भूमि अधिग्रहण और पुनः स्थापन व पुनर्वास विधेयक (2011) का असली मकसद

भूमि अधिग्रहण और पुनः स्थापन व पुनर्वास विधेयक के एक मसौदे पर मंत्रीमंडल ने अपनी सहमति दी। उसे 7 सितंबर, 2011 को संसद में पारित किया गया और 15 सितंबर को संसदीय स्थायी समिति को दिया गया। स्थायी समिति को इस मसौदे पर अपनी रिपोर्ट अगले तीन महीने के अन्दर देनी है। सरकार का इरादा है कि संसद के अगामी शीत सत्र में इस मसौदे को कानून बतौर पास किया जाये।

भूमि अधिग्रहण और पुनः स्थापन व पुनर्वास विधेयक के एक मसौदे पर मंत्रीमंडल ने अपनी सहमति दी। उसे 7 सितंबर, 2011 को संसद में पारित किया गया और 15 सितंबर को संसदीय स्थायी समिति को दिया गया। स्थायी समिति को इस मसौदे पर अपनी रिपोर्ट अगले तीन महीने के अन्दर देनी है। सरकार का इरादा है कि संसद के अगामी शीत सत्र में इस मसौदे को कानून बतौर पास किया जाये।

यह विधेयक 1894 के पुराने उपनिवेशवादी अधिनियम की जगह पर लाया जा रहा है। परन्तु इस विधेयक की मूल दिशा उससे किसी खास रूप से भिन्न नहीं है। निजी कंपनियों द्वारा, आधारभूत ढांचे के लिये भूमि अधिग्रहण और बड़ी-बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण को सरल बनाने के लिये इस विधेयक को कानूनी रूप दिया जा रहा है, पर इस वास्तविकता पर पर्दा डालने के लिये, “भूमि अधिग्रहण से जिन किसानों का रोज़गार प्रभावित होगा, उनकी समस्याओं” को हल करने की बहुत सारी बातें कही जा रही हैं। विधेयक में यह माना जा रहा है कि इसका मुख्य उद्देश्य औद्योगिकीकरण, आधारभूत ढांचा और शहरीकरण के लिये भूमि अधिग्रहण को सरल बनाना है, पर इसके साथ-साथ, इस उद्देश्य और इससे प्रभावित लोगों की समस्याओं को हल करने के बीच “संतुलन” बनाये रखने की मांग की गई है! हमारी जनता का अब तक का अनुभव यह दिखाता है कि जिन लोगों को अपनी जमीन से बेदखल किया जाता है, उनसे यह वादा किया जाता है कि उस परियोजना से उनका भविष्य उज्ज्वल होगा परन्तु उस ‘उज्ज्वलता’ की एक किरण भी उन्हें आज तक नहीं देखने को मिली है!

भूमि का कैसे सही और सबतरफा उपयोग किया जाये ताकि जनता की खाद्य सुरक्षा और भूमि पर निर्भर लोगों की रोजी-रोटी सुनिश्चित हो, इस नज़र से यह कानून भूमि अधिग्रहण के सवाल को नहीं उठाता है। भूमि को एक विक्रय वस्तु बनाने के लिये पूंजीवादी राज्य जिस दिशा में बढ़ रहा है, उसमें इस प्रकार की व्यापक सामाजिक प्राथमिकताओं का कोई स्थान नहीं है। यह कानून सभी भूमि के व्यवसायीकरण तथा भूमि के लिये बाज़ार पैदा करने की दिशा में बढ़ने के लिये है। इसका यह नतीजा होगा कि भूमि बाज़ार में सट्टेबाज़ी की पूंजी आ जायेगी, जिससे भूमि की कीमतों में खूब ज्यादा और अचानक उतार-चढ़ाव होंगे।

भूमि अधिग्रहण से प्रभावित लोगों को दिये जाने वाले मुआवज़े, उसकी गणना के फार्मूले और उसे दिलाने के तौर-तरीकों पर काफी चर्चा चल रही है। स्थायी समिति को दिये गये मसौदे में, मंत्रालय द्वारा जनता की टिप्पणियों के लिये प्रकाशित किये गये मसौदे की तुलना में, प्रस्तावित मुआवज़े को पहले ही बहुत कम कर दिया गया है। यह स्पष्ट है कि सिर्फ एक ही “जनता की टिप्पणी” इसमें स्वीकार की गई है, कि पूंजीपति कितने सस्ते से सस्ते दाम पर भूमि अधिग्रहण कर सकेंगे! इसके अलावा, जनता का अनुभव यह दिखाता है कि इस या उस फार्मूले को कैसे घुमा-फिरा कर, अधिकारियों द्वारा बहुत से लोगों को मुआवज़े से वंचित किया जाता है।

इस कानून के प्रावधानों के तहत, सरकार अपने इस्तेमाल के लिये, ज़मीन पर कब्ज़ा करके उस पर नियंत्रण करने के लिये भूमि अधिग्रहण कर सकती है। सरकार निजी कंपनियों द्वारा कथित सार्वजनिक उद्देश्य से भूमि इस्तेमाल के लिये, उन्हें बाद में हस्तांतरित करने के मकसद से भूमि अधिग्रहण कर सकती है। निजी कंपनियों द्वारा फौरन और घोषित सार्वजनिक काम हेतु भूमि इस्तेमाल के लिये भी सरकार भूमि अधिग्रहण कर सकती है। इसमें एक ही शर्त यह है कि पूर्व सूचित प्रक्रिया के द्वारा परियोजना से प्रभावित 80 प्रतिशत परिवारों की रज़ामंदी होनी चाहिये। यह जानी-मानी बात है कि जब राज्य सत्ता पूंजीपतियों की इच्छा के अनुसार काम करती है और निजी कंपनियों के पास इतनी ज्यादा ताकत व साधन हैं, जबकि जिन लोगों की भूमि छीनी जा रही है, उनके पास कोई ताकत या साधन नहीं हैं, तो ऐसी “रज़ामंदी” बड़ी आसानी से प्राप्त की जा सकती है। देश के विभिन्न भागों में बांधों, खदानों, इस्पात संयंत्रों, आदि जैसी परियोजनाओं पर, हाल के वर्षों में जो तथाकथित “जन सुनवाइयां” आयोजित की गई हैं, वे ज्यादातर मामलों में पूरी तरह फरेबी रही हैं। पूंजीपतियों की सेवा में काम कर रहे अधिकारी यह सुनिश्चित करते हैं कि आम जनता को इन जन सुनवाइयों से बाहर रखा जाए, ताकि कार्यकारिणी और पूंजीपतियों की मन-मर्जी के अनुसार इनका फैसला हो। न ही इससे यह सुनिश्चित होता है कि जिन किसान परिवारों के पास रोज़गार का कोई और स्रोत नहीं है और जो अपनी ज़मीन को नहीं बेचना चाहते हैं, उन्हें अपनी ज़मीन के छीने जाने से कोई सुरक्षा मिलेगी। अगर कोई पूरा समुदाय ही “अल्पसंख्यक” 20प्रतिशत का हिस्सा हो, तो उनकी जमीन “वैधतापूर्वक” छीनी जा सकती है, चाहे वे उसे बेचने को राज़ी हों या न हों।

भूमि अधिग्रहण और पुनः स्थापन व पुनर्वास कानून की एक विशेषता यह है कि भूमि अधिग्रहण के जो 16दूसरे केन्द्रीय कानून हैं, जिनमें बेहद जन-विरोधी सेज़ अधिनियम 2005 भी शामिल है, उनकी तुलना में इस विधेयक को “प्राथमिकता“ नहीं दी जायेगी। यह याद रखा जाए कि अप्रैल 2007 में संप्रग सरकार ने सेज़ पर लगाई गई रोक को वापस ले लिया था, जिसके परिणामस्वरूप किसानों व मेहनतकशों की सैकड़ों-हजारों हेक्टेयर भूमि का बड़ी पूंजीवादी कंपनियों ने अधिग्रहण कर लिया था। यानि, सेज़ अधिनियम के अन्तर्गत भूमि अधिग्रहण पहले की तरह चलता रह सकता है।

भूमि अधिग्रहण और पुनः स्थापन व पुनर्वास विधेयक को प्राथमिकता न दी जाने का मतलब यह भी है कि परमाणु ऊर्जा अधिनियम 1962, भूमि अधिग्रहण (खदानों) अधिनियम 1885, पेट्रोलियम और खनिज पाइपलाइन (भूमि प्रयोग के अधिकार के तहत अधिग्रहण) अधिनियम 1962, कोयला सम्पन्न क्षेत्र अधिग्रहण व विकास अधिनियम 1957 और बिजली अधिनियम 2003 तथा कई और कानून के तहत अधिग्रहण इस वर्तमान कानूनों के बावजूद चलता रहेगा। इसका यह मतलब है कि महाराष्ट्र में जैतापुर, तमिलनाडु में कूड़ंगकूलम या हरियाणा में गोरखपुर जैसे स्थानों पर, जहां लोग परमाणु ऊर्जा परियोजनाओं के लिये अपनी भूमि के अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं, वहां इस कानून से लोगों को कोई राहत नहीं मिलेगी। इसी प्रकार से, सरकार इस वर्तमान कानून का इस्तेमाल करके, महामार्गों, हवाई अड्डों, बिजली संयंत्रों, आदि के निर्माण के लिये भूमि अधिग्रहण कर सकती है और वहां के लोगों को अपनी भूमि व रोजी-रोटी से वंचित कर सकती है।

झूठी और धोखेबाज़ प्रक्रिया

इस विधेयक को संसद में पारित करने के लिये तैयार करने में सरकार ने बड़ी जल्दबाज़ी दिखाई। श्री जयराम रमेश, जो इसी वर्ष जुलाई के आरंभ में ग्रामीण विकास मंत्री बनाये गये थे, उनके सर्वप्रथम व अहम कार्यों में यह एक काम था।

पहले इस विधेयक के मसौदे को लगभग जुलाई के अंत में तथाकथित सार्वजनिक सलाह-मशवरा के लिये, मंत्रालय के वेबसाईट पर चढ़ाया गया था, और सलाह भेजने का अंतिम दिनांक 31 अगस्त घोषित किया गया था। परन्तु मंत्री ने इस प्रक्रिया को बीच में ही काट दिया। उन्होंने संशोधित विधेयक के मसौदे को अन्तर मंत्रीमंडलीय चर्चा के लिये 12अगस्त को ही भेज दिया, ताकि सितम्बर के प्रथम सप्ताह तक उसे मंत्रीमंडल की सहमति मिल जाये। इस तरह, तथाकथित सार्वजनिक सलाह-मशवरा की प्रक्रिया को बीच में ही काट दिया गया।

सरकार ने जो प्रक्रिया चलाई थी, उससे यह स्पष्ट होता है कि सरकार को भूमि अधिग्रहण का विरोध करने वाले लोगों के विचारों को जानने में कोई रुचि नहीं है। जनमत प्राप्त करने की यह प्रक्रिया एक दिखावा मात्र है। किसानों और मेहनतकशों के पक्ष में काम करने वाले अनेक संगठनों व दलों ने इस कानून के मसौदे को चुनौती देते हुये, अपने विचार रखे परन्तु उन्हें सरकार से कोई जवाब नहीं मिला। सरकार उनके विचारों पर मौन रही। वास्तव में तो इस पर जनता के साथ कोई चर्चा हुई ही नहीं।

भूमि अधिग्रहण और पुनः स्थापन व पुनर्वास विधेयक का विरोध किया जाना चाहिये क्योंकि यह पूंजीपतियों के हितों की सेवा में है और भूमि से अपनी रोजी-रोटी कमाने वालों के हितों तथा समाज के आम हितों के खिलाफ़ है। इससे पहले के मसौदों की तरह, यह मसौदा भी “सार्वजनिक उद्देश्य” और “विकास” के बहाने, अधिक से अधिक मुनाफे बनाने के लिये अपनी पंसद की भूमि का अधिग्रहण करने इजारेदार पूंजीपतियों के ‘अधिकार’ को वैधता देता है।

मजदूर एकता लहर भूमि अधिग्रहण और पुनः स्थापन व पुनर्वास विधेयक के मसौदे को किसान-विरोधी व राष्ट्र-विरोधी मान कर, उसकी निंदा करती है। हम एक नये कानून की मांग करते हैं, जो भूमि का विभिन्न रूप से प्रयोग करने वालों के बीच में सामंजस्य बनायेगा और किसानों, आदिवासियों तथा दूसरे मेहनतकश जनसमुदायों की रोजी-रोटी को सुनिश्चित करेगा। हम मांग करते हैं कि जब तक ऐसा नया कानून नहीं बनता, तब तक भूमि की खरीदारी-बिक्री पर फौरन रोक लगा दी जानी चाहिये।

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