सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में संकट और बैंक कर्मचारियों की हालतें

आल इंडिया बैंक एम्प्लाइज एसोसिएशन (ए.आई.बी.ई.ए.) के सह सचिव, कामरेड देविदास आर. तुल्जापुरकर (डी.आर.टी.) ने मज़दूर एकता लहर (म.ए.ल.) के संवाददाता के साथ, बैंक कर्मचारियों की हालतों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के संकट के बारे में बातचीत की। वार्तालाप को यहां प्रकाशित किया जा रहा है।

म.ए.ल.: कोरोना वयारस के खि़लाफ़ देशव्यापी लड़ाई में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारी अगुवा भूमिका निभा रहे हैं। बैंक कर्मचारियों को आजकल किन हालतों में काम करना पड़ रहा है, इसके बारे में बताएं।

डी.आर.टी.: बैंकिंग आज एक आवश्यक सेवा मानी जाती है। समाज के ग़रीब तबके के लिए सरकारी योजनाओं को लागू करने में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की अहम भूमिका होती है। इसलिए, वर्तमान लॉक डाउन के दौरान भी सरकार ने बैंकिंग सेवाओं को जारी रखा है। मेट्रो शहरों में सार्वजनिक परिवहन सेवाएं बंद हैं, परन्तु बैंक कर्मचारियों को रोज़ काम पर पहुंचने का आदेश दिया गया है। इसमें कर्मचारियों को बहुत सारी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। गांवों और छोटे शहरों में ग्राहकों की इतनी भीड़ होती है कि निर्धारित दूरी बनाये रखना असंभव हो रहा है। बैंक कर्मचारियों को अपनी जान को जोखिम में डालकर काम करना पड़ रहा है, परन्तु आज तक उन्हें जीवन बीमा कवरेज़ नहीं दिया गया है, जिस तरह स्वास्थ्य कर्मियों को दिया गया है।

हमारे अधिकतम बैंकों में पहले से ही कर्मचारियों की संख्या बहुत कम कर दी गयी थी। सफाई कर्मियों, सिक्यूरिटी गार्ड और कई सहायक स्टाफ के पदों में बीते कई वर्षों से कोई भर्ती नहीं हुयी है। यह बैंकों के नुकसानों को घटा कर उन्हें मुनाफ़ाकारी बनाने की रणनीति के तहत, प्रशासनिक खर्चे को कम करने के नाम पर किया गया है। इसकी वजह से, बुनियादी बैंकिंग सेवाओं का बहुत बुरा हाल है। मौजूदा कर्मचारियों पर काम का बोझ बहुत बढ़ गया है। खास कर इस संकट की घड़ी में यह बोझ ज्यादा ही महसूस हो रहा है।

म.ए.ल.: बैंकिंग क्षेत्र की वर्तमान स्थिति के बारे में समझाइए।

डी.आर.टी.: कोरोना महामारी से पहले भी बैंकिंग क्षेत्र संकट के दौर से गुजर रहा था। संकट की मुख्य वजह है बड़ी-बड़ी कंपनियों के न चुकाए गए कर्जे़। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा दिए गए उधारों का लगभग 55 प्रतिशत बड़ी-बड़ी कंपनियों के पास है। इनमें से 80 प्रतिशत नहीं चुकाए गए हैं। बीते पांच सालों में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने लगभग 6 लाख करोड़ रूपए के कर्ज़े माफ़ कर दिए हैं। न चुकाए कर्ज़ों के इस बढ़ते बोझ के कारण, बैंकिंग क्षेत्र में पूंजी की भारी कमी है। बीते पांच सालों में, सरकार ने बजट से लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपए बैंकिंग क्षेत्र में डाले हैं। यह पैसा लोगों से टैक्स वसूली करके सरकार को प्राप्त होता है। तो एक तरफ, कॉर्पोरेट घराने अपने कर्ज़े नहीं चुकाते हैं, और दूसरी तरफ, सरकार उन कॉर्पोरेट घरानों के नुकसानों की भरपाई करने और बैंकों में पूंजी भरने के लिए लोगों से और ज्यादा टैक्स वसूलती है। इसके बावजूद, बैंकों में पूंजी की कमी है। इस पर काबू पाने की कोशिश में, केंद्र सरकार ने दिवालियापन कानून (इन्सोल्वेंसी एंड बैंकरपटसी एक्ट) को लागू किया। परन्तु इसकी वजह से, 55 प्रतिशत न चुकाए गए कर्ज़ों का भार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को उठाना पड़ रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का नाश करके, बड़े कॉर्पोरेट घरानों को फायदा पहुंचाया जा रहा है। अब लगभग सभी बैंकों ने उधार देने बंद कर दिये हैं और लोगों के पैसे जमा करने में भी रुचि नहीं ले रहे हैं। मुद्रा लोन के अलावा, हर दूसरे धंधे में बैंकों में नुक्सान हो रहा है। मुद्रा लोन के ज़रिये, सत्तारूढ़ भाजपा सरकार लोगों का समर्थन पाने की कोशिश करती है। वास्तव में, भाजपा सरकार बड़े कॉर्पोरेट घरानों की अगुवाई में पूंजीपति हुक्मरान वर्ग के हितों के लिए काम कर रही है।

अब कोरोना महामारी के चलते, बैंकिंग लगभग ठप्प हो गया है। केंद्र सरकार ने किसानों और ग़रीब तबकों के लिए कुछ पैकेज घोषित किये हैं, जिन्हें बैंकों के ज़रिये लोगों को मुहैया कराये जायेंगे। जन धन खातों में जो 500 रुपये दिए जा रहे हैं, वह बहुत कम है और उससे रोज़गार खोने वालों का गुजारा नहीं होने वाला है। दूसरी और, बैंकिंग क्षेत्र के नियामक, भारतीय रिज़र्व बैंक, ने बड़े कॉर्पोरेट घरानों को बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज़ों का ब्याज दर घटाने और न चुकाए गए कर्ज़ों के मानदंडों में ढील देने के कुछ क़दम घोषित किये हैं। इन क़दमों से न चुकाए गए कर्ज़ों की समस्या और बढ़ेगी। इसके अलावा, इन क़दमों से कुछ फायदा तभी होगा जब बाज़ार में पुनर्जागरण होगा, जिसके लिए जनता की क्रय शक्ति को बढ़ाना होगा। परन्तु वर्तमान संकट के चलते, रोज़गार घट रहे हैं, वेतन घट रहे हैं, और जनता की क्रय शक्ति के बढ़ने की कोई उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसलिए यह संकट और बढ़ेगा।

जो भी सरकार केंद्र में आती है, वह चीख-चीख कर कहती है कि सार्वजनकि क्षेत्र के बैंकों को मुनाफ़ा बनाने पर ध्यान देना चाहिए। इसके साथ-साथ, सरकार देशी-विदेशी निजी इजारेदार घरानों के लिए बैंकिंग क्षेत्र को खोलती जा रही है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलयन करके विशाल बैंक बनाये जा रहे हैं, ताकि बड़े कॉर्पोरेट घरानों को और ज्यादा उधार दिए जा सकें। 3 अप्रैल को 10 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलयन करके 4 बड़े बैंक बनाये गए। कई बैंक शाखाएं बंद हो रही हैं। इसके चलते, जनता के जमा किये गए धन के सुरक्षाकर्ता बतौर और ज़रूरतमंद लोगों के धन की ज़रूरतों के आपूर्तिकर्ता बतौर बैंकों की भूमिका को पांव तले रौंद  दिया जा रहा है। बड़े कॉर्पोरेट घरानों को जनता का जमा किया हुआ धन सस्ते दर पर मिल जायेगा, जब कि ज़रूरतमंदों के लिए भारी गिरवी की शर्तें डालकर, बैंक से धन पाना और मुश्किल बना दिया जायेगा।

आज ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी आदि जैसे मौलिक मुद्दों को लेकर, दुनिया भर में लोगों की बहुत बड़ी बग़ावत होने की संभावना है। वर्तमान संकट के चलते, लोग सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की मांग को लेकर एकजुट हो जायेंगे। हमारे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी बहुत ही साफ-साफ नज़र आती है। पर्यावरण के मुद्दों को लेकर भी बहुत लोग सक्रिय होंगे।

चाहे कांग्रेस पार्टी की सरकार हो या भाजपा की, सब के द्वारा अपनाई गयी निजीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीति फेल हो चुकी है। आज यह पहले से कहीं ज्यादा स्पष्ट हो गया है कि समस्या का समाधान निजीकरण नहीं, बल्कि उत्पादन के साधनों और बैंकिंग सेवाओं पर सामाजिक नियंत्रण है। यह परिवर्तन लाना बेहद ज़रूरी है, ताकि समाज के सभी सदस्यों और खासकर मेहनतकशों का कल्याण हो सके।

पूंजीवाद अपना जीवन काल बढ़ाने के लिए इधर-उधर कुछ न कुछ समझौता करने की कोशिश करेगा। पूंजीवाद सभी देशों की अर्थव्यवस्थाओं पर नियंत्रण करने के लिए, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, आई.एफ.सी., विश्व व्यापार संगठन, आदि के ज़रिये अपना काम करेगा। सारी दुनिया में सिर्फ मज़दूर वर्ग और जन आन्दोलन ही इसे रोक सकते हैं।

म.ए.ल.: इस जानकारीपूर्ण और रोचक वार्तालाप के लिए बहुत, बहुत धन्यवाद!

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