हज़ारों निरपराध कश्मीरियों की निष्ठुर हत्या की भयानक सच्चाई का फिर से सत्यापन हुआ जब 17 अगस्त, 2011 को राज्य मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा, बारामुला और बंदीपुर जि़लों में बेनिशान कब्रिस्तान हैं। 38 ऐसे कब्रिस्तानों में जांच करने वाली टीम ने 2,730 कब्रों को पहचाना। उनमें से 2,156 में गुमनाम लोगों की लाशें थी। इस राक्षसी, अमानवी
हज़ारों निरपराध कश्मीरियों की निष्ठुर हत्या की भयानक सच्चाई का फिर से सत्यापन हुआ जब 17 अगस्त, 2011 को राज्य मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि उत्तरी कश्मीर के कुपवाड़ा, बारामुला और बंदीपुर जि़लों में बेनिशान कब्रिस्तान हैं। 38 ऐसे कब्रिस्तानों में जांच करने वाली टीम ने 2,730 कब्रों को पहचाना। उनमें से 2,156 में गुमनाम लोगों की लाशें थी। इस राक्षसी, अमानवी अपराध की बड़ी कठोरता के साथ निंदा करनी होगी। इन अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए।
सीनियर सुपरिटेंडंट ऑफ पुलिस बशीर अहमद की अगुवाई में इस टीम में जांच करने वालों ने तो अपनी रिपोर्ट एक महीने के पहले ही दर्जे की थी पर, उसको दबाने की कोशिशें की गईं। इसकी कोपी की प्रति को प्राप्त करने के लिए सूचना के अधिकार कानून के तहत जब एक अर्जी दर्जे की गयी, तब जाकर ही यह रिपोर्ट लोगों के सामने आयी।
राज्य के लापता लोगों, चाहे जीवित हो या मृत, को खोजने के लगातार किये गये काम के फलस्वरूप ए.पी.डी.पी. (लापता लोगों के अभिभावकों के संगठन) ने 2008 में जो तथ्य निकाले थे, उनका इस रिपोर्ट द्वारा सत्यापन होता है। ए.पी.डी.पी. तथा अन्य जनाधिकार संगठनों के अनुसार, जिन लोगों को सुरक्षा बलों ने मनमानी से घोर रात में उनके अंधेरी से या काम, स्कूल या कॉलेज से वापस लौटते हुए उठाया था, उनकी संख्या 8000 तक है, और 63 बेनिशान कब्रों में जो गुमनाम शव हैं, उनकी संख्या 2373 है।
सूचना का अधिकार कानून के तहत ए.पी.डी.पी.ने 17 अगस्त को रिपोर्ट प्रकाशित करने के बारे में जो निवेदन दर्ज किया था, उसका जवाब देने के सिवाय राज्य सरकार के पास कोई और चारा नहीं था। पर राज्य मानवाधिकार आयोग ने बड़ी फुर्ति के साथ स्पष्ट किया कि ये खोज के अंतिम परिणाम नहीं हैं और आयोग ने औपचारिक रूप से इन्हें स्वीकारा नहीं है। ऐसी ख़बर है कि राज्य मानवाधिकार के अध्यक्ष न्यायमूर्ति सैयद बशीरुद्दीन ने संवाददाताओं को बताया कि ”इसके अलावा हमारे पास इन्स्पेक्टर जनरल, कश्मीर पुलिस की भी रिपोर्ट है, जिसके बारे में हम सोच रहे हैं। 16सितम्बर को पुलिस, सेना, ए.पी.डी.पी. तथा और पार्टियों की सुनवाई होगी। आयोग उस पर पूरी सुनवाई और पूरी तरह विचार करने और फैसले लेने के बाद ही, सरकार को अपनी सिफारिशों और आगे के कदमों के प्रस्ताव देगा।“
केन्द्र सरकार ने अब तक राज्य मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के बारे में कुछ नहीं किया है।
निरपराध नागरिकों की बर्बर हत्याओं के लिए तथा इन अपराधों पर जान बूझकर पर्दा डालने के लिए हिन्दोस्तानी राज्य सीधे-सीधे तौर पर जि़म्मेदार है। पिछले 23 वर्षों से ज्यादा वर्षों से कश्मीर घाटी को 6लाख से ज्यादा सैनिकों के पैरों तले दबाए रखने का जुर्म केन्द्र सरकार ने ही तो किया है। कुख्यात सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून के तहत उसने सशस्त्र बलों को मनमानी करने के लिए प्रतिरक्षा की गारंटी दी है। सशस्त्र बलों के अंदर यह आम जानकारी है कि कश्मीर की परिस्थिति का फ़ायदा उठा कर विविध सेना अधिकारियों ने बड़ी क्रूरता के साथ निरपराध लोगों की हत्या करवा कर, अपनी तथाकथित ”आतंकवादियों के खि़लाफ़ बहादुरी की कार्यवाहियों“ के खातिर इनामों का या पदोन्नतियों का दावा किया है। सशस्त्र बलों द्वारा बलात्कार या हत्याओं के खि़लाफ़ जब भी लोग विरोध करते हैं, तब केन्द्रीय राज्य उन अपराधियों के खि़लाफ़ कोई भी कार्यवाही करने से इन्कार करती है। बहाना यह देती है कि इससे सशस्त्र बलों के ”मनोबल“ पर बुरा असर होगा।
फासीवादी राजकीय आतंक की वजह से कश्मीर में हज़ारों परिवार अपने बेटों, पतियों, पिताओं और भाइयों की ख़बरों के लिए तरस रहे हैं। अनगिनत महिलाएं ”आधी विधवा“ की स्थिति में दिन गुजर रही हैं, यानि कि उन्हें यह मालूम नहीं कि उनके पति जिन्दा हैं या नहीं। इन माताओं, पत्नियों, बेटियों और बहनों का साहस वाकई में प्रेरणात्मक है – उन्हें चुप करने के लिए सेना तथा पुलिस धमकाते रहते हैं, लेकिन इसके बावज़ूद, सच्चाई का पर्दाफाश करने का संघर्ष उन्होंने जारी रखा है।
रिपोर्ट ने जिन तथ्यों पर प्रकाश डाला है उनसे देश भर के लोग संत्रस्त और क्रोधित हो गये हैं। मानवाधिकारों के उल्लंघनों के जो शिकार हुए हैं, उनके शवों का उत्खनन करके सच्चाई साबित करना, यह अपराधियों को सजा देने में ज़रूरी कदम है। मानवता के खि़लाफ़ अपराध करने वालों पर मुकदमा चला कर उन्हें कड़ी से कड़ी सजा देनी ही चाहिए।
कश्मीरी लोग बहादुर हैं। उनका गौरवपूर्ण इतिहास और सभ्यता है। हिन्दोस्तानी राज्य ने कश्मीर के साथ एक उपनिवेश जैसा व्यवहार किया है। इस परिस्थिति के खि़लाफ़ किसी भी विरोध को कुचलने के लिए उसने कश्मीर के लोगों के खि़लाफ़ बर्बर राजकीय आतंक का इस्तेमाल किया है।
पूरी दुनिया समझती है कि कश्मीरी लोग अपनी भूमि के मालिक बनना चाहते हैं। हिन्दोस्तानी संघ की सेना के आतंक से मुक्त, वे अपना भविष्य खुद तय करना चाहते हैं। अपने विशाल देश के अंतर्गत जितने भी राष्ट्र और लोग हैं, उन सबको यह अधिकार है, और उसे ज़बरदस्ती से छीना नहीं जा सकता। लोगों को कुचलने के लिए बल का प्रयोग नहीं हो सकता।
हिन्दोस्तानी राज्य के आतंक की वजह से 80,000 से ज्यादा लोग कश्मीर में जान से मारे गये हैं। यह भयंकर अपराध हिन्दोस्तानी राज्य और सत्ताधारी वर्ग की सभी राजनैतिक पार्टियों पर बड़ा कलंक है। इस फासीवादी दमन का समर्थन करने के लिए वे ”राष्ट्रीय एकता और क्षेत्रीय अखंडता” की बातें करते हैं। लेकिन कश्मीरी लोगों के वर्तमान हिन्दोस्तानी संघ से बहुत उदासीन होने की वजह तो यही है कि अपनी भूमि का मालिक बनने के कश्मीरी लोगों के राजनैतिक अधिकार का सवाल हल नहीं किया जा रहा है, बल्कि फासीवादी दमन किया जा रहा है।
कश्मीरी लोगों की इच्छा के खि़लाफ़, हिन्दोस्तानी सशस्त्र बलों द्वारा कश्मीर का बलपूर्वक और ज़बरदस्ती से कब्ज़ा अस्वीकार्य है। सशस्त्र बलों को तुरंत अपने बैरकों में भेजना चाहिए और फासीवादी सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून को तुरंत ख़ारिज करना चाहिए। कश्मीरी लोगों को सुरक्षित और शांतिमय जीवन का अधिकार होना चाहिए। इसी शर्त पर, इससे संबंधित अन्य मुद्दों पर चर्चा व समाधान हो सकता है।