“भ्रष्टाचार की जड़ें” पर पैनल परिसंवाद

8 अगस्त, 2011 को दिल्ली में लोक राज संगठन ने “भ्रष्टाचार की जड़ें” विषय पर एक पैनल परिसंवाद का आयोजन किया। जिसे खुल्लम-खुल्ला तौर पर मंत्री, पूंजीपति, दलाल, अफसरशाह, न्यायाधीश, संसद और विधानसभाओं के सदस्य राजकोष को लूट रहे हैं, उसके प्रति मेहनतकश लोगों और बुद्धिजीवियों के जबरदस्त गुस्से और चिंता के परिप्रेक्ष्य में, इस विचार विमर्श गोष्ठी का बहुत महत्व है।

8 अगस्त, 2011 को दिल्ली में लोक राज संगठन ने “भ्रष्टाचार की जड़ें” विषय पर एक पैनल परिसंवाद का आयोजन किया। जिसे खुल्लम-खुल्ला तौर पर मंत्री, पूंजीपति, दलाल, अफसरशाह, न्यायाधीश, संसद और विधानसभाओं के सदस्य राजकोष को लूट रहे हैं, उसके प्रति मेहनतकश लोगों और बुद्धिजीवियों के जबरदस्त गुस्से और चिंता के परिप्रेक्ष्य में, इस विचार विमर्श गोष्ठी का बहुत महत्व है।

विचार-विमर्श की शुरुआत लोक राज संगठन के अध्यक्ष श्री एस. राघवन ने की। पैनल के वक्ताओं में प्रकाश राव, प्रशांत भूषण, परंजोय गुहा थाकुर्ता, प्रो. भरत सेठ और प्रो. अरुण कुमार शामिल थे। गोष्ठी का संचालन सुचरिता ने किया।

का. प्रकाश राव ने चर्चा को शुरू करते हुए एक भाषण दिया जिससे सभा में उपस्थित सभी लोग उत्साहित हो गए और चर्चा का आधार स्थापित हुआ।

लोक पाल के निर्माण पर सरकार के प्रस्तावित विधेयक के संदर्भ में प्रकाश राव ने कहा कि यह विधेयक आम जनता का अपमान है और भ्रष्टाचार को रोकने तथा सरकारी कार्यकर्ताओं की जवाबदेही सुनिश्चित करने की जनता की कोशिशों का अपमान है। सरकारी विधेयक प्रधानमंत्री और उच्च न्यायाधीशों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखता है। यह संसद में सरकार को गिराने या बचाने के लिये या किसी लोक-विरोधी कानून या नीति को पास करने के लिये सांसदों द्वारा किये गए सौदों को भी लोकपाल के दायरे से बाहर रखता है। सबसे अहम बात यह है कि लोकपाल के सदस्यों की नियुक्ति सरकार द्वारा होगी, उन्हीं मंत्रियों, नौकरशाहों तथा न्यायाधीशों के बीच से की जायेगी जो या तो खुद भ्रष्टाचार में फंसे हैं या दूसरे भ्रष्ट लोगों को बचाने में लगे हैं।

संसदीय राजनीतिक पार्टियां क्यों ऐसी शक्तिहीन संस्था प्रस्थापित करना चाहती हैं? कांग्रेस पार्टी, भाजपा और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) लोगों द्वारा पर्यायी विधेयक प्रस्तुत करने वालों पर उग्र रूप से हमला क्यों कर रहे हैं? क्यों कांग्रेस पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) गैर संसदीय संगठनों और गुटों द्वारा संगठित जन अभियान पर हमला कर रहे हैं? कांग्रेस पार्टी और माकपा उन जन अभियानों पर क्यों हमला कर रहे हैं जो संस्थागत संसदीय पार्टियों की अगुवाई में नहीं है? माकपा क्यों संसदीय लोकतंत्र और धर्म-निरपेक्षता को बचाने की मांग कर रही है और दावा कर रही है कि लोगों के विरोध के कारण संसदीय लोकतंत्र कमजोर हो रहा है? अगर हम इन प्रश्नों पर चर्चा करेंगे तब हम भ्रष्टाचार की जड़ों तक पहुंच सकते हैं और इससे भी अहम, भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के संघर्ष को विकसित करने के लिये जरूरी कार्यों को समझ सकेंगे।

प्रकाश राव ने वर्तमान समय भ्रष्टाचार का इतना बढ़ने का कारण समझाया। अमरीका, यूरोप और जापान के मुकाबले, हिन्दोस्तान, चीन व कुछ दूसरे देशों में मुनाफे की दर बहुत ऊंची होने की वजह से यहां बड़ी मात्रा में पूंजी निवेश आ रहा है। यहां मुनाफे की दर इसीलिये ऊंची है क्योंकि यहां मज़दूर वर्ग और मेहनतकश लोगों को अत्याधिक शोषण और जमीन व कुदरती संसाधनों का अत्याधिक दोहन किया जा रहा है। सामूहिक तौर पर शासक वर्ग ऐसी नीतियां लागू करने में एकजुट है जिनसे सभी पूंजीपतियों द्वारा देश की लूट संभव हो। उन्हें देश के मेहनतकश लोगों की या समाज के दीर्घकालीन हितों की कोई चिंता नहीं है।

साथ ही, हिन्दोस्तान के और दुनिया भर के बड़े इजारेदार पूंजीपति लूट-खसौट का सबसे बड़ा हिस्सा हड़पने के लिये आपस-बीच लड़ाई कर रहे हैं। इजारेदार पूंजीपतियों के विभिन्न समूहों के बीच तीखी होड़ है। इनमें हिन्दोस्तानी और विदेशी खिलाड़ी शामिल हैं। हिन्दोस्तानी इजारेदार समूहों के आपस-बीच भी और हिन्दोस्तान में उपस्थित विदेशी इजारेदार समूहों के बीच होड़ इस बात पर है कि कौन राज्य के यंत्रों के सहारे अधिकतम लूट के जरिये सबसे ज्यादा मुनाफा बनाएगा।

प्रत्येक समूह, अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले विशेष सुविधायें चाहता है। संसद और विधान सभाओं में अलग-अलग पार्टियों के सदस्यों को घूस खिलाना, खास व्यक्ति को मंत्री या एक अहम पद पर नियुक्त करना, न्यायाधीशों को घूस खिलाना, किसी खास पार्टी या गठबंधन को सत्ता में लाने का फैसला करना या “विपक्ष“ पार्टियों का इस्तेमाल करके सत्तारूढ़ पार्टी को सबक सिखाना – ये सब अपने देश में इजारेदार पूंजीपतियों के बीच बढ़ते अंतरविरोधों के प्रतिबिंब हैं। यहां तक कि प्रसार माध्यमों के जरिये किसने कितना काला धन स्विस बैंकों में जमा कर रखा है, इनके रहस्योद्घाटन भी, अधिकतर हिन्दोस्तान की लूट-खसौट के विषय में इजारेदार पूंजीपतियों के बीच और साम्राज्यवादियों के बीच के अंतरविरोधों को दर्शाते हैं।

भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लोगों का गुस्सा भी भ्रष्टाचार के घोटालों का तेजी से पर्दाफाश करने का एक कारण है। शासक वर्ग में भी कुछ लोग हैं जो भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे सभी पूंजीपतियों के लिये समतल खेल का मैदान चाहते हैं। इन सभी कारणों ने घोटालों का पर्दाफाश करने में मदद दी है।

इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि समूचा शासक वर्ग चाहता है कि पूंजीपतियों के बीच अंतरविरोध सीमित रहें; वे नहीं चाहते कि परिस्थिति उनके हाथ से बाहर हो जाये। शासक नहीं चाहते हैं कि लोकतंत्र के विस्तार के, अधिकारों की संवैधानिक गारंटी और लागू करने के तंत्र बनाने के और लोगों के सत्ता में आने के संघर्षों को मज़दूर वर्ग, किसान और बुद्धिजीवी आगे बढ़ायें। वे अपनी व्यवस्था को हिलाना नहीं चाहते।

यही कारण है कि माकपा के साथ-साथ, सभी संसदीय पार्टियां लोगों को फैसले लेने में समर्थ बनाने के संघर्ष का विरोध कर रही हैं। इसीलिये वे सभी संसद की संप्रभुता के पक्ष में खड़ी हैं और उसे लोगों के संप्रभु होने के विरोध में पेश कर रही हैं। वे चाहती हैं कि संसद के अंदर और बाहर का संघर्ष उनके नियंत्रण में रहे और लोग इसमें पहल न लें।

परन्तु सच्चाई तो यह है कि शासक वर्ग पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के अंतरविरोधों के और तीखे होने को रोकने में असमर्थ है। वे लोगों के सत्ता में आने के आंदोलन को कुचलने में असमर्थ हैं। भ्रष्टाचार को खत्म करने के संघर्ष सहित, वर्तमान हिन्दोस्तान की सभी गतिविधियां यही दिखाती हैं।

इसी विषय पर अपनी बात को आगे ले जाते हुए प्रकाश राव ने कहा कि भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के विभिन्न प्रस्तावों, जैसे कि अन्ना हजारे दल के प्रस्ताव और स्वामी राम देव के प्रस्ताव की विशेषताओं पर दूसरे पैनल सदस्य अवश्य अपनी बात रखेंगे। संविधान की प्रस्तावना में लिखा है कि हिन्दोस्तान के लोग संप्रभु हैं। परन्तु खुद संविधान ही इसकी अवहेलना करता है। राजनीतिक व्यवस्था और प्रक्रिया भी प्रतिदिन इसका उल्लंघन करती है। लोगों के पास अपनी संप्रभुता को अभ्यास में लाने के कोई साधन नहीं हैं। फैसले लेने में हमारी कोई भूमिका नहीं है। हमारी भूमिका सिर्फ मत देने तक और अपने विभिन्न संघर्षों के जरिये सत्ता से अपनी मांग करने तक ही सीमित है।

संविधान के नीति-निदेशक तत्वों में बड़ी-बड़ी बातें लिखी हैं। परन्तु उनका दैनिक उल्लंघन होता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जब अपने लोग इन तत्वों को अमल में लाने के ठोस प्रस्ताव रखते हैं तो उन पर हमले किये जाते हैं, उनकी बदनामी की जाती है और उनके प्रस्तावों को इतना बदल दिया जाता है कि उनमें कोई शक्ति नहीं रह जाती। जो भी सरकार के खिलाफ़ बात करते हैं उन पर राज्य के यंत्रों का इस्तेमाल करके हमले और बदनामी की जाती है। उदाहरण के लिये, ऐसा कैसे हो सकता है कि बाबा रामदेव के सहायक के पासपोर्ट की अनियमितता के बारे में राज्य को ”अभी“ पता चला है।

खाद्य पदार्थों के अधिकार, सार्वजनिक वितरण प्रणाली, किसानों को जमीन के अधिकार, सामाजिक सुरक्षा के अधिकार, रोजी-रोटी के अधिकार, इत्यादि जैसे आज के ज्वलंत मुद्दों पर, इनकी संवैधानिक गारंटी देने और इनको लागू करने के यंत्रों के स्थापित करने के लिये लोगों ने विभिन्न प्रस्ताव रखे हैं। वे उन अधिकारों की मांग कर रहे हैं जिन्हें सुनिश्चित करना सरकार का फर्ज़ होना चाहिए।

इन सभी मुद्दों पर और ऊंचे संस्थानों में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर, सरकार ने लोगों के हर प्रस्ताव पर अड़चने पैदा की हैं। सरकार ने घोषणा कर दी है कि पूरी बुद्धिमत्ता सरकार के पास ही है और वह लोगों के प्रस्तावों की खिल्ली उड़ा रही है। जो एकदम साफ नज़र आ रहा है, वह यह है कि राजनीतिक व्यवस्था और फैसले लेने की प्रक्रिया पर, और अपनी जिन्दगी और भविष्य पर, लोगों का कोई नियंत्रण नहीं है। प्रशासन में उनकी कोई सुनवाई नहीं है।

सरकारी विधेयक और उसकी तुलना में जन लोकपाल के बीच जनमत संग्रह के प्रस्ताव पर कपिल सिब्बल की प्रतिक्रिया लोगों को अपमानित करने की थी। उसका कहना था कि किसी कानून के बारे में लोग, एक-एक बिन्दू पर, कैसे मत दे सकते हैं। वह मुद्दे को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है। कपिल सिब्बल के मतदान क्षेत्र सहित, अलग-अलग मतदान क्षेत्रों में असलियत में जनमत लिया गया और लोगों ने उत्साह के साथ इसमें भाग लिया, जो दिखाता है कि अगर जनमत का प्रश्न ठीक से रखा जाये तो लोग बुद्धिमत्ता से फैसले ले सकते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि शासकों को लोगों के हाथ में सत्ता देने की दिशा में लोकतंत्र का विस्तार करने से डर लगता है।

अतः भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के लिये, और साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिये कि राजनीतिक व्यवस्था और राज्य लोगों की सेवा में चलें। इसके लिये लोगों द्वारा फैसले लेने के यंत्र व संस्थान होने आवश्यक हैं ताकि वास्तव में लोग निर्णायक बनें। यही समस्या का मूल सार है जिसका समाधान तत्काल निकालने की जरूरत है।

सर्वोच्च सत्ता लोगों के हाथों में होना चाहिये। मत देने के बाद लोग अपने शक्ति नहीं खो सकते हैं। उन्हें शक्ति का सबसे अहम अंश अपने पास बचाकर रखने की जरूरत है। संसद और विधान सभाओं के फैसले लोगों की निगरानी और नियंत्रण में होने चाहिये। यह सुनिश्चित करने के लिये, हमें लोगों के सबसे अहम प्रश्नों पर जनमत संग्रह के अधिकार की मांग करनी होगी।

हमें सुनिश्चित करना होगा कि कानून बनाने में पहलकदमी करने का अधिकार, विधेयकों पर मत देने का अधिकार और जन-विरोधी कानूनों को खारिज करने का अधिकार लोग अपने पास सुरक्षित रखें।

विधायकों को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाना होगा और लोगों के नियंत्रण और निगरानी में लाना होगा। उम्मीदवारों का चयन करना लोगों और उनके संगठनों का अधिकार होना चाहिए, न कि राजनीतिक पार्टियों का। जो चुनकर आते हैं, उन्हें मतदान क्षेत्र के लोगों के प्रतिनिधि होना चाहिये न कि इस या उस पार्टी के। जो भी खरे नहीं उतरते, ऐसे प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार लोगों को होना चाहिये।

पार्टी द्वारा सत्ता की व्यवस्था खत्म होनी चाहिये। यानि कि वर्तमान व्यवस्था खत्म होनी चाहिये, जिसमें राजनीतिक पार्टी या गठबंधन बहुमत हासिल करता है, सरकार बनाता है, और फिर लोगों के हित को नज़रअंदाज करके, अपने आप को और सबसे बड़े पूंजीपतियों को मालामाल करता है। न तो सत्तारूढ़ पार्टी होनी चाहिये और न ही “विपक्ष” पार्टियां। जो भी चुन कर आते हैं, उन्हें मिलकर एक ऐसा निकाय स्थापित करना चाहिए जो लोगों के प्रति जवाबदेह हो। कार्यकारी दल को विधान मंडल के प्रति जवाबदेह होना चाहिए और विधानमंडल को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। न्यायपालिका को जनता के प्रति जवाबदेह होना चाहिए और जनता के नियंत्रण तथा निगरानी में काम करना चाहिए।

हमें शासन व्यवस्था में राजनीतिक पार्टी की भूमिका की नयी परिभाषा देनी होगी। राजनीतिक पार्टी एक ऐसा चुनावी मशीन नहीं हो सकती, जो पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के हित के लिए पूरे समाज को लूटने के इरादे से सत्ता में आने के लिए लड़ती हो। लोगों को सत्ता चलाने के लिए संगठित और सक्षम बनाना तथा अपने अधिकारों को हनन होने से बचाने के काबिल बनाना – यही राजनीतिक पार्टी की भूमिका है।

का.प्रकाश राव ने अंत में कहा कि लोगों को सत्ता में लाने की दिशा में राजनीतिक सुधार लाना ही हमारे समाज से भ्रष्टाचार के उन्मूलन करने की जरूरी शर्त है।

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