”मितव्ययिता” और यूनानी लोकतंत्र का संकट

स्वरूपों का, दासता से लेकर, सबसे लंबा इतिहास है। आज, 21वीं सदी की शुरुआत में, यूनान के लोगों को एक ऐसे राज्य का सामना करना पड़ रहा है जो खुल्लम-खुल्ला तरीके से, अपने नागरिकों की बजाय विदेशी साहूकारों के प्रति ज्यादा वफादार है।

स्वरूपों का, दासता से लेकर, सबसे लंबा इतिहास है। आज, 21वीं सदी की शुरुआत में, यूनान के लोगों को एक ऐसे राज्य का सामना करना पड़ रहा है जो खुल्लम-खुल्ला तरीके से, अपने नागरिकों की बजाय विदेशी साहूकारों के प्रति ज्यादा वफादार है।

यूरोप और अमरीका के इजारेदार बैंकों ने बचाव पैकेज के तहत विशेष कर्जा देने की शर्त बतौर, यूनानी सरकार पर कठोर ''मितव्ययिता'' के कदम थोपे हैं। मितव्ययिता का मतलब रहा है कि सभी सार्वजनिक सेवाओं में सरकारी खर्च में जबरदस्त कटौतियां, जिसके फलस्वरूप हजारों लोगों की रोजी-रोटी खो गयी है। जैसे-जैसे उत्पादन घट रहा है और बेरोजगारी बढ़ रही है, लोगों के पास खर्च करने के लिये राशि कम होती जा रही है और सरकार का राजस्व भी घट रहा है, जिससे सरकार पर और भी कटौतियां करने का दबाव आ रहा है। अत: विषमचक्र जारी है। जैसे जोंक किसी जानवर का रक्त चूसती ही रहती है जब तक वह मर नहीं जाता, उसी तरह विदेशी साहूकार संस्थानों की वसूली से अर्थव्यवस्था ज्यादा से ज्यादा घटती ही जा रही है।

अमरीकी और यूरोपी नेता दावा कर रहे हैं कि महीनों से उन्होंने एक वित्तीय पैकेज तैयार किया ताकि यूनान को दीवालिया होने से बचाया जा सके। परन्तु एक विश्वसनीय पैकेज अभी तक देखने को नहीं मिला है। जो यूनान के राज्य को पैसा देने वाले बड़े बैंकों को मंजूर होता है, वह यूनान के जनसमुदाय को मंजूर नहीं होता। यह एक अहम अड़चन है। एक और समस्या यह भी है कि यूनान में फ्रांसीसी बैंकों ने जरमनी के बैंकों से ज्यादा पैसा लगाया है और ये दोनों देश समझौता नहीं कर पा रहे हैं कि यूनानी सरकार को दिये पैसे में से कितना घाटे का बोझ इन बैंकों को उठाना पड़ेगा।

सड़कों पर विरोध प्रदर्शन तेज होते जा रहे हैं। यूनानी लोगों को यह मंजूर नहीं है कि मतदाताओं के बजाय बाहरी साहूकारों की ओर दायित्व को श्रेष्ठ समझा जाये। सांझी मुद्रा यूरो के अपनाने के पश्चात, यूरोपीय देशों के असमान विकास व संबंधों और यूरोप की आंतरिक लूट के कारण उत्पन्न हुये संकट का बोझ लोग उठाने को तैयार नहीं हैं।

देश की जनता के सामने प्रमुख प्रश्न यह है कि यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नेतृत्व द्वारा थोपी गयी कर्जे की शर्तें मंजूर की जायें या साहूकारों को पैसा लौटाने से इनकार करके यूनान को यूरो के घेरे से बाहर निकाला जाये।

मितव्ययिता के पैकेज के खिलाफ़ जन प्रतिरोध के दबाव में पापांड्रू की सरकार ने जनमत संग्रह करने को मंजूरी दी। तुरंत जरमनी के शासक वर्ग और पूरे पश्चिम देशों के वित्तीय पूंजी की शिखर मंडली में खलबली मच गयी। पापांड्रू को अपने जनमत संग्रह के प्रस्ताव को वापस लेना पड़ा जिससे उसकी सरकार गिर गयी। उसका स्थान लिया है एक ऐसे व्यक्ति ने जो बैंकिंग क्षेत्र में भरोसेमंद समझा जाता है। आने वाले महीनों में संकट और गहराने ही वाला है। 

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