आदरणीय संपादक,
लॉक डाउन ने हम जैसे मज़दूरों को तुरंत बेरोज़गार कर दिया जो महाराष्ट्र के मुंबई से सटे नयी मुंबई, पनवेल और बदलापुर स्थित निर्माण कार्यों में काम करते हैं। इमारतों की खिड़कियों पर अलुमुनियम की कारीगिरी करने वाले बहुत सारे कारीगर बदलापुर और पनवेल में रहते हैं। लॉक डाउन-2 के अंतिम चरण में जब हमें एहसास हुआ कि लॉक डाउन की अवधि और बढ़ाई जाएगी तब हमें मजबूरन अपने गांव जाने का निर्णय लेना पड़ा। चूँकि यह फसलों की कटाई का वक़्त था हम मज़दूर पहले ही गांव पैसे भेज कर अपनी जेबें खली कर चुके थे। लॉक डाउन-1 फिर 2 ने हमारी कमर तोड़ दी थी, फिर भी अपने मित्रों व रिश्तेदारों से कर्जा लेकर, मोटर साइकिल लेकर हमने इतने बड़े सफर की चुनौती परिस्थितिवश स्वीकार की।
28 अप्रैल की रात 9 बजे हम तक़रीबन 80 मोटर साइकिल पर सवार होकर अपने गांव उत्तर प्रदेश के ज़िलों और कस्बों के लिए रवाना हुए। यह सफर तय करने में हमें तकरीबन पांच दिन लगे और 3 मई को लगभग 1500 किलोमीटर का सफर तय करके हम अपने गंतव्य स्थानों तक पहुंचे। इन पांच दिनों का सफर कई सारे दर्दनाक अनुभवों से भरा हुआ है जिसे मैं आप सभी को बताकर राज्य के क्रूर चरित्र का पर्दाफ़ाश करना चाहता हूँ।
यात्रा के प्रारंभ में ही हमें समझ आ गया कि यह सफर आसान कतई नहीं है क्योंकि 20 मोटर साइकिल सवारियों को प्रशासन द्वारा बुरी तरह पीटा गया परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और वे दूसरे मार्ग से निकल पड़े। इस महासमर में हम अकेले नहीं थे। हम जैसे हज़ारों लोग सड़कों पर जत्थों में निकल पड़े थे। कई ने अपने प्रियजनों तक पहुंचने के लिए अकेले ही कमर कस ली थी। शाहपुर में उन्हें 1 किलोमीटर तक दौड़ाया गया ताकि वे वापस चले जाएं परन्तु दो घंटों के इंतज़ार के बाद वे फिर चल पड़े। कसारा और नाशिक में हमने हज़ारों की तादाद में पैदल, साइकिल, मोटर साइकिल और कार सवारियों को देखा। मज़दूरों को मारा गया, उनकी गाड़ियां तोड़ने की कोशिश की गई। पैदल और साइकिल सवारियों को मार पीट कर छोड़ दिया परन्तु मोटर साइकिल और कार सवारियों को कैमरा लगे होने के कारण पीछे से नज़रंदाज कर भेज दिया। धुले पहुंचने पर कई मज़दूरों को डरा-धमका कर जीप से 10 किलोमीटर पीछे तक छोड़ दिया ।
हम गांव जाने पर आमादा थे, हम नहीं माने। हमें यह कह कर बाद में आने को कहा गया कि बड़े साहब ड्यूटी पर तैनात हैं। सब एक साथ आने की बजाय एक-एक कर आये तो उनके लिए बेहतर होगा। मध्य प्रदेश की सरहदों पर पहुंचने तक हमने लाखों चेहरों को धूप में झुलसते हुए देखा। दस घंटे तक इंतज़ार करवाने के बाद उनकी थर्मल स्कैनिंग कर उन्हें छोड़ दिया गया। भोपाल में ज़रूर हमने देखा कुछ डॉक्टर और पुलिस लोगों की हालतों का जायजा ले रहे थे और उनकी ज़रूरतों और तबियत के बारे में पूछ रहे थे। हमारी मुश्किल तो पेट्रोल को लेकर थी, बाहरी गाड़ियों को पेट्रोल देने की अनुमति न थी। हमने सभी अपनी गाड़ियों से पेट्रोल देकर एक दूसरे की मदद की और अपने सफर को जारी रखा। आगे चलने पर एक स्थानीय निवासी ने पेट्रोल दिलवाने में हमारी मदद की।
देवास और सागर जैसे शहरों में हमें दूसरे मार्ग से जाना पड़ा। सागर के जंगलों को पार करने पर पुलिस वालों ने हमें जाने तो दिया परन्तु न ही हमारे पास कुछ खाने को था और न ही सड़कों पर ढाबे के कुछ इंतजामात थे। कटनी में देखा कि पुलिस पैदल मुसाफिरों को सड़कों पर रुकने नहीं दे रही थी उन्हें किसी न किसी गाड़ी की छत पर बैठा कर आगे भिजवा देती थी। यह लगातार घोषणा की जा रही थी कि आगे टैंट में जाकर रुकें। चूँकि हम दूसरे शहरों से आ रहे थे कई गांव वालों ने कोरोना के डर वश हमें पानी देने से इंकार कर दिया। सतना के पास पहुंचने पर एक पुलिस वाले की मदद से ढाबे वाले के द्वारा हमें मुफ्त में भोजन दिया गया और सोने की व्यवस्था की, पेट्रोल भरवा कर हमे आगे जाने का रास्ता बताया गया। अब तक 84 घंटे बीत चुके थे और आगे की चुनौतियों का सामना करना बाकी था ।
अलाहाबाद तक का सफर तय करते समय तक हम यह समझ चुके थे कि अमीरों के लिए सब कुछ चुटकी बजते ही उपलब्ध है जबकि गरीबों की भीड़ को सिर्फ सड़कों पर मरने के लिए छोड़ दिया है। हमें सिर्फ ताली बजाने और थाली पिटवाने के लिए ही इस व्यवस्था में स्थान है ।
फूलपुर जिले की सीमाओं में पहुंचने पर गांववाले हमें उनका दुश्मन समझ कर मारने के लिए आ गए। दरअसल समाचार चैनलों ने कोरोना के नाम पर जिस तरह की सनसनी फैला रखी है उससे तो यही समझ आएगा कि यह लोग बीमारी फ़ैलाने वाले हैं और यह सब जल्द से जल्द चले जाएं। हम सभी अपने-अपने गांव के सरकारी अस्पतालों में चेक अप और क्वारंटाइन केंद्रों की ओर बढ़ चले।
गांव के क्वारंटाइन केंद्र भी चर्चा के पात्र हैं। गांव के प्राथमिक विद्यालयों को क्वारंटाइन केंद्रों में परिवर्तित किया गया है। ये विद्यालय घास की छप्परों और ईंट के बने हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने घर से ही खाने और सोने की व्यवस्था करनी होती है। हमारे घरवाले ही सुबह शाम हमें भोजन दे जाते हैं। इस भयावह गर्मीं में हमें बिना बिजली और पंखों के ही रात गुजारनी पड़ती है। कुछेक स्थानों पर ग्राम प्रधान के द्वारा सामग्री और गैस चूल्हों की व्यवस्था की गयी है जिससे वे स्वयं भोजन पका कर खाएं। कई ग्रामवासी हमें नफरत से देख रहे थे, उनकी नजरों में हमें अपनापने की भावना नहीं दिखी। उन्होंने जैसे मान लिया है कि हम कोरोना रोगी हैं इसलिए उनको हमसे डर था। समाचार चैनलों और तमाम सोशल मीडिया प्लेटफार्म व व्हाटस एप्प ने ग्रामवासी के मन में यह कुप्रचार भर दिया है और वह आसानी से निकालना मुश्किल है।
शहरों की विकट परिस्थितियों को देखकर हम गांव आने पर मजबूर हुए थे। न ही सरकारी सुविधायें हम तक पहुंच रही थी और न ही हमारे पास मकान के किराये भरने के पैसे थे। लॉक डाउन खुलने की कोई उम्मीद नहीं थी, कितने महीनों का किराया हम भर सकते थे? जून की बारिश करीब थी, काम धंधे तब तो वैसे भी बंद हो जाते। हम कब तक अपनी विवशताओं में रह कर सरकारी योजनाओं के अपने दरवाजे पर पहुंचने का इंतज़ार करते। हमें इतना भयानक मुंबई से गांव तक का सफर (मोटर साइकिल पर बच्चों सहित तीन यात्री) और 14 दिन का क्वारंटाइन मजबूरन स्वीकार करना पड़ रहा है ।
इस महामारी को वर्ग चरित्र के नज़रिये से समझना लाज़मी है। यह गरीबों के लिए स्वास्थ सुविधाओं के अभाव में, पैसों के अभाव में तड़प-तड़प कर मरनेवाली मौत है और दूसरी ओर बड़े पूंजीपतियों के लिए बड़े-बड़े राहत पैकेज बांटे जा रहे हैं । इस महामारी ने सामाजिक विषमता को बहुत ही स्पष्ट कर दिया है।
ब्रजेश कुमार, फूलपुर