काम से हफ़्ते में एक दिन की छुट्टी के संघर्ष का इतिहास

हमारे देश के विकास-लक्ष्यों में योगदान देने के नाम पर, हाल ही में कुछ जाने-माने उद्योगपति, मज़दूरों के लिए 70 घंटे और यहां तक कि 90 घंटे तक का लंबा कार्य-सप्ताह निर्धारित करने की सिफ़ारिश कर रहे हैं। वे इस हक़ीक़त की अनदेखी कर रहे हैं कि सप्ताह में एक दिन आराम के साथ 8 घंटे प्रतिदिन काम का समय, देश का का़नून है। यह बहुत ज़रूरी है कि पूंजीपतियों को इस तरह की बयानबाजी करने की किसी भी क़ीमत पर अनुमति न दी जाये। हम सबको आज अपने देश के मज़दूरों के एक बहादुर संघर्ष के इतिहास को याद करने का अवसर है – इस संघर्ष के माध्यम से ही, हिन्दोस्तान के मज़दूर वर्ग ने इस क़ानून को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी।

File_photo_Mumbai_Textile_strike10 जून, 1890 को मुंबई के मिल मज़दूरों ने एक ऐतिहासिक जीत दर्ज़ की थी। उन्होंने, उस समय के मिल मालिक यूनियन को एक दिन की छुट्टी की अपनी मांग को मंजूरी देने के लिए मजबूर कर दिया था। उस दिन, रविवार को साप्ताहिक अवकाश की मांग को आधिकारिक तौर पर मान्यता दी गयी थी। यह सफलता, 1884 से चले आ रहे मज़दूरों के लगातार संघर्ष का नतीजा थी।

तब तक, हिन्दोस्तान के मज़दूर, सप्ताह में सातों दिन काम करते थे। उस समय की फैक्ट्री इंस्पेक्टर रिपोर्ट के अनुसार, मज़दूर, दोपहर के भोजन के अवकाश के बिना, दिन में 15 घंटे से अधिक काम करते थे, अक्सर फैक्ट्री के फर्श पर बैठ कर ही, काम करते हुए ड्यूटी के दौरान ही खाना खाते थे। मिलें बहुत ही छोटी और बहुत कम जगह-वाली हुआ करती थीं, हवदार भी नहीं होती थीं और दम घुटने वाली हालतों में उन्हें काम करना पड़ता था। वे सप्ताह के हर दिन बिना अवकाश के 15 घंटे काम करते थे।

बेहतर काम करने की हालतों को मुहैया कराने के लिए मज़दूरों का संघर्ष 1884 में तेज़ होना शुरू हुआ। 1851-61 के दशक के दौरान, बॉम्बे की कपड़ा मिलों में काम करने वाले मज़दूरों की संख्या बहुत ही तेज़ी से बढ़ गयी। 1871-72 और 1876-77 के भयंकर सूखे के कारण, बड़े पैमाने पर लोगों को मुंबई की ओर पलायन करना पड़ा। 1871 तक उस समय की 10 मिलों में 8,000 से ज्यादा मज़दूर काम कर रहे थे। अगले 25 सालों में यह आंकड़ा, 71 मिलों में काम कर रहे 78,000 मज़दूरों तक, पहुंच गया।

लेकिन इन मज़दूरों के लिए ज़िन्दगी आसान नहीं थी। 1884 में बॉम्बे मिल हैंड्स एसोसिएशन के नेतृत्व में मज़दूरों ने अपनी आवाज़ बुलंद करनी शुरू की और उन्होंने यह मांग बुलंद की कि उन्हें जिन हालतों में काम करने के लिए मजबूर किया जा रहा था, उससे उन्हें हफ़्ते में कम से कम एक दिन की छुट्टी मिले। मिल-मालिकों ने यह कहते हुए उनकी मांग को ख़ारिज़ कर दिया कि मज़दूर पहले से ही त्योहारों के दौरान छुट्टी लेते हैं और महिलाएं अपने मासिक धर्म के दौरान छुट्टी लेती हैं। लेकिन मज़दूरों ने अपना संघर्ष वापस लेने से इनकार कर दिया। देश के मज़दूरों के लंबे और अथक संघर्ष का नतीजा था कि मुबई देश का पहला औद्योगिक शहर बना जहां पर मज़दूरों को हफ्ते में एक दिन की छुट्टी दी गई।

यह एक कठिन लड़ाई थी लेकिन अंत में जीत उनकी ही हुई! मुंबई के मिल मज़दूरों की यह कड़ी मेहनत से हासिल की गई जीत हमें इस बात की याद दिलाती है कि हफ़्ते में एक दिन आराम करने का अधिकार, मज़दूरों द्वारा बहुत ही धैर्य, त्याग और संघर्ष के ज़रिए ही जीता गया था। साप्ताहिक छुट्टी कोई विशेषाधिकार नहीं बल्कि एक कठिन संघर्ष के बाद मज़दूरों द्वारा हासिल किया गया एक मूलभूत अधिकार है।

1946 में 1934 के फैक्ट्रीज़ एक्ट में संशोधन करके, हिन्दोस्तान में 8 घंटे काम करने का क़ानून बनाया गया। हालांकि, इस संशोधन के बाद भी पूंजीपति वर्ग मज़दूरों को लंबे समय तक काम करने को मजबूर करने की कोशिश करना नहीं छोड़ता।

जो उद्यम, कारखाना-अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते हैं, उनके लिए एक अलग विशिष्ट राज्य की दुकान एवं प्रतिष्ठान अधिनियम लागू होता है। आईटी और इसी तरह के सेवा क्षेत्र, इस क़ानून से छूट चाहते हैं। यह सर्वविदित है कि इन क्षेत्रों में, मज़दूर आज की तारीख़ में प्रतिदिन 12 घंटे से अधिक काम करते हैं। सेवा उद्योग में तो यह एक सामान्य बात हो गई है। हमारे देश में बेरोज़गारों की बड़ी संख्या मौजूद होने के कारण, जिनके पास नौकरी है, उनके मिल-मालिकों द्वारा उनका बहुत ही निर्ममता से शोषण किया जाता है।

आज पूंजीपति वर्ग की सरकार, मज़दूरों के इन कठिन परिश्रम से प्राप्त अधिकारों पर क्रूर हमला कर रही है। पूंजीपति वर्ग, हर उद्योग के मज़दूरों से, “राष्ट्र निर्माण” के लिए प्रतिदिन 14 घंटे और सप्ताह में सातों दिन काम करने का आह्वान कर रहा है। वे चाहते हैं कि अधिकतम मुनाफ़ा कमाने के लिए, उनको मज़दूरों के शोषण को तेज़ करने का अधिकार दिया जाए। वे मज़दूरों द्वारा जीते गए एक सदी से भी अधिक पुराने अधिकार को पीछे धकेलना चाहते हैं। हम मज़दूरों को एकजुट होकर आठ घंटे के कार्य-दिवस के अपने मूलभूत अधिकार पर पूंजीपति वर्ग के इस हमले का सख्त विरोध करना चाहिए।

अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर, 1820 और 1830 के दशक में काम के घंटों में कमी के लिए मज़दूरों की लगातार हड़तालों के लिए जाने जाते हैं। यह संघर्ष, ब्रिटेन, अमरीका और यूरोपीय देशों में कारखाना-प्रणाली की शुरुआत से ही शुरू हो गया था। मज़दूर 14-16-18 घंटे के लंबे कार्य दिवस का विरोध कर रहे थे। इंग्लैंड में, कार्य दिवस की लंबाई को लेकर, मज़दूरों और पूंजीपतियों के बीच भीषण संघर्ष हुआ। 1847 में ब्रिटिश संसद द्वारा एक कारखाना अधिनियम पारित किया गया, जिसमें कार्य दिवस को 10 घंटे तक सीमित कर दिया गया – मज़दूर वर्ग के लिए यह एक महत्वपूर्ण जीत थी।

कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स द्वारा स्थापित इंटरनेशनल वर्किंगमेंस एसोसियेशन ने, 1866 में अपनी जिनेवा कांग्रेस में, सभी देशों के मज़दूरों से, आठ घंटे के कार्य दिवस की मांग को हासिल करने के लिए लड़ने का आह्वान किया था।

1 मई, 1886 को, लगभग दो लाख मज़दूरों ने एक निर्णायक विरोध-प्रदर्शन में भाग लिया,  उन्होंने अपने काम करने के औजार ज़मीन पर रख कर, अमरीका के शिकागो शहर में, मिशिगन एवेन्यू पर जुलूस निकाला। उनका नारा, जो उस दिन से पूरी दुनिया के मज़दूरों का नारा बन गया,  वो नारा था “आठ घंटे काम, आठ घंटे आराम, आठ घंटे मनोरंजन। हड़ताल का केंद्र शिकागो था, जहां यह हड़ताल – आंदोलन सबसे व्यापक पैमाने पर आयोजित किया गया था, लेकिन कई अन्य शहरों में भी, पहली मई के इस संघर्ष में सभी मज़दूर शामिल हुए थे। न्यूयॉर्क, बाल्टीमोर, वाशिंगटन, मिल्वौकी, सिनसिनाटी, सेंट लुइस, पिट्सबर्ग, डेट्रायट और कई अन्य शहरों में बड़ी संख्या में मज़दूरों ने इस हड़ताल में भाग लिया।

तीन साल बाद, पेरिस वर्कर्स कांग्रेस ने, दुनिया भर में आठ घंटे के कार्य दिवस को क़ानूनी रूप से लागू करने की मांग की और 1890 में, 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस घोषित किया गया।

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