कॉमरेड जी.एम. कृष्णमूर्ति, जनरल सेक्रेटरी मद्रास पोर्ट ट्रस्ट एम्प्लॉइज यूनियन तथा उपाध्यक्ष आल इंडिया पोर्ट एंड डॉक वर्कर्स फेडरेशन और तमिलनाडु एच.एम.एस. सचिव, से साक्षात्कार

म.ए.ल.: क्या आप अपनी यूनियन के बारे में हमें बतायेंगे? पिछले 15-20 वर्षों में नौकरियों में नई भरती के बारे मे क्या अनुभव रहा है?

म.ए.ल.: क्या आप अपनी यूनियन के बारे में हमें बतायेंगे? पिछले 15-20 वर्षों में नौकरियों में नई भरती के बारे मे क्या अनुभव रहा है?

कॉमरेड जी.एम. कृष्णमूर्ति: मद्रास पोर्ट ट्रस्ट एम्प्लॉइजयूनियन की स्थापना 1942 में हुई। तब से आज तक वह हिंद मजदूर सभा तथा अंतरराष्ट्रीय ट्रांसपोर्ट वर्कर्स फेडरेशन तथा आल इंडिया पोर्ट एंड डॉक वर्कर फेडरेशन, इन संगठनों से संलग्न रही है। दस साल पहले देश के सभी प्रमुख बंदरगाहों में पोर्ट तथा डॉक वर्कर्स की संख्या करीब 1.5 लाख थी। आज इन 11 प्रमुख बंदरगाहों में वही संख्या घटकर 65हजार हो गई है। चेन्नई में भी मजदूरों की संख्या 13-14 हजार से घटकर अब मात्र 8 हजार रह गई है। जबकि सभी बंदरगाहों में उत्पादन तथा सरकार की कमाई हर साल बढ़ती गई है। मजदूरों के शोषण में बढ़ोतरी हुई है, इससे यही स्पष्ट होता है।

म.ए.ल.: बीस साल पहले निजीकरण तथा उदारीकरण के जरिये भूमंडलीकरण का जो कार्यक्रम शुरू किया गया, उसका पोर्ट तथा डॉक के मजदूरों पर क्या असर हुआ है?

कॉमरेड जी.एम. कृष्णमूर्ति: पोर्ट तथा डॉक के बारे में सोचें तो उपलब्ध नौकरियाँ बढ़ गई हैं। मगर निजीकरण तथा उदारीकरण के परिणामस्वरूप ज्यादातर काम निजी कम्पनियों या ठेकेदारों को दिया जाता है। वे अपने मजदूरों को नौकरी की सुरक्षा नहीं देते। जहां तक खर्चे का सवाल है, यंत्र सामग्री तथा ढाँचागत खर्चे में कोई कमी नहीं की गई, सिर्फ मजदूरों के वेतन में कटौती करके निजी सरमायदार ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की कोशिश करते हैं। इस तरह वे मजदूरों का अधिकतम शोषण करते हैं। बहुत कम मजदूरों को स्थायी नौकरी पर रखा जाता है। ज्यादातर मजदूरों को ट्रेनी या दिहाड़ी तौर पर रखा जाता है। इन ठेके पर रखे गये मजदूरों को भविष्य निधि, ई.एस.आई., मेडिकल इंशोरेंस, पेंशन, ग्रेज्युटी तथा दूसरी अन्य कोई सुविधाएँ नहीं मिलती हैं। उनके काम की प्रकृति ही ऐसी होती है कि उन्हें कानूनन निर्धारित समय से ज्यादा घंटे कड़ी मेहनत करनी ही पड़ती है। इसके लिए उन्हें कोई ओवरटाइम नहीं मिलता है। ज्यादा से ज्यादा कभी-कभी दया अवकाश के तौर पर एक दिन का विश्राम मिलता है। सरमायदार मजदूरों को कोई सुरक्षा के साधन नहीं देते, जिसकी वजह से कई गंभीर दुर्घटनाएं होती हैं। दुर्घटनाग्रस्त मजदूर को सरमायदार की तरफ से कोई मदद या मुआवज़ा नहीं मिलता, बल्कि उन्हें फटाफट काम से निकाल दिया जाता है।

जब इन निजी सरमायदारों को वह धंधा मुनाफेदार नहीं लगता तो वे कंपनी बंद करके चले जाते हैं। उस वक्त वे उन मजदूरों की कोई फिक्र नहीं करते जिनके बलबूते पर उन्होंने इतना मुनाफा कमाया है।

उदाहरण के लिए अब हम पीएसए सिकाल नाम की एक मल्टीनैशनल कंपनी के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं  जो मजदूरों को कोई मुआवजा दिए बगैर तुतीकोरिन बंदरगाह में काम बंद करने जा रही है।

जहाँ तक वेतन का सवाल है, संगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए कुछ पेंशन सुविधा तथा वेतन वृद्धि आदि यूनियन ने संघर्ष करके पाया है। मगर ठेका मजदूरों की हालत बहुत ही बुरी है। उन्हें न्यूनतम वेतन भी नहीं मिलता है।

म.ए.ल.: क्या निजी सरमायदारों ने उत्पादकता को बढ़ाने के लिए नए तकनीकी का इस्तेमाल किया है?

कॉमरेड जी.एम. कृष्णमूर्ति: हाँ जी, उत्पादकता को बढ़ाने तथा मजदूरों की संख्या को घटाने वाली अति आधुनिक तकनीकी का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे कई नौकरियाँ खत्म हुई हैं।

म.ए.ल.: मजदूरों की इस दुर्गति के बारे में सरकार की क्या प्रतिक्रिया है?

कॉमरेड जी.एम. कृष्णमूर्ति: इन सभी निजी कम्पनियों में मजदूर तथा यूनियनें बेहतर वेतन तथा मजदूरों के हकों के लिये लगातार संघर्ष कर रहे हैं। मगर सरकार का श्रम विभाग सरमायदारों के खिलाफ़ कोई कदम नहीं उठाता है। वह मजदूरों की जीविका पर हमले करने में सरमायदारों की मदद करता है। उदाहरण के लिए फेडेक्स एक्सप्रेस सर्विस इंडिया प्राइवेट के केस में हमने मामला श्रम विभाग के पास उठाया और अब तक 20 बार हम मिल चुके हैं, मगर कंपनी की ओर से कोई प्रतिनिधि नहीं आया। फिर हमने मामले को श्रम उपायुक्त के समक्ष उठाया। उनके साथ पिछले 1 महीने में 3 बार बैठक हो चुकी है फिर भी कम्पनी की ओर से कोई नहीं आया है। सच तो यह है कि मजदूरों पर जब हमला होता है तब सरकारी अधिकारी चुप्पी साधे बस देखते रहते हैं और उसके विरोध में कोई कदम नहीं उठाते। इससे यही दिखता है कि अपने देश के मजदूरों की सुरक्षा के लिये कोई कानून या कानून लागू करने की व्यवस्था नहीं है। मजदूरों के हकों की हिमायत करने वाले कानून बनाने की बेहद आवश्यकता है। मौजूदा श्रम कानून तथा अधिकारियों की निष्क्रियता से यही साबित होता है कि सरकार मजदूरों के खिलाफ़ और सरमायदार वर्ग के हित के लिये ही काम करती है।

इसीलिए मैं बेझिझक तथा स्पष्टता से कहूँगा कि 20 सालों से सरकार निजीकरण तथा उदारीकरण के जरिये भूमंडलीकरण का जो कार्यक्रम चला रही है उससे मजदूरों पर भारी संकट आया है। उनकी काम की हालतें तथा जीवन स्तर और ज्यादा खराब हो गया है। उसी के साथ मजदूरों का भारी शोषण करके बड़े सरमायदार का मुनाफा बहुत बढ़ा है।

पिछले 5साल में स्पष्ट दिखता है कि कर्मचारियों पर काम का बोझ बढ़ रहा है। पोर्ट कर्मचारियों की घटती संख्या की जगह पर ठेका मजदूर रखे जा रहे हैं तथा कुछ काम बाहर से कराया जा रहा है।

चेन्नई बंदरगाह में काम का बोझ 2005-2006 के मुकाबले

 

वर्ष

लाख टन

कर्मचारियों की संख्या

टन प्रति कर्मचारी

काम का बोझ (प्रतिशत में)

कर्मचारियों की संख्या में कटौती (प्रतिशत में)

2005-06

472

8639

5469

100

0

2006-07

534

8340

6404

117

-3.5

2007-08

572

8180

6987

128

-5.3

2008-09

575

8125

7076

129

-5.9

2009-10

611

8025

7608

139

-7.1

 

Share and Enjoy !

Shares

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *