हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की महाराष्ट्र प्रादेशिक समिति का बयान, 8 नवम्बर 2011
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की महाराष्ट्र प्रादेशिक समिति का बयान, 8 नवम्बर 2011
1991 से शुरू हुए, दो दशकों के तथाकथित आर्थिक सुधार यानि कि उदारीकरण और निजीकरण के द्वारा वैश्विकरण कार्यक्रम का नतीजा बहुत ही असंगत और एकतरफा आर्थिक विकास का रहा है। इससे हमारे समाज में वर्गों के बीच का अंतर्विरोध और तीव्र हुआ है। इससे आबादी के एक बहुत ही मुट्ठीभर हिस्से ने – इज़ारेदार पूंजीपतियों ने – विशाल धन-दौलत जमा कर ली है। अपने देश के 10 सबसे अमीर पूंजीपतियों की धन-दौलत, 2008 में 8,40,000 करोड़ रु., आसमान छूने के स्तर पर पहुंच गई है, जो सकल घरेलू उत्पाद का एक पांचवां हिस्सा है। टाटा, रिलायन्स, बिड़ला जैसे अपने देष के सबसे बड़े पूंजीपति समूहों की कुल बिक्री, 20 सालों में हज़ारों-करोड़ों से लाखों-करोड़ों के ऊपर जा चुकी है। दूसरी तरफ एन.एस.एस. के 2006-07 के सर्वेक्षण के मुताबिक, 80प्रतिशत से अधिक ग्रामीण आबादी 900 रु. प्रति व्यक्ति प्रति माह पर गुजारा करती है; यानि कि 30 रु. प्रति दिन! 80 प्रतिशत से अधिक शहरी आबादी 1800 रु. प्रति व्यक्ति प्रति माह पर गुजारा करती है; यानि कि 60 रु. प्रति दिन। हिन्दोस्तान अभी भी एक ऐसा देश है जहां गरीबों की तथा कुपोशित लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है, जिससे बहुत ज्यादा संख्या में नवजात बच्चों और माताओं की मौत हो जाती है। करोड़ों लोगों को साफ पेयजल तक उपलब्ध नहीं है।
इस दौरान, अर्थव्यवस्था में निर्यातित सेवाओं, बैंकिंग व दूसरी वित्तीय एजेंसियों, भूमि के बाजार तथा शेयर, माल और वायदा सट्टा बाजार सबसे ज्यादा संवर्धन वाले क्षेत्र रहे हैं। इनमें से एक भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जो अपने देश की धन-दौलत में एक पैसा भी जोड़ता हो। इन क्षेत्रों की गतिविधियों से मज़दूरों व किसानों के जीवन में कोई सुधार नहीं होता है। शेयर बाजारों, माल बाजारों और वायदा सट्टा बाजारों के विकास से, कुछ थोड़े से बड़े जुआरियों और मुनाफाखोरों को, छोटे धंधे वालों के हाथों में जमा मूल्य और मेहनतकश लोगों की बचत पर डाका डालना अवश्य संभव होता है।
अगर बैंकिंग, व्यापार, प्रशासन और रक्षा से जुड़ी इस तरह की मनगढ़ंत मूल्य वृद्धि को अलग कर दें, तो संवर्धन की दर इतनी नहीं होगी जितना अपने शासक दावा करते हैं। उदाहरण के लिये, यह तो ज़ाहिर है कि जरूरी वस्तुओं का उत्पादन, लोगों की जरूरत से बहुत कम है, जिसकी वजह से महंगाई की दर इतनी ज्यादा है। सट्टा बाजार तथा जमाखोरी की वजह से खाद्य पदार्थों की कीमतें और भी ज्यादा बढ़ती हैं।
उदारीकरण और निजीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के कार्यक्रम का मकसद हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपतियों को वैश्विक तौर पर एक बड़ी ताकत का दर्जा दिलाना है। यह श्रम के बड़े स्तर के शोषण और प्राकृतिक संसाधनों की डकैती पर आधारित है। यह एक मज़दूर-विरोधी, किसान-विरोधी और समाज-विरोधी साम्राज्यवादी कार्यक्रम है।
इस काल में रुपये का अवमूल्यन करके 18 रुपये प्रति अमरीकी डॉलर से गिराकर 49 रुपये प्रति अमरीकी डॉलर कर दिया गया है। इससे घरेलू बाजार के मुकाबले निर्यात बाजार की वस्तुओं में मुनाफा बढ़ गया है। इससे विदेशी कंपनियों और बैंकों के लिये हिन्दोस्तान में निवेश करना ज्यादा मुनाफेदार हुआ है। घरेलू पूंजीवादी निगमों के लिये विदेशी वित्त पाने के रास्ते की बंदिशों को क्रमशः हटा दिया गया है तथा उनके लिये विदेशी कंपनियां खरीदना अधिक आसान कर दिया गया है। अपने देश के अनेक क्षेत्रों के उद्योगों व सेवाओं में विदेशी पूंजी के आने का रास्ता भी सुगम कर दिया गया है। सट्टेबाजी तेजी से फैली है और उतनी ही तेजी से, ज़मीन के घोटाले और तरह-तरह के रूप में जनता के पैसों की लूट।
पूंजीवादी प्रचार का दावा है कि राज्य के नियंत्रण की जगह पर मुक्त बाजार को लाया गया है। असलियत में, बाजार में स्पर्धा बहुत ही एकतरफा और इजारेदारी है, जिसमें कुछ बड़े खिलाड़ी छोटे खिलाडि़यों को चूस रहे हैं। 1980 के दशक के अंत में बड़े पूंजीपतियों के लिए अर्थव्यवस्था का नेहरूवीं मॉडल काम का नहीं रहा था। पहले से भी ज्यादा ऊंचे स्तर की इजारेदारी और प्रभुत्व के साथ, उन्हीं हितों की सेवा में, उस एक रूप के नियंत्रण को बदल कर दूसरे रूप का नियंत्रण लाया गया है।
उदारीकरण तथा निजीकरण के द्वारा वैश्वीकरण के कार्यक्रम की संकल्पना अरबपति पूंजीपतियों ने की थी, जिन्होंने मनमोहन सिंह को लोगों के बीच इस कार्यक्रम की सफाई देने और उसे लागू करने के लिये एक काबिल व्यक्ति समझा था।
इजारेदार पूंजीपतियों के कार्यक्रम की सफाई देने और इसे बढ़ावा देने के लिये मनमोहन सिंह ने दावा किया कि एक बार अमीर अपनी दौलत बढ़ा लेंगे तब इसका रिसाव मेहनतकश लोगों तक पहुंचेगा। जब ऐसा नहीं हुआ, तब उन्होंने कहा कि इसको ‘मानवीय चेहरा‘ देने के लिए कुछ और फेर-बदल करने की जरूरत है। फिर उन्होंने दावा किया कि उनकी पार्टी सुनिश्चित करेगी कि सकल घरेलू उत्पाद में तेजी से वृद्धि से सिर्फ मुट्ठीभर लोगों को फायदा न हो बल्कि यह ‘समावेशी‘ संवर्धन हो।
उनके तथा निजीकरण व उदारीकरण के पक्षसमर्थकों के दावों से बिल्कुल उल्टा असली नतीजा निकला। हर क्षेत्र में मज़दूर वर्ग पीडि़त है। खाद्य पदार्थों और दूसरी जरूरी वस्तुओं की बढ़ती कीमतों से वेतन बहुत पिछड़ गया है। मुद्रास्फीति की दर भी ब्याज की दर से बहुत ज्यादा है, अतः मासिक वेतन के साथ-साथ मेहनतकश लोगों के परिवारों की बचत भी कम होती जा रही है। किसान ऋण में डूबते जा रहे हैं क्योंकि उनकी आमदनी उनके ऋण चुकाने, परिवार के स्वास्थ्य की देखभाल करने, पौष्टिक आहार उपलब्ध कराने और दूसरी जरूरतों को पूरा करने के खर्च के लिये काफी नहीं होती है।
वैश्वीकरण की वजह से मुम्बई से उद्योग बाहर चले गये हैं और उनकी जगह मॉडल तथा गगनचूंबी इमारतें बनायी गयी हैं, जिनमें सिर्फ़ देश-दुनिया के साम्राज्यवादियों के फ्लैट तथा ऑफिस ही हो सकते हैं। लाखों श्रमजीवियों को अपनी नौकरियों से ही नहीं, बल्कि अपने घरों से भी बाहर फेंका गया है। बैंक और सट्टा बाज़ार तो बढ़ रहे हैं, लेकिन मुंबई के श्रमजीवियों को रोज़ाना पानी और सफ़ाई व्यवस्था के लिए लड़ना पड़ता है।
आर्थिक विकास की दर अपेक्षाकृत ऊंची होने का अपना शासक वर्ग गर्व से प्रशंसा करता है। परन्तु इसके लिये मज़दूरों का बेरहमी से शोषण किया जाता है और किसानों पर डाका डाला जाता है। मज़दूर और किसान इसका विरोध करने के लिये एकजुट होकर संघर्ष में नहीं उतर आयें, यह सुनिश्चित करने के लिये हर तरह की छल-कपट से उनको एक दूसरे के खिलाफ़ भड़काया जाता है और उन्हें भटकाया जाता है। आर्थिक आक्रमण के साथ ही, राजकीय आतंकवाद, जातिवादी हिंसा और दूसरे राष्ट्रीय, वर्गीय और व्यक्तिगत
अधिकारों के उल्लंघन के खुल्लम-खुल्ला फासीवादी राजनीतिक आक्रमण भी किये जा रहे हैं। मनमोहन सिंह के पहले बजट के बाद, 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाने का अपराधी काम किया गया था, जिसके बाद राज्य द्वारा साम्प्रदायिक हिंसा आयोजित की गयी थी। संसद की दोनों मुख्य पार्टियों ने सांठ-गांठ में अपने लोगों पर और उनकी एकता पर इस घोर अपराध में हिस्सा लिया था।
संपत्ति को पैदा करने वाले श्रमिकों को ही उसके मालिक तथा प्रमुख हिताधिकारी बनने का वक्त आ चुका है। टाटा और अंबानी संपत्ति को पैदा नहीं करते हैं। श्रम के उत्पादों और प्रकृति के साथ मिलकर, मानव श्रम से धन दौलत पैदा होती है। अपनी मेहनत से मज़दूर और किसान धन-दौलत पैदा करते हैं। पूंजीपति दूसरों के द्वारा निर्मित धन-दौलत को हथिया लेते हैं। वे धन-दौलत हड़पते हैं न कि पैदा करते हैं।
मेहनतकश लोगों की खुशहाली के लिये यह जरूरी है कि जन उपभोग की वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में हो और वे उचित दामों पर उपलब्ध हों। परन्तु अर्थव्यवस्था और नीति की वर्तमान दिशा से ऐसा नहीं होता है। इसके विपरीत, आज बहुत ही एक-तरफा संवर्धन के जरिये सिर्फ इजारेदार पूंजीपतियों के लिये ही अत्यधिक मुनाफा सुनिश्चित होता है।
अपने देश की परिस्थिति, अर्थव्यवस्था को एक नयी दिशा देने और राजनीतिक सत्ता के पुनःनिर्माण के लिये चीख-चीख कर पुकार रही है। निर्णायक भूमिका के साथ, सिर्फ मज़दूर और किसान ही, यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि अर्थव्यवस्था उनके हित में काम करेगी, न कि उनके द्वारा निर्मित धन-दौलत को लूटने वालों के हित में। अपने हाथों में राजनीतिक सत्ता लेकर, मज़दूर, किसान और क्रांतिकारी बुद्धिजीवी, यह सुनिश्चित करेंगे कि अर्थव्यवस्था उनके लिये खुशहाली और स्थिरता प्रदान करेगी, यानि कि यह उनके जीवनस्तर को बिना किसी संकट या झटकों के साथ लगातार ऊंचा करेगी।
मज़दूर वर्ग को निम्नलिखित के लिए लड़ना चाहिए:
- मज़दूरों-किसानों की सरकार की स्थापना ताकि हम अर्थव्यवस्था को नयी दिशा देना शुरू कर सकें।
- वित्त, विदेशी व्यापार और घरेलू थोक व्यापार के तात्कालिक सामाजीकरण ताकि इन क्षेत्रों में निजी मुनाफे की भूमिका को खत्म किया जा सके।
राजनीतिक प्रक्रिया में मूलभूत बदलाव ताकि पार्टियों के राज की व्यवस्था खत्म करके, अपने-अपने क्षेत्रों में समितियों में संगठित लोग अपना राज स्थापित कर सकें। मत देने के अधिकार के साथ-साथ हम उम्मीदवारों के चयन की प्रक्रिया में शामिल होना चाहते हैं और निर्वाचित सदस्यों को किसी भी समय वापस बुलाने का अधिकार चाहते हैं।