अशोक लेलैंड, चेन्नई के यूनियन नेता थिरू कण्णन का साक्षात्कार

म.ए.ल. : कृपया आप हमें अपनी यूनियन के बारे में बताएं।

कण्णन : अशोक लेलैंड की चेन्नई फैक्टरी में हमारे 4000 से अधिक मज़दूर हैं। कमर्शियल वाहनों का उत्पादन करने में हिन्दोस्तान में हमारा दूसरा नंबर है। 2010-2011 में हमारी कुल बिक्री 200 करोड़ अमरीकी डॉलर थी। मैं पिछले 30 सालों से ट्रेड यूनियनों का सक्रिय सदस्य रह चुका हूँ। अशोक लेलैंड के बुजुर्ग ट्रेड यूनियन नेता, थिरू आर. कुचेलार की आगुवाई के मज़दूर यूनियनों के सक्रिय नेताओं में से मैं एक हूँ।

म.ए.ल. : सरकार के निजीकरण तथा उदारीकरण कार्यक्रम से सबसे अधिक फ़ायदा किसको हुआ है?

कण्णन : हमारा अनुभव है कि मज़दूर तथा और श्रमिकों को इस कार्यक्रम से फ़ायदा नहीं हुआ है। इससे सिर्फ़ बड़े पूंजीपतियों को फ़ायदा हुआ है। बड़े पूंजीपतियों के अलावा जो शेयर बाज़ार में खेलते हैं और चालाकी से अपना काम निकालते हैं, और जो ऑन-लाईन व्यापार करते हैं, उनको फ़ायदा हुआ है।

म.ए.ल. : क्या आप बताएंगे कि हिंदूजा जैसे बड़े पूंजीपतियों ने इन सालों के दौरान अपनी संपत्ती कैसे बढ़ायी है?

कण्णन : 1980 के दशक के आख़िर से मज़दूरों के ख़िलाफ़ हमले बढ़ गये हैं। 1989 में उन पर जबरन एक करार थोपा गया, जिसके मुताबिक उन्हें 6 दिनों का काम 5 दिनों में करना पड़ा। अत: उनकी उत्पादकता 20 प्रतिशत बढ़ी। इसके अलावा उन्होंने मैनेजमेंट को अधिकार दिया है कि अगर वह चाहे, तो वह छठे दिन को एक अतिरिक्त काम का दिन करार कर सकती है। 5 दिनों के लिए एक वेतन मिलता है और छठे दिन का वेतन अलग होता है। लेकिन वह दर ओवरटाइम के हिसाब से नहीं, बल्कि डेढ़गुना ज्यादा के हिसाब से होती है। इस करार के बाद, रविवार को अगर काम नहीं होता तो हमें पहले जितना ही वेतन मिलता है। यह हमारे ख़िलाफ़ पहला हमला था।

इसके बाद मैनेजमेंट ने घोषित किया कि सरकार एक नयी पेंषन योजना बनाने वाली है, और मज़दूरों की सुरक्षा के लिए उन्होंने एक अपनी पी.एफ. योजना बनायी है। मज़दूरों से जबरन अनेक सुविधाएं छीन ली और उन्हें जोड़ करके उसे मैनेजमेंट का योगदान बताया। फंड बनाने के लिए मज़दूरों से भी उतना योगदान मांगा। वे चाहते थे कि शेयर बाज़ार में तथा उस समय के विविध वित्तीय कंपनियों में उसका निवेश करें। हमने मैनेजमेंट की इस योजना का विरोध किया। उस समय यूनियन के अंदर कई गद्दार थे, जिनको यह कार्यक्रम लागू करना था और उन्होंने उसका समर्थन किया। इस विषय पर दो बार सार्वमत लिया गया और दो बार उनकी योजना को हराया गया। लेकिन 1991 में जब मैनेजमेंट के साथ नया करार बनाया गया, तब उस वक्त के यूनियन नेताओं ने मैनेजमेंट के साथ सहयोग करके मज़दूरों की पीठ पीछे करार पर दस्तख़त की। इस करार के ज़रिये मज़दूरों की संख्या में कटौती तथा वी.आर.एस. के लिए रास्ता खोल दिया गया।

मैनेजमेंट ने कंपनी में ठेका मज़दूरों को भी लेना शुरू किया। उनका ज्यादा तीव्र शोषण करके वे उनसे वह काम करवाने लगे जो उसके पहले पर्मानेंट मज़दूर करते थे। इन ठेका मज़दूरों को वह वेतन तथा सुविधाएं नहीं मिलती थीं जो हमें मिलती थीं। हम स्थायी मज़दूरों ने ठेका मज़दूरों के अधिकारों की हिफ़ाज़त करने की कोशिश की। लेकिन यूनियन नेताओं की गद्दारी तथा मैनेजमेंट के साथ सरकार की साज़िश की वजह से तब हमारी हार हुई। पहले 7300 मज़दूर 69 वाहनों का उत्पादन करते थे। आज तो 4000 मज़दूर 135 वाहनों का उत्पादन करते हैं। उत्पादन 125 प्रतिशत से बढ़ गया है, जबकि मज़दूरों की संख्या 45 प्रतिशत घट गयी है!

पिछले दो करारों में जितनी भी वेतन वृध्दियां मिली थी, उनको रविवार के दिन काम करने के वेतन में परिवर्तित किया गया है। अगर रविवार को उत्पादन बंद होता तो हमारे वेतन में कटौति हो जाती है। इस पर प्रतिबंध लगाने के लिए हमने मांग उठायी कि रविवार के दिन अगर ले-ऑफ होता है तो हमें 50 प्रतिशत मिलना चाहिए। हमने यह मांग जीत ली। उसके बाद मंदी आ गयी। 2002 में मैनेजमेंट ने वी.आर.एस. घोषित की। उसके तथा आउटसोर्सिंग के ख़िलाफ़ लड़कर हमने मज़दूरों के हितों की हिफ़ाज़त करने की कोशिश की। इन सब हमलों को सरकार से पूरा-पूरा समर्थन मिलता रहा।

खुद मज़दूरों के सुझावों का इस्तेमाल करके मैनेजमेंट ने उत्पादकता बढ़ायी और काम को ज्यादा सरल बनाया। ग्रीव्स कॉटन तथा एन्फील्ड इंडिया जैसे विविध कंपनियों में, जहां की यूनियनों पर सीटू का नियंत्रण है, मज़दूरों को 8 घंटों की हर शिफ्ट में 430 मिनट काम करने को मज़बूर किया गया है। यह मानक, प्रति घंटा 5 मील चलने में जितना श्रम लगता है, उसके बराबर है। एन्फील्ड इंडिया में यह ''मानक रहित उत्पादन'' के नाम पर लागू किया गया। जबसे मज़दूर शॉप फ्लोअर पर पहुंचता है, तबसे उसे लगातार मषीन पर काम करते रहना पड़ता है, जिसकी गति मैनेजमेंट निर्धारित करती है। इन संकल्पनाओं को लागू करके मैनेजमेंट की इच्छा थी की काम के हर नये क्षेत्र में 430मिनट काम लागू किया जाए तथा यही प्रमाण हर क्षेत्र में लागू किया जाए। हमें यह मंज़ूर नहीं था। आखिरकार हमने 410 मिनट प्रति शिफ्ट मान्य किया। बहुत ही कम वेतन पाने वाले ठेका मज़दूरों के अधिकारों पर ध्यान देने की कोशिश भी हम कर रहे हैं। उन्हें प्रति माह कम से कम 10,000 रु. मिलने चाहिए और उन्हें पर्मानेंट बनाना चाहिए, ये मांगें हम उठा रहे हैं। फैक्टरी में जितने भी मज़दूर हैं, उनकी मैनेजमेंट के ख़िलाफ़ हम एकता बना रहे हैं। सरकार तथा मैनेजमेंट की मज़दूर विरोधी नीतियों का विरोध करते हुए हम मज़दूरों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।

हमारे मज़दूरों से चूसे हुए फ़ायदों के ज़रिये अशोक लेलैंड ने दुनिया भर में अनेक कंपनियों को खरीदा है। श्री लंका तथा यू.ए.ई. में पहले से उनकी कंपनियां थीं। इसके अलावा उन्होंने अमरीका, चेक रिपब्लिक तथा ब्रिटेन में कंपनियों को खरीदा है। हिन्दोस्तान में ठेका मज़दूरों के श्रम से कंपनी उत्पादन निकालती है और इन कंपनियों को उनका निर्यात करती है। वहां वह इन पुर्ज़ों से नये उत्पादनों को बनवा कर बड़े-बड़े मुनाफ़े कमाती है। वह यहां के बहुत लोगों को नौकरियां देने का दावा करती हैं। लेकिन सही मायने में तो वह हिन्दोस्तानी मज़दूरों के सस्ते श्रम का इस्तेमाल करके बहुत बड़े मुनाफ़े कमाने के लिये उनका निर्यात करती हैं। यह उदारीकरण का एक परिणाम है।

म.ए.ल. : क्या आपको लगता है कि इससे हिन्दोस्तान को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी?

कण्णन : जी नहीं। हिन्दोस्तान का विकास करने के लिए तो वे यह कर ही नहीं रहे हैं। हिन्दोस्तान के विकास का मतलब है कि कैसे सामान्य मज़दूर किसान समृध्द होंगे। वैसे देखा जाए तो पूंजीपतियों द्वारा शोषण बढ़ गया है और साथ-साथ हिन्दोस्तान में गरीबों की संख्या भी बढ़ गयी है। अपने लोगों की भूमि, जल तथा श्रम का अति शोषण हो रहा है। अशोक लेलैंड का हमारा अनुभव यही दिखाता है कि निजीकरण तथा उदारीकरण की नीति से आम लोगों का कुछ फ़ायदा नहीं हुआ है। सिर्फ़ बड़े पूंजीपति और बड़े बन गये हैं।

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