीरे-धीरे समाजवाद की दिशा में बदलाव लाने का नज़रिया रहा।
भाकपा और माकपा के अन्दर संशोधनवाद के खिलाफ़ संघर्ष चलता रहा। अप्रैल 1969 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की स्थापना हुई। यह पार्टी सोवियत संशोधनवाद के प्रभाव को हराने तथा शोषित जनसमुदाय को क्रान्ति के रास्ते पर आगे ले जाने के साधन बतौर बनायी गयी थी। परन्तु अपनी स्थापना के पांच वर्षों के अन्दर ही भाकपा (माले) बहुत से गुटों में टुकड़े-टुकड़े हो गयी।
भाकपा (माले) के अन्दर फूट पड़ने और उसके टुकड़े-टुकडे हो जाने के पीछे चीनी संशोधनवाद और माओ त्सेतुंग विचारधारा का प्रभाव एक प्रमुख विचारधारात्मक कारक था। माओ के चीन से प्रेरणा की तलाश करने की प्रवृति के कारण, भाकपा (माले) को लोकतांत्रिक केन्द्रीयवाद पर सख्ती से आधारित, श्रमजीवी वर्ग की एकजुट पार्टी बतौर नहीं गठित की गयी। वह कुनबापरस्ती और व्यक्तिगत वीरों के प्रति सामंती वफादारी जायज़ ठहराया।
किसानों पर निर्भर होने और गांवों से शहरों को घेरने के रास्ते पर निर्भर होने के कारण, भाकपा (माले) ने मजदूरों के यूनियनों को संसदीय दांवपेच और वोट बैंक की राजनीति का शिकार बनने को छोड़ दिया। इससे मजदूर वर्ग आन्दोलन और कमजोर हो गया। ट्रेड यूनियनों के एक कम्युनिस्ट संगठन, एटक, को 1970में माकपा ने बांट दिया और इस तरह मजदूर वर्ग की एकता को बहुत भारी चोट पहुंचाई।
क्रुश्चेववादी संशोधनवाद के खिलाफ़ विचारधारात्मक संघर्ष, मजदूर वर्ग के मुख्य राजनीतिक लक्ष्य पर केन्द्रित होने के बजाय, संघर्ष के एक या दूसरे तरीके की आपसी तुलना करने में भ्रमित हो गया। सशस्त्र संघर्ष की तुलना संसदीय संघर्ष के साथ की गई, और मुख्य उद्देश्य, श्रमजीवी अधिनायकत्व का राज्य स्थापित करने के उद्देश्य को दरकिनार कर दिया गया।
इन सभी गलत धारणाओं और विभाजनों के बावजूद, 60 और 70 के दशकों में मजदूर वर्ग ने बड़े शक्तिशाली हड़ताल संघर्ष किये। 1974 की ऐतिहासिक रेलवे मजदूर हड़ताल ने हमारे देश में शासकों को झकझोर दिया और उस समय के राजनीतिक संकट को गहराया। इंदिरा गांधी की तत्कालीन सरकार ने उसे कुचलने के लिये 1975 में राष्ट्रीय आपात्काल थोप दिया, जिससे हिन्दोस्तान के लोकतंत्र का सच्चा चरित्र स्पष्ट हो गया, यह स्पष्ट हो गया कि यह प्रतिक्रियावादी इजारेदार पूंजीपतियों के अधिनायकत्व के सिवाय और कुछ नहीं है। इस संभावित क्रान्तिकारी स्थिति में भी, हमारे देश की मुख्य कम्युनिस्ट पार्टियों ने मजदूर वर्ग को अपने हाथ में सत्ता लेने के लिये तैयार करने की ज़रूरत को अजेंडा पर नहीं रखा।
भाकपा ने इंदिरा गांधी के आपात्काल का समर्थन किया, जब कि माकपा और भाकपा (माले) के विभिन्न गुटों ने पूंजीवादी विपक्ष पार्टियों के उस गठबंधन का समर्थन किया, जिसने बाद में मोरारजी देसाई की अगुवाई में जनता पार्टी की सरकार का गठन किया। इन भटकाववादी धाराओं के खिलाफ़ क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के संघर्ष के दौरान, हमारी पार्टी का जन्म हुआ।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी का जन्म 25 दिसंबर, 1980 को हुआ। शुरू से हमारी पार्टी सोवियत, चीनी और सभी प्रकार की संशोधनवादी गलत धारणाओं से मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैज्ञानिक सिध्दान्त की हिफ़ाज़त करने पर वचनबध्द रही है। गांवों से शहरों को घेरने की धारणा को ठुकराते हुये, हमारी पार्टी का निर्माण शहरों में, बड़े उद्योगों और सेवाओं के मजदूरों के बीच बुनियादी संगठनों को स्थापित करते हुये, किया गया है। मजदूर वर्ग को नेतृत्व देने और पूंजीवाद की कब्र खोदने तथा नया समाजवादी समाज बनाने की ऐतिहासिक भूमिका निभाने में मजदूर वर्ग को सक्षम बनाने के काम के प्रति हम वचनबध्द रहे हैं। बीते 31वर्षों से हम इसी रास्ते पर टिके हुये हैं।
हमारी पार्टी के अनुसार, आज सभी कम्युनिस्टों के सामने मजदूर वर्ग को अपने हाथ में राज्य सत्ता लेने में सक्षम बनाना सबसे मुख्य काम है। हमारी पार्टी सभी कम्युनिस्टों से आह्वान करती है कि इसी काम पर ध्यान दें और बीते समय के सभी भटकाववादी उद्देश्यों को पीछे छोड़ दें।
आज हमारे समाज में मजदूर वर्ग बहुसंख्यक वर्ग बन चुका है। अगर हम भारतीय जनगणना द्वारा प्रकाशित सरकारी आंकड़ों का अध्ययन करें तो हम यह सच्चाई पायेंगे कि वेतन की आमदनी पर निर्भर परिवारों की संख्या आधी आबादी से अधिक है।
हमारे देश का मजदूर वर्ग अब कोई अनपढ़ जनसमूह नहीं है। आज मजदूर वर्ग में हथौड़े से काम करने वाले भी शामिल हैं और डेस्क टाप व लैप टाप से काम करने वाले भी।
इसी वर्ष, कुछ महीने पहले जब एयर इंडिया के मजदूरों ने विमान चालकों की अगुवाई में अपना बहादुर संघर्ष किया था, तो उन्होंने आधुनिक मजदूर वर्ग की लड़ने की क्षमता को दर्शाया था। इस विशाल राजकीय विमान कंपनी को दिवालिया बनाने और इसका निजीकरण करने की इजारेदार पूंजीपतियों और केन्द्र सरकार की साज़िश का उन्होंने बहादुरी से पर्दाफाश किया।
आज मजदूर वर्ग समाज की अगुवा ताकत बनने के लिये पहले से कहीं ज्यादा सक्षम है। लेकिन जब तक मजदूरों को खुद को कम्युनिस्ट कहलाने वाली अलग-अलग पार्टियों से आपस में विरोधी संदेश मिलते रहेंगे, तब तक इस एक उद्देश्य के इर्द-गिर्द मजदूर वर्ग की राजनीतिक एकता नहीं कामयाब हो सकेगी। इसीलिये हम कहते हैं कि समस्या मजदूर वर्ग के नेताओं में है।
आज की हालतों में, प्रत्येक कम्युनिस्ट के सामने यह सवाल है कि क्या आप मजदूर वर्ग को शासक वर्ग बनने के लिये संगठित करने व सक्षम बनाने के इस अति अहम काम को उठाने को तैयार हैं?
किसी पार्टी या व्यक्ति ने बीते दिनों में क्या किया और क्यों वैसा किया, उस पर वाद-विवाद करना आज मुख्य काम नहीं है। मुख्य काम है आज की ज्वलंत समस्या, यानि मजदूर वर्ग को सत्ता में आने के लिये तैयार करने में कम्युनिस्टों की जरूरी भूमिका को निभाना।
साथियो!
हमारे समाज में शासक वर्ग बनने के लिये, यह जरूरी है कि मजदूर वर्ग किसानों को अपने विश्वसनीय राजनीतिक मित्र बतौर अपने पक्ष में ले आये। मजदूर और किसान समाज की दौलत को पैदा करते हैं। हरेक इलाके में तथा पूरे देश में, मजदूर और किसान आबादी के 90 प्रतिशत से ज्यादा हैं।
उपनिवेशवादी गुलामी और लूट के खिलाफ़, सामंती दमन के खिलाफ़ और वैश्वीकृत पूंजीवादी बाजार में इजारेदार कंपनियों द्वारा लूट के खिलाफ़, हमारे देश के किसानों के क्रान्तिकारी संघर्षों का लंबा इतिहास है।
सभी पूंजीवादी और सुधारवादी राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिक नेता अपने-अपने वोट बैंक बनाने के उद्देश्य से, किसानों को अपने भटकाववादी प्रचार का निशाना बनाते हैं।
संसदीय खेल में हिस्सा लेने वाली पार्टियां स्वाभाविकत: राज्य सरकार चलाने वाली पार्टी को किसानों की समस्याओं के लिये जिम्मेदार ठहराती हैं। इस तरह वे किसानों को टाटा और अम्बानी की अगुवाई में इजारेदार पूंजीपतियों और उनकी हमलावर साम्राज्यवादी दौड़ पर अपने संघर्ष का निशाना साधने से रोकती हैं। वे यह खतरनाक भ्रम फैलाती हैं कि अगर पूंजीवाद का सही प्रबंधन किया जाये तो किसानों को खुशहाली और सुरक्षा मिल सकती है।
माओ का पालन करने वाले किसानों से कहते हैं कि सामंती अवशेष ही मुख्य दुश्मन हैं। यह भी एक भटकाववादी लाइन है। कम्युनिस्टों का काम है किसानों को यह सच्चाई समझाना कि मेहनतकश बहुसंख्या का सांझा मुख्य दुश्मन इजारेदार कंपनियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग है। राजकीय इजारेदार पूंजीवाद की मुख्यत: प्रचलित व्यवस्था ही सामंती और जातिवादी दमन व भेदभाव को बरकरार रखने के लिये जिम्मेदार है।
आज छोटी से बड़ी जमीन वाले, अधिकतर सभी किसान इजारेदार पूंजीपतियों के हमलों से बढ़ती असुरक्षा और खतरा महसूस कर रहे हैं। इजारेदार पूंजीपति किसानों की भूमि को हड़पने, विशाल खुदरा व्यापार कारोबार की आपूर्ति की श्रृंखला स्थापित करने व उस पर हावी होने, किसानों के कर्जे के दायरे को और विस्तृत करने तथा बड़े बैंकों द्वारा ब्याज वसूली का दायरा बढ़ाने के लिये किसानों पर बढ़-चढ़ कर हमले कर रहे हैं। किसानों के श्रम से उत्पन्न धन से इजारेदार कंपनी व बैंक अधिक से अधिक वसूली करते हैं।
हमारे जीवन का अनुभव यह दिखाता है कि भूमि और उत्पादन के दूसरे साधनों में निजी सम्पत्ति पर आधारित, पूंजीवाद का रास्ता मेहनतकश किसानों को पुराने व नये प्रकार के शोषण और दमन से मुक्त नहीं करा सकता है। अधिक से अधिक वैश्वीकृत पूंजीवादी बाज़ार में स्पर्धा से बहुत थोड़े से किसानों को ही खुशहाली मिली है और वह भी सिर्फ कुछ समय के लिये ही। अधिकतम किसान कर्जे में फंस कर तबाह हो चुके हैं। यह कृषि आयात और निर्यात की नीतियों के उदारीकरण और हिन्दोस्तानी व वैश्विक इजारेदार कंपनियों और बैंकों के प्रवेश का नतीजा है। इजारेदार पूंजीपतियों के और ज्यादा हावी हो जाने से हालत और बिगड़ जायेगी।
सिर्फ समाजवादी सामूहिकीकरण का रास्ता ही मेहनतकश किसानों को अपनी इस दुर्दशा से बचा सकता है। जिस जमीन पर किसान फसल उगाता है, उस पर उसका मालिकाना अधिकार और फसल के लिये किसान को स्थायी व लाभदायक दाम इन अधिकारों की मजदूर वर्ग को जमकर हिफ़ाज़त करनी चाहिये। मजदूर वर्ग को छोटी जमीन धारकों को यह भरोसा दिलाना पड़ेगा कि स्वेच्छा से अपनी छोटी-छोटी सम्पत्तियों को जोड़कर सामूहिक फार्म बनाने और राज्य से तकनीकी व वित्तीय समर्थन की मांग करने से ही उनका भविष्य सुधर सकता है।
मजदूरों और किसानों का राज्य सामूहिक फार्मों को नि:शुल्क तकनीकी सहायता देगा और शून्य किराये पर मशीन लीज़ पर देगा। वह सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था से निकाले जाने वाले उत्पादों की तुलना में ज्यादा संसाधन डाला जायेगा, ताकि ग्रामीण और शहरी जीवन स्तरों के बीच का अंतर समय के साथ-साथ कम होता जाये। इसी क्रान्तिकारी नज़रिये के साथ, समाज के मालिक बनने के उद्देश्य से, मजदूर वर्ग को किसानों को लामबंध करना पड़ेगा और इजारेदार पूंजीपतियों व उनके हमलावर अग्रसर के खिलाफ़ राजनीतिक गठबंधन को अगुवाई देना होगा।
साथियो!
हिन्दोस्तानी समाज के अन्दर विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के लोग बसे हुये हैं, जिनकी अपनी अलग-अलग संस्कृतियां, भाषायें व इलाके हैं, जो सांझी सभ्यता की जड़ों, दार्शनिक विरासत और सांझे उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के इतिहास से जुड़े हुये हैं। बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने एक ऐसी राज्य सत्ता स्थापित की थी, जिसमें सभी राष्ट्रीय अधिकारों को नकारा जाता था और जिसके ज़रिये वे इस समृध्द देश तथा यहां बसे हुये मेहनतकश लोगों को लूटने में कामयाब हुये। उन्होंने एक केन्द्रीय अफसरशाही और सशस्त्र बल को स्थापित किया, जिन्होंने हिन्दोस्तानी समाज को बांट कर उन पर शासन किया, जिन्होंने किसी राष्ट्र या लोगों को मान्यता नहीं दी, बल्कि सिर्फ बहुसंख्यक 'हिन्दू समुदाय' अल्प संख्यक 'मुसलमान समुदाय' और अन्य धार्मिक अल्प संख्यकों को मान्यता दी।
जब उपनिवेशवादी शासन समाप्त हुआ, तब नेहरू और दूसरे पूंजीवादी वक्ताओं ने वही सब कुछ कहा जो लोग सुनना चाहते थे, कि वे ''अनेकता में एकता'' मजबूत करेंगे। पर वास्तव में उन्होंने राज्य सत्ता के उपनिवेशवादी चरित्र को बरकरार रखा। 1950 के संविधान ने बर्तानवी शासकों द्वारा छोड़ी गयी सत्ता व्यवस्था व सत्ता के संस्थानों को वैधता दी।
हिन्दोस्तानी संघ एक ऐसे संविधान पर आधारित है, जो ऐतिहातिक तौर पर बने राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और लोगों के अस्तित्व को नकारता है। हिन्दोस्तानी संघ खुद को एक महासंघ बताता है पर वास्तव में वह अपने इलाके के अन्दर राष्ट्रीय अधिकारों के उपनिवेशवादी दमन का साधन है। वह विभिन्न राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और लोगों के लिये एक कारागार जैसा है। प्रत्येक राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोगों की तमन्नाओं को या तो राज्य सत्ता में प्रान्तीय पूंजीवादी हितों को शामिल करके भ्रमित किया जाता है या ''देश की राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता'' की रक्षा करने के नाम पर बड़े हिंसात्मक रूप से कुचल दिया जाता है।
केन्द्रीय राज्य द्वारा राष्ट्रीय अत्याचार के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे लोग हिन्दोस्तानी शासक वर्ग के खिलाफ़ संघर्ष में मजदूर वर्ग के संभावित मित्र हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) व अन्य दल शासक वर्ग के प्रचार को दोहराते हैं कि राष्ट्रीय अत्याचार के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे लोग ''हिन्दोस्तान की राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता'' के लिये खतरा हैं। इस तरह वे बहुत खतरनाक भूमिका अदा कर रहे हैं। वे राष्ट्रीय अत्याचार को बरकरार रखने और इजारेदार पूंजीपतियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग की वर्तमान हुकूमत को बनाये रखने का काम कर रहे हैं।
1972 में, अपनी स्थापना के 8 वर्ष के अन्दर ही, माकपा ने हिन्दोस्तान की एकता और अखंडता की हिफ़ाज़त करने के नाम पर, देश के अन्दर राष्ट्रीय आन्दोलनों को कुचलने के शासक वर्ग के सरकारी रवैये को खुलेआम अपना लिया। राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और लोगों के आत्म-निर्धारण के अधिकार की हिफ़ाज़त करने के लेनिनवादी सिध्दान्त को उसने ठुकरा दिया। उसने यह औचित्य दिया कि हमारे देश में कोई एक अत्याचारी राष्ट्र नहीं है। परन्तु एक अत्याचारी राज्य जो बड़े पूंजीपतियों की सेवा में काम करता है, उसके द्वारा राष्ट्रीय अत्याचार कुछ कम दमनकारी नहीं है, हालांकि कोई एक अत्याचारी राष्ट्र नहीं है। यहां एक दमनकारी वर्ग और एक केन्द्रीय राज्य है, जिसकी नींव उपनिवेशवादी है।
क्रुश्चेववादी संशोधनवाद द्वारा किये गये मुख्य बंटवारे से पूर्व, 20वीं सदी में अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रमुख निष्कर्षों में एक यह था कि राष्ट्रीय आत्म-निर्धारण के झंडे को इस युग में पूंजीपतियों ने पांव तले रौंद दिया है, और अब मजदूर वर्ग को राष्ट्रीय आत्म-निर्धारण के लक्ष्य की हिमायत करनी पड़ेगी।
हमारे देश में मजदूर वर्ग आन्दोलन को रज़ामंद राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओें और लोगों के स्वेच्छापूर्ण संघ बतौर हिन्दोस्तान को पुनर्गठित करने के उद्देश्य की हिमायत करनी होगी।
प्रत्येक राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोगों में अधिकतम आबादी मजदूर वर्ग और किसान है। मजदूरों और किसानों को प्रत्येक राष्ट्र का गठन करना होगा और इस प्रकार के मजदूरों और किसानों के गणतंत्रों को मिलकर एक शक्तिशाली स्वेच्छापूर्ण हिन्दोस्तानी संघ बनाना होगा। हरेक राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोग स्वेच्छा से इस संघ में शामिल हो जायेंगे क्योंकि इससे सभी को फायदा होगा।
यह आधुनिक हिन्दोस्तानी मजदूर वर्ग का नज़रिया है। यह आधुनिक हिन्दोस्तानी मजदूर वर्ग बहुभाषी और बहुराष्ट्रीय है। यही नज़रिया हिन्दोस्तानी राज्य के नवनिर्माण के लिये हमारी पार्टी के कार्यक्रम में झलकता है। नवनिर्माण के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द किसानों और उत्पीड़ित राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और आदिवासियों को राजनीतिक मित्र बतौर एकजुट करना, यही मजदूर वर्ग के शासक वर्ग बनने की कुंजी है।
साथियो!
1991 में शुरू हुई इस शीत युध्द के बाद की अवधि में, हमारे देश के मजदूर वर्ग को बार-बार यह बताया गया है कि हमारा फौरी राजनीतिक उद्देश्य राज्य और समाज के धर्म निरपेक्ष आधार को भाजपा व उसके मित्रों के साम्प्रदायिक खतरे से बचाना है। इस औचित्य के साथ, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने 60वाम दलों के सांसदों को अगुवाई देते हुये, 2004में कांग्रेस पार्टी को सरकार बनाने में मदद की थी।
कांग्रेस पार्टी को भाजपा की तुलना में ''कम बुरी'' बताया गया है क्योंकि वह धर्मनिरपेक्षता की विचारधारा का प्रचार करती है। मजदूर वर्ग को यह भी बताया गया कि इजारेदार पूंजीवादी घरानों की इस सबसे भरोसेमंद पार्टी के साथ एक सांझा कार्यक्रम बनाना मुमकिन है। इस तथाकथित सांझा न्यूनतम कार्यक्रम की देख-रेख करने के लिये वाम नेताओं ने सोनिया गांधी की अगुवाई में एक सलाहकार निकाय में भाग लिया।
2004 से चल रहे कांग्रेस पार्टी नीत संप्रग शासन का क्या परिणाम हुआ है? सभी क्षेत्रों के मजदूरों का शोषण खूब बढ़ गया है, किसानों और अदिवासियों की लूट, कुदरती संसाधनों की लूट, बड़ी-बड़ी कंपनियों द्वारा हमलावर तरीके से भूमि अधिग्रहण, सब बहुत बढ़ गये हैं। राजकीय आतंकवाद और व्यक्तिगत आतंकवाद का विरोध करने के नाम पर पाकिस्तान के खिलाफ़ उग्रराष्ट्रवादी उन्माद लगातार सरकार की नीति रही है। बम विस्फोट और तरह-तरह की हिंसा और आतंक के कांड होते रहते हैं, पर गुनहगारों का न तो कभी पता लगता है, न ही उन्हें कभी पकड़ा जाता या सज़ा दी जाती है। तो इस तथाकथित ''कम बुरी'' पार्टी का समर्थन करके क्या फायदा हुआ है?
कम्युनिस्टों को यह समझना होगा कि हमारे देश में राज्य उपनिवेशवाद की विरासत है और अपनी नींव से ही साम्प्रदायिक है। हमारी जनता साम्प्रदायिक नहीं है। हमारे यहां लोग एक दूसरे के ज़मीर के अधिकार का आदर करते हुये, सदियों से मिल-जुल कर रहे हैं। साम्प्रदायिक हिंसा राजकीय आतंकवाद का एक रूप है।
साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता दोनों शासक वर्ग के हाथों में हथियार हैं जिनके द्वारा वे मेहनतकशों को गुमराह करते हैं, बांटते हैं और उनके संघर्षों को खून में बहाते हैं। बर्तानवी उपनिवेशवाद से विरासत में पायी गयी 'बांटो और राज करो' की नीति, जिसे हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों ने और कुशल बना दिया है, उसी के ये दो पहलू हैं। धर्मनिरपेक्षता की सरकारी विचारधारा उस झूठे उपनिवेशवादी प्रचार पर आधारित है कि हमारे लोग साम्प्रदायिक हैं, जबकि यूरोपीय उपनिवेशवादियों द्वारा स्थापित राज्य साम्प्रदायिक सद्भावना वापस लाने का साधन है।
कांग्रेस पार्टी नीत संप्रग सरकार के साथ 4साल तक नजदीकी से मिलकर काम करने के बाद, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) ने 2008में अपने 19वें महाअधिवेशन में यह स्वीकार किया कि ''बड़े उद्योगपतियों और विदेशी पूंजी के हित में नीतियों को बढ़ावा देना ही संप्रग सरकार की दिशा रही है''। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि माकपा ने 2004 में जो कहा था वह गलत था। कांग्रेस पार्टी ''कम बुरी'' नहीं है। कांग्रेस पार्टी और भाजपा, दोनों ही बड़े पूंजीपतियों के एक ही कार्यक्रम को लागू करने को वचनबध्द हैं। उनकी बोली और प्रचार में अन्तर हो सकता है परन्तु वे एक ही वर्ग की सेवा में काम करती हैं।
मजदूर वर्ग और उसके राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गुमराह करके, साम्प्रदायिक खतरे से लड़ने के नाम पर कम बुरे का समर्थन करने की लाईन की वजह से बड़े पूंजीपति और हमलावर तरीके से अपने इरादों को बढ़ावा दे पाये हैं।
साथियो!
पूंजीवाद और समाजवाद के बीच के किसी मध्य मार्ग के लिये, पूंजीपति वर्ग के किसी हिस्से के साथ मजदूर वर्ग की एकता बनाने की जो लोग हिमायत करते हैं, वे बहुत गलत विचार फैला रहे हैं।
जैसा कि हमने पहले बताया था, माकपा और उसके मित्रों ने यह भ्रम फैलाया था कि मनमोहन सिंह की अगुवाई में प्रथम संप्रग सरकार एक ''सांझा न्यूनतम कार्यक्रम'' लागू करने वाली थी जिससे पूंजीपति वर्ग, मजदूर वर्ग और किसानों, सब को फायदा होगा।
भाकपा (माले) लिबरेशन और भाकपा (माओवादी) माकपा के कट्टर विरोधी लगती हैं। परन्तु वे भी मजदूरों और किसानों के साथ पूंजीपति वर्ग के देशभक्त हिस्से के मिले-जुले शासन की हिमायत करती हैं। वे दावा करती हैं कि पूंजीवाद द्वारा मेहनतकशों की सेवा करवाई जा सकती है अगर कम्युनिस्ट पार्टी चतुराई के साथ उसका प्रबंधन करे। भाकपा (माले) लिबरेशन नव जनवाद के तथाकथित पड़ाव के दौरान ''जीवन्त पूंजीवाद'' के नज़रिये को बढ़ावा देती है।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद का विज्ञान हमें यह सिखाता है कि अमीर अल्पसंख्या और मेहनतकश बहुसंख्या के बीच बढ़ता अन्तर पूंजीवाद के चलते अनिवार्य है, किसी की मर्जी से स्वतंत्र क्रियाशील आर्थिक नियमों का नतीजा है। यह दावा करना कि कुछ तथाकथित जनता-परस्त नीतियों से पूंजीवाद को मानवीय चेहरा दिलाया जा सकता है या ज्यादा जीवंत और प्रगतिशील बनाया जा सकता है, यह इस सच्चाई को छिपाता है कि अपने विकास के वर्तमान पड़ाव पर पूंजीवाद पूरी तरह परजीवी हो गया है। यह कहना कि पूंजीवाद का मार्क्स ने यह साबित कर दिखाया था कि पूंजीपतियों और मजदूरों के वर्ग हित आपस में अंतर्विरोधी हैं। ऐसी राजनीतिक सत्ता नहीं हो सकती जो इन दोनों वर्गां के हितों की सेवा करे। दिखावा करना कि इन दोनों का कोई सांझा समाधान हो सकता है,यह खतरनाक भ्रम फैलाने का काम है। यह मजदूर वर्ग को अपनी हुकूमत स्थापित करने के उद्देश्य से गुमराह करता है।
चीन इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि जब एक क्रांतिकारी पार्टी पूंजीपति, मजदूर, किसान और दूसरी मध्यम श्रेणियों के मिले-जुले शासन की हिमायत करती है तो इसका क्या परिणाम होता है। माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने कहा था कि चीन की हालतों में मजदूर वर्ग का शासन नहीं स्थापित करना चाहिये। उसने मजदूर वर्ग और राष्ट्रीय पूंजीपतियों समेत ''अनेक क्रान्तिकारी वर्गों के मिले-जुले अधिनायकत्व'' की हिमायत की थी। आज यह स्पष्ट है कि यह मिला-जुला शासन चीनी पूंजीपति वर्ग का शासन है, जो अब एक साम्राज्यवादी ताकत बन गई है।
माओ द्वारा पेश की गई, अनेक वर्गों के मिले-जुले अधिनायकत्व की धारणा सैध्दान्तिक तौर पर गलत है। यह राज्य के विषय पर मार्क्सऔर लेनिन के मूल सबकों के विरुध्द है। मार्क्सऔर लेनिन के अनुसार, राज्य अवश्य ही एक वर्ग के अधिनायकत्व का साधन है। वर्तमान युग में राज्य या तो पूंजीपति वर्ग का अधिनायकत्व होगा या मजदूर वर्ग का। यह कुछ और नहीं हो सकता।
चीन का परिणाम यह साबित करता है कि अगर श्रमजीवी वर्ग का अधिनायकत्व नहीं स्थापित किया जाता, तो पूंजीपति वर्ग अवश्य ही अपना अधिनायकत्व स्थापित कर लेगा।
हमारे देश में, राजकीय इजारेदार पूंजीवाद ही मुख्य व्यवस्था है और इजारेदार कंपनियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवादी बनने चल पड़ा है। इन हालतों में, किसी तथाकथित मध्य व्यवस्था स्थापित करने के लिये पूंजीपति वर्ग के किसी देशभक्त तबके के साथ एकता बनाने की बात करना एक खतरनाक भ्रम फैलाना है। यह खतरनाक है क्योंकि यह मजदूर वर्ग को सत्ता लेने के लिये तैयार करने की जरूरत से हमारा ध्यान हटाता है।
साथियो!
मजदूरों के यूनियनों ने कुछ फौरी मांगों की सूची पेश की है। इनमें शामिल हैं श्रम अधिकारों के खिलाफ़ पूंजीवादी हमलों को रोकना, निजीकरण कार्यक्रम को रोकना और बहुत सी ज़रूरी चीजों समेत एक सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था की स्थापना, इत्यादि। पर सवाल यह है कि कौन-सी राजनीतिक ताकत इन मांगों को पूरा करेगी?
क्या वर्तमान कांग्रेस पार्टी नीत सरकार इन मांगों को पूरा करेगी? क्या एक वैकल्पिक भाजपा नीत सरकार इन्हें पूरा करेगी? क्या प्रांतीय पूंजीवादी पार्टियों के साथ कुछ 'वाम' दलों का गठबंधन इन्हें पूरा करेगा? हमारे जीवन का अनुभव यह दिखाता है कि ये सभी संसदीय मोर्चे इजारेदार पूंजीवादी घरानों के कार्यक्रम को बढ़ावा देने वाले राजनीतिक गठबंधन हैं।
कैसी राजनीतिक व्यवस्था वह कदम उठायेगी ताकि निजी मुनाफे का उद्देश्य अर्थव्यवस्था की प्रेरक शक्ति न बनी रहे? यह मुख्य सवाल है।
चाहे यह मारुति की फैक्टरी में संघर्ष हो या एयर इंडिया में, मजदूर यह देख सकते हैं कि सरकार पूंजी और श्रम के बीच संघर्ष में एक निष्पक्ष पार्टी नहीं है। सरकार पूंजीपति वर्ग का अस्त्र है। राडिया टेप्स ने यह स्पष्ट कर दिया कि कैसे इजारेदार घराने यह भी निर्देश देते हैं कि शासक गठबंधन के किस सदस्य को किस विभाग का मंत्री या प्रधान बनना चाहिये।
प्रत्येक संघर्ष से यह स्पष्ट हो रहा है कि राजनीतिक सत्ता के सवाल को हल करना अति आवश्यक है। जब तक केन्द्रीय और राज्य सरकारें टाटा, बिरला, अंबानी और दूसरे इजारेदार पूंजीपतियों के हित में, उनके वैश्विक साम्राज्यवादी इरादों की सेवा में काम करेंगी, तब तक मजदूर वर्ग बढ़ते शोषण और अधिकारों के हनन के अलावा कुछ और नहीं उम्मीद कर सकता है। यही सच्चाई है।
हमें एक ऐसी राज्य सत्ता की ज़रूरत है जो पूंजीपतियों के ''अधिकतम मुनाफों के अधिकार'' को सीमित व पूरी तरह दूर करेगी, ताकि मजदूरों और किसानों के अधिकारों तथा समाज के सभी सदस्यों के मानव अधिकारों को पूरा किया जा सके। हमें एक ऐसी राजनीतिक सत्ता की ज़रूरत है, जो क्रमश: सामाजिक उत्पादन के साधनों को निजी संपत्तिा से बदलकर सामाजिक और सामूहिक संपत्तिा बना देगी।
सभी पूंजीवादी लोकतंत्रों में एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी ले लेती है, पुराने चेहरों की जगह पर नये चेहरे आ जाते हैं, परन्तु समाज के चलने की दिशा सबसे बड़े इजारेदार पूंजीपतियों के हितों के अनुसार ही होती है।
इन परिस्थितियों में एक नये प्रकार के लोकतंत्र, यानि श्रमजीवी लोकतंत्र की ज़रूरत है। कम्युनिस्टों को एक ऐसे उन्नत और सबसे आधुनिक लोकतंत्र का नज़रिया पेश करना होगा, जो समाज को समाजवाद और कम्युनिज्म के रास्ते पर ले जाने में मेहनतकश जनसमुदाय को सक्षम बनायेगा।
मजदूर वर्ग आन्दोलन के अंदर वे लोग जो यह प्रचार करते हैं कि संसदीय लोकतंत्र की हिफ़ाज़त करनी चाहिये और उसे मेहनतकश जनसमुदाय के हित में इस्तेमाल करना चाहिये, वे इस सच्चाई को छिपा रहे हैं कि यह पूंजीवादी लोकतंत्र है। यह इस या उस पूंजीवादी पार्टी या मोर्चे के हाथ में फैसले लेने के अधिकार को संकेंद्रित करने वाली व्यवस्था है।
वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और प्रक्रिया के चलते, शासक पार्टी ही सर्वोच्च प्राधिकरण होता है, जब लोगों की भूमिका बहुत ही कम होती है और वह भी सिर्फ मतदान के दिन। संसद या विधान सभा में किसी एक पार्टी या गठबंधन के हाथ में संप्रभुता या सर्वोच्च ताकत सौंपना और बाकी पार्टियों को 'विपक्ष' में डाल देना, यह एक ऐसे राज्य का रूप और राजनीतिक प्रक्रिया है, जो पूंजीपति वर्ग के अधिनायकत्व के लिये उपयुक्त है, क्योंकि पूंजीपति वर्ग स्वाभाविकत: प्रतिस्पर्धी मोर्चों में बंटा हुआ है।
मजदूर वर्ग की विशेषता उसके वर्ग हित की एकता है। उसे एक हिरावल कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत है, ताकि वह सभी प्रकार के शोषण को मिटाने के अपने वर्ग के एक मुख्य उद्देश्य को हासिल कर सके। मजदूर वर्ग के शासन की कामयाबी के लिये यह ज़रूरी है कि संपूर्ण निर्वाचित निकाय सभी फैसलों के लिये जाने व लागू किये जाने के लिये, मतदाताओं के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह हो, कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में कोई बंटवारा न हो।
रूसी क्रांति में सबसे बड़ी फैक्टरियों और औद्योगिक केन्द्रों के मजदूरों ने अपनी सत्ता के तंत्र स्थापित किये थे। उन्होंने फैसले लेने वाले तथा उन्हें लागू करने वाले निकाय बनाये, जिन्हें सोवियत का नाम दिया गया। अपनी हिरावल पार्टी की अगुवाई में उन्होंने एक-एक शहर में इन तंत्रों को स्थापित व मजबूत किया। उन्होंने कई इलाकों में किसानों और सेना के सैनिकों को इसी प्रकार के सोवियत स्थापित करने को प्रेरित किया। पूंजीपतियों के शासन के खिलाफ़ संघर्ष के दौरान उन्होंने इन तंत्रों को मजबूत किया और जब सही समय आया तब ''सोवियतों को संपूर्ण सत्ता!'' का नारा दिया। जार की हुकूमत द्वारा पीड़ित राष्ट्रों व लोगों ने एक-एक करके सोवियतों की सत्ता स्थापित की और सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ में स्वेच्छा से शामिल हुये।
मजदूर वर्ग के लोकतंत्र को समाज के प्रत्येक बालिग सदस्य को चुनने और चुने जाने का अधिकार सुनिश्चित करना होगा, यानि उम्मीदवारों के चयन में निर्णायक भूमिका देनी होगी। राजनीतिक प्रक्रिया को सिर्फ राजनीतिक पार्टियों को ही नहीं बल्कि सभी मजदूर यूनियनों, किसान संगठनों, महिला व नौजवान संगठनों को संसदीय निकायों के चुनावों के लिये सक्षम बनाना होगा। मतदान से पहले उम्मीदवारों की अंतिम सूची पर जनता की सहमति प्राप्त करनी होगी। सोवियत संघ में नये संविधान के अपनाये जाने के जल्द बाद, 1936 में इसी तरह चुनाव किये गये। जब क्रुश्चेववादी संशोधनवादियों ने पार्टी और राज्य सत्ता के चरित्र को बदलना शुरू किया, तब उन्होंने फैसले लेने का सारा अधिकार अपने हाथों में ले लिया और सभी प्रकार के विरोध को बंद करने के लिये बल प्रयोग व धमकियां देना शुरू किया।
श्रमजीवी लोकतंत्र को प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लोगों के, चुने गये व्यक्ति को किसी भी समय वापस बुलाने तथा कानून प्रस्तावित करने के अधिकारों की हिफ़ाज़त करनी होगी। उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि कार्यकारिणी निर्वाचित विधायिकी को जवाबदेह हो तथा उसके अधीन हो। निर्वाचित विधायिकी को मतदाताओं के प्रति जवाबदेह और उनके अधीन होना होगा।
20वीं सदी में सोवियत सत्ता के उत्थान और पतन के अनुभव की समीक्षा करने के दौरान हमारी पार्टी इस निष्कर्ष पर पहुंची कि कम्युनिस्ट पार्टी को इस असूल के लिये संघर्ष करना होगा कि सर्वोच्च फैसले लेने का अधिकार जनता के हाथ में हो, जिसका कुछ ही अंश वे निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंपें। मजदूरों, किसानों, महिलाओं और नौजवानों के अनेक जनसंगठनों के साथ-साथ, कम्युनिस्ट पार्टी को मेहनतकश जनसमुदाय को सक्षम बनाना होगा, ताकि वे सर्वोच्च सत्ता को लागू कर सकें और चुने गये प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहरा सकें। लोगों को सत्ता में लाने के साधन बतौर राजनीतिक पार्टियों की भूमिका की नई परिभाषा के लिये हमें संघर्ष करना होगा, जिसका मतलब है कि उन अपराधी और भ्रष्ट पार्टियों के लिये कोई स्थान नहीं होगा, जो सिर्फ लोगों की लूट से खुद को अमीर बनाने के लिये सत्ता में आना चाहती हैं।
हिन्दोस्तानी क्रान्ति की सफलता के लिये, मजदूर वर्ग को अपनी सत्ता चलाने के उपयुक्त संस्थान और तंत्र ढ़ूंढ़ने होंगे, जैसा कि रूस के मजदूर वर्ग ने अपने हालातों में किये थे। मजदूरों और किसानों के निवास स्थानों में निर्वाचित तंत्रों का निर्माण करके, हमारी पार्टी ने इस दिशा में कुछ शुरुआती कदम लिये हैं। स्थानीय निवासियों की आम सभा में इन समितियों को चुना जाता है। पार्टीवादी भेदभाव से ऊपर उठकर, अपनी सांझी समस्याओं को हल करने में लोगों को एकजुट करने के लिये, इन समितियों का निर्माण किया जा रहा है। समाज की नींव पर, मजदूरों और किसानों की सत्ता के इन तंत्रों को बनाने के इस काम में सभी कम्युनिस्टों के संयुक्त प्रयास से इसमें निर्णायक प्रगति हो सकती है।
साथियो!
सारी दुनिया में पूंजीवाद का गहरा संकट फासीवादी दमन और साम्राज्यवादी जंग का गंभीर खतरा पैदा कर रहा है। हमारे देश के राजनीतिक संकट भी साम्प्रदायिक हिंसा, बम विस्फोट, बढ़ते राजकीय आतंकवाद, आदि जैसी भटकाववादी पैशाचिक हरकतों काकम्युनिस्ट एकता की पुनःस्थापना की पहली शर्त है यह मानना कि आज सभी कम्युनिस्टों का मुख्य फर्ज मजदूर वर्ग को राज्य सत्ता अपने हाथ में लेने के लिये तैयार करना और अगुवाई देना है। दूसरे शब्दों में, अपने राजनीतिक लक्ष्य पर सहमत होना पहला कदम है।
किसानों और सभी उत्पीड़ित राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और लोगों के साथ गठबंधन में मजदूर वर्ग का राज स्थापित करने के लक्ष्य को पूरा करने पर हम सहमत हो जायें। किसी मध्य मार्ग, पूंजी और श्रम की मिली-जुली सत्ता, पूंजीवाद और समाजवाद के बीच किसी मध्य चरण, आदि की सभी धारणाओं से नाता तोड़ने को हम सहमत हो जायें, क्योंकि ये सब खतरनाक भ्रम साबित हो चुके हैं।
अंत में मैं उन मुख्य विषयों को दोहराता हूं, जिन पर मैं सभी सहभागियों का विचार सुनना चाहता हूं। ये हैं :
- पूंजीवाद का संकट मजदूर वर्ग को अपने हाथ में राजनीतिक सत्ता लेने और समाजवाद का रास्ता खोलने, तथा सभी पुरानी, दमनकारी सामाजिक व्यवस्थाओं के अवशेषों को मिटाने के लिये संगठित करने की सख्त ज़रूरत को दिखाता है।
- हिन्दोस्तानी मजदूर वर्ग में शासक वर्ग बनने की क्षमता है, अगर कम्युनिस्ट अपनी उचित भूमिका निभायें।
- कम्युनिस्टों को किसानों को यह समझाना होगा कि उनका मुख्य दुश्मन इजारेदार कंपनियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग है, जो मजदूर वर्ग का भी मुख्य दुश्मन है।
- वर्तमान हिन्दोस्तानी संघ उपनिवेशवाद की विरासत है, विभिन्न राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और लोगों के लिये एक कारागार है; कि उसकी ''एकता और अखंडता'' की रक्षा करने के बजाय, हमें स्वेच्छा के आधार पर उसके पुनर्गठन के लिये संघर्ष करना चाहिये।
- कांग्रेस पार्टी और भाजपा, दोनों बड़े पूंजीपतियों के एक ही कार्यक्रम को लागू करने पर वचनबध्द हैं। उनकी बातों और प्रचार में अन्तर है परन्तु वे दोनों एक ही वर्ग के हितों की सेवा करती हैं।
- पूंजीवाद और समाजवाद के बीच कोई मध्य मार्ग या मध्य चरण नहीं है; राजनीतिक सत्ता या तो मजदूर वर्ग के हाथ में होगी या पूंजीपति वर्ग के हाथ में। इसके अलावा कोई और संभावना नहीं है।
- tवर्तमान राज्य और संसदीय लोकतंत्र मजदूर वर्ग की सत्ता के साधन नहीं हो सकते। हमें समाज की नींव पर सत्ता के नये उपकरणों का निर्माण करना होगा और श्रमजीवी लोकतंत्र की व्यवस्था, जिसमें जनता संप्रभु होगी, उसके लिये संघर्ष करना होगा।
अब हम सब खुल कर अपनी बातें रखें। बीते झगड़ों से प्रेरित न हों, किसी को दोषी ठहराने या किसी की हिफ़ाज़त करने में न पड़ें। मजदूर वर्ग के आगे बढ़ने के रास्ते पर पूरा ध्यान दें।
पूंजीवादी लोकतंत्र मुर्दाबाद!
श्रमजीवी लोकतंत्र के लिये संघर्ष करें।
सभी कम्युनिस्ट मजदूर वर्ग को सत्ता लेने के लिये तैयार करने के उद्देश्य से एकजुट हों!
इंक़लाब ज़िन्दाबाद!