45 वर्ष पहले घोषित राष्ट्रीय आपातकाल से सबक :

“लोकतांत्रिक” हिन्दोस्तानी गणराज्य इजारेदार“लोकतांत्रिक” हिन्दोस्तानी गणराज्य इजारेदार पूंजीपतियों की हुक्मशाही का एक हथकंडा है

आपातकाल घोषित करने का मक़सद था मेहनतकश लोगों के संघर्षों को कुचलना
यह स्पष्ट हो गया कि राजनीतिक सत्ता कुछ चंद लोगों के हाथों में संकेंद्रित है

25 जून, 1975 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अगुवाई में मंत्रिमंडल ने तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद को संविधान की धारा 352 को लागू करके, आपातकाल घोषित करने की सलाह दी थी। इसे उचित ठहराने के लिए, ‘अंदरूनी गड़बड़ी का ख़तरा’ बताया गया था। रातों-रात लोगों को संविधान में लिखे हुए सभी मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। बोलने और सभा करने की आज़ादी भी छीन ली गयी। आपातकाल की स्थिति एक साल और नौ महीने तक बनी रही, और 21 मार्च, 1977 को समाप्त हुयी।

मज़दूरों की हड़तालों पर रोक लगाई गयी। ट्रेड यूनियन नेताओं और छात्र कार्यकर्ताओं को जेल में बंद कर दिया गया। दिल्ली, मुंबई और दूसरे शहरों में लाखों-लाखों झुग्गी-वासियों को बलपूर्वक खदेड़ दिया गया। उनके घर-बार तबाह कर दिए गए। “जनसंख्या नियंत्रण” के कार्यक्रम के तहत, दसों-लाखों मज़दूरों और किसानों की बलपूर्वक नसबंदी करायी गई। अख़बारों पर पूरी सेंसरशिप लागू हो गयी। सरकार की किसी भी प्रकार की आलोचना पर रोक लगाई गयी। आतंरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) के तहत, हजारों-हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं को जेल में बंद किया गया। विपक्ष की राजनीतिक पार्टियों की राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया और वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया, जैसे कि गुजरात और तमिलनाडु में।

उस समय पूरे देश में मज़दूर, किसान, छात्र और नौजवान भारी तादाद में निकलकर अपनी बिगड़ती हालतों का विरोध कर रहे थे। 1974 में रेल मज़दूरों की सर्व-हिन्द हड़ताल की वजह से पूरी अर्थव्यवस्था ठप्प हो गयी थी। पंजाब, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और अन्य जगहों पर किसान आन्दोलन तेज़ हो रहा था। बिहार, गुजरात और अन्य जगहों पर छात्र सड़कों पर निकलकर बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और खाद्य पदार्थों की महंगाई का विरोध कर रहे थे।

“समाजवादी नमूने का समाज” बनाने का वादा एक बहुत बड़ा झूठ साबित हो चुका था। लोगों को यह साफ-साफ दिख रहा था कि मेहनतकश बहुसंख्या को निचोड़कर, मुट्ठीभर बड़े पूंजीपति और बड़े जमींदार, भ्रष्ट मंत्री और अफ़सर अपनी तिजौरियां भर रहे थे।

देशभर में फैले असंतोष और व्यापक जन-विरोध से हुक्मरान वर्ग को काफी ख़तरा महसूस हो रहा था। वास्तव में, यही वह ‘अंदरूनी गड़बड़ी का ख़तरा’ था जिसे राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने की वजह बताया गया था।

वह ऐसा समय था जब शोषकों और शोषितों के बीच में संघर्ष तेज़ हो गया था और शोषकों के आपस बीच भी। हरित क्रांति और पूंजीवादी कृषि के विस्तार के साथ-साथ, विभिन्न इलाकों में केंद्र से अलग होने की कोशिश करने वाली ताक़तें मजबूत हो रही थीं। प्रांतीय सम्पत्तिवान समूह सत्ता में अपने लिए ज्यादा हिस्सा मांग रहे थे, जिसकी वजह से केंद्र और राज्यों के बीच में झगड़े बढ़ रहे थे। दोनों महाशक्तियां, अमरीका और सोवियत संघ, दक्षिण एशिया पर हावी होना चाहती थीं, इसलिए उनके आपस बीच तीक्ष्ण स्पर्धा चल रही थी। हिन्द-सोवियत सैनिक संधि पर हस्ताक्षर किया जाना, उसके बाद पाकिस्तान का दो टुकड़ों में बांटा जाना और बांग्लादेश की स्थापना होना – इन सबके कारण सोवियत सामाजिक साम्राज्यवादियों का पलड़ा भारी हो रहा था। इसके जवाब में, अमरीकी साम्राज्यवादियों ने इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार को गिराने के इरादे से, तरह-तरह की विपक्ष की पार्टियों को गुप्त रूप से समर्थन दिया।

इन हालातों में, राष्ट्रीय आपातकाल को लागू करके, जन संघर्षों को कुचलने के लिए वहशी दमन और आतंक फैलाया गया और हर प्रकार के विरोध को अपराध ठहराया गया। सड़कों पर विरोध करने वालों को “विदेशी प्ररित” राष्ट्र-विरोधी ताक़त करार दिया गया। आपातकाल की घोषणा को “दांय पंथी प्रतिकियावाद के खि़लाफ़ लड़ाई” के रूप में पेश किया गया। संविधान के पूर्वकथन में संशोधन किया गया और उसमें “लोकतांत्रिक गणराज्य” से पहले “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्द जोड़ दिए गये।

आपातकाल की हुकूमत के खि़लाफ़ और लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघर्ष को पूंजीपतियों के एक भाग ने “लोकतंत्र की पुर्स्थापना” का नारा देकर, अपने हितों के पक्ष में मोड़ लिया।

1977 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी की पराजय और मोरारजी देसाई की अगुवाई में एक गठबंधन सरकार की स्थापना को लोकतंत्र की जीत के रूप में घोषित किया गया। परन्तु उस समय से लेकर आज तक की सारी गतिविधियां यह साफ-साफ दिखाती हैं कि हर प्रकार के विरोध को कुचलने के लिए वहशी दमन का इस्तेमाल जरा-सा भी कम नहीं हुआ है। राजकीय आतंकवाद और राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा मज़दूरों, किसानों और दूसरे दबे-कुचले लोगों पर इजारेदार पूंजीवादी घरानों की हुक्मशाही को थोपने का पसंदीदा हथकंडा बन गया है।

वर्तमान समय पर, केंद्र सरकार ने, कोरोना वायरस वैश्विक महामारी से निपटने के नाम पर, लगभग आपातकाल के जैसी ताक़तें खुद को दे रखी हैं। केंद्र सरकार ने 1897 के महामारी रोग अधिनियम और 2005 के आपदा प्रबंधन अधिनियम को लागू कर रखा है। सारे फैसले राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एन.डी.एम.ए.) द्वारा लिए जाते हैं और उसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री खुद ही हैं। संसद और राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों को पूछा तक नहीं जाता है।

“कोरोना वायरस से लड़ने” के नाम पर, लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार छीने जा रहे हैं। राजनीतिक मीटिंगों और रैलियों पर रोक लगा दी गयी है। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने हाल के महीनों में जन-विरोधों में भाग लिया था, उन्हें अवैध गतिविधि निवारक अधिनियम (यू.ए.पी.ए.) के तहत गिरफ़्तार किया जा रहा है।

1975 के आपातकाल के अनुभव से और उसके बाद की सारी गतिविधियों से हमें यह अहम सबक सीखना है कि लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था और उसका संविधान हमारे लोकतांत्रिक अधिकारों को सुनिश्चित नहीं करते हैं।

आपातकाल की घोषणा संविधान का कोई हनन नहीं था। संविधान केंद्र सरकार को ऐसा फैसला लेकर लोगों के मौलिक अधिकारों को छीनने की पूरी इजाजत देता है। (देखिये बॉक्स: आपातकाल की घोषणा करने के संविधान के प्रावधान)

हम, इस देश के लोग, संप्रभु नहीं हैं, जैसा कि संविधान के पूर्वकथन में कहा गया है। फ़ैसले लेने की ताक़त मुट्ठीभर लोगों के हाथों में संकेंद्रित है। इजारेदार पूंजीवादी घराने केंद्र सरकार के मंत्रिमंडल पर अपने प्रभारी प्रभाव का इस्तेमाल करके, पूरे समाज पर अपनी हुक्मशाही को थोपते हैं।

बीते 45 वर्षों के इतिहास के अनुभव से हमें यह अहम सबक सीखना है कि लोगों के अधिकारों की हिफ़ाज़त में लड़ने वालों को “लोकतंत्र बचाओ” और “संविधान बचाओ” जैसे नारों के बहकावे में नहीं आना चाहिए। हमें एक नए प्रकार के लोकतंत्र की व्यवस्था, जिसमें मज़दूर और किसान राज कर सकेंगे, की स्थापना करने के लिए अपने संघर्ष को आगे बढ़ाना है।

संविधान ऐसा होना चाहिए कि संप्रभुता लोगों के हाथ में हो, न कि राष्ट्रपति, मंत्रीमंडल या संसद के हाथों में। कार्यकारिणी को निर्वाचित विधायिकी के प्रति जवाबदेह होना चाहिए और निर्वाचित प्रतिनिधियों को मतदाताओं के प्रति जवाबदेह होना चाहिए। संविधान को यह सुनिश्चित करना होगा कि मानव अधिकारों और लोकतांत्रिक अधिकारों का किसी भी बहाने हनन न हो सके।

आपातकाल की घोषणा करने के संविधान के प्रावधान

1950 में अपनाए गए संविधान की धारा 352 के अनुसार, राष्ट्रपति को सम्पूर्ण देश में या देश के किसी भी भाग में आपातकाल घोषित करने का पूरा अधिकार है, अगर केन्द्रीय मंत्रीमंडल जंग, बाहरी हमले या अंदरूनी गड़बड़ी के ख़तरे के चलते उन्हें ऐसा करने की सलाह देता है। आपातकाल घोषित करने के फैसले को अगले एक महीने के अन्दर संसद की सहमति प्राप्त करनी होती है। 1978 में धारा 352 में मामूली-सा संशोधन किया गया था। “अंदरूनी गड़बड़ी” को बदलकर “सशस्त्र बग़ावत” बनाया गया था और मंत्रीमंडल के लिए अपनी सलाह को राष्ट्रपति को लिखित में देना ज़रूरी बनाया गया था।

संविधान में आपातकाल की घोषणा करने के और भी कई प्रावधान हैं। धारा 356 केन्द्रीय मंत्रीमंडल को हिन्दोस्तानी संघ के अलग-अलग राज्यों में आपातकाल घोषित करने, निर्वाचित विधानसभाओं को विलीन करने और राष्ट्रपति शासन लागू करने का अधिकार देती है। धारा 360 वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने की इजाज़त देती है।

धारा 352 और धारा 360 केंद्र सरकार को लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों और नागरिक आज़ादियों को छीनने तथा राज्य सरकारों की ताक़तों को हड़प लेने की इजाज़त देती हैं।

अतः, संविधान के अनुसार, केंद्रीय कार्यकारिणी को अगर संसद में बहुमत प्राप्त है तो वह जब चाहे लोगों के अधिकारों को छीन सकती है और निर्वाचित राज्य सरकारों को गिरा सकती है।

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