बैंक मज़दूरों की आगामी हड़ताल के बारे में कामरेड रामानंद से मुलाकात

युनाइटेड फोरम आफ बैंक यूनियन्स (जिसमें कर्मचारियों के 5 और अफ़सरों के 4 यूनियन शामिल हैं) ने 5 अगस्त को सर्व हिन्द हड़ताल की घोषणा की, मज़दूर एकता लहर के संवाददाताओं ने 13 जुलाई को दिल्ली में बैंक मज़दूरों के वरिष्ठ नेताओं में से एक से उसके बाद मुलाकात की। कामरेड रामानंद दिल्ली राज्य स्टेट बैंक एम्प्लाइज़ फेडरेशन के महासचिव तथा आल इंडिया बैंक एम्प्लाइज़ असोसिएशन के अग्रणीय नेताओं में से एक हैं।

म.ए.ल. के संवाददाता: कौन सी प्रमुख मांगों के लिए हड़ताल की घोषणा की गयी है?

कामरेड रामानंद: सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं अपने देश  में बैंकों के निजीकरण करने की मुहिम, राजकीय स्वामित्व को घटाना, राजकीय बैंकों का विलयन, विदेशी पूंजी को असीमित मात्रा में देश  के भीतर आने की छूट और बड़े पूंजीपतियों को अपना बैंक स्थापित करने की इज़ाज़त देना। नियमित बैंक सेवाओं को बाहर से ठेका पर करवाने, ’अफ़सरों’ के लिए काम के घंटों का उल्लंघन करना तथा खंडेलवाल समिति की मज़दूर विरोधी सिफारिषें का भी हम विरोध कर रहे हैं।

म.ए.ल.: आप निजीकरण का क्यों विरोध कर रहे हैं, आप इस पर प्रकाश  डाल सकते हैं क्या?

का. रामानंद: निजीकरण यह सिर्फ़ मज़दूर विरोधी ही नहीं, बल्कि पूरे राष्ट्र के हितों के खिलाफ़ भी है। सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंक मुनाफ़े बना रहे हैं, अतः उनका निजीकरण करने का कोई औचित्य ही नहीं है। हाल ही में जो वैष्विक संकट हुआ, उसमें अमरीका तथा यूरोप के जिन बैंकों का दिवालिया निकला, वे सबसे बड़े और निजी थे। अपने देश  में कई निजी बैंकों पर असर पड़ा था, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक तो वित्त के तौर पर तंदुरुस्त ही रहे हैं। निजीकरण यह सिर्फ़ बड़े पूंजीपतियों के फ़ायदे में है, जो राष्ट्रीय सपंत्ति को निजी संपत्ति में परिवर्तित करना चाहते हैं। अपने देश  में राजकीय बैंकों की स्वामित्व की जो भूमि, इमारतें और अन्य अचल संपत्ति हैं, उसका मूल्य, उनके जमाकर्ताओं की पूंजी की तुलना में बहुत ज्यादा है। यही कारण है कि देशी-विदेशी पूंजीपति उनको हड़पने में रुचि दिखा रहे हैं।

म.ए.ल.: राजकीय स्वामित्व के बैंकों के विलयन के प्रस्ताव का भी यूनियन्स विरोध कर रहे हैं। क्या उसका निजीकरण से कोई वास्ता है?

का. रामानंद: राजकीय बैंकों के विलयन को “दृढ़ीकरण” कहा जा रहा है। इसके पीछे सभी हिन्दोस्तानी बैंकों को “वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के काबिल”बनाने का इरादा है। इसका मतलब है, दुनिया की सबसे बड़े निजी बैंकों की जितनी बड़ी मुनाफ़े की दर होती है, उतना हासिल करना। अपने देश की अर्थव्यवस्था, जिसमें बहुसंख्यक लोग ग्रामीण इलाकों में रहते हैं तथा बहुत ही गरीब हैं, के हित में सेवा करने का कोई इरादा नहीं है। सरकार का दावा है कि वित्तीय समावेश न, यानि कि बैंक सेवाओं का लाभ अपने समाज के सभी सदस्यों को देना, यह उसके लक्ष्यों में एक है। अगर बैंक की सेवाएं सभी लोगों को उपलब्ध करानी हों, तो हर एक गांव में कम से कम एक बैंक की शाखा की ज़रूरत है। लेकिन विश्वस्तर  पर प्रतिस्पर्धा करने के काबिल बनाने के नाम पर बैंकों का विलयन करने का मतलब है शाखाओं की संख्या में कटौती करना, सिर्फ़ जो शाखा सबसे ज्यादा मुनाफ़े बनाती हैं, उन्हीं को रखना। अपने देश  को ज़रूरत है आम जनता के लिए बैंक सेवाओं की, जब कि सरकार चाहती है वर्ग के आधार पर बैंक सेवाएं प्रदान करना, यानि कि सिर्फ़ समाज के अल्पसंख्यकों की, अर्थात पूंजीपतियों की सेवा करना। अगर आम जनता के लिए बैंक सेवाएं प्रदान करनी है, तो ज़रूरत है पूरे बैंक उद्योग के राष्ट्रीयकरण की, न कि निजीकरण की।

म.ए.ल.: क्या यह सही नहीं है कि राष्ट्रीयकृत बैंकों से भी अधिकतम फ़ायदा होता है बड़े-बड़े पूंजीपति घरानों को?

का. रामानंद: जी हां, बड़े पूंजीपतियों को जो कर्जे मिलते हैं, उन पर जो ब्याज दर आंकी जाती है, वह छोटे-मोटे व्यवसाइयों तथा किसानों की तुलना में कम होती है। धीरे-धीरे प्राथमिक क्षेत्र को कम कर्जे दिया जा रहा है और निजी बैंकों की ग्रामीण शाखाएं होती ही नहीं हैं तथा वे कृषि क्षेत्र को कर्जे देती भी नहीं हैं। अगर कोई किसान समय-समय पर ब्याज के साथ कर्जा वापस नहीं करता, तो उसकी संपत्ति जब्त कर ली जाती है। लेकिन कोई भी कर्जा वापस किये बगैर बड़े पूंजीपति सही सलामत छूट जाते हैं। हमारी यूनियन ने रिलायन्स तथा टाटा सहित सबसे बड़े चूककर्ताओं की सूची प्रकाशीत  की है। उन्होंने हमारी यूनियन के महासचिव के खि़लाफ़ मुकदमा दर्जे किया था, लेकिन वह मुकदमा रद्द हो गया। हम गलत हैं, ऐसा वे साबित कर ही नहीं पाये। हाल में जो लाभ उनको मिल रहे हैं, उनसे पूंजीपति घराने संतुष्ट नहीं हैं। उनकी लालच की कोई सीमा ही नहीं है।

म.ए.ल.: विदेशी पूंजी पर ऐसे कौन से प्रतिबंध हैं जो सरकार हटाना चाहती है और उसके क्या अंजाम होंगे?

का. रामानंद: विदेशी नागरिक तथा अनिवासी हिन्दोस्तानी की आज भी निजी स्वामित्व की अनेक हिन्दोस्तानी बैंकों में अधिकतम हिस्सेदारी है। उदाहरण के तौर पर हैं इंडस इंड बैंक, आईएनजी वैश्या बैंक, आईसीआईसीआई बैंक तथा येस बैंक। लेकिन बैंकिंग नियमन कानून की धारा 12 (2) के अनुसार, विदेशी निवेश कों के मत अधिकारों पर 10 प्रतिशत की सीमा है, फिर उनकी कितनी भी बड़ी हिस्सेदारी क्यों न हो। इस धारा को खत्म करने हेतु केंद्र सरकार संसद में विधेयक ला रही है। अगर यह विधेयक पारित होता है, तो अपने निजी क्षेत्र के बैंक तुरंत विदेशी पूंजी के षिकार बन सकते हैं।

म.ए.ल.: हाल ही में गठित की हुई खंडेलवाल समिति की कौन-सी सिफारिषें हैं, जिनका यूनियन विरोध कर रही हैं?

का. रामानंद: मानक वेतन श्रेणियों तथा पूरे उद्योग के लिए मालिक और कर्मचारियों के बीच जो समझौते या करार होते हैं, उनको हटाने की सिफारिश की गई है। खंडेलवाल समिति का प्रस्ताव है कि परिवर्तनीय वेतन श्रेणियां तथा इंसेंटिव या प्रलोभनाएं होनी चाहिए, जो “उत्पादकता” तथा “लाभकारिता” से जुड़े हुए होंगे। बैंक मज़दूरों की वास्तविक हालत तो देखिए। हममें से कई ग्राहक सेवाएं चलाते हैं और कई कर्जा निवेदनों का मूल्यांकन करते हैं। कई ऐसी शाखाओं में काम करते हैं, जहां बहुत ही ज्यादा काम होता है, तो कई ऐसी शाखाओं में काम करते हैं जिनके कम ग्राहक हैं। कौन कितना कर्जा दे सकता है या कौन कितने ग्राहकों की सेवा करता है, इससे उसका वेतन जोड़ना, तर्क सिद्ध नहीं है, बल्कि अन्यायपूर्ण है। बैंकों में काम करने वाला हर कोई इन सिफ़ारिशों के विरोध में एकजुट है। इन सिफ़ारिशों का मकसद है यूनियनों को ज्यादा कमज़ोर बनाकर मजदूरों की एकता को तहस-नहस करना।

म.ए.ल.: यूनियनों को ज्यादा कमज़ोर बना कर तहस-नहस करने के कोशीशों  पर क्या आप प्रकाश  डाल सकते हैं?

का. रामानंद: पहली बात तो यह है कि विविध कार्यों को बाहर ठेके पर करने से या आउटसोर्सिंग करने से अनेक नियमित पदों को हटाया जा रहा है। इनमें साफ़-सफ़ाई तथा सुरक्षा कार्यों के अलावा, “बिजिनेस करस्पोंडंट्स” के नाम पर मूलभूत बैंक सेवाओं का भी समावेश  है। दूसरी बात यह है कि औद्योगिक विवाद कानून सिर्फ़ “कर्मचारियों” को यूनियन के अधिकार प्रदान करता है, “अफ़सरों” को नहीं। ऐसा विभाजन करना, यह पूरी मनमानी है। आज ऐसे अनेक बैंक कर्मचारी हैं जो कम्प्यूटर टर्मिनल्स पर काम करते हैं और वे कुश ल मज़दूर ही हैं। उन्हें अफ़सर कहलाकर उन्हें अपने अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। इसमें काम के नियमित घंटों का भी समावेश  है। बीते दिन “कर्मचारियों” का अनुपात घटाया जा रहा है, जिससे यूनियनों की सौदा करने की ताकत घटती है।

म.ए.ल.: इसके बावजूद, राजकीय स्वामित्व के बैंकों के अफ़सर यूनियन बनाने में कैसे सफल हुए? और निजी बैंकों में यूनियन स्थापित करने की कोई कोशिशें चल रही हैं क्या?

का. रामानंद: हम उस ज़माने में कामयाब हुए जब बैंक उद्योग पूर्ण रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में हुआ करता था और नियमित कर्मचारियों की बहुसंख्या हुआ करती थी। आज के निजी बैंकों में हमने यूनियन बनाने का प्रयास ज़रूर किये हैं, लेकिन यह करना बहुत ही मुश्किल है, क्योंकि बहुसंख्या में मज़दूरों को अफ़सर के नाम पर नियुक्त किया जाता है। निजी बैंकों में काम करने वालों ने अगर यूनियन बनाने की कोशिश  की तो उन्हें नौकरी खोने का खतरा रहता है।

म.ए.ल.: हम समझते हैं कि आपको हड़ताल की घोषणा करना पड़ा क्योंकि सरकार आपके न्यायपूर्ण मांगों को मानने के लिए तैयार नहीं है, जैसा कि आपने स्पष्ट किया है। क्या आपकी कोई भी मांग के ऊपर समझौता हुआ है?

का. रामानंद: अगर किसी कर्मचारी का सेवा काल के दौरान निधन होता है, तो उसके किसी परिजन को क्षतिपूरक नौकरी देने की हमारी मांग को आईबीए ने मंज़ूर किया था। आईबीए यह बैंक व्यवस्थापनों का एक संगठन है। लेकिन दो साल से हम सरकार की सहमति के इंतज़ार में हैं।

म.ए.ल.: हमारा मानना है कि मज़दूर वर्ग आंदोलन के लिए तथा अपने देश के भविष्य के लिए, बैंक मज़दूर जो संघर्ष कर रहे हैं, वह बहुत ही महत्वपूर्ण है। आपकी न्यायपूर्ण लड़ाई के लिए आम जनता से समर्थन प्राप्त करने की हम पूरी कोशिश करेंगे। हम आप के शुक्रगुजार हैं कि आपने हमारे साथ इतना समय बिताकर सभी सवालों के जवाब देने का कष्ट किया।

का. रामानंद: आपका बहुत स्वागत है। आपका कोई और सवाल हो तो कृपया मुझसे संपर्क करें।

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