प्रिय संपादक,
मैं मज़दूर एकता लहर नियमित रूप से पढ़ता हूँ। कोरोना महामारी में फंसे बहुत से मज़दूरों की दास्तान आपके अख़बार की वेब साईट पर मैंने पढ़ी। मैं स्ट्रेंडड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) का हिस्सा हूं। यह संगठन युवाओं की पहल है। देश के विविध राज्यों में फंसे हुए मज़दूरों से फोन पर बात कर हम उन्हें पैसे या राशन मुहैया कराने में सहायता करने का काम करते हैं। इस संबंध में जिन 25-30 परिवारों से मैंने बातचीत की है, उनके दर्दनाक अनुभव इस व्यवस्था के क्रूर चरित्र को दर्शाते हैं।
एक महिला उत्तर प्रदेश में अपने दो बच्चों के साथ फंसी हुयी है। उसका पति रोज़ 2 घंटे का सफर तय करके दिल्ली राज्य में काम करने जाता था, अतः लॉकडाउन की घोषणा अचानक होने के कारण वह दिल्ली में काम की जगह से अपने घर न लौट सका। वो अकेली महिला एक महीने से बच्चों की देखभाल कर रही है। लॉकडाउन के दरम्यान उसकी बेटी बीमार पड़ गई, जो कुछ छोटी-मोटी बचत थी वो बेटी के इलाज में ख़त्म हो गई। दो महीने से किराया न देने के कारण मकान मालिक भी उन्हें घर खाली करने के लिये बोल रहा है। वह फोन पर रो-रोकर अपनी दास्तान बता रही थी।
एक और समूह को जब मैंने फोन किया तो पता चला कि उनके पास जो भी पैसा था वह सब खर्च हो गया है। पिछले 15 दिन से वे 6 लोग भूखे हैं। पास की एक संस्था से उनको खाना तो मिलता है लेकिन वहां बहुत भीड़ होती है और खाना भी दिन में एक ही बार मिलता है।
ऐसे ही एक और परिवार के पास पैसे और राशन ख़त्म हो गये थे। जिस दिन मैंने फोन किया उस दिन सुबह से उन्होंने कुछ नहीं खाया था। दो दिनों से वे खुद भूखे रहकर बच्चों का पेट भरते थे।
मैंने जो 25-30 फोन इस दौरान किए उनमें से 80 प्रतिशत परिवारों के पास 200 रुपये से कम पैसे बचे थे। लगभग 90 प्रतिशत लोगों को सरकार द्वारा घोषित राशन नहीं मिला था। कुछ के पास राशन कार्ड नहीं है, तो कुछ के राशन कार्ड के आधार से न जुड़ा होने के कारण उन्हें राशन नहीं मिल रहा है। काफ़ी लोगों का राशन कार्ड उनके मूल राज्य का है उनको इस योजना से कोई राहत नहीं मिली है। इसके अलावा जो भी सरकारी हेल्पलाईन है या जो विविध राज्यों ने मोबाईल एप के ज़रिए सहायता राशि की घोषणा की है उनकी या तो इन्हें जानकारी नहीं है या जिन्हें जानकारी है वे उसका लाभ नहीं उठा सकते क्योंकि मदद के लिए जो शर्तें हैं उनको पूरा करना बहुत कठिन है। जैसे कि कई एप में उनको लोकेशन देनी पड़ती है जो वे स्मार्ट फोन बिना नहीं दे सकते। कई सरकारों की मदद के लिए उनका बैंक खाता उनके मूल राज्य में होना चाहिए। ऐसी कई समस्याओं के कारण वे सरकारी मदद पाने में असमर्थ हैं।
लगभग एक-दो को अपवाद छोड़कर बाकी सभी अपने गांव लौटना चाहते हैं। लॉकडाउन के कारण जिस नरकजन्य परिस्थिति में वे रह रहे हैं, शायद ही वे वापस लौटेंगे। मेरे अनुभव से मैं यही कह सकता हूं कि इन मज़दूरों को जो भी सहायता मिली है उसका बड़ा भाग या तो लोगों से या लोगों की सेवाभावी संस्थाओं से प्राप्त हुआ है। उन्हें सरकार से न के बराबर सहायता मिली है।
प्रसाद, मुंबई