पंजाब में विधान सभा चुनाव :

कम्युनिस्टों को राज्य और समाज के नवनिर्माण के कार्यक्रम के लिये काम करना होगा!

पंजाब विधानसभा का चुनाव 31 जनवरी को होगा। अगली राज्य सरकार के लिये मुख्य दावेदार हैं अकाली-दल-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस पार्टी। इन दोनों में से किसी के पास भी पंजाब और वहां के मेहनतकश लोगों के भविष्य के लिये कोई भरोसेमंद नज़रिया नहीं है।

कम्युनिस्टों को राज्य और समाज के नवनिर्माण के कार्यक्रम के लिये काम करना होगा!

पंजाब विधानसभा का चुनाव 31 जनवरी को होगा। अगली राज्य सरकार के लिये मुख्य दावेदार हैं अकाली-दल-भाजपा गठबंधन और कांग्रेस पार्टी। इन दोनों में से किसी के पास भी पंजाब और वहां के मेहनतकश लोगों के भविष्य के लिये कोई भरोसेमंद नज़रिया नहीं है।

बीते 65 वर्षों में पंजाब राष्ट्र बहुत दुख झेल चुका है। 1947 में देश के विभाजन के खून-खराबे में पंजाब को बांटा गया। विभाजन के समय हुये भयानक साम्प्रदायिक हत्याकांड में दसों-लाखों पंजाबी पुरुष, स्त्री और बच्चे मारे गये। पंजाब के एक भाग से दूसरे भाग को बड़ी संख्या में लोगों का आप्रवासन हुआ। 60 के दशक में हिन्दोस्तान के अंदर जो पंजाब था, उसे फिर से भाषा के आधार पर बांटा गया।

हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों ने 60 और 70 के दशकों में पंजाब को देश का अन्नदाता बनाने का फैसला किया। इसका मकसद था यह सुनिश्चित करना कि देश के शहरों में खाद्य के लिये बड़े पैमाने पर दंगे-फसाद न हों। पंजाब को मुख्य तौर पर, हरित क्रान्ति के लिये चुना गया। हरित क्रान्ति का मकसद था बड़े पूंजीवादी घरानों के लिये घरेलू बाजार को विस्तृत करना और केन्द्र सरकार के नियंत्रण में गेहूं और चावल का अतिक्ति भंडार पैदा करना। भारतीय खाद्य निगम ने राज्य द्वारा सुनिश्चित दामों पर पंजाब के किसानों द्वारा उत्पादित गेहूं और चावल को खरीदा। इस सब को ''समाजवादी नमूने के समाज'' का हिस्सा बताया गया। इन नीतियों की वजह से पंजाब के कुछ पूंजीवादी किसान और भूतपूर्व जमींदार अमीर बने परन्तु अधिकतम किसान कंगाल हो गये।

80 और 90 के दशक में हिन्दोस्तानी राज्य ने पंजाबी लोगों और अपनी राष्ट्रीयता के आधार पर अपने अधिकारों की पुष्टि करने के पंजाबी लोगों के संघर्ष पर बहुत बड़ा हमला किया। राजनीतिक मुद्दों को ''कानून और व्यवस्था'' की समस्याओं में बदल दिया गया और ''सिख आतंकवाद'', ''अलगाववाद'' और ''रूढ़ीवाद'' को कुचलने के नाम पर, क्रूर हिंसा का प्रयोग किया गया। अपने राष्ट्रीय अधिकारों के लिये पंजाबी लोगों के एकजुट संघर्ष को तोड़ने के इरादे से हिन्दोस्तानी राज्य ने साम्प्रदायिक ताकतों को उकसाया। लोगों को बांटने और उनके जज़बातों को कुचलने के लिये साम्प्रदायिक नफरत फैलाया गया। हिन्दोस्तानी राज्य ने अपनी पुलिस और खुफिया दलों द्वारा हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया और फिर ''सिख आतंकवादियों'' को उसके लिये दोषी ठहराया। हिन्दोस्तानी राज्य ने जून 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार – सिखों के सबसे पूज्य मंदिर पर हमला – आयोजित किया, जिसमें सेना ने हजारों बेकसूर लोगों का कत्ल किया। उसके बाद, पंजाब के ग्रामीण जिलों में गुरुद्वारों पर सैन्य हमले किये गये।

केन्द्र सरकार पर बैठी कांग्रेस पार्टी ने नवंबर 1984 में, दिल्ली, कानपुर और दूसरी जगहों पर सिखों का जनसंहार आयोजित किया, जिसमें हजारों सिख मारे गये। सभी प्राप्त सबूतों से यह साबित होता है कि वह जनसंहार पूर्व नियोजित था, कि वह तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के जवाब में लोगों की ''स्वत: स्फूर्त प्रतिक्रिया'' नहीं थी।

ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद के दशक में हिन्दोस्तानी राज्य ने पंजाब पुलिस का पुनर्गठन करके, दसों-हजारों सिख नौजवानों को उत्पीड़ित किया तथा मार डाला। जनाधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं की हत्यायें राज्य द्वारा आयोजित की गईं। पंजाब की नदियों और नहरों में लापता लोगों की हजारों लाशें मिली हैं।

उन भयानक अपराधों को अंजाम देने वालों को कभी सज़ा नहीं दी गई। केन्द्र सरकार में चाहे कांग्रेस पार्टी रही हो या भाजपा, गुनहगारों को कभी सज़ा नहीं दी गयी। इससे यह साबित होता है कि पंजाब में साम्प्रदायिक हिंसा और राजकीय आतंकवाद सरकारी नीति के हिस्से हैं। वे हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों की पसंदीदा नीति के हिस्से हैं।

हिन्दोस्तानी राज्य की नीतियों की वजह से लाखों-लाखों पंजाबी पुरुषों और महिलाओं को विदेश जाकर रोज़गार की तलाश करनी पड़ी है। उन्हें विदेशों में उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उनके अधिकारों की हिफ़ाज़त करना तो दूर, हिन्दोस्तानी राज्य उन लोगों के राजनीतिक विचारों के आधार पर, उन्हें उत्पीड़ित करने में साम्राज्यवादियों के साथ मिलीभगत में काम करता है।

जब पूंजीपतियों को अपना हित पूरा करना था, तब पूंजीपतियों ने उर्वरक, बीज, सिंचाई, आदि मुहैया करवाये और फसल की खरीदारी भी की। किसान हमेशा पूंजीपतियों की मर्जी के शिकार बने रहे। जब पूंजीपतियों ने यह कहना शुरू किया कि कनाडा व दूसरे देशों से गेहूं और चावल का आयात करना ज्यादा सस्ता है, और इस तरह किसानों पर कम दाम पर अपनी फसल बेचने का दबाव डाला गया और फिर सरकार ने गेहूं और चावल की खरीदी बंद कर दी, तब वहां के किसान दिवालिया हो गये। पंजाब को एक आत्म-निर्भर अर्थव्यवस्था से एक ''निर्यात निर्दिष्ट'' अर्थव्यवस्था में बदल दिया गया है, जो हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों के हितों की सेवा में काम करती है।

अधिक से अधिक वैश्वीकृत बाज़ार के लिये पूंजीवादी कृषि और व्यवसायिक कृषि में रसायनिक उर्वरक, कीटनाशकों और नियंत्रित पानी की सप्लाई की ज़रूरत है। कृषि उत्पादन की बढ़ती कीमतों की वजह से अधिक से अधिक संख्या में किसान कर्जे में फंस जाते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी आमदनी के लिये बहुत कम और अनिश्चित दाम मिलता है। पर्याप्त सार्वजनिक सिंचाई के अभाव के चलते अधिक से अधिक मात्रा में निजी टयूब वेल खोदे गये हैं, जिसके कारण भूमिगत जल स्तर बहुत गिर गया है। बढ़ते कर्ज भार और अपने निवेश से घटती आमदनी के कुचक्र में फंसे पंजाब में हजारों किसान बीते कुछ वर्षों में आत्महत्या कर चुके हैं।

बाकी देश की तुलना में, औद्योगिक विकास पंजाब में पीछे रह गया है। पंजाबी लोगों की जानी-मानी प्रौद्योगिक योग्यताओं के बावजूद, आज़ादी के 65 साल बाद भी, वहां कोई बड़ा उद्योग नहीं है।

पंजाब के इन चुनावों में शामिल संसदीय पार्टियों में से कोई भी पंजाबी लोगों के भविष्य के लिये अति आवश्यक इन आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों को नहीं उठा रही है।

कांग्रेस पार्टी पंजाबी लोगों की इन सारी त्रासदियों के लिये जिम्मेदार है। यह सोचना बेवकूफी होगी कि कांग्रेस पार्टी पंजाब के लोगों की समस्याओं को हल करेगी। भाजपा के साथ, कांग्रेस पार्टी बड़े इजारेदार पूंजीपतियों की मुख्य पार्टी है।

अकाली दल पंजाब के लोगों, खास तौर पर किसानों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है। वह पंजाबी राष्ट्रीयता के लोगों के जज़बातों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है। किसी समय अकाली दल ने राष्ट्रीय राजनीतिक मांगों की एक सूची, आनन्दपुर साहब प्रस्ताव की हिमायत की थी। अकाली नेता शासक बड़े पूंजीपतियों के साथ समझौता कर चुके हैं। पंजाबी राष्ट्रीयता पर, पंजाब के मजदूरों और किसानों पर केन्द्र सरकार के राजकीय आतंक और जनसंहार के विषय पर अकाली पार्टी खामोश है। पंजाब के अनसुलझे राष्ट्रीय सवाल पर भी वह खामोश है।

पंजाब के मजदूरों और किसानों की सदियों से चली आ रही प्रगतिशील और क्रान्तिकारी परंपरायें हैं। वे क्रान्ति के लिये, मजदूरों और किसानों के शासन के लिये तरसते हैं।

भाकपा, माकपा और तरह-तरह के माओवादियों की भूमिका से पंजाब के मजदूरों और किसानों के आन्दोलन को बहुत नुकसान पहुंचा है। भाकपा और माकपा ने पंजाब के मजदूरों और किसानों के बीच, हरित क्रान्ति और ''समाजवादी नमूने के समाज'' के बारे में भ्रम फैलाये। 80 के दशक में जब पंजाब के लोगों ने बगावत की थी, तब भाकपा और माकपा ने ''हिन्दोस्तान की एकता और क्षेत्रीय अखंडता'' की हिफ़ाज़त करने में हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों के नारे का समर्थन किया था। ''सिख आतंकवाद'', ''साम्प्रदायिकता'', ''रूढ़ीवाद'' आदि के खिलाफ़ लड़ने के नाम पर, 80 और 90 के दशकों में पंजाब में फैलाये गये राजकीय आतंकवाद को उन्होंने सही ठहराया। आज भाकपा और माकपा पंजाब के चुनावों में एक और ''तीसरे मोर्चे'' में शामिल हो रही हैं। वे हिन्दोस्तानी राज्य और समाज के नवनिर्माण के कम्युनिस्ट कार्यक्रम का समर्थन करने से इंकार करते हैं।

पंजाब में कम्युनिस्टों का काम है हिन्दोस्तानी राज्य और समाज के नवनिर्माण के कार्यक्रम को आगे रखना। मूल रूप से यह मजदूरों और किसानों का शासन स्थापित करने और हिन्दोस्तान को अलग-अलग राष्ट्रों व लोगों के स्वैच्छिक संघ के रूप में पुन: स्थापित करने का कार्यक्रम है। सिर्फ इसी तरह पंजाब के मजदूर और किसान एक स्वाभिमानी लोग बतौर अपना भविष्य निर्धारित कर सकते हैं।

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