सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम को रद्द करो!

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी यह मांग करती है कि फासीवादी सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (ए.एफ.एस.पी.ए.) को रद्द किया जाये।

ए.एफ.एस.पी.ए.

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी यह मांग करती है कि फासीवादी सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (ए.एफ.एस.पी.ए.) को रद्द किया जाये।

ए.एफ.एस.पी.ए. सेना द्वारा लोगों को किसी भी प्रकार से कुचलने की कार्यवाही को वैधता देता है। असम, नगालैण्ड, मणिपुर, मिजोरम और कश्मीर के लोगों का जीवन बीते कई दशकों से, निरंकुश सैन्य शासन की वजह से, नरक जैसा बना हुआ है। ए.एफ.एस.पी.ए. की आड़ में, इन राज्यों में सेना ने मनमर्जी से बलात्कार, कत्ल, उत्पीड़न और लूट की मुहिम चला रखी है।

इस अधिनियम की शुरुआत सशस्त्र बल (असम-मणिपुर) विशेष ताकत अध्यादेश में है, जिसे 22 मई, 1958 को संसद के बजट सत्र के समापन के कुछ ही दिन बाद पास किया गया था। उस वर्ष संसद के वर्षा सत्र में यह विधेयक के रूप में पेश किया गया और फटाफट उसे 22 मई, 1958 से, यानि पूर्वव्यापी रूप से, पास कर दिया गया। उसे सबसे पहले असम और मणिपुर के पूर्वोत्तर राज्यों में लागू किया गया। फिर 1972 में, उसमें संशोधन करके उसे पूर्वोत्तर हिन्दोस्तान के सातों राज्यों – असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरूणाचल प्रदेश, मीजोरम और नगालैण्ड – में विस्तृत किया गया। 1990 में ऐसा ही अधिनियम कश्मीर में भी लागू किया गया।

सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम को नेहरू की सरकार ने क्यों पास किया था? इसकी वजह यह है कि हिन्दोस्तानी राज्य अपनी उपनिवेशवादी विरासत से नाता नहीं तोड़ना चाहता है और नगा लोगों तथा पूर्वोत्तर के अन्य लोगों की राजनीतिक मांगों को हल नहीं करना चाहता है।

बर्तानवी उपनिवेशवादियों ने इन राज्यों के लोगों पर बलपूर्वक कब्ज़ा किया था। इस इलाके के लोगों ने उपनिवेशवादी शासन को कभी नहीं माना और उसके खिलाफ़ अनेक जोरदार संघर्ष किये। जब उपनिवेशवादी शासन खत्म हुआ और हिन्दोस्तान व पाकिस्तान के स्वतंत्र राज्य स्थापित हुये, तब नगा और मणिपुरी लोगों ने भी अपनी आज़ादी की घोषण कर दी। परन्तु यह हिन्दोस्तानी शासक वर्ग को मान्य नहीं था। हिन्दोस्तानी राज्य ने आज़ादी के समय ही नगा लोगों के खिलाफ़ अपनी सेना भेज दी। उसने मणिपुर के राजा को डरा-धमका कर, हिन्दोस्तानी संघ में शामिल होने को मजबूर किया। हिन्दोस्तानी राज्य ने संपूर्ण पूर्वोत्तर इलाके को अपना उपनिवेश माना है और वहां के लोगों की जायज़ राजनीतिक मांगों को हल करने से इंकार किया है। इसका यह मतलब है कि उस इलाके के लोगों के श्रम और कुदरती संसाधनों को लूटने की उपनिवेशवादी नीति आज भी चलती आ रही है। उस इलाके के लोगों के साथ हिन्दोस्तानी राज्य वैसा ही बर्ताव करता है जैसा कि उपनिवेशवादी हमारे साथ करते थे। ए.एफ.एस.पी.ए. को इसलिये पास किया गया ताकि पूर्वोत्तर इलाकों में हिन्दोस्तानी शासक वर्ग के उपनिवेशवादी शासन को वैधता मिले। यह हिन्दोस्तानी राज्य की ओर से ऐलान-नामा था कि वह उस इलाके के लोगों के आत्म-निर्धारण के अधिकार के लिये संघर्ष को बलपूर्वक कुचल देगा। 1990 में, जब कश्मीर के लोग आज़ादी की मांग लेकर विद्रोह करने लगे, तो उस विद्रोह को कुचलने के लिये सेना का इस्तेमाल किया गया और संसद में जम्मू-कश्मीर राज्य के लिये भी ए.एफ.एस.पी.ए. पास कर दिया गया।

हम यह नहीं स्वीकार कर सकते कि हमारी जनता के किसी भी हिस्से की राजनीतिक मांगों को “कानून और व्यवस्था” की समस्या बतायी जाये और सेना के बल से उन्हें कुचल दिया जाये। हम यह नहीं स्वीकार कर सकते कि “राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा” और “आतंकवाद, अलगाववाद व बग़ावत से लड़ने” के बहाने, हमारी जनता के किसी भी हिस्से को अपने मानवीय, लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय अधिकारों से वंचित किया जाये।

हिन्दोस्तानी शासक वर्ग ने पूर्वोत्तर इलाके और कश्मीर में निर्वाचित नागरिक सरकार स्थापित करने का तरीका निकाल लिया है, जिससे वह “लोकतंत्र”  के प्रति अपनी तथाकथित वचनबद्धता को साबित करना चाहता है। वास्तव में, उन राज्यों में सेना का ही शासन चलता है और नागरिक सरकारों का अधिकार बहुत ही कम या न के बराबर होता है। उन राज्यों में मंत्रियों को भी समय-समय पर बेइज़्जत किया जाता है, सेना के सिपाही उनके घरों तथा उनके शरीर की बार-बार तलाशी लेते रहते हैं।

उस इलाके के किसी एक जिले या पूरे राज्य को “अशांत” घोषित करने से पहले केन्द्रीय सरकार को उन राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ सलाह-मशवरा करनी चाहिये। जब किसी इलाके या राज्य को “अशांत” घोषित किया जाता है, उसके बाद ही वहां ए.एफ.एस.पी.ए. लागू हो सकता है। परन्तु वास्तविकता में, राज्य सरकार के विचारों को कोई महत्व नहीं दिया जाता है। सिर्फ सेना अध्यक्षों और केन्द्र सरकार के विचार को ही महत्व दिया जाता है। मिसाल के तौर पर मई 2011में यह सवाल उठा कि क्या नगालैण्ड को अभी भी “अशांत इलाका” माना जाना चाहिये। नगालैण्ड के मुख्यमंत्री ने केन्द्र को यह सलाह दी कि नगालैण्ड का “अशांत इलाका” दर्जा हटा दिया जाये क्योंकि केन्द्र और नगा बागी दलों के बीच शांति वार्ता चल रही थी। परन्तु केन्द्र सरकार को उनकी सलाह मंजूर न थी। नगालैण्ड आज भी “अशांत इलाका” घोषित है और वहां ए.एफ.एस.पी.ए. समर्थित सैनिक शासन जारी है।

हाल में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री, उमर अब्दुल्ला ने ऐलान किया कि श्रीनगर समेत कश्मीर घाटी के कुछ जिलों को “अशांत इलाकों” की सूची से हटाया जाये। कश्मीर में सेना के अध्यक्ष ने फौरन इसका विरोध किया। आगे यह देखना होगा कि केन्द्र सरकार सेना अध्यक्ष के विचारों के अनुसार चलती है या मुख्यमंत्री के।

मुद्दा सिर्फ यह नहीं है कि किसी इलाके को “अशांत” घोषित किया जाये या नहीं। केन्द्र सरकार अपने तंग राजनीतिक इरादों के लिये भी इस या उस जिले को “अशांत इलाकों” की सूची से हटा सकती है। वह बाद में उन जिलों को कभी भी इस सूची में फिर से जोड़ सकती है। ज़मीनी तौर पर सैनिक शासन चलता रहता है, जैसा कि मणिपुर का उदाहरण दिखाता है मणिपुर में, सैनिकों द्वारा मनोरमा देवी के बलात्कार और कत्ल के बाद हुये विशाल जन प्रदर्शनों की वजह से, केन्द्र सरकार को मजबूरन इंफाल को अशांत इलाकों की सूची से हटाना पड़ा। सरकारी घोषणा के अनुसार, वहां अब ए.एफ.एस.पी.ए. नहीं लागू है। परन्तु ज़मीनी तौर पर इस सरकारी घोषणा से कोई फर्क नहीं पड़ता है। अभी भी सेना वहां के नागरिकों को आतंकित करती रहती है। अतः मुख्य मुद्दा ए.एफ.एस.पी.ए. नामक फासीवादी कानून को रद्द करने और सेना को वहां से हटाने का है।

ए.एफ.एस.पी.ए. को रद्द की मांग को हमारी पार्टी तथा मानवीय, लोकतांत्रिक और राष्ट्रीय अधिकारों की हिमायत करने वाले सभी संगठनों और व्यक्तियों ने बार-बार उठाया है। 2004 में जब मनोरमा देवी के बलात्कार और कत्ल के बाद, देश भर में ए.एफ.एस.पी.ए. के खिलाफ़ जन आंदोलन तेज़ी से बढ़ रहा था, तब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को इसके दबाव में आकर, ए.एफ.एस.पी.ए. पर एक राष्ट्रीय पुनरीक्षण समिति नियुक्त करनी पड़ी। जस्टिस जीवन रेड्डी की अगुवाई में इस राष्ट्रीय पुनरीक्षण समिति का काम था इस अधिनियम में संशोधन प्रस्तावित करना और अगर संभव हो तो ए.एफ.एस.पी.ए. की जगह पर किसी और अधिनियम का प्रस्ताव करना। इस अनिधियम को रद्द करने का प्रस्ताव इस समिति के सामने रखा तक नहीं गया था। जून 2005 में इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी परन्तु बीते 6 वर्षों से इसे सार्वजनिक नहीं किया गया है। रिपोर्ट के कुछ अंश पर मीडिया के हाथ लगने से यह जाना गया है कि राष्ट्रीय पुनरीक्षण समिति इस अधिनियम के तहत किये गये अत्याचार को अनदेखी न कर सकी और समिति ने एक मत से यह सिफारिश की है कि इस अधिनियम को रद्द किया जाये।  

सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम के फासीवादी प्रावधान

कोई भी अफ़सर, नायक या हवलदार जैसा कि गैर कमीशन अफसर भी ‘कत्ल करने के लिये गोली मारो’ का आदेश दे सकता है (दफा 4ए) सुरक्षा बलों को बिना वारंट किसी भी जगह में घुसने और तलाशी लेने की ताकत है (दफा 4डी)। वे शक के आधार पर किसी को भी कहीं से भी, सड़क से भी उठाकर बंद कर सकते हैं। वे आधी रात को किसी के भी दरवाजे पर खटखटाकर, बिना वारंट उसे गिरफ्तार कर सकते हैं और “गिरफ्तारी के लिये जरूरी” बल प्रयोग कर सकते हैं (दफा 4सी)।

गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश करने के लिये कोई निर्धारित समय की अवधि नहीं है। अधिनियम में सिर्फ इतना ही कहा गया है कि गिरफ्तार किये गये व्यक्ति को “कम से कम समय” के अन्दर सबसे निकट के पुलिस थाने में ले जाना चाहिये। परन्तु यह “कम से कम समय” कितना होना चाहिये, यह कहीं भी लिखा नहीं हुआ है, जिसकी वजह से कई लोगों को मनमानी के साथ बहुत दिनों तक हिरासत में रखा जाता है (दफा 5)।

अगर सुरक्षा बलों के सिपाहियों को किसी जांच समिति के सामने बुलाया जाता है तो उनके मंत्रालयों, रक्षा मंत्रालय या गृह मंत्रालय, की सहमति पहले से लेनी पड़ती है (दफा 6)। अतः, सेना के अत्याचार से पीडि़तों को कोई राहत नहीं मिलती।

  

नागरिक आबादी पर सेना को इस्तेमाल करने का कोई औचित्य नहीं हो सकता। कश्मीर और पूर्वोत्तर इलाके में सैनिक शासन के अनुभव से यह स्पष्ट होता है कि सैनिक शासन से किसी समस्या का सामाधान नहीं होता है। बल्कि वहां के लोगों के लिये जीवन एक नरक सा बन जाता है। सैनिक शासन के सभी इलाकों में नागरिक सरकारों की कोई ताकत नहीं है और लोगों का उन पर बहुत ही कम भरोसा है। सेना को रक्षक नहीं, बल्कि कातिल, लुटेरा और भक्षक माना जाता है। इसकी वजह से वहां के लोग खुद को वर्तमान हिन्दोस्तानी संघ से अलग महसूस करते हैं। सैनिक शासन के समर्थक कहते हैं कि सैनिक शासन से राष्ट्रीय एकता बनती है, परन्तु वास्तव में यह देखने में आता है कि सैनिक शासन और ए.एफ.एस.पी.ए. से इसका उल्टा ही असर हो रहा है।

यह सच है कि पूर्वोत्तर इलाके और कश्मीर में सैनिक शासन को बरकरार रखने में सेना का निहित स्वार्थ बन चुका है। सेना के अध्यक्ष और जनरल किसी भी ऐसे कदम का जमकर विरोध करेंगे, जिससे उनके शासन को थोड़ा सा भी खतरा हो।

मजदूर वर्ग, किसान और क्रांतिकारी बुद्धिजीवी हमारे राज्य और समाज के नवनिर्माण की मांग कर रहे हैं, ताकि लोग सत्ता में आ सकें और लोकतंत्र का विस्तार हो सके। हम यह मांग कर रहे हैं कि हिन्दोस्तानी संघ को राष्ट्रों और लोगों के स्वैच्छिक संघ बतौर पुनर्गठित किया जाये। हम यह मांग कर रहे हैं कि संप्रभुता, यानि फैसले लेने का अधिकार, लोगों और जन समुदायों के हाथों में हो। हम यह सब सुनिश्चित करने के लिये, संविधान और राजनीतिक व्यवस्था व प्रक्रिया में मौलिक परिवर्तन की मांग कर रहे हैं।

इन हालतों में हमें यह कठोर वास्तविकता समझनी होगी कि कश्मीर और पूर्वोत्तर इलाकों, यानि जहां सैनिक शासन और ए.एफ.एस.पी.ए. लागू है, वहां के लोगों को वे थोड़े से अधिकार भी नहीं मिलते हैं जो बाकी देश के लोगों को मिलते हैं। उन इलाके के लोगों का संघर्ष लोगों को सत्ता में लाने के हमारे सांझे संघर्ष का हिस्सा है। हम कम्युनिस्टों और देश के सभी लोकतांत्रिक ताकतों को बहादुरी से आगे आकर, ए.एफ.एस.पी.ए. को रद्द करने की मांग को रखना चाहिये और अलग-अलग राष्ट्रों व लोगों के स्वैच्छिक संघ बतौर हिन्दोस्तानी संघ के पुनर्गठन के लिये संघर्ष करना चाहिये। कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के कम्युनिस्टों और लोकतांत्रिक ताकतों को लोकतंत्र के नवीकरण और हिन्दोस्तानी संघ के पुनर्गठन, यानि हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के संघर्ष को अपना संघर्ष मानकर उसे आगे बढ़ाना होगा। इसी तरह हम शासक वर्ग की सैनिक शासन और ए.एफ.एस.पी.ए. को बरकरार रखने तथा लोगों को खुद अपना भविष्य तय करने के अधिकार से वंचित करने की कोशिशों को नाकामयाब कर पायेंगे।

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