वर्तमान लोकतंत्र के अंदर जो पार्टी खुद सत्ता में आना चाहती है, वह अनिवार्यतः इजारेदार पूंजीपतियों के हितों की सेवा करेगी
पश्चिम बंगाल में चल रहे विधान सभा चुनावों के परिणाम चाहे कुछ भी हों, सच्चाई तो यह है कि वहां की तथाकथित मार्क्सवादी सरकार जो दावा करती रही है, उसका बिलकुल उल्टा साबित हो चुकी है।
वर्तमान लोकतंत्र के अंदर जो पार्टी खुद सत्ता में आना चाहती है, वह अनिवार्यतः इजारेदार पूंजीपतियों के हितों की सेवा करेगी
पश्चिम बंगाल में चल रहे विधान सभा चुनावों के परिणाम चाहे कुछ भी हों, सच्चाई तो यह है कि वहां की तथाकथित मार्क्सवादी सरकार जो दावा करती रही है, उसका बिलकुल उल्टा साबित हो चुकी है।
जब यह सरकार एक वाम मोर्चे की अगुवाई करती हुई सत्ता में आई थी, तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने ऐलान किया था कि वाम मोर्चा शासन का मकसद है “लोगों को तत्कालीन राहत दिलाना, उन्हें पार्टी के मूल लक्ष्य के बारे में शिक्षित करना, एक कम्युनिस्ट पार्टी और पूंजीवादी-जमीन्दार पार्टियों के बीच अंतर को अमली तौर पर स्पष्ट करना, और इस तरह मेहनतकशों के क्रांतिकारी आन्दोलन को बढ़ावा देना”।
परन्तु तथ्यों से पता चलता है कि माकपा नीत वाम मोर्चा सरकार पूंजीपतियों के हित में वर्ग अन्तर्विरोधों को हल करने तथा मजदूरों और किसानों के विरोध संघर्षों को बलपूर्वक कुचलने का साधन रही है।
उद्योग के सबसे बड़े क्षत्रों में दसों-हजारों मजदूर माकपा नीत ट्रेड यूनियन सी.आई.टी.यू. से संबंधित यूनियनों में संगठित हैं। इस तरह मजदूर वर्ग को यह उम्मीद दिलाई गई है कि ‘मजदूर परस्त’ सरकार उनके हितों की देखभाल करेगी और मजदूर वर्ग को निहत्था और निष्क्रिय कर दिया गया है।
यूनियनों में संगठित मजदूरों के कुछ तबकों, जैसे कि सरकारी कर्मचारियों की वफादारी जनता को पैसे से आवंटित किये गये आर्थिक लाभों से खरीदी गई, पर निजी क्षेत्र के लाखों-लाखों मजदूरों के यूनियनों को ‘नक्सलवादी’ या ‘उग्रवादी’ करार कर उन पर हमला किया गया है। पूंजीपतियों को इस बात से बहुत खुशी है कि वाम मोर्चा शासन की अवधि में मजदूर वर्ग की हड़तालें काफी कम हो गईं, जब कि मजदूरों को ज्यादा से ज्यादा तालाबंदी और छटनी का सामना करना पड़ा है।
एक कम्युनिस्ट पार्टी का काम है मजदूर वर्ग को शासन करने के काबिल बनाना, परन्तु माकपा ने लगातार 34वर्षों तक खुद को सत्ता में रखने की कला में कुशलता प्राप्त कर ली है। इस दौरान पश्चिम बंगाल के मजदूरों को बढ़ते शोषण का सामना करना पड़ा है। माकपा ने राज्य के सभी संस्थानों तथा सरकारी विश्वविद्यालयों, खेलकूद व सांस्कृतिक संस्थानों आदि में भी अपना गढ़ जमा लिया है और इस तरह अनेक लोगों को शासक पार्टी के वफादार समर्थक बनाने के लिये उन्हें तरह-तरह के लुभावने मौके देती आयी है।
70 के दशक के अंतिम सालों तथा 80 के दशक के दौरान माकपा ने पश्चिम बंगाल में अमीर किसानों, ठेकेदारों, धान मिलों के मालिकों और दूसरे स्थानीय संपत्तिवान हितों की सेवा करके तथा गरीब किसान परिवारों को छोटी-छोटी जमीन की टुकडि़यां निजी संपत्ति बतौर दिलाकर, वहां के राज्य और समाज पर अपनी पकड़ को मजबूत कर लिया। माकपा ने ग्रामीण खेत मजदूरों और दूसरे मजदूरों को संगठित करने से इंकार कर दिया यह बहाना देकर कि ग्रामीण मजदूरों के वेतन बढ़ने से गरीब किसानों को नुकसान होगा। हकीक़त यह है कि ग्रामीण बंगाल में मजदूरों के वेतन इतने कम होने की वजह से अमीर किसानों के छोटे तबके को तथा पूंजीपति वर्ग को लाभ हुआ है।
माकपा नीत वाम मोर्चे के शासन में पश्चिम बंगाल के अनुभव से कृषि समस्या को हल करने के पूंजीवादी तरीके की कमियां स्पष्ट हो गयी हैं। निजी संपत्ति को मजबूत करने और पूंजीवादी बाजार के लिये चीजों के उत्पादन को विस्तृत करने के इरादे से किये गये भूमि सुधारों से किसानों को रोजगार की असुरक्षा और बेहद गरीबी से मुक्ति नहीं मिली है।
जीवन के अनुभव ने यह साबित कर दिया है कि छोटी-छोटी ज़मीन की टुकडि़यों की मालिकी और कानून से सुरक्षित निजी जायदाद के अधिकार से गरीब और मंझोले किसानों को रोजगार की सुरक्षा नहीं मिल सकती है, जब उन्हें बड़ी-बड़ी इजारेदार पूंजीवादी कंपनियों की प्रधानता वाले विश्व बाजार का ज्यादा से ज्यादा सामना करना पड़ता है। माकपा और वाम मोर्चे ने किसानों के खेतों के सामूहिकीकरण की दिशा में कोई कदम नहीं लिया, न ही उन्होंने बड़े-बड़े पूंजीपतियों पर निर्भर किये बिना, सामाजिक हित के लिये सुनियोजित औद्योगिकीकरण का कोई कदम लिया।
80 के दशक तक माकपा अमीर किसानों और दूसरे प्रांतीय संपत्तिवान हितों की पार्टी बतौर उभर कर आयी और 90 के दशक से वह मजदूरों और किसानों के हितों के बिलकुल खिलाफ़, इजारेदार पूंजीपतियों की अमीरी बढ़ाने वाले ‘सुधारों’ की हिमायत करने वाली पार्टी बन कर आगे आयी है। 90 के दशक में जब चारों ओर कम्युनिस्टों के खिलाफ़ हमला चल रहा था, तब उन हालतों में माकपा और उसके वाम मोर्चें ने सत्ता में टिके रहने के लिये, इजारेदार पूंजीपतियों की मांगें पूरी करने की जरूरत से कहीं ज्यादा कोशिशें कीं।
पश्चिम बंगाल में पूंजी निवेश करने के लिये बड़े-बड़े पूंजीपतियों को आकर्षित करने में दूसरी राज्य सरकारों के साथ स्पर्धा करती हुई, बुद्धदेव भट्टाचार्य की अगुवाई में सरकार ने मजदूरों और किसानों के अधिकारों को कुचल दिया है। उसने ऐलान किया है कि आई.टी. क्षेत्र के मजदूरों को बहुत ऊंचा वेतन मिलता है, इसीलिये उन्हें यूनियन बनाने या हड़ताल करने का अधिकार नहीं मिलना चाहिये। उसने हिन्दोस्तानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सस्ते दाम पर जमीन दिलाने का वादा किया है और नंदीग्राम, सिंगुर तथा लालगढ़ में किसानों की जमीन हड़पने के लिये क्रूर बल प्रयोग किया है।
पश्चिम बंगाल में माकपा का शासन जिस रूप से विकसित हुआ है, उससे यह स्पष्ट होता है कि जो पार्टी वर्तमान पूंजीवादी लोकतंत्र की व्यवस्था के अंदर खुद सत्ता में रहना चाहती है, वह अनिवार्यतः इजारेदार कंपनियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग के हितों की सेवा ही करेगी।
माकपा नीत वाम मोर्चे के 34 वर्षीय शासन काल से न तो पश्चिम बंगाल में और न ही पूरे देश में ”मेहनतकश लोगों के क्रान्तिकारी आंदोलन को बढ़ावा“ मिला है। बल्कि इस दौरान कम्युनिज़्म को बदनाम किया गया है और उस पर हमला करने वाले पूंजीपति तत्वों को एक हथकंडा मिल गया है।
चुनाव के बाद चाहे कोई भी पार्टी या गठबंधन सत्ता में आये, सच्चाई तो यह है कि पश्चिम बंगाल में मजदूर वर्ग और कम्युनिस्ट आंदोलन तभी फिर से आगे बढ़ सकता है जब माकपा की पूंजीपतियों से समझौता करने की लाईन से निश्चयात्मक रूप से नाता नहीं तोड़ दिया जायेगा।