बैंकों के निजीकरण का विरोध करें! जनता की बचत के पैसे की रक्षा करें!

5 अगस्त को राजकीय बैंकों के 10 लाख से अधिक बैंक कर्मियों की हड़ताल का समर्थन करें!

युनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स, जिसमें सभी राजकीय बैंकों के कर्मचारियों और अफसरों के 9 यूनियन शामिल हैं, ने 5अगस्त को एक दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया है। मजदूरों के यूनियन अपने बढ़ते शोषण तथा अपने अधिकारों और काम की हालतों पर हमलों के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। वे वैश्विक स्पर्धा के नाम पर अधिकतम म

5 अगस्त को राजकीय बैंकों के 10 लाख से अधिक बैंक कर्मियों की हड़ताल का समर्थन करें!

युनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन्स, जिसमें सभी राजकीय बैंकों के कर्मचारियों और अफसरों के 9 यूनियन शामिल हैं, ने 5अगस्त को एक दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया है। मजदूरों के यूनियन अपने बढ़ते शोषण तथा अपने अधिकारों और काम की हालतों पर हमलों के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं। वे वैश्विक स्पर्धा के नाम पर अधिकतम मुनाफे कमाने के एकमात्र इरादे और निजीकरण की दिशा का जमकर विरोध कर रहे हैं। वे सिर्फ अपने हितों की ही नहीं बल्कि संपूर्ण मजदूर वर्ग और समाज के आम हितों की भी हिफ़ाज़त कर रहे हैं।

निजीकरण के सच्चे और झूठे कारण

केन्द्र सरकार और बड़ी कंपनियां यह दावा करती हैं कि निजी मालिकी वाले बैंक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से ज्यादा “कुशल” हैं। इस दावे के समर्थन में विभिन्न तथाकथित विशेषज्ञ यह दिखाने के लिये आंकड़े पेश करते हैं कि सरकारी बैंकों की तुलना में, निजी बैंकों में प्रति कर्मचारी मुनाफे ज्यादा हैं।

इस प्रकार तुलना करना गलत है। सरकारी बैंकों को गांवों में अपनी शाखाएं चलाने का काम दिया गया है, जबकि निजी बैंक सिर्फ शहरों में ही काम करते हैं। यह स्वाभाविक है कि दिये गये उधार और कर्मचारियों की संख्या के बीच अनुपात निजी बैंकों में ज्यादा है। इसलिये निजी बैंकों का मुनाफा दर ज्यादा है। परन्तु इससे यह नहीं साबित होता कि वे ज्यादा कुशल हैं। उनका मुनाफा दर इसलिये ज्यादा है क्योंकि निजी बैंकों को उन सामाजिक सेवाओं से छूट मिली हुई है, जिन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को करना पड़ता है।

बैंकों के निजीकरण के असली कारण का कुशलता से कोई संबंध नहीं है। बैंकों का निजीकरण के पीछे देशी-विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों की अमिट लालच ही प्रेरक शक्ति है।

हमारे देश में राजकीय बैंकों की सम्पत्ति का बहुत विस्तृत आधार है। इन बैंकों की वित्त सम्पत्ति बहुत विशाल है और आज तेजी से बढ़ रही है क्योंकि अधिक से अधिक अपनी बचत के धन को लोग सरकारी बैंकों में जमा करना पंसद करते हैं, न कि निजी मुनाफाखोर बैंकों में। सरकारी बैंकों के पास बड़े और छोटे शहरों में काफी ज़मीन-जायदाद और इमारतें भी हैं। सरकारी बैंकों की सम्पत्ति जमा करने वालों को बैंक से दिये जाने वाले धन से कहीं ज्यादा है।

बैंकों के निजीकरण के कदम के पीछे असली कारण यह है कि विदेशी और देशी इजारेदार पूंजीपति आज सरकारी बैंकों की विशाल सम्पत्ति को हड़पना चाहते हैं। हिन्दोस्तान के सरकारी बैंक आज दुनिया में सबसे स्वस्थ बैंकों में गिने जाते हैं, जबकि अमरीकी और यूरोपीय बैंक घोर संकट में हैं तथा उनका स्टॉक गिरता जा रहा है।

बैंकिंग और बीमा में शोषण का स्तर

अरब रुपये

1980-81

1989-90

1999-00

2007-08

कार्यकारी बेशी मूल्य

16.4

92.6

576.0

1316.0

श्रम की आमदनी

15.8

67.3

350.0

748.0

शोषण का स्तर (प्रतिशत)

104

138

165

176

स्रोत: नेशनल आकाउंट्स, सेन्ट्रल स्टैटिस्टिकल आर्गेनाइजेशन (सी.एस.ओ.)

सुधार के नाम पर बढ़ता शोषण

बैंकों के काम-काज के आधुनिकीकरण के तथाकथित सुधार कार्यक्रम पर पिछले 25 वर्षों में कई बार चर्चा हुई है तथा उसे अलग-अलग तरीकों से लागू भी किया गया है। इसमें मुख्य मकसद बैंक कर्मियों के शोषण को बढ़ाना रहा है, ताकि बैंकों की मुनाफा दर बढ़ सके। यह हमला 80 के दशक में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में शुरु हुआ, जब राजीव गांधी ने तथाकथित आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरु किया था। आज बैंक कर्मचारी खंडेलवाल समिति नामक एक गैर सरकारी समिति की मजदूर विरोधी सिफारिशों के अनुसार पूंजीवादी हमले को बढ़ाने की एक नयी योजना के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे हैं।

आउट सोर्सिंग एक भयानक तरीका है जिसके जरिये स्थाई पदों को ठेके के काम में बदल दिया जाता है और मजदूरों के अधिकारों को छीना जाता है। यह एक प्रकार का हमला है जिसे ”मुख्य बैंक काम“ की रिजर्व बैंक की तंग परिभाषा से समर्थन मिलता है। हमले का दूसरा तरीका है “अफसरों” को वेतनभोगी मजदूरों के मूल अधिकारों से वंचित करना और अधिक से अधिक मजदूरों को अफसर करार देना।

सरकारी नेशनल अकाउंट्स स्टैटिस्टिक्स में प्रतिवर्ष “बैंक और बीमा में जोड़े गये मूल्य” को (1) बेशी मूल्य, जिसे “कार्यकारी बेशी मूल्य” कहा जाता है, और (2) मजदूरों को दिया गया मूल्य, जिसे “श्रम की आमदनी” कहा जाता है, इन दोनों भागों में बांटा जाता है। सरकारी बैंकों के “आधुनिकीकरण” के तमाम कदमों और निजी कंपनियों के लिये बैंकिंग क्षेत्र को खोल देना, इन दोनों की वजह से बेशी मूल्य श्रम की आमदनी की तुलना में ज्यादा तेजी से बढ़ा है। कार्ल मार्क्स ने इस अनुपात को पूंजी द्वारा श्रम के शोषण का स्तर बताया है।

शोषण को तेज़ करने के साथ-साथ, निजीकरण के कदम और विलयन के जरिये अधिक संकेन्द्रण की वजह से छोटे और मध्यम दर्जे के कारोबारों पर और दबाव पड़ता जा रहा है। इसका यह मतलब है कि बैंक उधार का बढ़ता हिस्सा हिन्दोस्तानी और विदेशी बड़ी औद्योगिक कंपनियों को मिलेगा, जबकि छोटे उधार लेने वालों के ब्याज दर, खतरे से सुरक्षा के नाम पर, बढ़ाये जायेंगे।

अगर बैंक हमेशा ही अधिकतम मुनाफों का लक्ष्य रखते हैं, तो यह खतरा बना रहता है कि लोग अपनी मेहनत की कमाई को खो बैठेंगे। मुनाफाखोर बैंक बड़े पैमाने पर सट्टेबाजी करते हैं ताकि उत्पादक काम के कम होने के समय भी उनके अधिकतम मुनाफे बने रहें। इसी प्रकार की सट्टेबाजी के कारण 2008 में वैश्विक संकट शुरु हो गया, जिसकी वजह से पूरी दुनिया में सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया और लाखों-लाखों लोगों के रोजगार को बहुत नुकसान हुआ। लाखों-लाखों मेहनतकशों ने अपनी बचत या अपने घर या दोनों खोये।

निजीकरण कार्यक्रम का विकल्प

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी ने हमेशा ही शासक वर्ग और मनमोहन सिंह जैसे उसके वक्ताओं के उस दावे का विरोध किया है कि बैंकिंग और बीमा, थोक और खुदरा व्यापार के निजीकरण और विश्व बाजार तथा सकल घरेलू उत्पाद को अधिकतम बनाने की दिशा में अर्थव्यवस्था को ले जाने के सिवाय कोई और चारा नहीं है।

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी ने हमेशा यह मांग रखी है कि बैंकों को मजदूर वर्ग और मध्य श्रेणी के हितों की रक्षा करनी चाहिये और इसे समाज के आम हितों के साथ सामंजस्य में किया जाना चाहिये। इस मांग का क्या मतलब है और इसे कैसे पूरा किया जा सकता है?

हमारे समाज में अनेक हितों के बीच टक्कर है। एक तरफ टाटा, दो अम्बानी घराने, बिरला और दूसरे विशाल औद्योगिक घरानों की अगुवाई में इजारेदार पूंजीपति अरबपति हैं। देश के सामाजिक उत्पादन के साधनों का नियंत्रणकारी हिस्सा उनके हाथ में है। दूसरी ओर है मजदूर वर्ग, जिसके पास अपनी श्रमशक्ति के अलावा उत्पादन का और कोई साधन नहीं है और जो साप्ताहिक या मासिक वेतन पर गुजारा करता है। इन दोनों के बीच में अनेक मध्यम दर्जे के पूंजीपति, लाखों-लाखों किसान और दूसरे छोटे पैमाने के पारिवारिक कारोबार हैं।

इजारेदार पूंजीपति देश के संकेंद्रित वित्त संसाधनों पर अपना प्रभुत्व और नियंत्रण बनाये रखना चाहते हैं। वे बैंकिंग क्षेत्र में मजदूरों का शोषण बढ़ाकर तथा मध्यम और छोटे दर्जे के उत्पादकों को दबाकर, संकेन्द्रण के स्तर और मुनाफादर को और बढ़ाना चाहते हैं।

बीच की श्रेणी के लोग बैंकों से उधार की सेवा में उन्नति तथा ज्यादा आरामदायक शर्तों पर बैंक से उधार चाहते हैं।

मजदूर वर्ग बैंकों में जमा अपनी मेहनत की कमाई के मूल्य की रक्षा करना चाहता है और लाखों-लाखों यूनियनों में संगठित मजदूरों के इस क्षेत्र में श्रम के शोषण के स्तर को घटाना चाहता है।

अलग-अलग वर्गों के इन अलग-अलग हितों के अलावा सामाजिक उत्पादन को बनाये रखना समाज का आम हित है। सामाजिक उत्पादन को इजारेदार पूंजीपतियों की अधिकतम मुनाफों की अमिट लालच से प्रेरित वैत्तिक सट्टेबाजी के खतरे से बचाना होगा।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक आवश्यक कदम है, पर सिर्फ पहला कदम। यह जरूरी है पर काफी नहीं। अगर हमें यह सुनिश्चित करना है कि मजदूर वर्ग और बीच की श्रेणी तथा पूरे समाज के हितों की रक्षा की जाये तो सार्वजनिक सम्पत्ति को मंत्रियों, अफसरों और राजनीतिक पार्टियों के हवाले नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि वे सभी इजारेदार पूंजी के दलाल हैं।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ-साथ हमें राजनीतिक व्यवस्था को नयी बुनियादों पर पुनर्गठित करने और सभी की जरूरतों को पूरा करने की दिशा में अर्थव्यवस्था को चलाने का कार्यक्रम लागू करना होगा। अपने हाथों में राजनीतिक सत्ता लेकर मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि बैंकिंग समाज के आम हितों की सेवा में हो, सिर्फ बातों में ही नहीं बल्कि कार्यों में भी।

 

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