लाखों लोग सड़कों पर उतर पड़े थे, पैसों और काम के अभाव ने उन्हें पैदल चलने के लिए विवश कर दिया था। महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश की सीमाओं पर पचासों किलोमीटर लम्बा ट्रकों का जाम लगा जिसमे सिर्फ मज़दूर और उनके परिवार भरे थे। मज़दूर परिवारों की बड़ी तादाद अभी भी बाकी थी जिन्होंने सब्र का लिबास ओढ़ रखा था, उनकी आशाएं भारतीय रेल की ओर टिकी थीं। आखिरकार भारतीय रेल का मौन टूटा परन्तु मज़दूर परिवारों को सिर्फ निराशा ही हाथ लगी। जिस काम का राज्य चुटकी बजा कर सकता था उसे जैसे महान लक्ष्य बना दिया गया। तमाम कागज पत्रों और औपचारिकताओं की उलझनों में फंसकर मज़दूरों और उनके परिवारों को सिर्फ मानसिक यातनाएं ही मिली। हालांकि सवाल सिर्फ घर पहुंचाने का था, अकेले न रहकर इस कठिन महामारी का समय घरवालों के साथ रहकर बिताने था। हफ्तों नगरसेवक के दफ्तर घूम आये, पुलिस स्टेशन के दरवाज़े खटखटाये। एक बार तो सीधे बांद्रा और कुर्ला टर्मिनस तक हो आये परन्तु उमड़ी भीड़ को देखकर इरादों पर जैसे पानी फिर गया। लगा ऐसे काम न बनेगा जब जेब ढीली की तो इंस्पेक्टर ने रहमदिली दिखाई और अगले ही दिन बुलावा आ गया। समय कुछ कम मिला तो खाने के कुछ खास इंतजाम न कर सके बस एक धुन सवार थी कि यहां से बस कैसे भी निकले तो सही, प्रतापगढ़ न सही जौनपुर ही सही, फिर वहां से तो कैसे भी घर पहुंच ही जायेंगे।
रेल में बैठते ही खुशी का ठिकाना न रहा और रिश्तेदारों को फौरन आने की ख़बर दे दी। यात्रा के प्रारम्भ में हमें कुछ पैकेट्स थमा दिए गए, जब खुशी का पारावार कुछ थमा तो उन पैकेट्स की ओर ध्यान गया। वो बिलकुल भी खाने लायक न थे, ऐसा लगा जैसे पुराने भंडार को ख़त्म किया जा रहा है। खैर बात सिर्फ तीस घंटों के सफर की थी हम दोपहर में बैठे थे कल की शाम तो हमें कैसे भी घर पहुंचना ही था। एक रात तो यूं ही गुजर जानी थी, हमने कुछ खाने-पीने का बंदोबस्त कर रखा था और कुछ सरकार से उम्मीदें कर रखी थीं।
उम्मीदें टूटी और तीस घंटे का सफर नब्बे घंटों में बदला गया। दो दिन तो जैसे-तैसे निकले परन्तु अंतिम चैबीस घंटे तो बच्चों समेत पूरे परिवार को उपवास करना पड़ा। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सीमाओं में खाने के कुछ तो प्रबंध किये गए थे, परन्तु उत्तर प्रदेश ने अपने ही बच्चों और नागरिकों को भूखों सोने के लिये विवश कर दिया।
भारतीय रेल की यह कौन सी योजना थी, रेल के पहियों को किसने जकड़ रखा था? ऐसा भी नहीं था कि पटरियों पर ट्रैफिक पहले जैसा था फिर भी गुजरात से बिहार के सिवान जाने में नौ दिन लगे और अजूबा तो तब हुआ जब सुना कि वसई से गोरखपर जानेवाली रेल अचानक सुबह उड़ीसा पहुंच गई। अब हमारे साथ भी वही हो रहा था, तीन दिन देरी से ट्रेन पहुंची। रास्ते भर शौच में पानी का अभाव, जंगलों में घंटों ट्रेन का खड़े रह जाना, खाने पीने का सामान न मिलना, प्लेटफार्म पर पुलिस द्वारा उतरने न देना, यात्रियों को इतने बड़े विलम्ब की कोई जानकारी न देना, एक-एक पल मानो घंटों सा महसूस होता रहा।
योगी और भाजपा सरकार के बड़े-बड़े दावों के परखच्चे तक उड़ चुके थे। एक वाक्या जो हमेशा याद रहेगा ट्रेन के कम्पार्टमेंट में पीने योग्य पानी न था, ट्रेन किसी गांव के करीब रुकी तो मुसाफिर पानी के लिए उतर पड़े। उस ग़रीब किसान को पानी बांटना अच्छा लग रहा था परन्तु इस तरह वह सबकी मदद नहीं कर सकता था तो उसने अपना सबमर्सिबल पंप शुरू किया और सब प्यासों तक पानी मुहैया कराया। राज्य के पास सब कुछ होकर भी वह लोगों के लिए कुछ नहीं कर रहा है और जिनके पास सीमित साधन हैं वे अपने दिल के सारे दरवाज़े खोल कर मज़दूर भाइ-बहनों की मदद करने के लिए आतुर हैं!
छोटे बच्चे के रोते ही आँख खुली तो देखा सैकड़ों लोग पटरियों पर आ गए थे। कुछ लोग शोर मचा रहे थे नारेबाजी कर रहे थे। जौनपुर स्टेशन जा चुका था, लोगों ने जंजीर खींची तो भी ट्रेन नहीं रुकी और अब जब अगले स्टेशन पर रुकी है तो मुसाफिर दोनों ओर उतर कर अपना विरोध प्रकट कर रहे थे। कहा वापस पीछे जौनपुर ले चलो, पुलिस आयी और लाठियां बरसाई गयीं, तीन घंटे बाद यह कह कर बोगियों में फिर ढकेल दिया गया कि अब आगे अकबरपुर से इंतजामात किये गए हैं। गुस्से की कोई सीमा न रही, एक तो सफर के घंटे बढ़ते चले गए, खाने के लिए कुछ है नहीं और अब अस्सी किलोमीटर और सफर करना है। हाय रे बदसलूकी की हद, जौनपुर पहुंचने में ही हम धराशायी हो चुके थे और अब अकबरपुर, फिर वहां से 120 किलोमीटर प्रतापगढ़।
क्या यह भारतीय रेल की योजना की कमी थी या जान बूझकर हम मज़दूर परिवारों को तकलीफ देने के इरादे से ऐसा किया जा रहा था। किसी तरह अकबरपुर पहुंचे और ज़रूरी चेक-अप कर भोजन देकर हमें प्रतापगढ़ की बस में बैठा दिया। प्रतापगढ़ में दोबारा चेक-अप के लिए रुकना पड़ा, खड़े हो पाना भी मुश्किल लग रहा था, सफर की थकान ने कई और बीमारियां पैदा कर दी थीं। तबियत बहुत बिगड़ी अब योगी जी द्वारा घोषित राशन लेने की बजाय घर जाना ज्यादा ज़रूरी समझा। मुंबई से निकले तो तीस घंटे के सफर की उम्मीद की थी परन्तु अब तो नब्बे घण्टे अंग्रेजी वाले सफर में उसका रूपांतरण हो चुका था। इतना भयानक यात्रा का अनुभव लेकर हमने घर की चारपाई पर पैर पसारे। सुकून सिर्फ इतना ही था कि हमारा परिवार निगेटिव था। संध्या की बेला में जब आंख खुली तो घर की दीवारों पर यह चिटका हुआ पेपर पाया जिस पर लिखा था। जिसे मैं जोड़ना ज़रूरी समझती हूं “घर के अंदर न जाये यह घर संगरोध में है”।
नीलम, प्रतापगढ़
सम्पादकीय टिप्पणी: श्रमिक ट्रेन के सफर ने केवल एक दिन, 27 मई को सात लोगों की तनाव, निर्जलन और भूख के कारण जान ले ली।