हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 28 नवंबर, 2011
इस वर्ष के 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद नामक ऐतिहासिक इमारत के ध्वंस के बाद 19 वर्ष पूरे होंगे और 20वां वर्ष शुरू होगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस भाजपा ने आयोजित किया था, और इसमें उसे नई दिल्ली में सत्ता में बैठी कांग्रेस पार्टी का समर्थन मिला था। उस अपराधी हरकत के बाद संसद की इन दो मुख्य पार्टियों ने व
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 28 नवंबर, 2011
इस वर्ष के 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद नामक ऐतिहासिक इमारत के ध्वंस के बाद 19 वर्ष पूरे होंगे और 20वां वर्ष शुरू होगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस भाजपा ने आयोजित किया था, और इसमें उसे नई दिल्ली में सत्ता में बैठी कांग्रेस पार्टी का समर्थन मिला था। उस अपराधी हरकत के बाद संसद की इन दो मुख्य पार्टियों ने व्यापक तौर पर साम्प्रदायिक हिंसा भड़काया और आयोजित किया था। आज हमें उस ऐतिहासिक कांड और उसके बाद राजनीतिक गतिविधियों का जायज़ा लेना होगा, उनसे सबक सीखना होगा और पूंजीवादी शोषकों के अपराधी व भ्रष्ट शासन के खिलाफ़ अपना संघर्ष तेज़ करने की तैयारी करनी होगी।
ऐतिहासिक संदर्भ और राजनीतिक मकसद
80 के दशक के दौरान हमारे देश में आर्थिक और राजनीतिक संकट बहुत गहरा हो गया था। पुराना नेहरूवी नमूना अपनी नाकामयाबी साबित कर चुका था और दशक के अंत में सरकारी वित्त तथा विदेश भुगतान के संतुलन का तीव्र संकट छा गया था। उस समय वर्ग संघर्ष और अंतर पूंजीवादी स्पर्धा बहुत तीक्ष्ण हो गया था। पूंजीवादी वर्ग अपने शासन में स्थिरता लाने और अपना शोषण-लूट जारी रखने का कोई नया रास्ता तलाश रहा था।
राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी नवंबर 1984 में सिखों का जनसंहार आयोजित करने के बाद, 1985 में साम्प्रदायिक मंच पर सत्ता में आयी थी। अगले 5 वर्षों में व्यवस्था को कायम करने के नाम पर, तरह-तरह के भटकाववादी आन्दोलन आयोजित करवाये गये और राजकीय आतंकवाद को खूब बढ़ाया गया। जाति पर आधारित आरक्षण के मुद्दे पर मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के पक्ष में व उसके खिलाफ़ आन्दोलन हुये। बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर खड़ा करने का आन्दोलन चलाया गया।
उस समय दुनिया में बड़े-बड़े और अचानक परिवर्तन हो रहे थे। सोवियत संघ का विघटन हुआ और दुनिया का दो ध्रुवों में विभाजन खत्म हुआ। अमरीकी साम्राज्यवाद की अगुवाई में दुनिया के पूंजीपतियों ने ऐलान किया कि समाजवाद खत्म हो गया है और उदारीकरण व निजीकरण का, बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र का कोई विकल्प नहीं है। उन्होंने ऐलान किया कि जो भी देश इन नुस्खों का पालन नहीं करेगा, उसे दुनिया के लिये खतरा माना जायेगा और उस पर निशाना साधा जायेगा।
इन हालतों में, 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या और 1991 में राजीव गांधी की हत्या के साथ-साथ, हमारे देश के पूंजीपति वर्ग के एक तबके ने पहल ली और उदारीकरण व निजीकरण का कार्यक्रम शुरू किया, जिसका मकसद था हिन्दोस्तानी पूंजीवाद को दुनिया की एक प्रमुख साम्राज्यवादी ताकत बनाना। इस कार्यक्रम की मूल धारणा, कि हरेक परिवार को खुद अपनी देखभाल करनी होगी, यह हमारे देश के मेहनतकश जनसमुदाय को मंजूर नहीं था। इसे हिन्दोस्तानी राजनीतिक सिध्दान्त के मूल असूल, कि जनता की देखभाल करना राज्य का फर्ज़ है, इसका घोर हनन माना गया। इस अलोकप्रिय कार्यक्रम को थोपने के लिये बड़े पूंजीपतियों ने पैशाचिक हरकतों का सहारा लिया।
भाजपा ने कहा कि कांग्रेस पार्टी का फरेबी
धर्मनिरपेक्षवाद और ''मुसलमानों का संतुष्टीकरण'' मुख्य समस्या थी। कांग्रेस पार्टी ने भाजपा के धार्मिक और उग्रराष्ट्रवादी नज़रिये को मुख्य खतरा बताया। आपस में झगड़ती हुई इन दोनों पार्टियों की हरकतों की वजह से जनमत को एक हिन्दुत्व मोर्चे और एक धर्मनिरपेक्ष मोर्चे में बांटा जा रहा था। धर्मनिरपेक्ष और साम्प्रदायिक मोर्चों के बीच की तथाकथित लड़ाई से इस वास्तविकता को छिपाया जा रहा था कि बड़े पूंजीपति ही हमारे मुख्य दुश्मन हैं और उनका समाज-विरोधी सुधार कार्यक्रम जनता की रोजी-रोटी और अधिकारों के लिये मुख्य खतरा है। इस सच्चाई से लोगों का ध्यान हटाया गया कि ये दोनों आपस में लड़ने वाले मोर्चे बड़े पूंजीपतियों के एक ही कार्यक्रम को लागू करने पर तुले हुये हैं।
बाबरी मस्जिद के ध्वंस के पीछे राजनीतिक उद्देश्य था मजदूर वर्ग और मेहनतकशों को गुमराह करना, अपने मुख्य दुश्मन को पहचानने में दुविधा में डालना तथा लोगों को आपस में लड़वाना, ताकि निजीकरण और उदारीकरण के जरिये भूमंडलीकरण के कार्यक्रम को लागू करने के रास्ते में कोई रुकावट न हो।
राजनीतिक असर और जनता की प्रतिक्रिया
बाबरी मस्जिद के ध्वंस से वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था का गुनहगार चेहरा स्पष्ट हो गया। जनता के सामने यह स्पष्ट हो गया कि संसद में बैठी दो सबसे बड़ी पार्टियां अपने वोट बैंक विस्तृत करने और लोगों को गुमराह करने व बांटने के इरादे से, कोई भी घिनावना अपराध करके बच निकल सकती हैं। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के जनसंहार ने यह स्पष्ट कर दिया था कि इस बढ़ते आर्थिक हमले को कामयाब करने के लिये पूंजीपति वर्ग को शासन करने के एक नये, ज्यादा अपराधपूर्ण तरीके की जरूरत है। 1992-93 की साम्प्रदायिक हिंसा के साथ, इस ज्यादा अपराधपूर्ण शासन के तरीके को संस्थागत रूप दिलाया गया।
90 के दशक के बीच में हुये चुनावों के नतीजों ने दिखाया कि अधिक से अधिक लोग कांग्रेस पार्टी और भाजपा, दोनों से खफ़ा हैं और ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया से नफ़रत करते हैं, जिसमें इस तरह की गुनहगार पार्टियां सत्ता पर कब्ज़ा कर सकती हैं। जनता के बीच राजनीतिक जागरुकता के फैलने से लोगों को सत्ता में लाने के आन्दोलन को बढ़ावा मिला।
हमारी पार्टी समेत क्रान्तिकारी राजनीतिक ताकतों का यह विचार था कि राज्य साम्प्रदायिक है, लोग नहीं। हम यह समझे कि समस्या की जड़ राज्य के चरित्र, लोकतंत्र की व्यवस्था और उसकी राजनीतिक प्रक्रिया में है। इस व्यवस्था में, शासक पार्टी ही सर्वोपरि होती है जबकि लोगों को किनारे पर कर दिया जाता है। लोगों की सीमित भूमिका होती है, सिर्फ मतदान के दिन। हमें एक ऐसी व्यवस्था और राजनीतिक प्रक्रिया की जरूरत है जिसमें लोग सत्ता में होंगे न कि कोई पार्टी। इस बहादुर राजनीतिक विचार को 22 फरवरी, 1993 को फिरोज़शाह कोटला पर हुई प्रगतिशील ताकतों की संयुक्त रैली में पेश किया गया था।
क्रान्तिकारी ताकतों के काम को उन पार्टियों से नुकसान हुआ है, जो कम्युनिज्म की कसम खाती हैं पर इस राजनीतिक लाइन से समझौता करती हैं कि साम्प्रदायिक खतरे से धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करना हमारा फौरी काम है। ऐसी पार्टियां यह सोच फैलाती रही हैं कि कांग्रेस पार्टी भाजपा से ''कम बुरी'' है। तीसरा मोर्चा नामक मौकापरस्त गठबंधन के टूट जाने पर, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और उसके मित्रों ने कांग्रेस पार्टी को खुलेआम समर्थन दिया। पूंजीपति वर्ग से समझौता करने वाली ऐसी राजनीति ने मजदूर वर्ग और मेहनतकशों को पूंजीवादी आर्थिक हमले के खिलाफ़ अपने एकजुट संघर्ष से गुमराह किया। साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा के स्रोत बतौर शासन वर्ग और उसके राज्य पर निशाना साधने के रास्ते से लोगों को गुमराह किया गया।
वर्तमान के लिये सबक
आज बाबरी मस्जिद के ध्वंस के 19 वर्ष बाद, पूंजीवादी शासन का संकट कई पहलुओं में, पहले से ज्यादा गंभीर है। इस अपराधी और भ्रष्ट व्यवस्था को साफ करने के नाम पर, फिर से तरह-तरह की भटकाववादी हरकतें की जा रही हैं, जैसे कि रथ यात्रा, इत्यादि। इन हालतों में, राजनीतिक पार्टियों तथा मजदूर वर्ग, किसानों और दूसरे क्रान्तिकारी तबकों के कार्यकर्ताओं को बीते दो दशकों के हमारे राजनीतिक अनुभवों से सबक सीखना चाहिये।
साम्प्रदायिक हिंसा से धर्मनिरपेक्षता की रक्षा करने और कांग्रेस पार्टी को भाजपा से ''कम बुरी'' बानने की लाइन गलत और भटकाववादी है। इससे सत्तारूढ़ पूंजीपति वर्ग को फायदा होता है। ''तीसरा मोर्चा'' के नाम पर स्थानीय पूंजीवादी पार्टियों के साथ गठबंधन की हिमायत करने की लाईन भी गलत और भटकाववादी है।
साम्प्रदायिक हिंसा, राजकीय और व्यक्तिगत आतंकवाद और बेलगाम भ्रष्टाचार से निजात पाने का रास्ता राज्य और राजनीतिक प्रक्रिया का नवनिर्माण है। ताकि मेहनतकश बहुसंख्या शासन करने में सक्षम हो सके और सभी की जरूरतें पूरी करने की दिशा में अर्थव्यवस्था को चलाई जाए।
संसद में किसी एक पार्टी या गठबंधन के हाथों में सर्वोच्च ताकत या संप्रभुता सौंपना और दूसरी पार्टियों को 'विपक्ष' में डाल देना राज्य और राजनीतिक प्रक्रिया का यह रूप पूंजीपति वर्ग के अधिनायकत्व के लिये उपयुक्त है, क्योंकि प्रतिस्पर्धी मोर्चों में बंटे रहना पूंजीपतियों के लिये स्वाभाविक है। लोगों को विकल्प बतौर एक ऐसी व्यवस्था और राजनीतिक प्रक्रिया की जरूरत है जिसमें लोग संप्रभु होंगे और अपनी ताकत का थोड़ा सा हिस्सा चुने गये प्रतिनिधि को देंगे। ऐसी व्यवस्था में राजनीतिक पार्टी की भूमिका लोगों को सत्ता में आने के लिये सक्षम बनाना और निर्वाचित सदस्यों को जवाबदेह ठहराना है। लोकतंत्र की ऐसी उन्नत व्यवस्था को लाने के संघर्ष को अगुवाई देने की क्षमता और रुचि सिर्फ मजदूर वर्ग में है।
मजदूर वर्ग और प्रगतिशील ताकतों का काम न तो धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाना है, न ही तीसरा मोर्चा। बल्कि हमें राज्य और राजनीतिक प्रक्रिया के नवनिर्माण के लिये, लोगों को सत्ता में लाने वाला राजनीतिक मोर्चा बनाना होगा।