बैंक कर्मियों की आगामी हड़ताल के बारे में कामरेड पी.के. शर्मा के साथ साक्षात्कार

पी.के. शर्मा, संयोजक, युनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स, तथा महासचिव, (1) स्टेट बैंक ऑफ इंडिया स्टाफ असोसिएशन (दिल्ली सर्कल) तथा नैश नल कॉन्फेडरेशन ऑफ बैंक एम्प्लाइज़ (दिल्ली राज्य) के साथ साक्षात्कार के कुछ अंश:

पी.के. शर्मा, संयोजक, युनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स, तथा महासचिव, (1) स्टेट बैंक ऑफ इंडिया स्टाफ असोसिएशन (दिल्ली सर्कल) तथा नैश नल कॉन्फेडरेशन ऑफ बैंक एम्प्लाइज़ (दिल्ली राज्य) के साथ साक्षात्कार के कुछ अंश:

म.ए.ल. के संवाददाता: 5 अगस्त को बैंक कर्मचारियों ने जो सर्व हिंद हड़ताल घोषित किया है, उससे हम वाकिफ़ हैं। हम समझते हैं कि निजीकरण, विलयनकरण तथा वैश्विक प्रतियोगिता के नाम पर अपनी आम जनता की बचत तथा राज्य की स्वामित्व की बैंकों की मालमत्ता ज्यादा बखूबी से लूटने के बड़े पूंजीपतियों की मुहिम के खिलाफ़ यह घोषणा की गयी है। आउटसोर्सिंग या बाहरी स्रोत को ठेके पर काम देने के बारे में तथा मज़दूरों के अन्य अधिकारों के खिलाफ़ हमलों के बारे में स्टेट बैंक आफ इंडिया के मज़दूरों का क्या अनुभव है, यह हम आपसे विस्तार में सुनना चाहते हैं।

 पी.के. शर्मा: जहां तक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का सवाल है, अभी तक आफिसों की साफ़-सफ़ाई तथा सुरक्षा बाहर के ठेकेदार द्वारा करवाई जा रही है। ठेकेदारी प्रथा को और विस्तृत करने के तथा बैंक के नियमित तथा आवश्यक काम भी इसी के दायरे में लाने की योजना बनायी जा रही है। एक बहुत बड़ी समस्या यह है कि रिज़र्व बैंक ने “कोर बिजीनेस” या मूलभूत काम-काज की बहुत ही संकुचित परिभाषा दी है। इसके दायरे में सिर्फ़ चेक और नकद लेने तथा देने के कार्य आते हैं। कर्जा देना, यह बैंक सेवाओं का बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है, लेकिन रिज़र्व बैंक की परिभाषा के अनुसार, यह मूलभूत कामकाज़ के दायरे के बाहर आता है। इस गलत परिभाषा के आधार पर केंद्र सरकार आउटसोर्सिंग का बड़ा हमला करने की योजना बना रही है। अगर वह सफ़ल होती है, तो उसके अंजाम बहुत बुरे होंगे। नियमित कर्मचारियों की संख्या में बड़ी कटौती हो जाएगी। “बिजनेस करस्पोंडंट्स” नामक निजी एजेन्सियां  कर्जों के निवेदनों की जांच तथा सत्यापन करने का काम भी हाथ में ले लेंगी। बैंक का स्टाफ सिर्फ़ अंतिम अनुमोदन के लिए जि़म्मेदार रहेगा। निजी दलाल अपनी सेवाओं के लिए ज्यादा वसूली करेंगे ताकि उसका ज्यादा से ज्यादा मुनाफा सुनिश्चित हो, जिसका असर ग्राहकों पर पड़ेगा। निजी पूंजीपतियों की कम्पनियों के ज्यादा मुनाफ़े बनाने के लक्ष्य से बैंक के ग्राहकों से ज्यादा कीमत वसूल करना, यह समाज के लिए लाभदायक नहीं है।

म.ए.ल.: स्टेट बैंक ऑफ इंडिया में कितने लोग काम करते हैं, और कौन सी श्रेणियों में, तथा समय के साथ ये कैसे बदलते गये हैं, इसके बारे में क्या आप हमें बता सकते हैं?

पी.के. शर्मा: कुल मिलाकर स्टेट बैंक आफ इंडिया के आफिसर केडर में 70,000 से 80,000 के लगभग लोग हैं। लिपिक विषयक तथा कम कुशलता के काम करने वालों को मिलाकर अवार्ड स्टाफ की संख्या करीब-करीब 1,60,000 है। पिछले 2बरसों में आफिसर्स तथा क्लेरिकल स्टाफ को मिलाकर 50,000 के आसपास भर्ती हुई है। आफिसरों की अपनी असोसिएशन है, जो अबकी हड़ताल का बुलावा देने वाले संयुक्त फोरम का हिस्सा है। अपने देश  में बैंकिंग के राज्यव्यापी क्षेत्र में कुल मिलाकर 10लाख के आसपास लोग काम करते हैं। आज दुनिया में हिन्दोस्तान शायद एक मात्र देश  है जिसमें इतनी बड़ी संख्या में यूनियनीकृत बैंक मज़दूर हैं। दुनिया भर के पूंजीपतियों की इच्छा है कि यूनियनीकृत बैंक मज़दूरों के बचे हुए आख़री किले को तहस-नहस करना। अफ़सरों और मज़दूरों की परिभाषा बहुत ही पुरानी है। वह उस ज़माने में बनायी गयी थी जब हर 3लिपिक स्टाफ के लिए एक अफ़सर होता था। आज यह अनुपात इतना बढ़ गया है कि तकरीबन सिर्फ़ एक स्टाफ पर निरीक्षण करने के लिए एक अफ़सर करता है। यह बड़ा बदलाव है। इसका थोड़ा हिस्सा काम के बदलते हुए स्वभाव तथा एटीएम के ज़रिए ज्यादा कारोबार चलाने की वजह से है। लेकिन एटीएमों का ज्यादा इस्तेमाल शहरों में किया जा रहा है, ग्रामीण इलाकों में नहीं। श्रम कानूनों के दायरे में आने वाले मज़दूरों की संख्या कम करने की यह कोशिश जानबूझकर की गयी है। इस संदर्भ में अच्छा है कि अफ़सरों की असोसिएशन ने प्रति दिन काम करने के घंटों पर कानूनन सीमा के अधिकार की मांग उठायी है। आज सिर्फ़ लिपिक तथा कम कुश ल मज़दूरों को यह अधिकार है।

म.ए.ल.: देश में सबसे अधिक शाखाएं तथा कर्मचारी स्टेट बैंक में हैं। देश की सब से बड़ी बैंक होने के नाते बैंकिंग उद्योग में स्टेट बैंक ने ऐतिहासिक रूप से विविध तरीकों से अग्रणी भूमिका अदा की है। यह भूमिका किस प्रकार विकसित हो गयी और आज हो रही है, इसके बारे में क्या आप हमें कुछ बता सकते हैं?

पी.के. शर्मा: जी हां, अपने देश के गांवों में तथा दूरवर्ती इलाकों तक बैंक सेवाएं पहुंचाने के सामाजिक उद्देश्य की दिश में स्टेट बैंक ही है, जिसने अग्रणी भूमिका अदा की है। किसानों को तथा ग्रामीण कारीगरों को कर्जा देने के लक्ष्यों को हासिल करने में अतीत में, स्टेट बैंक की ही अगुआई हुआ करती थी। आज कहा जाता है कि निजी बैंकों के रिज़ल्ट ज्यादा अच्छे होते हैं। यह इसलिए कि कार्य का मूल्यांकन सिर्फ़ मुनाफ़े की दर से नापा जाता है। निजी बैंक सिर्फ़ प्रमुख शहरों में व थोड़े-बहुत छोटे शहरों में हैं। करोड़ों रुपयों का कर्जा देने की प्रक्रिया में प्रति रुपया बहुत कम मानवीय श्रम लगता है। ग्रामीण इलाकों में हर कर्जा सिर्फ़ कई हज़ारों रुपयों का होता है। इसलिए वहां कुल मिलाकर करोड़ों का कर्जा देने की प्रक्रिया में प्रति रुपया ज्यादा मानवीय श्रम की ज़रूरत होती है। जिनको ग्रामीण निर्धारित किया गया है, ऐसे अलग-अलग इलाकों में भी औसत कर्जों में बहुत फ़र्क होता है। गैटर नौयेडा के नज़दीक के गांव और मध्य या पूर्वी उत्तर प्रदेश के गांव के मामले में बहुत फ़र्क होता है। स्टेट बैंक की अधिकतम शाखाएं दूरवर्ती इलाकों में हैं। कृषि क्षेत्र के लिए कर्जा प्राथमिक था, वह अब कम हो गया है। आज केन्द्र सरकार “समुदाय बतौर कर्जा” तथा “अल्पसंख्यक केंद्रित कर्जा” जैसी नयी संकल्पनाओं को बढ़ावा दे रही है। इस प्रकार के सामाजिक बैंकिंग में स्टेट बैंक को अगर अगुवा भूमिका अदा करनी है, तो कार्य का मूल्यांकन सिर्फ़ मुनाफ़े की दर के आधार पर कैसे निर्धारित किया जा सकता है? जाहिर है कि सार्वजनिक क्षेत्र के व्यापक ग्रामीण शाखाओं वाले बैकों की तुलना में सिर्फ शहरों में संचालित निजी क्षेत्रों के बैंकों की प्रति मजदूर उधार व्यापार करने की दर ज्यादा होगी।

म.ए.ल.: समाज के सार्वजनिक हित के लिए सही मायने में अगर बैंक सेवा चलानी है, तो फिर से पुराना  मॉडल अपनाया नहीं जा सकता, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र से उपलब्ध कर्जे का अधिकतम हिस्सा बड़े पूंजीपती हड़प कर लेते थे, जबकि शेष समाज को बैंकों से या तो कर्जा ही नहीं मिलता या फिर बहुत कम। आपकी इसके बारे में क्या राय है?

पी.के. शर्मा: आप जिस को पुराना माडल कह रहे हैं, उसमें समस्या यह है कि केंद्र सरकार को सामाजिक हित के प्रति वफ़ादार होना चाहिए तथा निजी मुनाफ़ाखोरों के लिए नाजायज़ फ़ायदा उठाने के लिए रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। मिसाल के तौर पर, अपने देश  में कर्जा देने के लिए कृषि प्रक्रियाओं को सामाजिक प्राथमिकता बतौर निर्धारित किया गया था। सरकार और रिज़र्व बैंक ने इसका मतलब यह निकाला है कि मुम्बई में बड़ी-बड़ी कम्पनियां, जो कृषि संबंधित व्यापार करती हैं, उनको कृषि से “संबद्ध उद्योग” माना जा सकता है, और इसलिए वे प्राथमिकता मिलने वाले क्षेत्र के दायरे में आती हैं। इसका मतलब सामाजिक हित का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। 1990 से जिस माडल को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसके मुताबिक प्रति कर्मचारी का मुनाफ़ा, यही सबसे प्रमुख प्रमाण माना जा रहा है। वे कितना ज्यादा कर्जे देने का व्यवसाय ला सकते हैं, इससे वरिष्ठ अफ़सरों के वित्तीय प्रलोभन जुड़े हुए हैं। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के चेयरमैन मुम्बई में हैं। वे कम्पनियों के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ दोस्ती बनाने में लगे हुए हैं, ताकि स्टेट बैंक का कर्जा देने का व्यवसाय ऐसे लोगों के साथ हो जो हज़ारों करोड़ों के कमजोरों की मांग करते हैं।

म.ए.ल.: जिन्होंने अपने कर्जे चुकाये नहीं हैं, जो बुरे कर्जे या तथाकथित  “नॉन पर्फार्मिंग एसेट्स” के लिए जि़म्मेदार हैं, ऐसे पूंजीपतियों का पर्दाफाश करने के लिए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के मज़दूरों के यूनियन ने क्या कोई कदम उठाए हैं?

पी.के. शर्मा: तीन लाख करोड़ के बुरे कर्जे हैं, जिन को बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने नहीं चुकाया है। किसानों को छूट देने में जितना पैसा खर्चा किया गया है, इससे यह बहुत ही ज्यादा है। हमारी कई यूनियनों ने बड़े चूककर्ताओं का पर्दाफाश करने की कोशिश की है, लेकिन गोपनीयता कानून नाम का एक बड़ा रोड़ा है, जो उनका संरक्षण करता है और पर्दाफाश करने नहीं देता।

म.ए.ल.: यह क्या कानून है और वह चूककर्ताओं का कैसे संरक्षण करता है?

पी.के. शर्मा: राजकीय संस्थाओं के साथ जो वित्तीय कारोबार किया जाता है, उनके बारे में ग्राहकों के गोपनीयता के अधिकारों का यह कानून संरक्षण करता है। जो सबसे बड़े चूककर्ता हैं, उनको इस कानून का लाभ होता है। चूककर्ता किसान के खि़लाफ़ हानिकारक कार्यवाहियां की जाती हैं, लेकिन बड़े-बड़े चूककर्ताओं के नाम तक दर्ज नहीं किये जाते।

म.ए.ल.: सार्वजनिक सम्पत्ति की, जिन्होंने वास्तव में बड़ी मात्रा में लूट की है, वे कर्जा चुकाए बगैर कैसे कह सकते हैं कि उनके अधिकार हैं? यह राष्ट्र-विरोधी कानून कब पारित किया गया?

पी.के. शर्मा: भूमि अधिग्रहण कानून के जैसे ही, गोपनीयता कानून भी बर्तानवी उपनिवेश वादी राज्य की विरासत है। यह कानून उस ज़माने का है जब हम गोरे आदमी के गुलाम हुआ करते थे।

म.ए.ल.: यह उपनिवेशवादी कानून ख़ारिज करने की मांग क्या कभी संसद में उठायी गयी थी?

पी.के. शर्मा: नहीं, मेरी जानकारी के मुताबिक नहीं। लेकिन यह ज़रूर बदलना चाहिए।

म.ए.ल.: आप के साथ बात करके हम बहुत कुछ सीखे हैं। हमारे साथ समय बिताने के लिए हम आप के शुक्रगुजार हैं।

पी.के. शर्मा:  आपका बहुत स्वागत है।

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