हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केंद्रीय समिति का आह्वान, 29 नवंबर, 2024
अयोध्या की 16वीं सदी की मस्जिद, बाबरी मस्जिद, के विध्वंस की 32वीं बरसी इस साल 6 दिसंबर को है।
6 दिसंबर, 1992 से कुछ ही दिन पहले, सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार के “आश्वासन” कि मस्जिद को कोई नुकसान नहीं होगा, उसके आधार पर, अयोध्या में कार सेवकों को भूमि पूजन समारोह के लिए एकत्रित होने की इजाज़त दी थी। कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने अयोध्या के पास तैनात अपने सुरक्षा बलों को घटनास्थल से दूर रहने का आदेश दिया था। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने पुलिस बलों को भी ऐसा ही करने का आदेश दिया था। विध्वंस को अंजाम देने के लिए औजारों से लैस कार सेवक बाबरी मस्जिद के गुंबद पर चढ़ गए, जबकि पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा नेता उन्हें उकसाते रहे।
सभी उपलब्ध तथ्य बताते हैं कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस कोई स्वतः स्फूर्त काम नहीं था, जैसा कि आधिकारिक रिकॉर्ड में बताया गया है। यह सत्ता में बैठे लोगों द्वारा पहले से ही सोच-विचार कर, सुनियोजित तरीक़े से किया गया था।
विध्वंस के 10 दिन बाद केंद्र सरकार ने लिब्रहान आयोग को गठित किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट 2009 में ही सौंपी थी। रिपोर्ट में 68 लोगों को विध्वंस की योजना बनाने और उसे आयोजित करने का दोषी ठहराया गया था, जिनमें भाजपा के कई नेता भी शामिल थे। लेकिन, एक विशेष सीबीआई अदालत ने सबूतों की कमी का हवाला देते हुए, सितंबर 2020 में उन सभी को बरी कर दिया। इससे पहले, नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि जिस ज़मीन पर मस्जिद थी, उस पर राम मंदिर बनाया जाना चाहिए, भले ही उसे इस बात का कोई सबूत नहीं मिला था कि 16वीं शताब्दी में उस स्थान पर किसी मंदिर को नष्ट कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसला के ज़रिये, उस ऐतिहासिक स्मारक के विनाश के अपराध को उचित ठहराया गया।
बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुंबई, सूरत और कई अन्य स्थानों पर सांप्रदायिक हिंसा हुई, जिसमें हजारों लोग मारे गए। श्रीकृष्ण जांच आयोग ने इस बात की पुष्टि की थी कि भाजपा, कांग्रेस पार्टी और शिवसेना के नेता सांप्रदायिक हिंसा भड़काने में शामिल थे। लेकिन, इन अपराधों को अंजाम देने के बाद से 32 वर्षों में, इन पार्टियों के किसी भी नेता को सज़ा नहीं दी गई है।
बाबरी मस्जिद के विध्वंस और उसके बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा में केंद्र सरकार व संबंधित राज्यों की सरकारों को चलाने वाली पार्टियों की भागीदारी, और इन अपराधी पार्टियों के किसी भी नेता को सज़ा देने में न्यायपालिका की नाक़ामयाबी यह साफ-साफ दिखाती है कि ये सभी अपराध हुक्मरान वर्ग की सोची-समझी योजना का हिस्सा थे।
जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद थी, उसी स्थान पर राम मंदिर बनाने के अभियान का एक राजनीतिक उद्देश्य था, जबकि उसे धार्मिक आस्था से प्रेरित बताया गया था। उसका राजनीतिक उद्देश्य हिंदुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ भड़काना था, ऐसे समय पर जब मेहनतकश लोगों की बड़ी संख्या अपनी रोज़ी-रोटी और अधिकारों पर हमलों के विरोध में एकजुट हो रही थी।
1980 के दशक की शुरुआत में, और 1990 के दशक में अधिक खुले तौर पर, हुक्मरान सरमायदार वर्ग ने समाजवादी नमूने के समाज के निर्माण का दिखावा छोड़ना शुरू कर दिया तथा विश्व बैंक और आई.एम.एफ. द्वारा प्रचारित बाज़ार-प्रेरित सुधारों के नुस्खे को अपना लिया। इस बदलाव से पता चला कि हमारे देश में पूंजीवादी विकास उस स्तर पर पहुंच गया था। जब हिन्दोस्तानी इजारेदार घराने हमलावर वैश्विक प्रसारवादी अभियान चला रहे थे। इस दिशा-परिवर्तन को राजीव गांधी सरकार द्वारा आधुनिकीकरण की दिशा में एक अभियान के रूप में प्रचारित किया गया था, और बाद में नरसिंह राव सरकार द्वारा उदारीकरण व निजीकरण के ज़रीय वैश्वीकरण के कार्यक्रम के रूप में प्रचारित किया गया था।
मज़दूरों, किसानों, महिलाओं और युवाओं के व्यापक विरोध का सामना करते हुए, इस समाज-विरोधी कार्यक्रम को लागू करने के लिए हुक्मरान वर्ग ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया। 1984 में स्वर्ण मंदिर पर सेना के हमले और सिखों के जनसंहार के बाद 1985 में “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान!” के बैनर तले कांग्रेस पार्टी का चुनाव अभियान शुरू हुआ। जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद थी, उसी स्थान पर राम मंदिर बनाने के अभियान ने लोगों को सांप्रदायिक आधार पर और ज्यादा बांटने का काम किया। हुक्मरान वर्ग ने इस विभाजनकारी जन-विरोधी एजेंडे को लागू करने के लिए अपनी दो मुख्य राजनीतिक पार्टियों – कांग्रेस पार्टी और भाजपा – के साथ-साथ कई अन्य संगठनों को लामबंध किया।
पिछले 32 वर्षों में, कांग्रेस पार्टी और भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों के चलते, मुसलमानों और सिखों को आतंकवादी तथा हिन्दोस्तान की एकता और अखंडता के दुश्मन बताना जारी रहा है। सांप्रदायिक झगड़े भड़काने के इरादे से, विभिन्न धर्म स्थलों को नष्ट करने के आह्वान जारी किये जा रहे हैं।
यह दावा कि वाराणसी में प्राचीन ज्ञानवापी मस्जिद एक मंदिर को तोड़कर बनाई गई थी, अदालतों में सुना जा रहा है। अदालतें उन याचिकाओं पर सुनवाई कर रही हैं जिनमें दावा किया गया है कि मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद उसी स्थान पर बनी है जहां कृष्ण का जन्म हुआ था। मध्य प्रदेश, कर्नाटक और अन्य राज्यों में मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाने के दावे अदालतों में सुने जा रहे हैं। इस प्रकार के दावों के सबूत इकट्ठा करने के लिए हिन्दोस्तानी पुरातत्व सर्वेक्षण को लगाया गया है।
25 नवंबर को, उत्तर प्रदेश के संभल शहर में जब लोग शाही जामा मस्जिद पर पहुंची एक अदालत-प्रायोजित टीम के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे थे, तो पुलिस ने उन पर गोली चलायी, जिस में कम से कम चार लोगों की गोली लगने से मौत हो गई और दर्जनों लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। टीम यह जांच करने गई थी कि क्या 500 साल पहले किसी मंदिर को तोड़कर उसकी जगह मस्जिद बनाई गई थी।
सैकड़ों साल पहले, कथित तौर पर मंदिरों को ध्वस्त करके बनाई गई मस्जिदों के विनाश के आह्वान का समर्थन करके हिन्दोस्तान के लोगों को कुछ भी नहीं हासिल होने वाला है, बल्कि खोने के लिए बहुत कुछ है। बदले की भावना से की गयी ऐसी कार्रवाइयां सिर्फ अलग-अलग धार्मिक आस्थाओं के लोगों के बीच नफ़रत और दुश्मनी फैलाने का काम करती हैं। वे सरमायदार वर्ग की शोषणकारी और दमनकारी हुकूमत के ख़िलाफ़ मज़दूरों और किसानों की एकता को नष्ट करने का काम करती हैं।
देश में मुख्य संघर्ष एक तरफ इजारेदार पूंजीपतियों की अगुवाई में पूंजीपति वर्ग, और दूसरी तरफ शोषित व उत्पीड़ित जनसमुदाय के बीच है। धर्म के आधार पर झगड़े भड़काना सरमायदार वर्ग की हुकूमत के तौर-तरीक़ों का हिस्सा है।
सभी प्रगतिशील ताक़तों के सामने तात्कालिक कार्य हुक्मरान वर्ग और उसकी भरोसेमंद पार्टियों की विभाजनकारी राजनीति के ख़िलाफ़ लोगों की राजनीतिक एकता को बनाना और मजबूत करना है। हमें इस असूल के इर्द-गिर्द एकजुट होना चाहिए कि हरेक इंसान को ज़मीर का अधिकार है, जिसकी हिफ़ाज़त करना राज्य का फ़र्ज़ है। अगर इसे मान लिया जाये, तो उसके बाद किसी भी धार्मिक आस्था के बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक होने का सवाल ही नहीं उठता। कोई किसी भी परमात्मा की पूजा करे या किसी की पूजा न करे, हरेक इंसान का विश्वास उतना ही मान्य है जितना किसी अन्य व्यक्ति का।
हमें इस असूल के इर्द-गिर्द एकजुट होना होगा कि राज्य हरेक इंसान के अधिकारों की हिफ़ाज़त करने के लिए बाध्य है, चाहे उसकी आस्थाएं कुछ भी हों। जब राज्य लोगों के किसी भी तबके की हिफ़ाज़त करने में नाक़ामयाब होता है, तो सत्ता में बैठे लोगों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। लोगों के ख़िलाफ़ अपराध आयोजित करने के लिए राज्य सत्ता का उपयोग करने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जानी चाहिए।
साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक हिंसा के ख़िलाफ़ संघर्ष, मौजूदा सरमायदारी हुकूमत की जगह पर, मज़दूरों और किसानों के हुकूमत का एक नया राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से किया जाना चाहिए। ऐसा राज्य बिना किसी अपवाद के, सभी लोगों के जीवन और अधिकारों की हिफ़ाज़त करेगा। वह समाज के किसी भी सदस्य के अधिकार का हनन करने वालों को तुरंत और कड़ी सज़ा देगा।