62 वर्ष पहले, 26 जनवरी, 1950 को वर्तमान हिन्दोस्तानी गणतंत्र की घोषणा की गई थी। इसके साथ ही, हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों की राज्य सत्ता को मजबूत किया गया। जब हिन्दोस्तानी लोगों के बढ़ते संघर्षों की वजह से बर्तानवी उपनिवेशवादियों को छोड़कर जाना पड़ा, तब हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों ने उनसे राज्य सत्ता अपने हाथों में ले ली थी। इस नये पूंजीवादी गणतंत्र की मूल विधि या संविधान और इसके सारे संस्थान स्थापित
62 वर्ष पहले, 26 जनवरी, 1950 को वर्तमान हिन्दोस्तानी गणतंत्र की घोषणा की गई थी। इसके साथ ही, हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों की राज्य सत्ता को मजबूत किया गया। जब हिन्दोस्तानी लोगों के बढ़ते संघर्षों की वजह से बर्तानवी उपनिवेशवादियों को छोड़कर जाना पड़ा, तब हिन्दोस्तानी पूंजीपतियों ने उनसे राज्य सत्ता अपने हाथों में ले ली थी। इस नये पूंजीवादी गणतंत्र की मूल विधि या संविधान और इसके सारे संस्थान स्थापित किये गये। 1935 का उपनिवेशवादी भारत सरकार अधिनियम इस संविधान का आधार था। संविधान सभा का चयन उपनिवेशवादी शासन के तहत उन संपत्तिा वाले पुरुषों द्वारा किया गया था जो बर्तानवी शासन-कानून का पालन करते थे। इसमें हिन्दोस्तान के बड़े पूंजीपतियों और बड़े ज़मीनदारों की पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस प्रधान थी। इस संविधान सभा ने मुख्यत: 1935 के भारत सरकार अधिनियम के आधार पर संविधान बनाया। जैसा कि इससे पहले का बर्तानवी राज था, यह नयी राज्य सत्ता भी मुख्यत: पूरे देश के मेहनतकशों के श्रम और संसाधनोंको लूटकर दौलत पैदा करने का साधन बनी।
जबकि बर्तानवी राज इंग्लैंड के राजा के नाम पर शासन करता था, हिन्दोस्तान के पूंजीपतियों ने ''हम, हिन्दोस्तान की जनता'' के नाम पर सत्ता पर कब्जा किया। हिन्दोस्तानी जनसमुदाय जिसने देश की मुक्ति के लिये अपना खून बहाया था उसे यह यकीन दिलाया गया कि अब वह अपने भविष्य का मालिक खुद बनेगा। यह जनता के साथ क्रूर धोखा था। मजदूर वर्ग, किसान और मेहनतकश जनसमुदाय – यानि अधिकतम लोग – आज भी अपने भविष्य के उतने ही मालिक हैं जितने कि वे गणतंत्र की स्थापना से पहले थे। मुट्ठीभर शोषकों के शासन को बरकरार रखने और लोगों को राज्य सत्ता से दूर रखने के लिये इस गणतंत्र की विधि व्यवस्था और राजनीतिक प्रक्रिया बनाई गई थी। बीते 6 दशकों में न जाने कितनी बार चुनाव किये गये हैं। इन चुनावों से केंद्र और राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक पार्टियां सत्ता में आई हैं, परन्तु इन सभी सरकारों ने पूंजीपतियों के हितों के लिये काम किया है और मेहनतकशों के अधिकारों व हितों को कुचल डाला है। इस गणतंत्र को हिन्दोस्तानी लोगों की एकता का प्रतीक बताया जाता था, परन्तु इसके अंदर इतना ज्यादा राष्ट्रीय अत्याचार होता है कि हिन्दोस्तानी संघ के तमाम राष्ट्र और राष्ट्रीयता के लोग उससे अलग हो जाना चाहते हैं। ''राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता की हिफाज़त'' का नारा विभिन्न राष्ट्रों और लोगों के राष्ट्रीय अधिकारों को दबाने तथा उनका हनन करने का औचित्य बन गया है।
आज हमारे शासक वर्ग और उनके वक्ता बड़े गर्व के साथ कह रहे हैं कि अब हिन्दोस्तान एक ''विश्वव्यापी ताकत'' बन गया है। हमारे शासक हर रोज़ लोगों को इस तथाकथित ''उदीयमान हिन्दोस्तान'' के बारे में उत्साहित करने की कोशिश करते हैं। हमारे शासकों को इस बात से बहुत खुशी है कि दूसरे देशों के पूंजीपति वैश्विक पूंजीवादी आर्थिक संकट की हालतों में अधिक से अधिक मुनाफे की तलाश में, हिन्दोस्तानी बाज़ार में घुसने तथा हमारी जनता के श्रम और संसाधनों का अधिक से अधिक शोषण करने की कोशिश कर रहे हैं। पूंजीपतियों के लिये तो यह खुशी की बात है, परन्तु अधिकतम लोगों के लिये यह खुशी की बात नहीं है। जो ''आर्थिक संवर्धन'' हो रहा है, उससे करोड़ों-करोड़ों भूखे लोगों की भूख नहीं मिट रही है। बीमारी और कुपोषण का बोझ नहीं हट रहा है, न ही बच्चों को शिक्षा मिल रही है। लोगों को न तो सुरक्षित रोज़गार मिल रहा है, न ही बेहतर भविष्य। हिन्दोस्तान के ''विश्वव्यापी ताकत'' बनने से हमारे लोगों को शान्ति और सुरक्षा नहीं मिली है, बल्कि इस इलाके में तनाव और जंग के खतरे ज्यादा बढ़ गये हैं।
सभी मेहनतकशों में बहुत गुस्सा और असंतोष है। लोग अलग-अलग तरीकों से दिखा रहे हैं कि इस पूंजीवादी गणतंत्र के संस्थानों में उन्हें कोई भरोसा नहीं है। मजदूर वर्ग अपनी रोजी-रोटी और अधिकारों की हिफाज़त में सड़कों पर उतर आया है। कूदंकुलम, जैतापुर, गोरखपुर और दूसरे स्थानों में जहां पूंजीपति परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने या विस्तृत करने की कोशिश कर रहे हैं, वहां लोग यह दिखा रहे हैं कि वे सरकार के झूठे प्रचार और झूठे वायदों में यकीन नहीं करते हैं। लोग ''लोकतांत्रिक'' हिन्दोस्तानी राज्य के बल प्रयोग के बावजूद आंदोलन का रास्ता अपना रहे हैं। देश भर में, सभी शहरों में लाखों-लाखों लोग भोजन, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा की मांग लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं। हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजीपतियों के हित में की जा रही अनगिनत ''विकास परियोजनाओं'' के लिये देश के कोने-कोने में लाखों-लाखों लोगों को विस्थापित किया जा रहा है और वे लोग अपनी भूमि को छोड़ने या राज्य व पूंजीपतियों की शर्तों को मानने से इंकार कर रहे हैं। देशभर में लोग अधिक से अधिक हद तक खुद फैसले लेने के अपने अधिकार की मांग कर रहे हैं।
लोगों में यह जागरुकता बढ़ती जा रही है कि इस गणतंत्र के संस्थान – संसद, न्यायपालिका, सेना, आदि – लोगों के हितों में काम नहीं करते बल्कि सिर्फ मुट्ठीभर शोषकों के हित में। यह 6 दशकों के पूंजीवादी शासन, शोषण और दमन तथा इस व्यवस्था में निहित धोखाधड़ी और झूठे वादों का परिणाम है। कम्युनिस्टों और ऊंची जागरुकता वाले लोगों के सामने यह चुनौती है कि लोगों की इस बढ़ती चेतना को ऐसी दिशा में लामबंध किया जाये, जिससे इन समस्याओं का स्थाई समाधान होगा।
वर्तमान पूंजीवादी गणतंत्र की जगह पर एक नये गणतंत्र की स्थापना करने के कार्यक्रम के इर्द-गिर्द लोगों को एकजुट करना होगा। यह नया गणतंत्र हिन्दोस्तान में निवासी विभिन्न राष्ट्रों और लोगों के मजदूरों और किसानों के गणतंत्रों का स्वैच्छिक गणतंत्र होगा।
हमारे समाज की समस्याओं को हल करने की दिशा में एक ज़रूरी कदम बतौर, हमारी पार्टी ने हिन्दोस्तानी राज्य के नवनिर्माण का कार्यक्रम पेश किया है। यह मजदूर वर्ग को शासक वर्ग बनाने का कार्यक्रम है। मजदूर वर्ग किसानों और दूसरे मेहनतकशों के साथ गठबंधन बनाकर शासन करेगा और शोषण तथा दमन से मुक्त नये समाज का निर्माण करेगा। मजदूर वर्ग, किसानों और क्रांतिकारी बुध्दिजीवियों के अगुवा तबके इस काम की ओर ज्यादा से ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं। परन्तु कठोर सच्चाई यह है कि कुछ ऐसे लोग जो खुद को कम्युनिस्ट कहलाते हैं, मजदूर वर्ग और मेहनतकशों को सत्ता लेने के लिये तैयार करने की चुनौती को कबूल करने के बजाय, इस काम में बाधा डाल रहे हैं। इस गणतंत्र के संस्थानों पर लोगों के घटते विश्वास की निन्दा करते हुये, ये तथाकथित कम्युनिस्ट लोगों से निवेदन कर रहे हैं कि मामले को अपने हाथ में न लें। वे चाहते हैं कि लोग अपना भविष्य संसद में सौदेबाज़ी करने वालों के हाथों में छोड़ दें, जो जन संघर्षों की पहल को ठंडा करने तथा कुचलने के लिये झूठ बोलने और फरेबी नाटक करने में माहिर हैं। इन तथाकथित कम्युनिस्टों के अनुसार, संविधान, कानून, संसद, सेना, इत्यादि पवित्र हैं और उनका बाल भी बांका नहीं होना चाहिये, बेशक सालों-सालों का अनुभव यही दिखाता हो कि इन्हीं संस्थानों के सहारे हमारी जनता का शोषण और अत्याचार होता रहा है।
हिन्दोस्तान की धरती पर पूंजीवादी गणतंत्र की स्थापना की 62वीं सालगिरह के अवसर पर हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी खुलेआम कहती है कि इस गणतंत्र की जगह पर मजदूरों और किसानों के गणतंत्रों के स्वेच्छिक संघ की स्थापना करनी होगी। यह वक्त की ज़रूरत है। यही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है। मजदूर वर्ग को इस प्रक्रिया को अगुवाई देने के लिये तैयार और संगठित करना होगा। मजदूर वर्ग को यह ऐतिहासिक काम करने के लिये समाज के सभी वर्गों और तबकों, सभी राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं और जनजातियों, यानि इस गणतंत्र में सभी शोषित-पीड़ितों के साथ एकता बनानी होगी।