कर्नाटक के गारमेंट मज़दूर नौकरियों से निकाले जाने के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं
कपड़ा और वस्त्र मज़दूरों के यूनियनों के बताए हुए अनुमानों के अनुसार कर्नाटक में कम से कम 40 प्रतिशत वस्त्र मज़दूर अपनी नौकरियां गवां चुके हैं। कई मज़दूरों को उनका बकाया वेतन भी नहीं मिला है। कोविड-19 और लॉकडाउन के चलते यूरोप और ब्रिटेन के बाज़ारों में हिन्दोस्तान में निर्मित वस्त्रों और कपड़ों की मांग में भारी गिरावट आई है। इनमें से कई कंपनियां जो यूरोपीय बाज़ारों के लिए कपड़ा बनाती हैं वे या तो बंद हो गई हैं या उन्होंने बड़ी मात्रा में मज़दूरों की छंटनी की है।
पिछले 3 हफ्तों से हर रोज़ 1,300 से भी ज्यादा वस्त्र मज़दूर श्रीरंगापटना में अपनी फैक्ट्री के बाहर आंदोलन कर रहे हैं। इससे पहले जून में, उन्हें सूचित किया गया था कि उन्हें काम से निकाला जा रहा है क्योंकि कपड़ों के एक विदेशी ब्रांड, जिसके लिए वे उत्पादन करते थे उनसे कारखाने को ऑर्डर नहीं मिल रहे हैं।
कर्नाटक में तकरीबन 6 लाख वस्त्र और कपड़ा मज़दूर हैं, जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं, बेहतर वेतन, काम के बोझ में कमी और अन्य बुनियादी सुविधाओं के लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं। कोरोना वायरस महामारी ने उनकी समस्याओं को और गंभीर बना दिया है।
पूरे कर्नाटक की फैक्ट्रियों में होने वाले कई सारे आंदोलनों में से एक है श्रीरंगापटना फैक्ट्री के मज़दूरों का आंदोलन। गारमेंट एंड टेक्सटाईल वर्कर्स यूनियन (जी.ए.टी.डब्ल्यू.यू.), जिसन कई सारे मज़दूर आंदोलनों को आयोजित किया है, इसके एक प्रतिनिधि के अनुसार, “कुछ बड़ी कंपनियों ने 70 प्रतिषत मज़दूरों को वेतन दिए हैं और कुछ ने केवल 50 प्रतिषत को। कुछ कंपनियां मज़दूरों को केवल उतने ही दिन का वेतन दे रही हैं जितने दिन के लिए वे काम कर रहे हैं और कुछ तो लोगों को अंदर ही नहीं आने दे रहे हैं यह कहकर की अब उनकी सेवाओं की ज़रूरत नहीं है। 6 लाख वस्त्र और कपड़ा मज़दूरों की कुल संख्या में से करीब 40 प्रतिषत मज़दूर नौकरियों से निकाले जा चुके हैं।” मज़दूर किस तरह अपनी नौकरियां गवां रहे थे इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि, “फैक्ट्रियों ने 4 मई से काम शुरू किया इसके बावजूद भी मज़दूरों के लिये यातायात के कोई प्रबंध नहीं किए। जून से करीब 50 प्रतिषत गारमेंट मज़दूर काम पर आने लगे थे। कई कंपनियों ने हेल्परों को काम से निकाल दिया है और केवल दर्जियों को ही काम पर रखा है। एक बड़ी कंपनी ने अपनी 3 छोटी कंपनियों को मिला दिया है, जिससे कई मज़दूरों की नौकरियां चली गई हैं।”
मार्च के अंत तक कुछ सौ मज़दूरों को रोज़गार देने वाले कई कारखाने बंद हो गए थे। गारमेंट लेबर यूनियन के उपाध्यक्ष के अनुसार, या तो मज़दूरों की छंटनी हो रही है या तो उन्हें टुकड़ों में थोड़ा-थोड़ा काम दिया जा रहा है। कई वस्त्र निर्माता कंपनियों ने या तो बड़ी संख्या में मज़दूरों की छंटनी की है या तो पूरी तरह से कंपनी बंद कर दी है, क्योंकि वे जिन यूरोपीय और ब्रिटिश ब्रांडों का उत्पादन करती हैं, उन्होंने अभी तक अपने बाज़ार नहीं खोले हैं। अनुमान है की 40 प्रतिषत मज़दूरों ने अपनी नौकरियां खो दी हैं, और इनमें से कुछ को सिर्फ मई के कुछ दिनों का ही वेतन मिला है। बैंगलोर जैसे शहर में अब उनका जीना मुश्किल हो गया है और मजबूरन उन्हें अपने गावों में लौटना पड़ रहा है।
राज्य के श्रम विभाग ने साफ कह दिया है कि नौकरी खोने वाले वस्त्र मज़दूरों को किसी भी प्रकार की राहत देने के लिये उन्हें सरकार की ओर से कोई निर्देश नहीं मिले हैं।
महीने के बकाया वेतन को लेकर नर्सों का आंदोलन
पिछले 3 महीनों से वेतन का भुगतान नहीं होने की वजह से महाराष्ट्र के अमरावती में स्थित डॉक्टर पंजाबराओ देशमुख मेमोरियल मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की नर्सें 23 जून से आंदोलन कर रही हैं। हड़ताल कर रहीं नर्सों में अनुबंधित नर्साें, प्रशिक्षु नर्साें के साथ-साथ स्थायी नर्सें भी शामिल हैं जो मार्च के महीने से कठिन परिस्थितियों और सुविधाओं के अभाव में काम कर रही हैं।
नर्सें इसका विरोध कर रही हैं कि उन्हें पीपीई किट के बिना अस्पताल के क्वारेंटाइन अनुभाग में काम करने के लिए कहा गया, लेकिन उन्हें अस्पताल के कर्मचारियों के लिए 14 दिन के क्वारेंटाइन के लिए अस्पताल की सुविधा प्रदान नहीं की गई। अस्पताल प्रबंधन ने नर्सों को दिन के 24 घंटे काम करने के लिए मजबूर किया और उसके बावजूद उनके लिए खाने तक के प्रबंध नहीं किये गए थे। नर्सों को उनके नियुक्ति पत्रों में 11,000 रुपए के वेतन का वादा किया गया था लेकिन उन्हें अंत में केवल 8,000 रुपए वेतन ही दिया गया।
महामारी के चलते होने वाले वित्तीय संकट की वजह से अस्पताल के प्रबंधन ने नर्सों को वेतन देने में असमर्थता व्यक्त की है। इस दरमियान नर्सों को 3 महीने के वेतन के बिना कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।
रहीदेशभर में कॉग्निजेंट कंपनी के आई.टी. मजदूरों की छटनी हो है
आल इंडिया फोरम फोर आई.टी. इप्लाईज़ (ए.आई.एफ.आई.टी.ई.) ने यह बताया है कि कॉग्निजेंट नामक एक अमरीकी बहुराष्ट्रीय आई.टी. सेवा निगम ने हिन्दोस्तान के अपने कई सारे ऑफिसों में से बड़ी संख्या में मज़दूरों की छंटनी कर रही है। चेन्नई, बेंगलूरू, हैदराबाद, पुणे, कोच्ची और कलकत्ता जैसी कई जगहों पर कॉग्निजेंट के मज़दूरों को काम से निकाला गया है। कर्नाटक स्टेट आई.टी./आई.टी.ई.एस. कर्मचारी यूनियन (के.ई.टी.यू.) और उनकी तमिलनाडु की यूनियन ने बड़ी संख्या में हो रही मज़दूरों की छंटनी को लेकर शिकायत की है।
कॉग्निजेंट के सी.ई.ओ. ने पहले ही अक्तूबर 2019 में 13,000 कर्मचारियों को काम से निकालने की घोषणा की थी, जिसमें से 6,000 ऐसे कर्मचारी हैं जो फेसबुक के साथ कॉग्निजेंट के कंटेंट मॉडरेशन (विषय अनुशोधन) बिजनेस पर काम करते हैं।
पूरी दुनिया में कॉग्निजेंट के लिए कुल मिलाकर 2.9 लाख मज़दूर काम करते हैं, जिनमें से करीब 70 प्रतिशत हिन्दोस्तान में हैं। तकरीबन 18,000 कर्मचारी फिलहाल “बेंच” पर हैं, यानी कि उनके पास काम करने के लिए कोई प्रॉजेक्ट नहीं है। काम से निकाले जाने के लिए इन कर्मचारियों का नंबर सबसे पहले आएगा।
कई वर्षों से हिन्दोस्तान में बड़ी बहुराष्ट्रीय आई.टी. सेवा कंपनियों में कॉग्निजेंट को सबसे तेज़ी से बढ़ रही कंपनी बताया जा रहा था। लेकिन पिछले 2-3 वर्षों से उसने बढ़त में मंदी की घोषणा की है और अब बड़ी संख्या में मज़दूरों की छंटनी के अपने प्लान की भी घोषणा की है।
कॉग्निजेंट के कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या को पहले “बेंच” पर रखा जाता है और उस दौरान उन्हें प्रदर्शन रेटिंग दी जाती है, जिसके बाद उन्हें 45 दिनों के लिए प्रदर्शन सुधार प्लान (पी.आई.पी.) में रखा जाता है। इन सबसे ही कॉग्निजेंट जैसी कंपनी में काम करने वाले मज़दूरों की रोज़गार की तीव्र असुरक्षा का तथ्य सामने आता है। अगर वे पी.आई.पी. में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं तो उन्हें नौकरी छोड़ कर जाने को भी कहा जा सकता है। और जो अच्छा प्रदर्शन कर आगे निकलते हैं उन्हें 35 दिनों (पहले यह समय सीमा 60 दिन थी लेकिन पिछले वर्ष घटाकर 35 दिन कर दी गई थी) के अंदर खुद को किसी “बिलेबल प्रॉजेक्ट” (यानी एक ऐसा प्रॉजेक्ट जिसके लिए कंपनी सेवा शुल्क ले सकती है) में शामिल करवाना होता है और ऐसा न कर पाने पर उन्हें “काम में सहयोग न करना” यह वजह देकर नौकरी छोड़ने को कहा जा सकता है।
कर्मचारियों को 12 से 21 सप्ताह के वेतन (अनुभव के वर्षों के आधार पर) और सेवा के प्रत्येक वर्ष के लिए एक सप्ताह के वेतन के साथ संक्षेप में बर्खास्त किया जा रहा है।
यह आई.टी. उद्योग के उच्च कुशल मज़दूरों की दुर्दशा है!
कोविड-19 महामारी के चलते सफ़ाई मज़दूरों को भारी ख़तरे का सामना करना पड़ रहा है
बृहन्मुम्बई महानगर पालिका के ठोस कचरा प्रबंधन विभाग में काम कर रहे सफाई मज़दूर जिन हालातों में काम करने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं, उनके चलते उनपर रोज वायरस को ग्रहण करने का ख़तरा होता है।
एषिया के एक सबसे बड़ी झुग्गी-बस्ती, मुंबई के धारावी में कोरोना महामारी का एक भयानक प्रकोप हुआ। धारावी के नियमन क्षेत्रों (कन्टेनमेंट ज़ोन) में, नगर निगम के सफाई कर्मचारियों को कचरे को इकट्ठा करने और इसे एक वाहन पर लोड करने का काम सौंपा गया है जो बायोमेडिकल(जैविक) कचरे को शहर के एकमात्र उपचार सुविधा, देवनार डंपिंग ग्राउंड (कूड़ा डालने का मैदान) के बगल में स्थित में ले जाता है।
सफाई मजदूर चिंतित इसलिए हैं क्योंकि कई बार नियमन क्षेत्र से जो कचरा वे इकट्ठा कर रहे होते हैं वह ख़तरनाक बायोमेडिकल कचरे (पीला बैग) और घरेलू कचरे (काला बैग) में अलग नहीं किया जाता है। हर रोज़ मज़दूरों को मास्क, दस्ताने, केले के छिलके, गाउन और प्लास्टिक की थैलियों सहित सभी प्रकार के मिश्रित कचरे के थैलों से निपटने का काम करना पड़ता है। हालांकि वे हजमट सूट, फेस मास्क, रबर के दस्ताने और जूते पहनते हैं, लेकिन उन्हें कोविड-19 संबंधित कचरे को अपने हाथों से काले बैग से अलग कर उसे बड़े पीले बैग में स्थानांतरित करना होता है। संक्रमण की संभावना को कम करने के लिए, कर्मचारी बारी-बारी से कचरे के डिब्बे में प्रवेश करते हैं, जल्दी से कचरे को वैन में स्थानांतरित करते हैं और नियंत्रण क्षेत्र के अगले कॉलोनी में चले जाते हैं। जो क्षेत्र कोविड-19 से प्रभावित नहीं हैं, वहां निवासियों पर कचरे को अलग करने का कोई भी नियम नहीं है। हालांकि, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के अनुसार, सकारात्मक परीक्षण दिखने वाले रोगियों में से कम से कम 69 प्रतिषत लक्षणहीन हैं। इसलिए, इस तरह के कचरे में वायरस द्वारा दूषित होने की संभावना बहुत ज्यादा है।
बी.एम.सी. के 46 कचरा पृथक्करण केंद्र के मज़दूर भारी खतरे में हैं क्योंकि उन्हें सूखे कचरे को गीले में से अलग करना होता है। 15 अप्रैल के बाद से जबसे यह केंद्र पहले लॉकडाउन के बाद खुले हैं, तबसे सफाई मज़दूरों को गैर-नियमन क्षेत्रों के घरों के मिश्रित या अपृथक्क कचरे के साथ काम करना पड़ रहा है, जिसमें मास्क, दस्ताने और अन्य निजी सुरक्षा उपकरण शामिल होते हैं।
इस कचरे में से कुछ को देवनार और कांजुरमार्ग में शहर के लैंडफिल में भेजा जा रहा है, जहाँ कई सफाई मज़दूर कोविड-19 से संक्रमित पाए गए हैं। ऐसा अनुमान है कि घरेलू और घर के क्वारेंटाइन (संगरोध) केंद्रों के मिश्रित निजी सुरक्षा उपकरण से होने वाले कचरे में से कम से कम 600 किलो प्लास्टिक लैंडफिल में पाई जा रही है।
दिल्ली में कम से कम 15 सफाई मज़दूरों की मौत हो चुकी है और 40 मज़दूर जून के तीसरे सप्ताह तक कोरोना से संक्रमित पाए गए थे। दिल्ली के सफाई कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष ने बार-बार इस बात को बताया कि, “कोविड-19 महामारी के बाद से हर घर, रास्ते और नाले में फेकें हुए मास्क, दस्ताने और मुँह के शील्ड पाए जाते हैं। अगर इनमें से कुछ भी एक कोरोना संक्रमित इंसान का हुआ तो वे सफाई मज़दूर के लिए ख़तरा हो सकता है। जैसे-जैसे संक्रमण के आंकड़े बढ़ेंगे यह समस्या बड़ी होती जाएगी और इसकी वजह से हमारे सफाई मज़दूरों की जानें जाएंगी“।
सरकार सफाई मज़दूरों को “कोरोना योद्धा“ बुलाती है लेकिन उन्हें न्यूनतम सुरक्षात्मक गियर भी प्रदान नहीं करती है। कई सारे ठेका मज़दूर तो अपने नाक और मुँह को केवल एक पतले कपडे़ से ढक कर काम करते हैं। कई मज़दूरों को तो नगर निगम से पिछले 3 महीनों से वेतन नहीं मिला है।
पूर्वी दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों ने स्वीकार किया है कि पीपीई किट केवल उन सफाई मज़दूरों को दी जाती है जो कोरोना संक्रमित घरों से कचरा लाते हैं। लेकिन पीपीई किट की भारी कमी की वजह से घरों से कचरा लेने वाले, रास्तों और नालों को साफ करने वाले मज़दूरों को सिर्फ दस्ताने दिए जा रहे हैं जबकि वे भी संक्रमण के भारी ख़तरे में हैं।