खुदरा व्यापार में पूंजीपति इज़ारेदार कंपनियों के आने से खाद्य पदार्थों की कीमतों पर नियंत्रण लाने में मदद होगी, ऐसा दावा करके हिन्दोस्तानी सरकार अपने देश के बहुसंख्यक मेहनतकशों को बुध्दू बनाने की कोशिशकर रही है। इज़ारेदार कंपनियों का असली मकसद आवश्यक चीज़ों को मुनासिब दामों में प्रदान करना नहीं, बल्कि उत्पादकों के खून-पसीने को चूस कर अधिकतम मुनाफ़ा बनाना ही है। सरकार का असली मकसद है इसी के लिए अ
खुदरा व्यापार में पूंजीपति इज़ारेदार कंपनियों के आने से खाद्य पदार्थों की कीमतों पर नियंत्रण लाने में मदद होगी, ऐसा दावा करके हिन्दोस्तानी सरकार अपने देश के बहुसंख्यक मेहनतकशों को बुध्दू बनाने की कोशिशकर रही है। इज़ारेदार कंपनियों का असली मकसद आवश्यक चीज़ों को मुनासिब दामों में प्रदान करना नहीं, बल्कि उत्पादकों के खून-पसीने को चूस कर अधिकतम मुनाफ़ा बनाना ही है। सरकार का असली मकसद है इसी के लिए अनुकूल परिस्थिति बनाना। उत्पादकों की रोज़ी-रोटी सुरक्षित रखना, खरीदी तथा वितरण के कार्यक्षम प्रबंधन द्वारा लोगों के लिए मुनासिब दामों में खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराना, आवश्यक चीज़ों के व्यापार को मुनाफ़े का स्रोत न होने देना, अपनी इन ज़िम्मेदारियों से सरकार पीछे हटना चाहती है।
22 जुलाई, 2011 को केंद्र सरकार के सचिवों की एक समिति ने बहु ब्रांड खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का प्रस्ताव पारित किया।
आज तक की विदेशी निवेशकी नीति के अनुसार, अमरीका की वॉलमार्ट, फ्रांस की कारफूर, इंग्लैंड की टेस्को, जर्मनी की मेट्रो जैसी बहुत बड़ी विदेशी खुदरा इज़ारेदारों को हिन्दोस्तान में खुदरा दुकानें खोलने की इज़ाज़त नहीं थी। अब तक की नीति के अनुसार कैशएण्ड कैरी (रोकड़ भरपाई) तथा थोक व्यापार (जिसमें एक व्यापारी दूसरे व्यापारी से खरीदता है) में 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेशतथा गुच्ची या ऐप्पल जैसे एक ब्रांड की दुकानों में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकी इज़ाज़त हुआ करती थी। अब नया प्रस्ताव अनुमोदन के लिये आर्थिक कारोबार की मंत्रीमंडलीय समिति के सामने जाएगा, जिस के प्रमुख प्रधान मंत्री हैं। आज की विद्यमान शासन प्रणाली में करोड़ों लोगों की रोज़ी-रोटी पर बुरा असर करने वाले इस महत्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन को संसद के अनुमोदन की भी जरूरत नहीं है।
इस कदम की पार्श्वभूमि में अनेक परस्पर विरोधी शक्तियां कार्यरत थीं, जिसकी वजह से खुदरा व्यापार में सरकार ने विदेशी इज़ारेदारियों को धीरे-धीरे, क्रमबध्द तरीके से इज़ाज़त दी।
विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को हिन्दोस्तान में मुनाफ़े हथियाने की तथा वृध्दि करने का बहुत बड़ा मौका दिख रहा है, और इसीलिए वे अपनी-अपनी सरकारों द्वारा, हिन्दोस्तान की सरकार पर खुदरा बाज़ार को उनके लिए खोलने का बहुत बड़ा दबाव डाल रही थीं। खुदरा व्यापार में वॉलमार्ट जैसी विदेशी इज़ारेदार कंपनियों के प्रवेशके खिलाफ़ श्रमिकों, व्यापारियों तथा दुकानदारों के द्वारा मज़बूत, अनवरत तथा खुला विरोध हो रहा है। आज हिन्दोस्तानी पूंजीपति विदेशी श्रृंखला दुकानों का स्वागत कर रहे हैं क्योंकि उनको पूंजी मिलने की आशा है और मुनाफ़ा बनाने के लिए उन धंधे के योग्य तरीके भी सीखना चाहते हैं। हाल के सालों में हिन्दोस्तानी खुदरा इज़ारेदार कंपनियों के अनुभव पर यह आधारित है। पहले वे चाहते थे कि विदेशी प्रतियोगिता से खुद का मैदान बचा कर रखें, लेकिन अब वे सीख चुके हैं कि खुदरा व्यापार में मुनाफ़े कमाना आसान नहीं है। अनेक सालों के बाद भी रिलायंस रीटेल मुनाफ़ा नहीं बना रहा है। सुभिक्षा और विशाल जैसी और बड़ी खुदरा कंपनियां दिवालिया हो गयी हैं। बड़े खुदरा व्यापार को बहुत ज्यादा पूंजी की आवश्यकता होती है और मुनाफ़ा बनाने के लिए उन्हें सालों-साल तक इंतज़ार करना पड़ता है।
नवीनतम प्रस्तावों के अनुसार, पहले विदेशी इज़ारेदार कंपनियों को अपनी भव्य दुकानें सिर्फ़ ऐसे नगरों में खोलने की इज़ाज़त दी जाएगी जिनकी जनसंख्या कम से कम 10 लाख है। देश के सब से बड़े 36 खुदरा बाज़ारों में उन्हें तुरंत धंधा करने की इज़ाज़त मिलेगी। यह एक प्रतिबंध है,ऐसा लग सकता है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि विदेशी खुदरा बहुराष्ट्रीय कंपनियों को शुरुआत में यही चाहिए – हमारे देश के सबसे बड़े नगरों में धंधा शुरू करना। धीरे-धीरे दरवाज़े खोलने का मकसद है जनता के विरोध को सीमित रखना और उसमें फूट डालना। जल्द ही पूरा देश उनके लिए खोल दिया जाएगा।
अपने राज्य में ऐसी खुदरा दुकानों को इज़ाज़त देनी चाहिए या नहीं, यह तय करने का अधिकार राज्य सरकारों को दिया गया है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेशको आकर्षित करने में जब राज्य सरकारों में होड़ है, तो विदेशी इज़ारेदार कंपनियां और उनकी साझेदारी करने वाले बड़े पूंजीपति जल्द ही खुदरा बाज़ार पर कब्ज़ा जमाएंगे, यह अपेक्षा है। भारती टलिकॉम ग्रुप वॉलमार्ट का पार्टनर है, जब कि टाटा ग्रुप टेस्को का पार्टनर है।
हिन्दोस्तान का खुदरा बाज़ार अब तक खास करके व्यापारियों के तथा छोटे दुकानदारों के हाथों में रहा है। अनुमान से वह 410 बिलियन डालर्स या 18,45,000 करोड़ रुपयों का है। यह सकल घरेलू उत्पाद का 30 प्रतिशत है। देशी-विदेशी पूंजीपतियों की नज़र में लूट के लिए यह अगला बड़ा क्षेत्र है। वे चाहते हैं कि मिलकर और अकेले-अकेले भी, उत्पादन से लेकर खुदरा वितरण तक वे पूरी प्रक्रिया पर अपनी इज़ारेदारी जमाएं। आज बड़ी कंपनियों के हाथों में सिर्फ़ 5 प्रतिशत संगठित खुदरा व्यापार है। नीति में जो प्रस्तावित ढील है, उससे आने वाले 10 बरसों में वे चाहते हैं कि यह 20प्रतिशत तक पहुंचे।
इस गतिविधि से अपने देश के करोड़ों उत्पादकों पर और कयामत आएगी। पहले से ही कृषि क्षेत्र में अनेक फसलें हैं जो सरकारी प्रापण के दायरे में नहीं आती हैं। हाल के सालों में आवश्यक खाद्यान्न तथा ईंधन के सार्वजनिक वितरण की अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से सरकार पीछे हट गयी है। सुनिश्चित कीमतों पर सरकारी खरीदी कम होने की वजह से उत्पादकों की असुरक्षितता बढ़ गयी है। अब, जब इज़ारेदार कंपनियां पूरी वितरण श्रृंखला पर अपना कब्ज़ा जमा रही हैं, उत्पादक क्या और कितना उगाएंगे और वे उसको कितने में बेच सकते हैं, उस पर उनका पूरा नियंत्रण होगा। उत्पादकों की उपजीविका अभी भी खतरे में है। अब तो वे पूरे तरीके से इज़ारेदार कंपनियों के चंगुल में होंगे। और इज़ारेदार कंपनियों को खुद के मुनाफ़े अधिकतम बनाने के सिवा और कुछ भी चिंता नहीं होती। दुनिया में जहां भी न्यूनतम कीमतें होंगी या जहां भी वे अपनी इज़ारेदारी के बल से कीमतें नीचे खींच सकते हैं, वहीं से वे खरीदी केरेंगे।
हिन्दोस्तानी हो या विदेशी, खुदरा इज़ारेदार कंपनियों से उन करोड़ों लोगों की उपजीविका को भी खतरा है, जो देश भर में छोटे या मध्यम स्तर के खुदरा धंधे चलाते हैं। कृषि के बाद वह उपजीविका के सबसे बड़े स्रोतों में आता है। देश में लगभग 1.2 करोड़ खुदरा दुकाने हैं। जब भी सरकार ने बडे ऌज़ारेदारों को खुदरा व्यापार में प्रवेशदेने के लिए नीति परिवर्तित करने की कोशीशें की, तब श्रमजीवी लोगों ने, दुकानदारों ने, फेरीवाले, इत्यादि ने जमकर उसका विरोध किया।
लोगों के विरोध की धार कम करने के लिए सत्ताधारी वर्ग एक नया तर्क लेकर आया है। पिछले कई सालों से देशवासी खाद्य पदार्थों की लगातार बढ़ने वाली और आसमान छूने वाली कीमतों के शिकार बनते आ रहे हैं। बहुत महंगे खाद्य पदार्र्थों के बारे में लोगों के गुस्से का फायदा उठा कर, सरकार खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकी नयी नीति लागू करने की कोशिशकर रही है। सरकार का दावा है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें कम करने का एक ही मार्ग है और वह है विदेशीइज़ारेदार कंपनियों के लिए खुदरा व्यापार खोल देना। खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेशके समर्थकों के अनुसार, विदेशीखुदरा इज़ारेदारी कंपनियां शीत भण्डारों में तथा गोदामों में निवेशकरेंगी, सीधे किसानों से खेती उत्पाद को खरीदने के केंद्र खोलेंगी और बिचौलियों को बाहर निकाल कर किसानों को ज्यादा कीमतें अदा करेंगी। इससे आज बहुत खाद्य पदार्थों का जो नाशहोता है, वह टल जाएगा। परिणामत: बाज़ार में ज्यादा माल आएगा। किसानों को भी उत्पादन बढ़ाने में रुचि होगी क्योंकि उनकी कमाई बढ़ेगी।
इस बात को नकार नहीं सकते कि उत्पादन की मात्रा बढ़ाने से वितरण की कीमतें अत: खुदरा कीमतें कम हो सकती हैं। थोक और खुदरा कीमतों में जो बहुत बड़ा अंतर है, वह कम हो सकता है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि चाहे देशी हो या विदेशी, खुदरा इज़ारेदार कंपनियों का मकसद तो एक ही है, कि मुनाफ़ा अधिकतम हो जाए। किस चीज़ का उत्पादन ज़रूरी है तथा श्रमिक जनता को मुनासिब दामों में किस चीज़ की ज़रूरत है, यह तो उनके लिए मायने नहीं रखता। बिचौलियों को दूर करके जो भी बचेगा, उसको इज़ारेदार घराने खुद हथिया लेंगे। बढ़ती महंगाई की समस्या को सुलझाने का अगर सरकार का असली इरादा होता, तो वह थोक व्यापार का राष्ट्रीयकरण करती और सिर्फ़ अनावश्यक चीज़ों के लिए निजी खुदरा व्यापार को इज़ाज़त देती। वह उत्पाद को अच्छी परिस्थिति में बरकरार रखने के लिए गोदामों में, तथा उन चीज़ों का परिवहन करने के लिए शीत भंडार श्रृंखलाओं में निवेशकरती तथा श्रमिकों को आवश्यक चीज़ें गारंटी के साथ मुहैया कराने के लिए पर्याप्त सार्वजनिक वितरण व्यवस्था बनाती। वह इस बात को भी सुनिश्चित करती कि परिणामत: जो बचत होती है, उससे उत्पादकों की रोजी-रोटी सुरक्षित रहे।
इसी प्रकार से 1991 के आर्थिक संकट का इस्तेमाल करके सरकार ने उदारीकरण तथा निजीकरण द्वारा वैश्वीकरण की नयी आर्थिक नीति लागू की थी। इसी नीति की वजह से खाद्य पदार्थों की कीमतें अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गयी हैं, जब कि श्रमिक जनता का वेतन स्तर तो स्थानीय ही रहा है। खाद्य पदार्थों की कीमतों को नियंत्रित रखने के लिए सरकार ने कुछ भी नहीं किया है। इससे इसी बात का संकेत मिलता है कि सरकार ने जान-बूझकर संकट पैदा करने के लिए यह किया, ताकि उस संकट का इस्तेमाल करके बड़े हिन्दोस्तानी तथा बहुराष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग को अपना कार्यक्रम कार्यान्वित करने का अवसर मिले।