हमारे पाठकों से : ठेका मज़दूर कोरोना महामारी से सबसे ज्यादा पीड़ित तबकों में एक

प्रिय संपादक महोदय,

संपूर्ण देश इस समय एक तरफ कोरोना वायरस से खौफज़दा है तो दूसरी ओर लॉकडाउन  होने के कारण करोड़ों मज़दूर आमदनी से वंचित हैं और इसका सीधा असर उन पर और उनके परिवार वालों पर पड़ रहा है। ठेका पद्धति पर काम करने वाले मज़दूर सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। मुंबई में 100 से ज्यादा कंक्रीट प्लांट हैं। प्रत्येक प्लांट में 50 से 100 ठेका मज़दूर काम करते हैं। नियमित कंपनी कर्मचारियों की संख्या केवल 5 से 10 होती है। इन तमाम कंक्रीट प्लांटों के ठेका मज़दूरों पर इसका बहुत असर पड़ा है। अधिकांश कंक्रीट प्लांट बड़ी सीमेंट कंपनियों द्वारा बड़े शहरों में और बड़ी परियोजनाओं के लिए लगाए गए हैं ।

ये बड़ी सीमेंट कम्पनियां मज़दूरों के संगठित होने के ख़तरे और अपने दायित्व से बचने के लिए ठेका पद्धति के द्वारा मज़दूरों से कार्य करवाती हैं। इस लॉकडाउन के दरम्यान कंपनी और ठेकेदार के बीच समझौतों में “फोर्स मेजर” धारा के तहत इन कंपनियों ने अपनी सारी जिम्मेदारियों से मुंह फेर लिया है। सैकड़ों मज़दूर अपने ठेकेदारों का दरवाज़ा खटखटा रहे हैं। कंपनियों ने ठेकेदारों के पैसे रोक दिए हैं और ठेकेदारों ने मज़दूरों के। ठेकेदार ने साफ-साफ कह दिया हैं वे सिर्फ उतने ही दिनों के लिए प्रतिबद्ध हैं जितने दिन उन्होंने कार्य किया है। देश की महामारी से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है। अभी तक उन्हें मार्च के महीने का वेतन नहीं मिला है और लॉकडाउन के एक भी दिन का वेतन देने से साफ-साफ मना कर दिया है। तमाम सैकड़ों ऑपरेटर, फिटर, चालक, क्लीनर दो महीनों की आमदनी से वंचित हैं ।

एक तरफ वेतन, अनाज का अभाव है तथा दूसरी तरफ मकान मालिक द्वारा किराये का दबाव और तंग कमरों की मानसिकता में रहकर दैनिक वेदनाएं। रेल तथा अन्य प्रवास बंद होने के कारण वे अपने मूल स्थान तक भी नहीं पहुंच सकते हैं। आमदनी और परिवहन के अभाव में मज़दूर हजारों किलोमीटर पैदल चलने के लिए विवश हैं। स्वयं देश के प्रधानमंत्री द्वारा मात्र चार घंटे पहले ही परिवहन बंद करने के घोषणास्वरूप लाखों मज़दूर नहीं निकल पाए।

इन बड़ी कंपनियों के कर्मचारियों के खुद के हालात भी ठीक नहीं हैं। प्रबंधन ने उनके वार्षिक वेतन वृद्धि को निरस्त कर दिया है। अप्रैल के वेतन को इन शर्तों पर देने की घोषणा की है कि कर्मचारियों द्वारा अर्जित की गयी “लीव” में सात दिन की कटौती की जाएगी। इस प्रकार प्रबंधन ने दसियों हजार कर्मचारियों के साथ ऐसा कर अपने आपको भविष्य के बहुत बड़े खर्च से बचा लिया है। प्लांटों के शुरुआत करने के पहले ही खर्च में 40 फीसदी कटौती की घोषणा कर दी गयी है। सेवाओं के दाम कम दिए जायेंगे और ठेकेदार मज़दूरों को काम से निकाल देंगे। कंपनियों के कर्मचारी भी इन हालातों से चिंतित हैं। ठेका मज़दूरों के अभाव में उनके कार्य का बोझ और घंटे दोनों ही बढ़ने वाले हैं। इस भयावह महामारी की स्थिति में किसी भी तरह उन्हें प्लांट तक पहुंचने की चेतावनी दी जा रही है भले ही परिस्थिति अनुकूल हो या न हो और परिवहन के साधन हों या न हों। कर्मचारियों को भय है कि यदि वे मना करते हैं तो प्रबंधन को उन्हें सेवाओं से निकालने का मौका मिल जाएगा।

तारीखें गवाह हैं और रहेंगी कि इन्हीं मज़दूरों की मेहनत और कौशल के द्वारा पैदा किये गए अतिरिक्त मूल्य के ज़रिये ही कंपनियों ने बेशुमार दौलत के ढेर पर अपने आपको बैठा रखा है। आज आलम यह है कि उन्हें न ही दो वक्त की रोटी नसीब है और न ही उनके मूल निवास तक की यात्राओं का प्रबंध किया जा रहा है। 1,70,000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज के शब्दजाल तो बनाये गए परन्तु महीनों बीतने के बाद भी अब तक 13 करोड़ परिवारों की भूख का कोई विकल्प सरकार ने नहीं निकाला है। हालांकि यह इतना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण कार्य नहीं है। सरकारी आंकड़ों ने स्वयं इसकी पुष्टि की है कि फूड कारपोरेशन ऑफ इंडिया में 5 करोड़ टन गेहूं और चावल उपलब्ध हैं। एफ.सी.आई. एक सरकारी इकाई है और आज वक्त की मांग है कि उसके दरवाजे खोल दिए जाने चाहिए।

रमेश, ठाणे

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