इतिहास के सबक नहीं भुलाए जाने चाहियें
9 मई, 1945 को नाज़ी जर्मनी की पराजय के साथ, यूरोप में दूसरे विश्व युद्ध का अंत हुआ था। उससे पहले, यूरोप में दूसरे विश्व युद्ध की आखिरी व्यापक सैनिक कार्यवाही हुयी थी, जो बर्लिन युद्ध के नाम से जानी जाती है। उस सैनिक कार्यवाही के दौरान, सोवियत लाल सेना के 15 लाख से अधिक सैनिकों ने हिटलर की बची-खुची फ़ौज को पराजित किया, जर्मनी की राजधानी बर्लिन में प्रवेश किया और 2 मई को वहां के संसद राइचस्टैग पर लाल झंडा फहराया था। उसी वर्ष में, कुछ महीने बाद, 15 अगस्त को जापान के हथियार डाल देने के साथ, दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुआ।
जर्मनी, जापान, इटली और उनके मित्रों की पराजय के साथ ही, सारी दुनिया में साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़, राष्ट्रों की आज़ादी, लोकतंत्र और समाजवाद के लिए जन संघर्ष बड़ी तेज़ी से आगे बढ़े। यूरोप और एशिया के अनेक देश साम्राज्यवादी व्यवस्था से मुक्त हो गए। अक्तूबर 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुयी, जिसमें सभी सदस्य देश राष्ट्रों के आत्म-निर्धारण के अधिकार और सभी राज्यों, छोटे व बड़े, की आज़ादी और संप्रभुता के असूलों के साथ सहमत हुए।
आज, 75 वर्ष बाद, मानव जाति के सामने तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडरा रहा है, जो पिछले दोनों विश्व युद्धों से कहीं ज्यादा विनाशकारी होगा। अमरीकी साम्राज्यवाद दुनिया में अपने सर्वोच्च स्थान और प्रधानता को बरकरार रखने के लिए, सभी अंतर्राष्ट्रीय कायदों और समझौतों का खुलेआम हनन कर रहा है। उसने ईरान, वेनेज़ुएला, क्यूबा और रूस पर कठोर आर्थिक प्रतिबंध लगा रखे हैं। कोरोना वायरस वैश्विक महामारी का फायदा उठाकर, अमरीका अपने देश के अन्दर लोकतांत्रिक अधिकारों पर फासीवादी हमले कर रहा है और चीन को अलग-थलग करके उस पर हमला करने के लिए, अपने यूरोपीय मित्रों तथा हिन्दोस्तान समेत एशियाई मित्रों को लामबंध कर रहा है।
बर्तानवी-अमरीकी साम्राज्यवादियों ने अपने दुष्ट इरादों को सही ठहराने के इरादे से, दूसरे विश्व युद्ध के इतिहास को फिर से लिखने की भरसक कोशिश की है। दूसरे विश्व युद्ध को समाप्त करने में दुनिया के फ़ासीवाद-विरोधी और आज़ादी-पसंद लोगों को अगुवाई देते हुए, सोवियत संघ और जे.वी.स्तालिन ने जो दिलेर और निर्णायक भूमिका अदा की थी, उसे बर्तानवी-अमरीकी साम्राज्यवादी मिटा देना चाहते हैं। वे लोगों के सामने यह झूठा प्रचार करते हैं कि अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस “फासीवादी ताक़तों से राष्ट्रों की आज़ादी और स्वतंत्रता की रक्षा कर रहे थे”, जबकि सोवियत संघ उन पर कब्ज़ा करने के लिए, हिटलरवादी जर्मनी के साथ तथाकथित सहयोग कर रहा था।
दूसरा विश्व युद्ध उस समय की अगुवा साम्राज्यवादी ताक़तों के बीच में, दुनिया को फिर से आपस में बाँटने के इरादे के साथ किया गया था। पूरे जंग के दौरान, एक तरफ जर्मनी, जापान, इटली तथा उनके मित्र और दूसरी तरफ ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका, सभी के यही इरादे रहे। ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका का जंग में भाग लेने का इरादा अपने प्रतिस्पर्धियों के चंगुल से गुलाम देशों के लोगों को मुक्त कराना कतई नहीं था। उनका इरादा था अपने उपनिवेशों, अपने बाज़ारों, कच्चे माल के स्रोतों और प्रभाव क्षेत्रों की रक्षा और विस्तार करना।
परन्तु दूसरे विश्व युद्ध में सोवियत संघ की भूमिका इससे बिलकुल भिन्न थी। सोवियत संघ ने साम्राज्यवादी जंग का विरोध किया और शांति बरकरार रखने के लिए लगातार कूटनीतिक संघर्ष जारी रखा। जब नाज़ी जर्मनी की सेना ने 22 जून, 1941 को सोवियत संघ पर हमला किया, तो सोवियत संघ ने डटकर उसका मुकाबला किया। सोवियत संघ ने उपनिवेशों, बाज़ारों और प्रभाव क्षेत्रों के लिए नहीं बल्कि समाजवाद की हिफ़ाज़त करने के लिए जंग में भाग लिया था। सोवियत जनता के देशभक्ति के युद्ध (पेट्रियोटिक वॉर) से दुनिया के वे सभी लोग प्रेरित हुए जो कब्ज़ाकारी ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे। सोवियत लोगों के उस युद्ध से प्रोत्साहित होकर, उपनिवेशों और गुलाम देशों के लोग साम्राज्यवाद, फासीवाद और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़, राष्ट्रीय संप्रभुता और लोक जनतंत्र के लिए उठ खड़े हो गए।
प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की पराजय के बाद, उसे अपने सभी उपनिवेशों और अपने कुछ इलाकों से भी वंचित किया गया। जर्मनी के वित्तीय अल्पतंत्र ने हिटलर की नाज़ी पार्टी को सत्ता पर बिठाया, ताकि उस बेइज़्ज़ति से जर्मन लोगों में पैदा हुयी शर्म की भावना के साथ खिलवाड़ करके, नए-नए इलाकों, बाज़ारों और कच्चे माल के स्रोतों पर कब्ज़ा करने के लिए एक हमलावर सैनिक अभियान चलाया जाये। नाज़ी पार्टी ने यहूदियों का जन संहार किया तथा जर्मनी के मज़दूर वर्ग, ट्रेड यूनियन नेताओं व सभी लोकतांत्रिक ताकतों पर वहशी अत्याचार किया।
अमरीका ब्रिटेन के साथ स्पर्धा करके, यूरोप पर अपना वर्चस्व जमाना चाहता है, इसलिए अमरीका ने जर्मनी को फिर से खूब धन और हथियार दिए। रोकफेलर और अन्य अमरीकी इजारेदार पूंजीपतियों ने नाज़ी जर्मनी के सैन्यीकरण कार्यक्रम के लिए सैकड़ों-लाखों डॉलर दिए। ब्रिटेन और फ्रांस ने जर्मनी को सोवियत संघ के ख़िलाफ़ उकसाने की सोची-समझी नीति अपनाई।
सोवियत संघ में ब्रिटेन और फ्रांस से बार-बार आह्वान किया कि नाज़ी जर्मनी के हमलावर अभियान को रोकने के लिए, वे आपसी सहयोग का समझौता कर लें। लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस ने सोवियत संघ के इन प्रस्तावों को ठुकरा दिया और उन्होंने 1938 में जर्मनी और इटली के साथ बदनाम म्युनिक समझौता कर डाला। जर्मनी और इटली जैसे-जैसे एक के बाद दूसरे देश पर हमला और कब्ज़ा करते रहे, उस समय ब्रिटेन और फ्रांस मूक दर्शक बने रहे। तब सोवियत संघ के पास, खुद की हिफ़ाज़त करने व शांति बहाल करने के लिए, यथासंभव क़दम उठाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा रहा। अगस्त 1939 में सोवियत संघ ने जर्मनी के साथ अनाक्रमण (एक-दूसरे पर हमला न करने का) समझौता किया। सोवियत संघ को भली-भांति मालूम था कि हिटलर कभी भी उस समझौते को तोड़ सकता है। परन्तु जर्मनी के तुष्टीकरण की ब्रिटेन और फ्रांस की नीति के चलते, उन प्रतिकूल हालातों में अनाक्रमण समझौते से सोवियत संघ को जर्मनी के हमले का मुकाबला करने की तैयारी करने के लिए 22 महीनों का समय मिला। फिर 22 जून, 1941 को जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला कर दिया।
दूसरे विश्व युद्ध में भाग लेने की अमरीका की रणनीति थी यह सुनिश्चित करना कि युद्ध के बाद अमरीका दुनिया में सबसे प्रमुख साम्राज्यवादी ताक़त बने। इस मक़सद को पूरा करने के लिए अमरीका चाहता था कि सभी प्रतिस्पर्धी साम्राज्यवादी ताक़तें, जर्मनी, जापान, ब्रिटेन, फ्रांस और समाजवादी सोवियत संघ भी आपस में लड़-झगड़कर कमज़ोर हो जायें। इसके अलावा, अमरीका और सभी साम्राज्यवादी ताक़तों का सांझा उद्देश्य था समाजवादी सोवियत संघ का विनाश करना।
अमरीका दूसरे विश्व युद्ध में खुलेआम शामिल तब हुआ जब दिसंबर 1941 में जापान ने अमरीकी सैनिक अड्डे, पर्ल हारबर पर हमला किया। उस समय तक अमरीका मूक दर्शक बना रहा, जैसे-जैसे जर्मनी यूरोप के अधिक से अधिक भागों पर कब्ज़ा करता रहा और फिर जर्मनी ने सोवियत संघ पर भी हमला किया।
जर्मनी के सोवियत संघ पर हमला करने के ठीक बाद, हैरी ट्रूमैन ने जो बयान दिया था, उससे अमरीकी साम्राज्यवाद की अतिदुष्ट व मौकापरस्त नीति का खुलासा होता है। ट्रूमैन, जो उस समय सेनेट के सदस्य थे और बाद में अमरीका के राष्ट्रपति बने थे, ने कहा था : “अगर हमें लगता है कि जर्मनी जंग में जीत रहा है तो हमें रूस की मदद करनी चाहिए और अगर रूस जीत रहा है तो जर्मनी की मदद करनी चाहिए, ताकि वे दोनों एक-दूसरे को मार-काट कर ख़त्म कर दें” (न्यू यॉर्क टाइम्स, 24 जून, 1941)।
जर्मन हमले के ख़िलाफ़ सोवियत संघ की लाल सेना और सोवियत लोगों ने जो महान देशभक्ति का युद्ध (पेट्रियोटिक वॉर) किया था, वह मानव इतिहास में एक बहुत ही भयानक युद्ध था। पूरे दूसरे विश्व युद्ध के दौरान नाज़ी सेना की कुल क्षति का 70 प्रतिशत सोवियत संघ के अन्दर हुए घमासान युद्धों में हुआ। स्तालिनग्राद के ऐतिहासिक जंग ने दूसरे विश्व युद्ध की दिशा को बदल दिया। सोवियत लाल सेना ने नाज़ी सेना को रूस से बाहर भगाया और उसका पीछा करके, उसे जर्मनी तक वापस दौड़ाया तथा रास्ते में उसके कब्ज़ा किये हुए अनेक देशों को आज़ाद भी करवाया।
इस पूरी अवधि में, सोवियत संघ ने बार-बार अमरीका से आह्वान किया कि पश्चिम यूरोप में जर्मनी के ख़िलाफ़ एक दूसरा मोर्चा खोला जाये, ताकि यूरोप में जंग को जल्दी ख़त्म किया जा सके। लेकिन अमरीका ने ऐसा करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वह चाहता था कि जर्मनी और सोवियत संघ आपस में लड़-लड़ कर एक-दूसरे को थका दें। जब यह साफ़ हो गया कि सोवियत लाल सेना अपने बलबूते पर ही पूरी जर्मनी को आज़ाद कराने वाली थी, तब ही अमरीका ने यूरोप में दूसरा मोर्चा खोलने के लिए अपनी फ़ौज भेजी। जर्मनी और अन्य देश जो फासीवाद की जंजीरों को तोड़कर आज़ाद होने वाले थे, उन्हें अमरीका अपने कब्ज़े में लाना चाहता था। अमरीका के इरादे उसके आगे के क़दमों से स्पष्ट हो गए। जब यूनान के देशभक्तों ने जर्मनी की फासीवादी सेना को खदेड़ कर बाहर निकाल दिया, तब अमरीका ने 1944 में यूनान में अपनी फौज भेजकर वहां फासीवादी हुक्मशाही स्थापित कर दी। इसी तरह, अमरीकी सेना ने कोरिया पर हमला किया और 1945 में दक्षिण कोरिया में फासीवादी सैनिक हुक्मशाही स्थापित की।
आज जब सारी दुनिया में मज़दूरों के अधिकारों और सभी लोकतांत्रिक अधिकारों पर फासीवादी हमले हो रहे हैं, जब धर्म, नस्ल, जाति और राष्ट्रीयता के आधार पर लोगों को उत्पीड़ित किया जा रहा है, जब “इस्लामी आतंकवाद” से लड़ने के बहाने नाजायज़ जंग किये जा रहे हैं, जब तीसरे विश्व युद्ध का ख़तरा मंडरा रहा है, तो 75 वर्ष पहले हुयी घटनाओं से सही सबक लेना आवश्यक है।
सबसे अहम सबक यह है कि जब तक साम्राज्यवादी व्यवस्था मौजूद रहेगी, तब तक इलाकों, बाज़ारों और कच्चे माल के स्रोतों पर कब्ज़ा करने के लिए प्रतिस्पर्धी पूंजीवादी हुक्मरान वर्गों के बीच में जंग होना अनिवार्य है। मज़दूर वर्ग का कुचला जाना अनिवार्य है और लोकतांत्रिक व मानव अधिकारों का व्यापक पैमाने पर हनन होना अनिवार्य है। स्थाई शांति और प्रगति सुनिश्चित करने के लिए, सभी देशों के मज़दूरों और उत्पीड़ित लोगों को एकजुट होकर, साम्राज्यवादी व्यवस्था को ख़त्म करने के संघर्ष को आगे बढ़ाना होगा।
दूसरे विश्व युद्ध के बारे में साम्राज्यवादियों का झूठा प्रचार मुर्दाबाद!
फासीवाद को हराने में सोवियत लोगों की बहादुर भूमिका को लाल सलाम!
साम्राज्यवाद, साम्राज्यवादी जंग और मानव अधिकारों व लोकतांत्रिक अधिकारों पर फासीवादी हमलों के खिलाफ़ संघर्ष को आगे बढायें!