मनगढ़ंत बहानों के आधार पर अन्यायपूर्ण युध्दों और संप्रभुता के उल्लंघनों के दस वर्ष
न्यूयार्क और वाशिंगटन में 11 सितंबर 2001 को हुये आतंकवादी हमलों के बाद के पिछले दस वर्ष, आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर लगातार युध्द और बर्बादी के दस वर्ष रहे हैं।
मनगढ़ंत बहानों के आधार पर अन्यायपूर्ण युध्दों और संप्रभुता के उल्लंघनों के दस वर्ष
न्यूयार्क और वाशिंगटन में 11 सितंबर 2001 को हुये आतंकवादी हमलों के बाद के पिछले दस वर्ष, आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर लगातार युध्द और बर्बादी के दस वर्ष रहे हैं।
''आतंकवाद के खिलाफ़ जंग'' के नाम पर अमरीका और उसके सहयोगियों ने अफग़ानिस्तान पर हमला किया और उस पर कब्जा जमाया और फिर इराक पर हमला किया और कब्जा जमाया। वे पाकिस्तान के उत्तरी इलाकों पर बम गिराते आये हैं और अभी भी गिरा रहे हैं।
''आतंकवाद के खिलाफ़ जंग'' के कारण दसियों-हजारों पुरुष, महिलायें और बच्चे मौत के घाट उतारे जा चुके हैं और उससे कहीं ज्यादा लोग अपाहिज हुये हैं तथा बेघर हुये हैं। बहुत से देशों की अमूल्य संपदा या तो लूटी गयी है या बर्बाद की गयी है।
11 सितंबर के बाद में, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने एक हानिकारक सिध्दांत विकसित किया है जिसके अनुसार दुनिया में कहीं के भी लोगों की जिन्दगी और आज़ादी को साथ-साथ होने वाला आवश्यक नुकसान माना जा सकता है। देशों की संप्रभुता और आज़ादी को भी ऐसा ही समझा जा सकता है। अमरीकी राज्य और ''अमरीकी राष्ट्रीय हितों'' की सुरक्षा के लिये किसी की भी बली चढ़ाई जा सकती है। पूरी दुनिया में सामाजिक व राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्षों की जीत के बाद मानवता की सामूहिक प्रगति को, यह अत्यंत पिछड़ा सिध्दांत नकारना चाहता है।
''आतंकवाद के खिलाफ़ जंग'' के साथ-साथ एक ऐसा झूठ और गलत सूचना का अभियान चलाया गया है जैसा कि दुनिया में पहले कभी नहीं देखा गया है। 11 सितंबर के हादसे के लिये अफग़ानिस्तान को जिम्मेदार ठहराया गया और उसके खिलाफ़ जंग छेड़ा गया जबकि इसका रत्तीभर भी सबूत नहीं था। इराक पर भी इसी तरह हमला किया गया, यह कह कर कि उसके पास ''जनसंहार के हथियार'' हैं। इराक पर हमला करके कब्ज़ा जमाने के बाद, अमरीका और उसके सहयोगियों की सारी ताकत मिलकर भी कोई ऐसा हथियार नहीं ढ़ूंढ़ पाये। न ही संयुक्त राष्ट्र की परमाणु ऊर्जा एजेंसी ही ऐसा एक भी हथियार ढ़ूंढ़ पाये।
झूठ और गलत सूचना का अभियान मुस्लिम देशों को शिकार बनाकर किया जा रहा है, खास तौर पर मुस्लिम धर्म को मानने वाले लोगों के खिलाफ़। सरकारी एजेंसियों से इशारा लेकर, यूरोप और उत्तरी अमरीका के बड़े पूंजीपतियों के प्रसार माध्यमों ने इस्लाम को कोई हव्वा जैसे दिखाने की कोशिशकी है। इस्लाम में आस्था रखने वालों पर उन्होंने एक असहनीय दबाव डाला है कि वे आतंकवादी हैं या वे आतंकवाद का समर्थन करते हैं।
संयुक्त राष्ट्र, जिसे द्वितीय विश्वयुद्ध के अंत में बनाया गया था ताकि स्थायी शांति और सभी राष्ट्रों की संप्रभुता की रक्षा की जा सके, उसे साम्राज्यवादी आक्रमण का हथियार बना दिया गया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने वर्चस्व का इस्तेमाल करके अमरीका और उसके सहयोगियों ने सारी कार्यविधियों में हेर-फेर करके विभिन्न सदस्य देशों को ब्लैकमेल किया है। साथ ही, अमरीका और उसके सहयोगियों ने संयुक्त राष्ट्र में पारित प्रस्तावों को विकृत करके अपना उल्लू सीधा करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की।
अमरीका और उसके सहयोगियों ने ''सत्ता परिवर्तन'' की धारणा आगे रखी है ताकि दूसरे देशों में हमला करने और उन पर कब्ज़ा जमाने के उनके लक्ष्य के लिये एक औचित्य मिले। दुनिया का कोई देश अगर अमरीका के आदेशों के अनुसार नहीं चलता तब उसे नियमित तौर पर उत्पीड़ित किया जाता है, उसके खिलाफ़ प्रचार का हमला किया जाता है, और उस पर गला घोटनें वाले प्रतिबंध लगाये जाते हैं। उन पर एक तलवार लटकी रहती है कि उनका भी वही हश्र होगा जैसा कि अफग़ानिस्तान और इराक का हुआ। मध्यकालीन युग के जैसे एक कदम में, उत्तारी कोरिया और इरान जैसे देशों को ''शैतान की धुरी'' का सदस्य बताया गया। इन देशों के लोगों के हितों और इच्छाओं को नजरअंदाज किया जाता है।
वर्तमान समय में, लीबिया और सीरिया पर ''सत्ता परिवर्तन'' का साम्राज्यवादी दबाव सबसे ज्यादा है। इराक में अमरीका नीत कब्ज़ाकारी बल सद्दाम हुसैन की सरकार पलटाने तक सीमित नहीं रहे। अपने आपको पुलिस, न्यायाधीशऔर जल्लाद की भूमिका देकर उन्होंने पूर्व नेता पर कंगारू कचहरी में मुकदमा चलाया और आम अपराधी के जैसे उसे फांसी पर चढ़ाया।
अपने खुद के और संयुक्त राष्ट्र के यातनाओं के खिलाफ़ समझौते का उल्लंघन करते हुये, अमरीकी अधिकारियों द्वारा, उनके आक्रमक हमलों और ''आतंकवाद के खिलाफ़ जंग'' के दौरान, नियोजित ढंग से किये गये पाशविक और निर्दयी यातनाओं का पर्दाफाशहो चुका है। इराक में अबु घरेब जेल और क्यूबा के पास अमरीकी सैनिक अड्डेमें स्थित गुआनतानामो बंदी शिविर के नाम, सबसे पाशविक यातनाओं के पर्यायवाची हो गये हैं। यातनायें देने के सबसे नये तरीकों को इजाद किया गया है जिनमें दूसरे देशों और निजी एजेंसियों को यातनायें देने का काम ''आऊटसोर्स'' भी किया जाता है।
पिछले दस वर्षों में अमरीकी राज्य के वैश्विक हमलों का प्रभाव अमरीकी लोगों पर भी पड़ा है। ''स्वदेश की रक्षा'' के नाम पर अमरीकी लोगों के अधिकारों का और आज़ादी का उल्लंघन किया गया है या उन्हें रद्द किया गया है। अमरीकी नागरिकों का नियमित तौर पर उत्पीड़न होता है और उनकी आस्थाओं तथा उनके मूल देश के आधार पर उन्हें कैद में डाला जाता है। जो लोग अफग़ानिस्तान, इराक या दूसरी जगहों में जंग के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन करते हैं उनपर अत्याचार होता है।
इन दस वर्षों के अनुभवों से सबसे अहम सबक यह लेना चाहिये कि अमरीकी साम्राज्यवाद नीत ''आतंकवाद के खिलाफ़ जंग'', 20वीं सदी में फासीवाद की पराजय के बाद स्थापित किये गये सिध्दांतों पर एक समाज-विरोधी और मानव-विरोधी हमला है। यह अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके सहयोगियों द्वारा किसी भी देश में और किसी भी मनगढंत बहाने, हमला करने के असीमित अधिकार का एक नया मानक स्थापित करने की कोशिश है।
उस भयानक हादसे के दस वर्ष बाद, अब यह साफ है कि 11 सितंबर का आतंकवादी हमला, अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा दुनियाभर में अपना वर्चस्व जमाने और थोपने के अभियान का शुरुआती कदम था। या तो यह अमरीकी साम्राज्यवाद के लिये एक बहुत ही भाग्यशाली घटना थी, या यह खुद अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा गोपनीय तरीके से रचा एक भयानक षड़यंत्र था। यह तो साफ है कि अमरीकी साम्राज्यवाद ही इसका प्रमुख राजनीतिक लाभभोगी रहा है।