94 वर्ष पहले, 7 नवम्बर को, लेनिन की बोलशेविक पार्टी की अगुवाई में रूस के मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोग पूंजीपतियों और सभी शोषक वर्गों की राज्य सत्ता का तख्तापलट करने के लिए क्रांति में उठ खड़े हुए थे। उन्होंने पूंजीपतियों की राज्य सत्ता की जगह पर एक संपूर्णतया नयी राज्य सत्ता स्थापित की, जो मेहनतकशों की आकांक्षाओं का साकार रूप था। उन्होंने इतिहास में पहली बार समाजवाद की स्थापना करने और इंसान द्व
94 वर्ष पहले, 7 नवम्बर को, लेनिन की बोलशेविक पार्टी की अगुवाई में रूस के मजदूर वर्ग और मेहनतकश लोग पूंजीपतियों और सभी शोषक वर्गों की राज्य सत्ता का तख्तापलट करने के लिए क्रांति में उठ खड़े हुए थे। उन्होंने पूंजीपतियों की राज्य सत्ता की जगह पर एक संपूर्णतया नयी राज्य सत्ता स्थापित की, जो मेहनतकशों की आकांक्षाओं का साकार रूप था। उन्होंने इतिहास में पहली बार समाजवाद की स्थापना करने और इंसान द्वारा इंसान का शोषण खत्म करने का रास्ता अपनाया था।
उसके बाद लगभग 100 वर्ष बीत चुके हैं परंतु अक्तूबर क्रांति की शान तथा दुनिया को झकझोरने वाला उसका महत्व बिल्कुल भी कम नहीं हुआ है। आज भी, जब हम सारी दुनिया में शोषण और दमन के खिलाफ़ मेहनतकशों के बढ़ते संघर्षों की लहर को देखते हैं, तो जनता के सामने मुख्य सवाल आज भी वही हैं, जो उस समय थे। यह कैसे सुनिश्चित किया जाये कि मजदूर वर्ग और मेहनतकशों के संघर्षों और कुरबानियों का साम्राज्यवादी, पूंजीपति और दूसरे शोषक अपने हित में इस्तेमाल न करें? मेहनतकश जनसमुदाय को अपना भविष्य खुद तय करने और अपने हित में समाज को पुनर्गठित करने में कैसे सशक्त बनाया जाये? मेहनतकशों का सबतरफा उद्धार और निरंतर प्र्रगति – राजनीतिक, राष्ट्रीय, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक – कैसे हासिल की जाये?
अक्तूबर क्रांति ने इन सभी मोर्चों पर एक नया मार्ग रोशन किया। आज जो भी सभी प्रकार के शोषण और दमन से लोगों की मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे हैं, उन्हें गंभीरतापूर्वक महान अक्तूबर क्रांति का अध्ययन करना चाहिए और उससे सबक सीखना चाहिए।
1917 में जब रूस में अक्तूबर समाजवादी क्रांति हुई थी, तो उससे कुछ महीने पहले रूसी लोगों को तबाहकारी अंतर-साम्राज्यवादी प्रथम विश्वयुद्ध में धकेलने वाली जा़र की घिनावनी सत्ता का एक विशाल जन आंदोलन द्वारा तख्तापलट किया गया था। उस जन आंदोलन की वजह से केरेंस्की की रिपब्लिकन सरकार सत्ता में आयी थी। वह सरकार पूंजीपतियों के शासन को मजबूत करने, रूस में पूंजीवाद को और विकसित करने तथा जा़रशाही से कुछ कम स्पष्ट रूप से, विश्वयुद्ध में रूस की भूमिका को बनाये रखने की कोशिश कर रही थी। रूसी श्रमजीवी और मेहनतकश लोगों ने जा़रशाही का तख्तापलट करने और लोकतंत्र हासिल करने के लिए संघर्ष किया था, परंतु पूंजीपति उसका फल भोगना चाहते थे।
लेनिन और बोलशेविक पार्टी के दूरदर्शी तथा दृढ़ नेतृत्व की वजह से नयी पूंजीवादी राज्य सत्ता को मजबूत होने नहीं दिया गया। कम्युनिस्टों द्वारा संगठित होकर श्रमजीवी वर्ग के अगुवा तबके ने तत्कालीन क्रांतिकारी हालतों का इस्तेमाल करके, शहरों और गांवों के मेहनतकशों को लामबंध किया और पूंजीवादी राज्य का तख्तापलट किया। उन्होंने उसके स्थान पर मजदूरों, किसानों और सिपाहियों के प्रतिनिधियों के सोवियत की स्थापना की। रूस में श्रमजीवी के अधिनायकत्व ने यही रूप लिया था।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद की शिक्षाओं पर चलकर, क्रांति ने पुराने परजीवी राज्य की मशीनरी का ध्वंस किया। फालतू बातचीत करने वाले संसद (डूमा) को रद्द कर दिया गया और एक नये प्रकार के राजनीतिक निकाय के रूप में सोवियतों की स्थापना की गई, जिनमें वैधानिक और कार्यकारी काम, दोनों ही शामिल थे। यानि, उनका काम सिर्फ कानून पास करने से खत्म नहीं होता था बल्कि उन कानूनों को लागू करना भी उनकी ही जिम्मेदारी थी। लाल सेना को जन सेना के रूप में स्थापित किया गया। इस तरह श्रमजीवी अधिनायकत्व की स्थापना के साथ अफसरों और लोगों, सेना और लोगों के बीच की वह बड़ी खाई समाप्त हुई जो सभी शोषण पर आधारित समाजों की विशेषता होती है।
राष्ट्रीय अत्याचार को एक ही कदम के साथ खा़रिज किया गया। पुराने जा़रशाही साम्राज्य के अंदर गुलाम बने सभी राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के आत्म-निर्धारण के अधिकार और अलग भी होने के अधिकार को संवैधानिक मान्यता दी गई। इस आधार पर इन राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं का एक नया स्वैच्छिक संघ बनाया गया – सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ।
महिलाओं पर अत्याचार, जो शोषण पर आधारित सभी समाजों की विशेषता है, उसका भी ऐसा विरोध किया गया जैसा कि इससे पहले कभी न देखा गया था। ऐसे समय पर जब यूरोप और अमरीका के तथाकथित अगुवा लोकतंत्रों में महिलाएं वोट का अधिकार पाने के लिए संघर्ष कर रही थीं, तो सोवियत महिलाओं को सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त हुए। साथ ही साथ, श्रमजीवी राज्य ने उन्हें घर से बाहर निकलकर काम करने और सार्वजनिक जीवन में भाग लेने, पुरुषों और लड़कों के बराबर शिक्षा पाने और घर के काम, शिशु पालन तथा अन्य जिम्मेदारियों को संभालने में पूरी मदद दी, ताकि ये अधिकार और समानता सिर्फ कागज पर ही न रह जायें।
मानव समाज के इतिहास में पहली बार आधुनिक श्रमजीवी वर्ग की अगुवाई में, शहरों और गांवों के मेहनतकश फैसले लेने और खुद अपना भविष्य निर्धारित करने के काबिल बन गये। उन्होंने अपनी फैक्ट्रियों और सामूहिक खेतों का प्रबंधन खुद किया, अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन के अन्य क्षेत्रों में योजना बनाने तथा फैसलों को लागू करने में उन्होंने खुद भाग लिया। उन्होंने खुद को शोषण और दमन के शिकार से बदलकर समाज के शासक बना दिया और वे खुद समाज की दिशा को निर्धारित करने लगे।
जब सोवियत श्रमजीवी राज्य ने अलग-अलग देशी-विदेशी दुश्मनों पर जीत हासिल कर ली और समाजवादी व्यवस्था की प्रगति हुई तथा परिपक्वता बढ़ी, तो श्रमजीवी लोकतंत्र को और गहरा व विस्तृत बनाने के लिए, कामरेड स्तालिन की अगुवाई में नये कदम लिये गये और उन्हें 1936के संविधान के तहत सुनिश्चित किया गया। इन कदमों में चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करने का मतदाताओं का अधिकार, चुने गये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार और लोगों के लिए नाना प्रकार की आजा़दियां शामिल थीं।
अक्तूबर क्रांति के बाद लिये गए इन सभी कदमों के द्वारा दुनिया में लोकतंत्र और जनाधिकारों का एक नया मानदंड स्थापित हुआ। पूंजीवादी देशों में प्रचलित पूंजीवादी लोकतंत्र की अपेक्षा में, श्रमजीवी लोकतंत्र की श्रेष्ठता सभी के सामने स्पष्ट हुई। विभिन्न देशों के अनगिनत चश्मदीद गवाहों ने इसकी पुष्टि की। सोवियत नमूने का समाज दुनिया के अगुवा पूंजीवादी देशों और उपनिवेशवादी तथा गुलाम देशों के लोगों, खासतौर पर मेहनतकशों का सपना बन गया। दूसरी ओर, पूंजीवादी देशों के लोकतंत्र पूंजीवादी शासन के तंत्र बतौर स्पष्ट होने लगे और उन देशों के शासक पूंजीपति मजदूरों और मेहनतकशों के संघर्षों पर बढ़चढ़कर दमन करने लगे, अपने उपनिवेशों में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को बेरहमी से कुचलने लगे तथा फासीवाद का सहारा लेने लगे।
अक्तूबर क्रांति ने जिस नये रास्ते को रोशन किया था, वह आज भी मजदूर वर्ग और मेहनतकशों के लिए, अपने अधिकारों और लोकतंत्र को हासिल करने, सभी प्रकार का शोषण-दमन खत्म करने और मेहनतकशों का लगातार बढ़ता जीवनस्तर सुनिश्चित करने का रास्ता है। यही रास्ता मानव समाज के ऐतिहासिक विकास के नियमों के अनुकूल है और आधुनिक दुनिया की हालतों के अनुसार भी है, जहां उत्पादन अधिक से अधिक सामाजीकृत हो रहा है और दुनिया के लोगों के आज़ादी और इंसाफ प्राप्त करने के रास्ते में पूंजीवाद और साम्राज्यवाद मुख्य रुकावट बनकर खड़े हैं।
1991में सोवियत संघ के खत्म होने से जो पराजय हुई, उसका फायदा उठाकर दुनियाभर के पूंजीपति इस रास्ते के औचित्य को नकारने की कोशिश करते हैं। यह पराजय स्तालिन के देहांत के बाद, क्रुश्चेव तथा सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के अन्य नेताओं द्वारा समाजवाद के साथ विश्वासघात का परिणाम था, जिसकी वजह से वहां एक नया लालची पूंजीपति वर्ग सत्ता में उभर कर आया। पूंजीपति ढिंढोरा पीटते हैं कि “समाजवाद फेल हो गया”, और अपने बदनाम हो चुके पूंजीवादी लोकतंत्र के विभिन्न नमूनों को सभी समाजों पर थोपने की कोशिश करते हैं। पूंजीपति यह दावा करते हैं कि इन पुराने घिसे-पिटे मानदंडों के आधार पर किसी भी देश को “लोकतांत्रिक” घोषित किया जा सकता है, बेशक उस देश में मेहनतकश जनसमुदाय गरीबी और अत्याचार के बोझ तले पिस रहा हो। परंतु पूंजीपति चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, वे लोकतंत्र और जनाधिकारों के निर्णायक सवाल पर अक्तूबर क्रांति द्वारा दी गई रोशनी को दुनिया के श्रमजीवी और मेहनतकश लोगों के दिल और दिमाग से नहीं मिटा सकते हैं। प्रत्येक देश में कम्युनिस्ट और अगुवा जागृति प्राप्त ताकतें लोगों के उद्धार के संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान और अक्तूबर क्रांति की मिसाल पर निर्भर होते हैं।