भूमि अधिग्रहण (संशोधन) बिल: किसके हित में और किस इरादे से?

कोई भी कानून जो पूंजीपतियों के हित में और किसानों या आदिवासियों की मर्जी के खिलाफ़, कृषि भूमि, वन भूमि या खनिज संपन्न भूमि, का अधिग्रहण करने की इजाज़त देता है, वह किसानों और आदिवासियों के मूल अधिकारों का हनन करता है और उसका विरोध करना चाहिये। भूमि अधिग्रहण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों का मकसद है अधिकतम मुनाफे कमाने के लिये जमीन प्राप्त करने के पूंजीवादी इजारेदारों के “अधिकार” को वैधता देना।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम का एक संशोधित रूप इस साल संसद के वर्षा सत्र में पेश होने वाला है। याद रखा जाये कि भूमि अधिग्रहण (संशोधन) बिल 2007 को लोक सभा में 6दिसम्बर, 2007 को तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री, रघुवंश प्रसाद सिंह ने पेश किया था। उसके बाद उसे ग्रामीण विकास पर स्थायी समिति को दिया गया था। समिति ने अक्तूबर 2008 को संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपी और दिसम्बर 2008 में बिल के सरकारी संशोधनों को मंत्री समूह ने स्वीकार किया था। उसे भूमि अधिग्रहण (संशोधन) बिल 2009 का नया नाम दिया गया और 25 फरवरी, 2009 को लोक सभा में सत्र के अंतिम दिन से एक दिन पहले पास किया गया। सरकार ने 26 फरवरी, 2009 को उस बिल को राज्य सभा में पारित किया परन्तु वह सत्र की समाप्ति से पहले पास नहीं हो पाया। वर्तमान लोक सभा के गठन और मई, 2009 में संप्रग सरकार के फिर सत्ता में आने के बाद वह बिल स्थगित रह गया।

भूमि अधिग्रहण पर मौजूदा कानून 1894 का उपनिवेशवादी भूमि अधिग्रहण अधिनियम है, जिसके तहत राज्य को “सार्वजनिक काम के लिये” और “कंपनियों के लिये”  अपनी मर्जी के अनुसार कोई भी भूमि का अधिग्रहण करने की छूट दी जाती है। 1990 के दशक से जब उदारीकरण और निजीकरण का कार्यक्रम शुरु किया गया, तब से खनन, औद्योगिक और व्यवसायिक परियोजनाओं के लिये अधिक से अधिक भूमि अधिग्रहण करने की बड़ी-बड़ी पूंजीवादी कंपनियों की भूख तेजी से बढ़ती जा रही है। पिछली संप्रग सरकार ने उपनिवेशवादी कानून के साथ-साथ 2005 में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) अधिनियम पास किया था। इन केन्द्रीय कानूनों के समर्थन के साथ, राज्य सरकारें इजारेदार पूंजीवादी घरानों द्वारा मुनाफेदार पूंजीनिवेशों के लिये अधिक से अधिक भूमि अधिग्रहण करती आ रही है।

पूंजीवादी परियोजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ देश के कई राज्यों में लगातार विरोध संघर्ष चलता रहा है। लोग इस प्रकार के भूमि अधिग्रहण का विरोध कई कारणों के लिये कर रहे हैं, जिनमें कुछ कारण हैं (1) लोगों को अपने जरूरी संसाधनों और रोजगार के मुख्य स्रोत से वंचित किया जाता है और भविष्य में मुआवजों के वादों पर विश्वास नहीं किया जा सकता; (2) यह वादे अक्सर पूरे नहीं किये जाते और जो मुआवज़ा मिलता है वह बहुत कम होता है; (3) भूमि अधिग्रहण का मकसद पूंजीपतियों के मुनाफों को अधिक से अधिक बढ़ाना है, न कि कोई ”सार्वजनिक काम“ को बढ़ावा देना! इन झगड़ों से और कई बार राज्य द्वारा वहशी बल प्रयोग से यह स्पष्ट हो गया है कि मौजूदे कानून पूंजीवादी कंपनियों के पक्ष में हैं और लोगों के अधिकारों का हनन करते हैं।

इसी संदर्भ में संप्रग सरकार अब भूमि अधिग्रहण पर कानून में संशोधन लाने की कोशिश कर रही है। इस बीच, सोनिया गांधी की अगुवाई में राष्ट्रीय सलाहकार समिति (एन.ए.सी.) ने इस मुद्दे का अध्ययन करने के लिये अपना कार्यकारी दल बिठाया था। 25मई को एन.ए.सी. ने भूमि अधिग्रहण के मामले पर अपनी सिफारिशों और मार्ग दर्शक प्रस्तावों को घोषित किया था। सरकार को अभी भी यह स्पष्ट करना है कि मौजूदे कानून में सारे प्रस्तावित संशोधनों में से किन-किन को वह स्वीकार करेगी।

प्रस्तावित संशोधन

उपनिवेशवादी भूमि अधिग्रहण अधिनियम में 2007 में जो संशोधन किया गया था, उसमें “सार्वजनिक काम और कंपनियों के लिये”  की जगह पर “सार्वजनिक प्रयोग के लिये” प्रस्तावित किया गया था। यह संशोधित कानून “किसी व्यक्ति द्वारा” “सार्वजनिक प्रयोग” के किसी परियोजना के लिये भूमि अधिग्रहण की छूट देता है, इस प्रावधान के साथ कि अगर “व्यक्ति” जो कानूनी रूप से कंपनियां भी हो सकती है) परियोजना के लिये जरूरी भूमि का 70 प्रतिशत खरीदता है तो बाकी 30 प्रतिशत राज्य द्वारा बल पूर्वक हासिल किया जायेगा।

यह प्रस्ताव इस सोच पर आधारित था कि अगर भूमि बेचने के इच्छुक न होने वाले लोग अल्पसंख्या में है, तो उन्हें भूमि पर कोई अधिकार नहीं होगा। अगर बहुत सारे लोगों ने अपनी जमीन बेच दी है तो उन्हें भी जमीन बेचने को मजबूर किया जा सकता है। इसका यह मतलब है कि अगर एक पूरे गांव या आदिवासी समुदाय के लोग किसी भी कीमत पर अपनी भूमि को नहीं बेचना चाहते हैं, तो भी उन्हें जमीन बेचने को मजबूर किया जा सकता है अगर वे बड़े समुदाय के 30 प्रतिशत से कम हैं। “बड़े समुदाय” की परिभाषा मनमानी से दी जा सकती है। इसमें वे सभी शामिल हो सकते हैं जो किसी पूंजीपति की प्रस्तावित परियोजना से प्रभावित हैं। “बड़े समुदाय” की परिभाषा इस बात पर निर्भर है कि पूंजीवादी निवेशक कितनी जमीन का अधिग्रहण करना चाहता है।

एन.ए.सी. की सिफारिशें मुख्य तौर पर प्रभावित परिवारों को दिये जाने वाले मुआवजे से संबंधित हैं। एन.ए.सी. ने प्रस्ताव किया है कि जमीन के मालिकों को दिया गया मुआवज़ा पंजीकृत सेलडीड के मूल्य का 6 गुणा हो। एन.ए.सी. ने अपनी रोजगार खोने वाले गैर-जमीन मालिकों (यानि जिनका रोजगार जमीन से संबंधित है) के लिए मुआवजे के रूप में न्यूनतम वेतन की दर पर महीने में 10 दिन के काम का मूल्य 33 वर्ष के लिए प्रस्तावित किया है। एन.ए.सी. ने यह भी वादा किया है कि जमीन पर बनने वाली परियोजनाओं में उन्हें योग्यता के अनुसार रोजगार दिलाने में प्राथमिकता दी जायेगी।

एन.ए.सी. ने यह प्रस्ताव किया है कि कृषि भूमि का अधिग्रहण करने से पहले बंजर और कम उपजाऊ भूमि प्राप्त करने की सारी संभावनाओं को खोजा जायेगा। उसने यह भी प्रस्ताव किया है कि भूमि अधिग्रहण (संशोधन) बिल और पुनःस्थापन व पुनर्वास बिल को जोड़कर एक राष्ट्रीय विकास, अधिग्रहण, विस्थापन और पुनःस्थापना बिल बनाया जाये।

इन सिफारिशों को 2007 और 2009 के बिलों से ज्यादा जनतापरस्त बताया जा रहा है।

प्रस्तावित संशोधनों के पीछे असली वजह

उपनिवेशवादी समय में जब कृषि देश की बहुख्यक आबादी का मुख्य काम था, तब कोई भी किसान अपनी भूमि बेचने को तैयार न था। उन हालतों में पूंजीवादी कंपनियां औद्योगिक निवेश के लिये अगर कृषि भूमि का अधिग्रहण करना चाहती थी, तो यह सिर्फ उपनिवेशवादी राज्य द्वारा बलपूर्वक ही किया जा सकता था। 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून का यही काम था।

आज की हालतों में जब कृषि में बहुत कम आमदनी होती है और इसमें बड़े खतरे भी हैं, तो किसानों में दो राय है। कुछ तो अच्छी कीमत मिलने पर भूमि को बेचने को तैयार हैं पर कुछ और किसी भी कीमत पर भूमि को बेचने को तैयार नहीं हैं। कई स्थानों पर पूंजीपति यह उम्मीद करते हैं कि अगर आकर्षक कीमत दी जाये तो अधिकतम किसान अपनी भूमि बेचने को तैयार होंगे। पूंजीपति जानते हैं कि जब उस भूमि पर औद्योगिक या व्यवसायिक काम शुरु होगा तो उसकी कीमत कई गुना हो जायेगी।

पुराने उपनिवेशवादी भूमि अधिग्रहण अधिनियम की वजह से घमासान लड़ाईयां हुई हैं और उस कानून को पूंजीपति परस्त तथा किसान विरोधी और आदिवासी विरोधी माना जाता है। बड़े पूंजीपति यह सोचते हैं कि अगर कानून में कुछ “छूट”  दी जाये तो भी उनका मकसद पूरा हो जायेगा। यही असली कारण है कि वे इस समय इस कानून का संशोधन करना चाहते हैं।

अपनी भूमि और रोजगार खोने वाले किसानों और आदिवासियों के पक्ष में होने का दावा करने वाली एन.ए.सी. असलियत में पूंजीपतियों के हित में तब्दीलियां प्रस्तावित कर रही हैं। 25 मई को सोनिया गांधी की अध्यक्षता में एन.ए.सी. की बैठक के बाद, जाना जाता है कि उसके एक सदस्य ने मीडिया को कहा कि “सरकार सार्वजनिक काम के लिये शतप्रतिशत भूमि अधिग्रहण करेगी, जिसके लिये जमीन मालिकों को बहुत अच्छा मुआवजा दिया जायेगा। अगर कोई निजी उद्योग यह सार्वजनिक काम को करता है तो सरकार उसके लिये भी भूमि अधिग्रहण करेगी”। एन.ए.सी. ने यह सुझाव दिया है कि विकास परियोजनाओं के लिये भूमि अधिग्रहण करने से पहले 75 प्रतिशत किसानों और ग्राम सभाओं की लिखित सहमति होनी चाहिये। यह माना जा रहा है कि बाकी 25 प्रतिशत के पास जमीन बेचने के अलावा कोई और चारा नहीं होगा।

एन.ए.सी. दावा करती है कि वह ज्यादा मुआवज़ा सुनिश्चित करने में इच्छुक है परन्तु एन.ए.सी के एक सदस्य ने स्पष्ट किया है कि बड़े औद्योगिक घरानों को पूरा मुआवज़ा देने के लिये जो खर्च करना पड़ेगा, वह परियोजना के मूल्य का सिर्फ 3.5 प्रतिशत होगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उस एन.ए.सी सदस्य ने सार्वजनिक तौर पर यह स्पष्ट कर दिया है कि उसके प्रस्ताव पूंजीपतियों द्वारा ज्यादा तेज़ गति से और सुगमता से भूमि प्राप्त करने में सहूलियत देने के लिये हैं। पर साथ ही साथ यह दिखाया जा रहा है कि भूमि खोने वालों को बेहतर मुआवज़ा मिलेगा।

निष्कर्ष

भूमि पर फसल करने वालों को उसकी मालिकी पर अधिकार और रोजगार का अधिकार होना चाहिये। पूंजीवादी मुनाफाखोरों के हित के लिये इसका हनन नहीं किया जा सकता।

कोई भी कानून जो पूंजीपतियों के हित में और किसानों या आदिवासियों की मर्जी के खिलाफ़, कृषि भूमि, वन भूमि या खनिज संपन्न भूमि, का अधिग्रहण करने की इजाज़त देता है, वह किसानों और आदिवासियों के मूल अधिकारों का हनन करता है और उसका विरोध करना चाहिये।

भूमि अधिग्रहण अधिनियम में प्रस्तावित संशोधनों का मकसद है अधिकतम मुनाफे कमाने के लिये जमीन प्राप्त करने के पूंजीवादी इजारेदारों के “अधिकार” को वैधता देना।

हमें यह मांग करनी चाहिये कि 1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम और 2005 के सेज़ अधिनियम को फौरन रद्द किया जाये। हमें एक नये भूमि कानून के लिये संघर्ष करना होगा, जो भूमि का अलग-अलग तरीके से उपयोग करने वालों के हितों के बीच सामंजस्य बनाये रखेगा। ऐसे कानून को खेती करने वालों, वनवासियों, आदिवासियों और परंपरागत तौर पर भूमि का इस्तेमाल करने वालों के अधिकारों की रक्षा करनी होगी। जब तक ऐसा नया कानून नहीं बनता, तब तक हमें निजी हितों के लिये सरकार द्वारा जमीन की खरीदी या निजी कंपनियों द्वारा जमीन की खरीदी पर फौरन रोक लगाने की मांग करनी होगी।

Share and Enjoy !

Shares

2 comments

  1. सरकार के 2007 और 2009 के

    सरकार के 2007 और 2009 के बिलों के और एन.ए.सी. के प्रस्तावित संशोधनों से साफ है कि वे भूमि अधिग्रहण कानून में सिर्फ दिखावे के परिवर्तन चाहते हैं। असलियत में पुराने कानून को और भी मजबूत करना चाहते हैं हालांकि चोरी छुपे।
    उदाहरण के लिये, अगर कोई व्यक्ति अपने निजी प्रकल्प के लिये 100 एकड जमीन चाहता है जिस पर लोग रहते हैं या खेती करते हैं, तो वह अपना काम तेढ़ी उंगली से निकाल सकता है। चूंकि सबके पास बराबर की जमीन नहीं होती संभवतः 70 प्रतिशत जमीन 10 से 15 प्रतिशत लोगों की मालिकी में होगी। जैसा कि लेख में बताया गया है कि बड़ी जमीनों वाले काफी किसान खेती छोड़ कर किसी और धंधे में लगना चाहते हैं और वे अपनी जमीन बेचने को तैयार हो सकते हैं। अतः भूमि अधिग्रहण इच्छुक व्यक्ति आसानी से 20 प्रतिशत लोगों से जमीन खरीद के बाकी 80 प्रतिशत लोगो की जमीन सरकार के जरिये छीन सकता है। अर्थात एक छोटी अल्पसंख्या के लोगों से सौदा करके अधिकांश लोगों पर जबरदस्ती की जा सकती है। और यह कोई छोटी मोटी जोर जबरदस्ती नहीं है, यह तो पूरी जीवन की शैली बदल देने वाली जबरदस्ती है। हजारों लोगों को बर्बाद कर देने वाली बात है।
    अगर यह भी मुश्किल हो तो वह अपने प्रकल्प के लिये आस पास की 300 एकड बंजर जमीन शामिल कर सकता है और उसे ये खरीदने में कुछ परेशानी नहीं होगी क्योंकि जमीन बंजर है। फिर बाकी 100 एकड जमीन को, जिस पर लोग बसे हैं, सरकार द्वारा जबरदस्ती से ले सकता है!
    एन. ए. सी. ने, जमीन के पिछले सौदे के 6 गुना दाम पर भूमि अधिग्रहण करने की सिफारिश की है। हालांकि देखने में 6 गुना ज्यादा लगता है, असलियत में यह बाजार के दाम से भी कम हो सकता है। यदि पिछला सौदा 30 साल पहले हुआ होगा तो आज जमीन की कीमत संभवतः 10 गुना हो गयी होगी। अगर सही मुआवजा देना हो तो प्रकल्प शुरु होने के बाद की जमीन की कीमत के आधार पर मुआवजा देना चाहिये।

    कैलाश

  2. Dear Kailash,

    Thank you for

    Dear Kailash,

    Thank you for commenting on the issue of land acquisition.  This is an extremely important debate.  With the central Ministry of Rural Development publishing a new Bill on 29th, there is need to closely study what has been proposed and accordingly refine one's arguments.  The Bill does not stipulate a cut-off proportion of land but says that in some cases the "consent" of 80% of affected people would be a pre-condition for land acquisition.  There is some apparent concession, while the struggle continues.  One needs to sharpen one's weapons in tune with the latest proposal.

    Look forward to continuing the discussion and with your continued participation.

    Regards,

    CGPI Web Moderator

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *