शुक्रवार, 23 सितम्बर, 2011 को संयुक्त राष्ट्र में आये सैकड़ों प्रतिनिधियों ने खड़े होकर फिलिस्तीनी नेता, महमूद अब्बास के भाषण की प्रशंसा की, जिसमें उन्होंने फिलिस्तीन की संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता की अर्जी की पृष्ठभूमि दी और संयुक्त राष्ट्र महासचिव से आवेदन किया कि फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य राज्य बतौर मान्यता दी जाये। दूसरी तरफ, अमरीका ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह सुरक्षा परिषद
शुक्रवार, 23 सितम्बर, 2011 को संयुक्त राष्ट्र में आये सैकड़ों प्रतिनिधियों ने खड़े होकर फिलिस्तीनी नेता, महमूद अब्बास के भाषण की प्रशंसा की, जिसमें उन्होंने फिलिस्तीन की संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता की अर्जी की पृष्ठभूमि दी और संयुक्त राष्ट्र महासचिव से आवेदन किया कि फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य राज्य बतौर मान्यता दी जाये। दूसरी तरफ, अमरीका ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह सुरक्षा परिषद में इसका विरोध करेगा। अतः फिलिस्तीनी लोगों के राष्ट्रीय अधिकारों का मुद्दा फिर एक बार चर्चा का विषय बना, और दुनिया को एक बार फिर देखने को मिला कि कैसे अमरीकी साम्राज्यवादी और यूरोपी शक्तियां दुनिया की सबसे नस्लवादी और फासीवादी इस्राइली सत्ता का समर्थन करती हैं, जो खुल्लम-खुल्ला अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करती हैं।
श्री अब्बास ने अपने भाषण में फिलिस्तीनी संघर्ष के इतिहास को याद किया। श्री अब्बास ने कहा कि, फिलिस्तीन जनादेश के सारे दावों को त्याग कर, सिर्फ 1967 में इस्राइल द्वारा छीने गये उन इलाकों में वापस बसने का पी.एल.ओ. का 1988 का फैसला, “बहुत दुखदायी और मुश्किल कदम” था, परन्तु “हमने तुलनात्मक न्याय का यह रास्ता अपनाया, न्याय जो संभव था” अब, 20 साल के निष्फल समझौता वार्ताओं के बाद फिलिस्तीनी लोगों का निष्कर्ष है कि आज़ादी पाने का यह रास्ता पूरी तरह बंद है। भावुकता के साथ उन्होंने इस्राइल द्वारा कब्जे़ की भूमि पर यहूदियों की नयी बस्तियां बसाने की “उपनिवेशवादी” नीति की कड़ी निंदा की। उन्होंने कहा कि यह नीति फिलिस्तीनी राज्य को अस्तित्व में लाने के यथार्थवादी संभावनाओं को कमजोर करती है। संयुक्त राष्ट्र से और ज्यादा तथा प्रभावशाली भूमिका निभाने का आग्रह करते हुये, श्री अब्बास ने यह भी साफ कर दिया कि ओस्लो शांति समझौते पर आधारित अमरीकी नेतृत्व में शांति प्रक्रिया से उनका विश्वास हट चुका है।
1948 में बर्तानवी व दूसरे साम्राज्यवादियों के समर्थन से की गयी बलपूर्वक इस्राइल की स्थापना से, फिलिस्तीनी लोगों को अपनी अधिकांश भूमि और राष्ट्र से हाथ धोना पड़ा। इस्राइल का जाऊनवादी राज्य, जिसे अमरीकी साम्राज्यवादियों ने बड़े पैमाने पर हथियारों से लैस किया है, ने 1967 में जंग छेड़ कर वेस्ट बैंक व गाज़ा क्षेत्र और दूसरी भूमि हड़प ली थी। पश्चिम एशिया में इस्राइल हमेशा एक प्रतिक्रियावादी ताकत के रूप में तैनात है और जाऊनवादी राज्य अरब लोगों की जमीन पर अपनी नयी बस्तियां बनाने का प्रश्रय देता रहता है। आंग्ल-अमरीकी साम्राज्यवाद की शह में, इस्राइल ने अपनी स्थापना से लेकर आज तक, इस क्षेत्र को पूरी तरह से अशांत कर दिया है। फिलिस्तीनी लोग, जिन्हें पड़ोसी देशों में शरणार्थियों के जैसे रहना पड़ रहा है, वे अपने राष्ट्रीय अधिकारों के लिये बहादुरी से लड़ते आये हैं। आधुनिक काल में, राष्ट्रीय अधिकारों के संघर्षों में फिलिस्तीनी लोगों का संघर्ष सबसे अटल और लगातार जारी रहा है। हिन्दोस्तानी लोग उन लोगों में शामिल रहे हैं, जिन्होंने फिलिस्तीनी लोगों के न्याय की चाहत के दशकों के प्रयासों का तहे दिल से समर्थन किया है।
फिलिस्तीनी लोगों को “हिंसा से दूर” रहने की और अपनी मांगों के लिये समझौते के रास्ते को अपनाने की हिदायत दी गयी थी, खास तौर पर अमरीकी राष्ट्रपति क्लिंटन के काल में और उसके बाद। परन्तु 1993-95 के “ऐतिहासिक” ओस्लो समझौते से इस्राइल की बस्ती बनाने की नीति खत्म नहीं हुयी है। शांति प्रक्रिया को एक अंतर्राष्ट्रीय परदे के जैसे इस्तेमाल किया गया जिसके पीछे फिलिस्तीनी जमीन पर इस्राइल के बेधड़क विस्तार को जारी रखा गया। एक सबसे बड़ा विस्तार 1992 से 1996 के बीच में किया गया। परन्तु फिलिस्तीनी लोग अलग-अलग तरीके से अपने संघर्ष में कायम रहे और उन्होंने पूरी दुनिया के लोगों का समर्थन प्राप्त किया और दिल जीता।
इस्राइल में रहने वाले आम यहूदी लोगों के बीच में भी फिलिस्तीनी अभियान का अच्छा समर्थन है। श्री अब्बास के भाषण के एक दिन पहले, 22 सितम्बर के दिन, दर्जनों इस्राइली कलाकारों व शिक्षकों ने इस्राइली राजधानी तेल अवीव के इंडिपेन्डेन्स हॉल के सामने संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन की सदस्यता के समर्थन में प्रदर्शन किया। अभिनेताओं, प्राध्यापकों और इस्राइली शांति राजकवियों, तथा साथ ही, पूर्व मंत्रियों, प्राध्यापकों और यहां तक कि पूर्व सैनिक अफसरों ने भी एक घोषणापत्र जारी किया है, जिसमें लिखा गया है, “हम …सभी शांति और आज़ादी की चाहत रखने वाले लोगों को, तथा राष्ट्रों को बुलावा देते हैं कि फिलिस्तीन की आज़ादी की घोषणा का स्वागत करें, इसका समर्थन करें, और साथ में आयें व काम करें ताकि दोनों देशों के नागरिक, 1967 की सीमा व आपस बीच समझौते के आधार पर, शांति से रहें। अंतिम और पूरे तौर पर कब्ज़े का अंत, दोनों देश के लोगों के लिये आजादी और शांतिपूर्वक सहअस्तित्व की एक जरूरी शर्त है।” अगले कुछ दिनों में इस्राइल के अलग-अलग नगरों में फिलिस्तीन के राज्य का ओहदा पाने के समर्थन में विभिन्न प्रदर्शन हुये।
संयुक्त राष्ट्र में राज्य का दर्जा पाने का प्रयास, फिलिस्तीनी लोगों द्वारा न्याय और आत्मनिर्धारण के लिये आगे बढ़ने का एक कदम है। हालांकि वर्तमान प्रयास, अमरीका के सुरक्षा परिषद में वीटो करने के घोषित इरादे की वजह से नाकामयाब हो सकता है, इसने तथाकथित शांति प्रक्रिया के पाखंड और दोमुंहेपन का पर्दाफाश किया है। इससे फिलिस्तीन के राज्यपद, जाऊनवादी फासीवाद और अमरीका व दूसरी साम्राज्यवादी ताकतों की धोखाधड़ी और फरेबी प्रचार को चर्चा का विषय बना दिया है। इससे अवश्य फिलिस्तीन के अभिप्राय के लिये और समर्थक मिलेंगे और जाऊनवादियों तथा उनके साम्राज्यवादी प्रोत्साहकों का और पर्दाफाश होगा।