हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 22 अक्तूबर, 2011
27 साल पहले, 1-3 नवम्बर, 1984 को हिन्दोस्तान के शासकों ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, दिल्ली, कानपुर और अन्य जगहों पर सिख धर्म को मानने वाले हजारों बेकसूर लोगों का कत्लेआम किया था। शासक कांग्रेस पार्टी के जाने-माने नेताओं ने पुलिस के समर्थन के साथ, तीन दिन तक लग
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केन्द्रीय समिति का बयान, 22 अक्तूबर, 2011
27 साल पहले, 1-3 नवम्बर, 1984 को हिन्दोस्तान के शासकों ने इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, दिल्ली, कानपुर और अन्य जगहों पर सिख धर्म को मानने वाले हजारों बेकसूर लोगों का कत्लेआम किया था। शासक कांग्रेस पार्टी के जाने-माने नेताओं ने पुलिस के समर्थन के साथ, तीन दिन तक लगातार सिखों के मकान-जायदाद लूटने वाले हथियारबंद गुंडों की अगुवाई की। उन्होंने पुरुषों को जिंदा जलाया, महिलाओं का बलात्कार किया। तत्कालीन नये प्रधानमंत्री, राजीव गांधी ने इस अमानवीय अपराध को जायज़ ठहराते हुए कहा था कि “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती जरूर हिलती है”!
बीते 27वर्षों से लोग इंसाफ की मांग करते आये हैं, नवम्बर 1984 के गुनहगारों को सज़ा की मांग करते हैं। परंतु उस हत्याकांड को आयोजित करने वाली कांग्रेस पार्टी के मुख्य नेताओं को आज तक सज़ा नहीं दी गई है। अदालतों ने उस हत्याकांड को एक आयोजित और पूर्व-नियोजित कार्यवाही नहीं माना है, बल्कि उसे “आवेश में आकर किये गये अपराध” बताया है जो कि इंदिरा गांधी की हत्या पर क्षण भर के गुस्से में किये गये थे। हालांकि बहुत सारे सबूतों से इस बात की पुष्टि होती है कि इस पूरे हत्याकांड को बहुत ही सुनियोजित तरीके से किया गया था, गुंडों के हाथों में वोटर लिस्ट दिये गये थे जिन पर सिखों के घरों पर निशान लगे हुए थे, कांग्रेस पार्टी के कार्यालयों से आगजनी के सामान और हथियार बांटे गये थे।
1984 के हत्याकांड के दौरान और उसके बाद, अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग पीडि़तों की रक्षा करने तथा राहत शिविरों में बड़ी कठिनाई से गुजारा करने वाले लोगों की मदद करने के लिए आगे आये। देश की जनता ने अपने काम से यह दिखा दिया कि वे राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ़ हैं। ऐसी हालतों में जब राज्य की पूरी मशीनरी और सरकारी मीडिया सिखों के खून के लिए चीख रही थी, तब लोगों के बहादुर काम से सांप्रदायिक राज्य और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ़ मेहनतकश और उत्पीडि़त जनसमुदाय की एकता स्थापित हुई।
राजीव गांधी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी ने 1985 में, “हिन्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तान!” के नारे के साथ, भारी बहुमत से जीत हासिल की और सत्ता पर आयी। कांग्रेस पार्टी और भाजपा ने 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस आयोजित किया और उसके बाद, सूरत, मुंबई व अन्य शहरों में सांप्रदायिक कत्लेआम करवाये। भाजपा ने 2002 में गुजरात में मुसलमानों का जनसंहार आयोजित किया। वह जनसंहार भी पूर्व नियोजित था, 1984 में कांग्रेस पार्टी द्वारा की गई तैयारियों से सीखकर व और ज्यादा कुशलता के साथ नियोजित किया गया था। जिस तरह राजीव गांधी ने 1984 के जनसंहार को उचित ठहराते हुए नारा दिया था, उसी तरह नरेन्द्र मोदी ने राज्य द्वारा आयोजित मुसलमानों के जनसंहार को उचित ठहराने के लिए “क्रिया और प्रतिक्रिया” पर न्यूटन के नियमों का जिक्र किया था।
1984 के हत्याकांड का प्रथम सबक, जो लोगों ने उसी समय सीख लिया था, वह यह था कि राज्य सांप्रदायिक है, लोग नहीं। सांप्रदायिक हिंसा के लिए हमारे शासक जिम्मेदार हैं, न कि लोग या उनके धार्मिक विचार।
दूसरा सबक यह था कि हालांकि हमारे संविधान में हिन्दोस्तान को एक “धर्मनिरपेक्ष” गणतंत्र बताया गया है, परंतु हिन्दोस्तानी राज्य राजनीतिक पार्टियों को सांप्रदायिक हिंसा आयोजित करने की पूरी छूट देता है और पुलिस इसमें पूरी मदद करती है। हिन्दोस्तानी गणतंत्र एक सांप्रदायिक राज्य है।
तीसरा सबक यह था कि न तो पूरी कांग्रेस पार्टी और न ही उसका कोई एक नेता आज तक उन अपराधों के लिए दोषी ठहराया गया है, जिससे यह साबित होता है कि इस राजनीतिक व्यवस्था में कोई इंसाफ नहीं है। दोषी ठहराये जाने या सज़ा भुगतने की बात तो दूर, सांप्रदायिक हिंसा के मुख्य आयोजक चुनावों में खड़े होते रहे हैं और “जनता के प्रतिनिधि” बतौर सत्ता में आते रहे हैं। “कानून का शासन“ के नाम से यहां जो शासन चलता है, वह मनमानी का शासन है, एक ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें सत्ता समाज के चंद मुट्ठीभर लोगों के हाथों में ही संकेन्द्रित है और उन मुट्ठीभर लोगों को अपनी मर्जी के अनुसार कुछ भी करने की असीमित ताकत दी जाती है।
चैथा सबक, जो 1984 के बाद की गतिविधियों से स्पष्ट हुआ है, वह यह है कि उस समय से लेकर आज तक हमारे इतिहास की एक अंधकारपूर्ण अवधि चल रही है, जिसमें राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा समेत राजकीय आतंकवाद शासक वर्ग का एक तरजीही साधन बन गया है, जिसके जरिये सत्ता के खिलाफ़ विरोध संघर्ष को दबाया जाता है, गुमराह किया जाता है और बांटा जाता है। “कानून और व्यवस्था”, “आतंकवाद पर जंग”, “अलगाववाद को कुचलने” और “राष्ट्रीय एकता और अखंडता की रक्षा करने”, आदि के नाम पर बार-बार लोगों का कत्ल किया गया है। “आधुनिकीकरण” और “उदारीकरण व निजीकरण के जरिये भूमंडलीकरण” के मजदूर-विरोधी, किसान-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी कार्यक्रम को बढ़ावा देने और इसके खिलाफ़ लोगों की एकता को तोड़ने में राजकीय आतंकवाद शासकों का मुख्य हथियार बन गया है। हिन्दोस्तानी बड़े पूंजीपतियों को एक विश्वस्तरीय ताकत बनाना इस कार्यक्रम का मकसद है।
पांचवा सबक यह है कि हम कभी यह उम्मीद नहीं कर सकते कि सांप्रदायिक हत्याकांड के आयोजक खुद इंसाफ दिलायेंगे या भविष्य में ऐसा हत्याकांड नहीं होने देंगे। हम कभी यह उम्मीद नहीं कर सकते कि हिन्दोस्तानी राज्य और कांग्रेस पार्टी या भाजपा जैसी उसकी राजनीतिक पार्टियां हमें इंसाफ या सांप्रदायिक हिंसा से रक्षा दिलायेंगी।
भाजपा कांग्रेस पार्टी पर उंगली उठाने के लिए 1984 के मुद्दे का जिक्र करती है। परंतु राजग के 6वर्ष के शासनकाल के दौरान, 1984 के एक भी गुनहगार को सज़ा नहीं दी गई। इसके विपरीत, भाजपा और राजग के नेताओं ने 1984 का उदाहरण देते हुए, गुजरात में 2002 के जनसंहार को जायज़ ठहराया।
कांग्रेस पार्टी नीत संप्रग 2004 में “धर्मनिरपेक्षता” के नारे के साथ सत्ता पर आयी। उसने गुजरात के हत्याकांड के दोषियों को सज़ा देने का वादा किया था।
अनेक जाने-माने न्यायविदों तथा कार्यकर्ताओं ने बीते 27वर्षों में राज्य द्वारा आयोजित जनसंहार के संबंध में काम किया है और ऐसे कानून की मांग की है, जिससे सांप्रदायिक जनसंहार के आयोजकों को सज़ा मिलेगी। सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित किसी भी कानून को यह मान कर चलना पड़ेगा कि राज्य और शासक पार्टी ही ऐसे जनसंहार के आयोजक हैं। इस कानून को यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि 1984, 1992, 2002 और दूसरे जनसंहारों के आयोजकों को सज़ा दी जायेगी। राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा समेत राजकीय आतंक को एक आयोजित जनसंहार मानना होगा, न कि अलग-अलग लोगों की अलग-अलग अपराधी हरकतें। तभी हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि जिस पार्टी या जिन पार्टियों ने हिंसा को आयोजित किया था, उन्हें दोषी ठहराया जायेगा, न सिर्फ हिंसा को अंजाम देने वाले गुण्डों को। परन्तु कांग्रेस पार्टी ने अब तक सांप्रदायिक हिंसा बिल के जो-जो प्रारूप पेश किये हैं, उनमें इन मुद्दों को नहीं उठाया गया है। न तो भजपा न ही किसी और विपक्ष की पार्टी ने इन मुद्दों को उठाया है। इससे यह देखने में आता है कि इन सभी पार्टियों का उद्देश्य इंसाफ दिलाना नहीं बल्कि आगे फिर से हत्याकांड आयोजित करने की तैयारी करना है।
इन सभी सबकों से यह स्पष्ट हो जाता कि जब लोगों के हाथ में राज्य सत्ता होगी, तभी वे राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा और सभी प्रकार के राजकीय आतंकवाद को समाप्त कर सकेंगे तथा गुनहगारों को सज़ा दिला सकेंगे। हम यह नहीं उम्मीद कर सकते कि अपराध के आयोजक और कर्ता खुद ही अपने-आपको उसके लिये सज़ा देंगे। परन्तु जब लोगों के हाथ में राज्य सत्ता होगी, तब हम यह सुनिश्चित कर पायेंगे कि कमान के पदों पर लोग सांप्रदायिक हत्याकांड और हिंसा को रोकने की अपनी जिम्मेदारी के लिये जवाबदेह होंगे और ऐसे तंत्र स्थापित किये जायेंगे ताकि इन अमानवीय अपराधों के गुनहगारों को सज़ा मिलेगी, चाहे उनका सरकारी पद या राजनीतिक रुतबा कोई भी हो।
नवम्बर, 1984 के जनसंहार की 27वीं बरसी पर हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी मेहनतकश और उत्पीडि़त जनसमुदाय से इंसाफ के लिये संघर्ष को तेज़ करने का आह्वान करती है। सभी इंसाफ पसंद लोग एकजुट होकर गुनहगारों को सज़ा दिलाने की मांग करें! हिन्दोस्तानी संघ का पुनर्गठन करने के लिये हम काम करें, ताकि इसमें सभी राष्ट्रों के राष्ट्रीय अधिकारों की मान्यता हो! समाज के सभी सदस्यों और सभी अल्पसंख्यक तबकों के मानव अधिकारों की पुष्टि करें और इस तरह सभी प्रकार के राष्ट्रीय और जातिवादी दमन, धार्मिक भेदभाव और उत्पीड़न को खत्म करें! सभी लोगों के अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के लिये हम जनता के बीच में पक्ष-निरपेक्ष समितियां बनायें! अपने देश में लोकतंत्र के नवनिर्माण के लिये काम करें, ताकि राज्य सत्ता जनता के हाथ में हो और इन सभी मांगों को वास्तविकता में बदलने के लिये तंत्र स्थापित किये जा सकें।