विधान सभा चुनावों के नतीजे क्या दिखाते हैं?

पश्चिम बंगाल, तामिलनाडु, केरल, असम और पुदुचेरी विधान सभाओं के चुनावों के नतीजे आ गये हैं। मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और दूसरे मेहनतकशों के, अपने जीवन की बिगड़ती हालतों के खिलाफ़ बढ़ते गुस्से और आक्रोश की पृष्ठभूमि में ये चुनाव हुये। रोजगार की बढ़ती असुरक्षा, मजदूरों के अधिकारों पर हमले, हिन्दोस्तानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अमीरी बढ़ाने के लिये सरकारों द्

पश्चिम बंगाल, तामिलनाडु, केरल, असम और पुदुचेरी विधान सभाओं के चुनावों के नतीजे आ गये हैं। मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों और दूसरे मेहनतकशों के, अपने जीवन की बिगड़ती हालतों के खिलाफ़ बढ़ते गुस्से और आक्रोश की पृष्ठभूमि में ये चुनाव हुये। रोजगार की बढ़ती असुरक्षा, मजदूरों के अधिकारों पर हमले, हिन्दोस्तानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अमीरी बढ़ाने के लिये सरकारों द्वारा किसानों और आदिवासियों की ज़मीनों का बलपूर्वक अधिग्रहण, बढ़ता भ्रष्टाचार और नेताओं तथा बड़े पूंजीपतियों द्वारा बेशर्मी से जनता के धन की लूट, तथा जनता के प्रतिरोध संघर्षों को कुचलने के लिये राजकीय आतंकवाद का प्रयोग – इन सब की वजह से, पूरे देश में लोग आंदोलित हैं।

हम कम्युनिस्ट चुनावों और उनके नतीजों को मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय के नज़रिये से देखते हैं। शासक वर्ग, यानि बड़े पूंजीपतियों ने लोगों के सामने क्या कार्यक्रम रखा? पूंजीपितयों ने उदारीकरण और निजीकरण के ज़रिये भूमंडलीकरण का कार्यक्रम रखा। यह सबसे बड़े पूंजीपितयों को और अमीर बनाने का कार्यक्रम है, ताकि वे हमारी जनता के श्रम और संसाधनों के अधिकतम शोषण के ज़रिये विश्व स्तरीय खिलाड़ी बन सकें। तरह-तरह के आकर्षक नामों और नारों के साथ आगे आयी विभिन्न प्रतिस्पर्धी पार्टियों व गठबंधनों द्वारा यही कार्यक्रम पेश किया जाता है। इन विभिन्न राजनीतिक पार्टियों और मीडिया के ज़रिये पूंजीपति इस कार्यक्रम को एकमात्र मुमकिन कार्यक्रम बतौर पेश करते हैं।

हम कम्युनिस्टों ने पूंजीपतियों के इस कार्यक्रम और अजेंडे को खुलेआम चुनौती दी है। पूंजीपतियों के कार्यक्रम के खिलाफ़, हमने मजूदर वर्ग के कार्यक्रम को पेश किया। मजदूर वर्ग का कार्यक्रम है हिन्दोस्तानी संघ और लोकतंत्र का पुनर्गठन करना, ताकि देश के मजदूर और किसान, सभी राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं के लोग हिन्दोस्तन के हुक्मरान बनें और खुद अपना भविष्य तय करने की ताकत से लैस हों। हमने इस बात का स्पष्टीकरण किया कि बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र की व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है कि पूंजीपतियों का ही राज चलता रहेगा और मेहनतकशों पर पूंजीपतियों का ही कार्यक्रम थोपा जायेगा, चाहे कोई भी पार्टी व गठबंधन सत्ता में आये। हमने मजदूरों, किसानों और सभी मेहनतकशों को सत्ता में लाने के वैकल्पिक कार्यक्रम और ज़रूरी तंत्रों को पेश किया, तथा लोगों को सत्ता में लाने की इच्छा रखने वाले सभी से, खासतौर पर खुद को कम्युनिस्ट कहलाने वालों से यह कार्यक्रम अपनाने का आह्वान किया। पूंजीपतियों के कार्यक्रम के खिलाफ़ संघर्ष के नज़रिये से, हमने माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) की पूंजीपति वर्ग के साथ समझौता करने वाली लाइन का पर्दाफाश और विरोध किया। हमने यह समझाया कि माकपा और उसका वाममोर्चा मजदूर वर्ग के खिलाफ़, पूंजीपति वर्ग के कार्यक्रम को लागू करने में मदद दे रहे हैं।

चुनाव अभियान के दौरान हमारे कामरेडों की कार्यवाहियों की वजह से पूरे देश के अलग-अलग इलाकों में हजारों-हजारों लोगों को इस कार्यक्रम से अवगत कराया गया।

जनता के गुस्से को ठण्डा करने के लिये पूंजीपतियों ने सरकारें बदलीं

इन चुनावों से क्या देखने में आता है? यही कि पूंजीपति फिर से मेहनतकश जनसमुदाय के असंतोष को ठण्डा करने के लिये बहुत ज्यादा बदनाम हो चुकी सरकारों को बदलकर, उनकी जगह पर कुछ और पार्टियों व गठबंधनों को ले आये हैं, जो नये नारों के साथ उसी पुराने कार्यक्रम को लागू करते रहेंगे। पूंजीपतियों का कार्यक्रम पहले से ही पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार द्वारा, केरल में वाम और जनतांत्रिक मोर्चे द्वारा, तामिलनाडु में द्रमुक सरकार द्वारा और असम तथा पुदुचेरी में कांग्रेस पार्टी सरकारों द्वारा लागू किया जा रहा था। अब वही कार्यक्रम पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस द्वारा, तामिलनाडु और पुदुचेरी में अन्नाद्रमुक द्वारा और केरल तथा असम में कांग्रेस पार्टी द्वारा लागू किया जायेगा।

पूंजीपतियों का कार्यक्रम लागू करते हुये, यह नयी सरकारें दावा करेंगी कि उन्हें ऐसा करने के लिये “जनादेश प्राप्त है” । परन्तु सच्चाई तो यह है कि उन्हें शासक पूंजीपति वर्ग का आदेश प्राप्त है, जनादेश नहीं। बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र की इस व्यवस्था में शासक वर्ग की इस या उस पार्टी या गठबंधन को वोट देकर सत्ता में लाने के सिवाय मजदूरों और किसानों के पास कोई और चारा नहीं है। मतदान हो जाने के बाद नयी सरकार क्या करती है या चुने गये प्रतिनिधि क्या करते हैं, इस पर जनता का कोई नियंत्रण नहीं होता। चुनावों के नतीजों को निर्धारित करने के लिये पूंजीपति अपने हितों में काम करने वाली अलग-अलग स्पर्धाकारी पार्टियों के जरिये तथा अपने नियंत्रण में मीडिया के जरिये जनता के मत के साथ बड़े पैमाने पर दांवपेंच करते हैं। परन्तु इस सच्चाई को छिपाया जाता है और यह झूठा प्रचार फैलाया जाता है कि “जनता ने चुनाव के नतीजों को निर्धारित किया है” ।

इस काम में पूंजीपतियों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) जैसी पार्टियों से मदद मिलती है। ये पार्टियां पूंजीपतियों के प्रचार को विश्वसनीयता दिलाती हैं। ये पार्टियां व्यवस्था पर निशाना न साध कर, इस या उस पार्टी या गठबंधन को “ज्यादा बुरा” बताती हैं और किसी “कम बुरी” पार्टी या गठबंधन के पक्ष में प्रचार करती हैं। इन चुनावों में भाकपा और माकपा ने तामिलनाडु में अन्नाद्रमुक गठबंधन को बढ़ावा दिया, जिसमें वे खुद भी शामिल थे। इन पार्टियों ने न तो बहुपार्टीवादी संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था का पर्दाफाश किया, और न ही मजदूर वर्ग की राज्य सत्ता का विकल्प पेश किया। इसके बजाय इन्होंने पूंजीपतियों के प्रचार को पूरा समर्थन दिया कि चुनावों के जरिये, एक पूंजीवादी पार्टी या गठबंधन की जगह पर दूसरे को लाकर मेहनतकश जनसमुदाय के हितों की रक्षा हो सकती है।

हम कम्युनिस्टों को लोगों के सामने यह स्पष्ट करना होगा कि ये सभी नयी सरकारें पूंजीपतियों के उसी कार्यक्रम को लागू करती रहेंगी जो अब तक लागू हो रहा था। हमें भाकपा और माकपा के झूठे प्रचार का पर्दाफाश करना होगा, जो चुनावों को मेहनतकश जनसमुदाय की “हार” या “जीत” बताती हैं। चुनावों में पूंजीपतियों की खास राजनीतिक पार्टियों की हार या जीत होती है। परन्तु मेहनतकश लोगों के लिये चुनावों में न तो जीत है और न ही हार। मजदूर वर्ग को अपने कार्यक्रम के लिये संघर्ष जारी रखना होगा – हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के लिये, एक ऐसे हिन्दोस्तान के लिये जिसमें मेहनतकश लोग खुद अपना भविष्य तय करेंगे।

पश्चिम बंगाल में चुनावों के नतीजों का महत्व

पश्चिम बंगाल में चुनावों के नतीजों पर विशेष ध्यान देना होगा क्योंकि इसमें कम्युनिस्टों के लिये कुछ अहम सबक हैं।

जैसी कि उम्मीद थी, तृणमूल कांग्रेस-कांग्रेस पार्टी गठबंधन की जीत और वाममोर्चा सरकार की भारी हार हुई। 34वर्ष तक लगातार पश्चिम बंगाल में सत्ता में होने के बाद, यह माकपा और उसके मित्र दलों के लिये बहुत बड़ी हार है। माकपा नीत मोर्चे के शासन के चलते, मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, नौजवानों और दूसरे मेहनतकशों के बीच असंतोष बढ़ता जा रहा था। लोगों के जज़बातों को कुचल दिया जा रहा था। बंगाल में पूंजी निवेश को प्रोत्साहित करने के नाम पर मजदूरों के संघर्षों को कुचल दिया जा रहा था। वाम मोर्चा शासन के प्रथम 10वर्षों में किये गये भूमि सुधारों की वजह से भूमि हीन किसानों और बंटाईदारों को छोटी-छोटी जमीन की टुकडि़यां दी गयीं परन्तु उसके बाद किसानों की हालतों में कोई उन्नति नहीं हुई और उनकी रोजी-रोटी बहुत खतरनाक हालत में थी।

अमीर किसानों के हितों को पूरा करने के लिये माकपा ने दसों-लाखों कृषि मजदूरों को संगठित करने से इंकार किया। प्रांतीय पूंजीपतियों के हितों के खातिर माकपा ने छोटे उद्योग और सेवाओं में काम कर रहे दसों-लाखों मजदूरों को संगठित करने से इंकार किया। इसके अलावा, 90 के दशक से माकपा और स्पष्ट रूप से बड़े पूंजीपतियों की पार्टी बतौर आगे आने लगी। वह पश्चिम बंगाल की भूमि, श्रम और संसाधनों का शोषण करने के लिये सबसे बड़े हिन्दोस्तानी और विदेशी पूंजीपतियों को अच्छे से अच्छे हालातों की गारंटी देने लगी। नंदीग्राम, सिंगुर और लालगढ़ की घटनाओं ने एक तरफ मजदूरों, किसानों और आदिवासियों तथा दूसरी तरफ पूंजीपतियों व उनकी वाम मोर्चा सरकार के बीच अन्तर विरोधों को खोलकर सामने रख दिया।

पश्चिम बंगाल में सत्ता में होने के आधार पर तथा पूरे देश में मजदूर वर्ग के संघर्षों को पूंजीपतियों की जरूरतों के अनुसार सीमाबद्ध रखकर, 34 वर्षों तक माकपा ने राष्ट्रीय मंच पर अपना असर जमाया। मजदूरों और किसानों के संघर्षों को शक्तिहीन बनाने की अपनी इस क्षमता के आधार पर पूंजीपतियों के साथ सौदा करके माकपा इतने वर्षों तक लगातार पश्चिम बंगाल में सत्ता में टिकी रही। परन्तु इसी भूमिका की वजह से वह जनता की नजरों में बदनाम हो गयी।

पश्चिम बंगाल में हारने के बाद माकपा और वाम मोर्चे के उसके मित्र दल संकट में हैं। पार्टी के अन्दर से तथा बाहर पूंजीपतियों से माकपा पर बहुत दबाव है कि वह मेहनतकश जनसमुदाय के हितों के साथ विश्वासघात करने के रास्ते पर और आगे बढ़ती जाये। भविष्य में सत्ता में वापस लाये जाने की शर्त बतौर, माकपा पर यह दबाव डाला जा रहा है कि वह उदारीकरण और निजीकरण के जरिये भूमंडलीकरण का किसी भी प्रकार से विरोध करना बंद कर दे।

माकपा के वक्ता यह ऐलान कर रहे हैं कि चूंकि वे अब सत्ता में नहीं हैं, इसलिये वे “जिम्मेदार विपक्ष पार्टी” की भूमिका निभायेंगे। पूंजीपति ऐसी पार्टी को “जिम्मेदार विपक्ष पार्टी” मानते हैं जो संसदीय लोकतंत्र के नियमों के अनुसार काम करती है। वह संसद से बाहर आंदोलन चलाती है और मेहनतकश जनसमुदाय जो सुनना चाहते हैं वही कहती है। अगले चुनावों तक इंतजार करके वह जनता को बुद्धू बनाने तथा पूंजीपतियों का कार्यक्रम लागू करने के लिये बेहतर विकल्प के रूप में पूंजीपतियों के सामने खुद को पेश करती है। सभी पूंजीवादी पार्टियां हमेशा ऐसा ही करती हैं और माकपा भी इनसे भिन्न नहीं है। क्रान्ति “जिम्मेदार विपक्ष पार्टी” के दायरे से बाहर है। पर क्रान्ति तो कभी माकपा के कार्यक्रम में शामिल थी ही नहीं।

माकपा के अन्दर घोर असंतोष फैला हुआ है। माकपा के अधिक से अधिक मजदूर वर्ग और मेहनतकश किसान कार्यकर्ता व समर्थक इस पार्टी के भ्रष्ट, गुटों से भरपूर, पूंजीपति परस्त चरित्र को समझ रहे हैं। पार्टी के अन्दर विभिन्न स्तरों पर खुलेआम गुटवादी लड़ाई चल रही है, जो चुनावी हार के बाद और तेज़ होगी। आपस में लड़ने वाले गुटों में से कोई भी गुट मार्क्सवादी-लेनिनवादी नहीं हैं।

जो मजदूर, किसान और प्रगतिशील बुद्धिजीवी इस भ्रम में रहे हैं कि माकपा उनके हितों की रक्षा करती है, उन्हें सच्चाई बतानी पड़ेगी। ये मजदूर, किसान और प्रगतिशील बुद्धिजीवी सच्चे कम्युनिस्ट विकल्प की तलाश में हैं।

हमें संसदीय लोकतंत्र की पूजा करने वालों का जमकर पर्दाफाश करना होगा क्योंकि वे पूंजीपतियों की सेवा में काम करते हैं। हमें मजदूर वर्ग के हाथों में राज्य सत्ता और हिन्दोस्तान के नवनिर्माण के वैकल्पिक कार्यक्रम के इर्द-गिर्द मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय की एकता बनाने का काम तेजी से आगे बढ़ाना होगा।

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