जीविका की रक्षा के लिए किसान संघर्ष की राह पर

महाराष्ट्र से खबर

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महाराष्ट्र के विदर्भ तथा मराठवाड़ा के 8 से ज्यादा जिलों में दसियों-हजारों की संख्या में किसान विरोध आंदोलन कर रहे हैं। वे माँग कर रहे हैं कि कपास के लिए कम से कम 6 हजार रुपया प्रति कुंतल की दर से उनसे कपास खरीदी जाये। केंद्र सरकार ने कुछ महीने पहले मात्र 3300 रु. की जो दर घोषित किया है उससे तो उत्पादन खर्च भी ज्यादा है और इसलिए वह अन्याय है, ऐसा किसानों ने घोषित किया है। खेती से रुई निकले एक महीने से ज्यादा समय बीत चुका है। मगर अब तक कॉटन कार्पोरेशन ऑफ इंडिया ने कपास खरीदना शुरू नहीं किया है क्योंकि खुले बाजार में कपास की कीमत केंद्र सरकार की घोषित दर से ज्यादा है।

अगर महाराष्ट्र सरकार ज्यादा दर देना चाहती है तो उसके लिए उसे ही पैसे का बोझ उठाना होगा, ऐसा केन्द्र सरकार ने स्पष्ट किया है। महाराष्ट्र की बड़ी राजनीतिक पार्टियां बहुत शोरगुल कर रही हैं इस मसले पर, जैसे मानो उन्हें किसानों की बहुत फिक्र है। इस दौरान किसान बर्बाद हो रहे हैं जबकि बड़े व्यापारी तथा रुई की मिल के मालिक सस्ते दाम पर रुई खरीद कर बड़ा मुनाफा कमा रहे हैं। इसी विदर्भ इलाके में गत एक साल के दौरान हर 13 घंटे में एक किसान खुदकुशी करता रहा है।    

कांग्रेस पार्टी, भाजपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस, शिवसेना आदि सत्ताधारी वर्ग की पार्टियां महाराष्ट्र तथा अपने देश के सबसे बड़े सरमायदार घराने तथा बड़ी व्यापारी कंपनियों के हित का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्होंने अधिकतम मुनाफे के लिए श्रमजीवी वर्ग तथा किसानों का ज्यादा से ज्यादा शोषण करने का रास्ता अपनाया है। हिन्दोस्तानी राज्य ने खुलेआम घोषित किया है कि किसानों की जीविका का रक्षण करना राज्य की जिम्मेदारी नहीं है। उसे तो सिर्फ बड़े सरमायदारों के ज्यादा से ज्यादा मुनाफे की चिंता सताती है, चाहे उसके लिए श्रमजीवी तथा किसानों का बेरहम शोषण क्यों न करना पड़े!

गन्ना उत्पादन का सबसे बड़ा इलाका यानि कि पश्चिम महाराष्ट्र के गन्ना उत्पादन करने वाले किसानों का भी यही अनुभव है। उन्हें भी हर दो साल में एक बार सड़क पर उतरकर संघर्ष करना पड़ता है। इस साल भी अक्तूबर के महीने में दसियों-हजारों गन्ना किसानों ने राज्य तथा राष्ट्रीय महामार्ग जाम करना शुरू किया। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के तथाकथित गढ़ में हजारों किसानों ने डेरा डाला तथा उनके नेतागण अनशन पर बैठ गए।

उससे पहले केंद्र सरकार ने 1370 रूपया प्रति टन यह प्रथम भुगतान का दर घोषित किया था, जिस दर से शुगर कारखाने किसानों से गन्ना खरीद सकते थे। मगर यह दर कम से कम 2300 रुपया प्रति टन होना चाहिए, यह माँग लेकर गन्ना किसानों ने आंदोलन शुरू किया। किसान प्रतिनिधियों ने कई अध्ययनों का हवाला दिया जिनके मुताबिक सिर्फ गन्ना उत्पादन का खर्च ही प्रति टन 1750 से 1950 रुपया है। उत्पादन में से ज्यादातर गन्ना चीनी मिल खरीदती है और वे दो किश्तों में किसानों को भुगतान करती है – पहला किश्त गन्ना मिल में पहुंचाने पर और दूसरा मौसम खत्म होने पर मिल के मुनाफे का जायजा लेने के बाद दिया जाता है। इसका मतलब है कि किसानों को मिल मालिकों की कृपा पर तथा बाजार में शक्कर के भाव पर अपनी किस्मत छोड़ देनी पड़ती है। महाराष्ट्र सरकार के कई मंत्रीगण तथा बड़े नेताओं का ज्यादातर सहकारी मिल पर नियंत्रण है। इसलिए महाराष्ट्र सरकार उनके हित में सभी नीतियाँ अपनाती है, इसमें कोई अचरज की बात नहीं है!

इस दौरान किसान आंदोलन का बहाना इस्तेमाल करके महाराष्ट्र तथा केंद्र सरकार ने शक्कर निर्यात पर प्रतिबंध हटा दिए हैं। जो महाराष्ट्र सरकार पहले कह रही थी कि 1370 से ज्यादा दर शुगर मिल नहीं दे सकती उसी ने आंदोलन के दबाव के कारण फिर 1750 से 1900 रुपया दर अलग-अलग इलाकों के लिए घोषित किया! किसान आंदोलन स्थगित किया गया।

इससे किसको फायदा हुआ? फिर एक बार बड़ी व्यापारी कंपनियां तथा शुगर कारखानों का फायदा हुआ जो अब शक्कर निर्यात करके बड़ा मुनाफा कमाएंगे।

परिणामस्वरूप घरेलू बाजार में भी शक्कर का दाम बढ़ेगा जिससे और ज्यादा मुनाफा होगा। बहुसंख्य श्रमिक तथा किसान शक्कर के लिये ज्यादा कीमत देने को मजबूत होंगे।

शुगर मील तथा बड़ी व्यापार कंपनियां कई सालों से माँग कर रही हैं कि सरकार को घरेलू बाजार में शक्कर के दाम पर नियंत्रण तथा निर्यात पर नियंत्रण हटा देना चाहिये। वे यह माँग भी कर रही हैं कि अनिवार्य लेवी कोटा खत्म कर देना चाहिये। (सभी मिल को अनिवार्य है की उत्पादन का कुछ हिस्सा सरकार को निर्धारित दाम पर दे जिसे लेवी कोटा कहते हैं। उसी शक्कर को सरकार राशन दुकानों में देती है।) जबकि श्रमिक यह माँग कर रहे हैं कि राशन दुकानों में और ज्यादा शक्कर उन्हें खरीदने योग्य दाम में दी जाये। मगर केंद्र सरकार ने हमेशा ही ऐसी नीतियाँ अपनाई हैं जिससे शुगर मिल मालिकों की तिजोरियां भरी हैं और राशन दुकानों में उपलब्धता घटी है। (साथ में दिया बॉक्स देखिये)

केंद्र तथा राज्य सरकार की सभी नितियाँ पूरे समाज की लूट करके व्यापारी इजारेदारों के लिए ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के दृष्टिकोण से ही बनाई जाती हैं। ये सरकारें कभी श्रमिक तो कभी किसानों के हित के लिए काम करने का बहाना करती हैं। वे यह भी जताने की कोशिश करती हैं कि श्रमिक तथा किसानों के हित एक दूसरे के खिलाफ़ हैं। मगर यह झूठ है। श्रमिक तथा किसानों का हित एक तरफ है और इजारेदारों का उसके खिलाफ़ दूसरी तरफ है, यह सच्चाई है। किसानों को सरकार की नीतियों से गुमराह नहीं होना चाहिये। किसानों की जीविका तथा उन्नति की सुनिश्चिति तभी हो सकती है जब अर्थव्यवस्था का उद्देश्य इजारेदारों के लिए मुनाफा नहीं बल्कि श्रमिक तथा किसानों का कल्याण होगा। यह हासिल करने के लिए आवश्यक है कि श्रमिक तथा किसानों की सत्ता प्रस्थापित करने के संघर्ष में, किसान श्रमिक वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलकर उतर जाये!

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