तमिलनाडु के व्यापारियों के संगठन के नेता, थिरु. टी. वेलाईयन से साक्षात्कार

मज़दूर एकता लहर – अपने संगठन के बारे में हमें बतायें।

टी. वेलाईयन – तमिलनाडु वाणिगर संगांगलिन पेरावैय (तमिलनाडु व्यापारी संगमों के संगठन) के 37जिलों में संगठन हैं। इस संगठन में करीब 4000संगम एकजुट हैं। हम न केवल व्यापारियों के हित में काम करते हैं बल्कि लोगों के हित की भी रक्षा करते हैं।

मज़दूर एकता लहर – अपने संगठन के बारे में हमें बतायें।

टी. वेलाईयन – तमिलनाडु वाणिगर संगांगलिन पेरावैय (तमिलनाडु व्यापारी संगमों के संगठन) के 37जिलों में संगठन हैं। इस संगठन में करीब 4000संगम एकजुट हैं। हम न केवल व्यापारियों के हित में काम करते हैं बल्कि लोगों के हित की भी रक्षा करते हैं।

म.ए.ल. – आर्थिक सुधारों का छोटे व्यापारियों पर क्या प्रभाव रहा है?

टी.वे. – निजीकरण और उदारीकरण के जरिये वैश्वीकरण की नीति का व्यापारियों और आम लोगों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है। इससे बहुत सारे छोटे धंधे वाले और व्यापारी बर्बाद हो गये हैं। व्यापक जन विरोध के बावजूद अपने शासकों द्वारा विश्व व्यापार संगठन के समझौते से ऐसा हुआ है।

उदारीकरण के पहले हजारों स्थानीय शरबत निर्माता हुआ करते थे जो थोड़ी पूंजी से अलग-अलग तरह के शरबत बनाया करते थे। इस उद्योग में लाखों लोग जुड़े हुये थे। जब सरकार ने कोक और पेप्सी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हिन्दोस्तान में उत्पादन करने की इजाज़त दी तब हमने इसका विरोध किया था। मनमोहन सिंह और उसके जैसे दूसरे अर्थशास्त्रियों ने तब हमें बताया था कि अपने देश में कारोबारों की तंदुरुस्त प्रवृत्ति तैयार करने के लिये स्पर्धा की जरूरत है। उनका दावा था कि लोगों को अच्छी गुणवत्ता और सस्ते दामों में ज्यादा तरह के पेय पदार्थ उपलब्ध होंगे। स्थानीय प्रतिस्पर्धियों को बर्बाद करने के लिये शुरुआत में पेप्सी और कोका-कोला ने अपने शरबत को बहुत सस्ते दामों में बेचा। शरबतों के अपने छोटे उत्पादक बड़ी पूंजी के सामने टिक नहीं पाये क्योंकि इन बड़ी कंपनियों ने बडे तौर पर इश्तेहारों और नाजायज व्यापार की कार्य प्रणालियों का इस्तेमाल किया। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने फुटकर दुकानों को मुफ्त में फ्रिज दिये। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने स्थानीय कंपनियों की पेय बोतलों को जमा करके नष्ट कर दिया। स्थानीय कंपनियों को नयी बोतलों पर निवेश करना पड़ा और वे दिवालियापन की तरफ धकेले गये। आज लोगों के पास बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मंहगे, घटिया क्वालिटी के और जहरीले पेय पदार्थों के सिवाय कोई पर्याय नहीं बचा। जो लोग पहले स्थानीय पेय पदार्थों के कारोबार में लगे थे उनकी रोजी-रोटी छीन ली गयी है।

म.ए.ल. – उदारीकरण का फुटकर कारोबार पर क्या असर पड़ा है?

टी.वे. – केन्द्र सरकार ने फुटकर व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति दी है। जल्द ही वे इसे बढ़ा कर 75 प्रतिशत और 100 प्रतिशत कर देंगे। फुटकर कारोबार जल्द ही पूरी तरह विदेशी और हिन्दोस्तानी बड़ी कंपनियों की जकड़ में आ जायेगा। सरकार दावा करती है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें इसीलिये ज्यादा हैं क्योंकि बिचौलिये बहुत ज्यादा हैं। मनमोहन सिंह यह तर्क दे रहा है कि खुदरा व्यापार में बड़े हिन्दोस्तानी और विदेशी निगम, बिचौलियों को खत्म कर के, खाद्य पदार्थों की कीमतों में गिरावट सुनिश्चित करेंगे। यह सच है कि शुरुआत में वे कम दाम पर बेचेंगे। परन्तु आने वाले समय में, जैसा पेप्सी और कोक ने किया है वही फुटकर व्यापार में भी होने वाला है।

बड़े कार्पोरेट फुटकर व्यापार के बढ़ने से लाखों छोटे व्यापारियों की रोजी-रोटी छीनी जायेगी। और जब एक बार इजारेदारों की जकड़ पूरे बाजार पर हो जायेगी तब वे निम्न दर्जे की वस्तुयें ऊंची कीमतों पर बेचेंगे ताकि उनको अधिकतम मुनाफा मिले।

रिलायेंस, बिग बाजार, आदि कंपनियां विदेशी फुटकर कंपनियों के साथ सांठ-गांठ बना लेंगी।

छोटी फुटकर दुकान वाले अपनी दुकानों को बंद करके मोबाईल रीचार्ज, भूमि भवन बिक्री व्यापार, आदि जैसे दूसरे व्यवसायों में जाने के लिये मजबूर हो रहे हैं। इसी तरह किसान, व्यापारी, दर्जी, सुनार, आदि अपने पारंपरिक धंधे छोड़ने पर मजबूर हैं। इनमें से बहुत से लोग निर्माण मज़दूर बन रहे हैं।

म.ए.ल. – बड़े निगमों की दोहरी कीमतों की नीति के बारे में क्या आप कुछ विस्तार से बता सकते हैं?

टी.वे. – बड़े निगम फुटकर दुकानों को अपना माल अलग-अलग दामों पर बेचते हैं। वे कोर्पोरेट फुटकर दुकानों को माल 10 से 40 प्रतिशत सस्ते दाम पर बेचते हैं। छोटी फुटकर दुकानों को यह रियायत नहीं मिलती है। नतीजन, कोर्पोरेट फुटकर दुकानें दूसरी छोटी दुकानों के मुकाबले थोड़े कम दाम पर भी बेच कर बड़ा मुनाफा बना सकते हैं। लोग तो वहीं जायेंगे जहां सामान सस्ता मिलेगा। एक बार वे कोर्पोरेट फुटकर दुकान में पहुंच जाते हैं तब वे उसी दुकान से और भी चीजें खरीदते हैं जिनकी कीमतें छोटी दुकानों के मुकाबले ज्यादा होती हैं। चुनिंदा वस्तुओं के कम दामों को इश्तेहारों के माध्यम से दिखा कर वे बाजार पर कब्ज़ा जमाते हैं और जबरदस्त मुनाफा कमाते हैं।

म.ए.ल. –  उदारीकरण का कृषि पर क्या असर रहा है?

टी.वे. – जहां तक कृषि का सवाल है, आज ज्यादातर बीज विदेशी कंपनियां बेच रही हैं। वे कृषि उत्पाद के क्षेत्र में भी बड़े तौर पर खरीदी करती हैं। अगर हिन्दोस्तानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां कृषि व्यापार पर अपना इजारेदारी नियंत्रण ले आती हैं, तो वे किसानों पर उनके उत्पाद की खरीदी के दाम मनमानी तरीके से थोप सकेंगी। वे किसानों की आय को घटाकर अपने मुनाफे को अधिकतम बनायेंगी। जिस भी कारोबार में बहुराष्ट्रीय कंपनियां घुस रही हैं, जैसे कि कृषि, मछली पकड़ना, व्यापार, उत्पादन, दूर संचार, बैंकिंग, बीमा, आदि, वे यहां के लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा करने के लिये नहीं बल्कि हमें लूटने के काम करती हैं।

म.ए.ल. – विश्व व्यापार संगठन के बारे में आपके क्या विचार हैं?

टी.वे. – ब्रिटिश उपनिवेशवादी व्यापारी बतौर आये थे और फिर उन्होंने अपने देश पर कब्ज़ा जमा लिया था। 300 साल के संघर्ष के बाद ही लोग उन्हें बाहर फैंक पाये थे। लम्बे समय से साम्राज्यवादी हिन्दोस्तान से गैट समझौते पर हस्ताक्षर कराना चाहते थे। पहले लूटपाट उपनिवेशवाद के ज़रिये होती थी। आज, लूटपाट असमान व्यापारी समझौतों के ज़रिये होती है। मनमोहन सिंह जैसे कई लोग यह प्रचार करने लगे कि विश्व व्यापार संगठन के समझौते पर हस्ताक्षर करने से हिन्दोस्तान को फायदा होगा। इसमें अपने देश के इजारेदार पूंजीपतियों के हित का प्रतिबिंबन होता है जो विदेशी साम्राज्यवादियों के साथ अपने देश की लूट करके विश्व स्तर के खिलाड़ी बनना चाहते हैं।

1969 में निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। इसका कारण था कि निजी बैंक जनता को लूट रहे थे। परन्तु विश्व व्यापार संगठन बनने के बाद, विदेशी निजी बैंक भी आ गये हैं। अमरीका में ही बैंक दिवालिया हो रहे हैं। सैंकड़ों बैंक ढह गये हैं। अगर इधर भी जो बैंक चलाने आये, वे दिवालिया हो गये तो हम किसे शिकायत कर सकते हैं? अपने शासक इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं। विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत विदेशी बैंकों को यहां आने की अनुमति है।

हिन्दोस्तान द्वारा विश्व व्यापार संगठन समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद, हम आयातों पर आश्रित हो गये हैं। अपना देश अब खाने का तेल आयात करता है। मलेशिया और इंडोनेशिया से ताड़ का तेल आता है और अमरीका से सोया बीन तेल आयात होता है। वे अपना माल कहीं तो पटकना चाहते हैं और हिन्दोस्तान उनके लिये अच्छी जगह है। विश्व व्यापार संगठन के पहले हमारे यहां अच्छा तेल इस्तेमाल होता था – तिल का तेल। चन्नई के आसपास हजारों तेल निकालने के स्थान थे जैसे कि कड़लोर, थिरवनमलय, विल्लूपुरम, वैल्लोर आदि जिले। चेन्नई की पूरी जरूरत का तेल इन स्थानीय तेल इकाइयों से होता था। एक समय ऐसा भी था जब हमें मशीनीकृत तेल मिलों की जरूरत भी नहीं थी। तिल का तेल स्वास्थ्य के लिये अच्छा भी माना जाता है। ताड़ व अन्य तेल स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होते हैं। क्या हम खाने के तेल के उत्पादन में भी आत्मनिर्भर नहीं बन सकते हैं? अपने नेता इसके लिये कोई योजना नहीं बनायेंगे। अगर तेल की उत्पादन कीमत 80 रु. प्रति किलो हो जाती है तो सरकार 60 रु. प्रति किलो के तेल के आयात को अनुमति देती है। लोग तो सस्ता तेल ही खरीदेंगे। अगर कोई वस्तु पहले से ही पर्याप्त मात्रा में मौजूद है तो उसको आयात नहीं करना चाहिये। इसी तरह जब किसी वस्तु की कमी है तो उसे निर्यात नहीं होने देना चाहिये। यह तो समझना आसान है अगर अपने लोगों के हित को ध्यान में रखा जाये और न कि सिर्फ बड़े व्यापारियों का हित। पिछले साल प्याज़ की कमी थी। तब बड़े व्यापारी प्याज़ को निर्यात कर रहे थे। बाद में जब इसकी कीमत 120 रु. प्रति किलो हो गयी तब सरकार ने और भी अधिक कीमत पर प्याज़ का आयात किया।

1990 तक अपना देश अधिकतर आत्मनिर्भर था। तब से अपने शासकों ने अपने आप को अमरीका के साथ रणनैतिक गठबंधन में बांध लिया है। अपने शासकों ने अमरीका द्वारा इराक पर हमले और सद्दाम हुसैन को फांसी पर लटकाने तक का विरोध नहीं किया। वे मूक दर्शक बने हुये हैं जबकि साम्राज्यवादी खुल्लम-खुल्ला लोगों और देशों की संप्रभुता का उल्लंघन कर रहे हैं।

सरकार हिन्दोस्तानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में काम कर रही है। ऊर्जा नीति को ही देखिये – यह लोगों की जरूरतों से नहीं बल्कि इजारेदारों के अधिकतम मुनाफे से प्रेरित है। वे परमाणु ऊर्जा में खर्चा कर रहे हैं, इसीलिये नहीं कि यह सस्ती है या सुरक्षित है, बल्कि इसीलिये कि इससे बड़ा मुनाफा बनाया जा सकता है। जल और पवन ऊर्जा के मामले में भी सरकार निजी कंपनियों से अत्याधिक कीमत पर उर्जा खरीद रही है। ऊर्जा क्षेत्र मुनाफा बनाने का क्षेत्र क्यों होना चाहिये? ऐसा कानून क्यों नहीं बनाया जा सकता कि बिजली उत्पादन सिर्फ सरकार द्वारा किया जा सकता है।

उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों से भ्रष्टाचार के लिये लाभप्रद संभावनायें पैदा की गई हैं। हमारे नेता अपने लोगों और देश के हित को बेच कर बड़े कार्पोरेट घरानों की सेवा में लगे हैं।

सरकार सिर्फ बड़े पूंजीपतियों के हित में काम कर रही है – हिन्दोस्तानी और विदेशी।

म.ए.ल. – आपके अनुसार व्यापारियों को क्या करना चाहिये?

टी.वे. – हमें सरकार को मजबूर करना चाहिये कि वह निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण की नीति को वापस ले।

जो इसमें विश्वास नहीं करते वे देशप्रेमी नहीं हो सकते हैं। वे सिर्फ देशद्रोही हो सकते हैं। अगर कोई कहता है कि विदेशी कंपनियां हिन्दोस्तानी लोगों की मदद में आ रही हैं तो मैं उसे अपने लोगों का दुश्मन ही समझूंगा।

व्यापारी सरकार की आर्थिक नीतियों से गुस्से से आग बबूले हैं। रोजी-रोटी और अधिकारों की सुरक्षा में जबरदस्त संघर्ष होने वाले हैं। अपने नेता अर्थव्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था के आंग्ल-अमरीकी नुस्खों के गुलाम हैं। हमें इस मानसिक गुलामी को तोड़ कर, लोगों की सेवा में अर्थव्यवस्था बनाने के नये रास्ते पर उतरना होगा। लोकविरोधी आर्थिक नीतियों से अपने देश को मुक्त करना ही हमारा सच्चा दूसरा मुक्ति संघर्ष हो सकता है। इस संघर्ष में सभी को हिस्सा लेना होगा।  

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