महान अक्तूबर क्रांति की सीख अमर रहे!
हिन्दोस्तानी क्रांति की जीत के लिये हालतें तैयार करें!

4 नवम्बर, 2017 को हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के महासचिव कामरेड लाल सिंह द्वारा दिया गया मुख्य भाषण

साथियों!

आज के दिन, 4 नवम्बर, 1917 को सौ साल पहले पूरे रूस में, कारखानों में और फौज़ के दस्तों में, क्रांति से पूंजीवादी वर्ग का तख़्ता पलटने के लिये ज़ोर-शोर से तैयारी हो रही थी। 5 नवम्बर, 1917 को कामरेड लेनिन स्मोलनी पहुंचे। रूस की राजधानी पेत्रोग्राद में रूसी सोशल डेमोक्रेट लेबर पार्टी (बोल्शेविक) के मुख्यालय को स्मोलनी के नाम से जाना जाता था। पूरी रात फौज़ के क्रांतिकारी दस्ते और रेड गार्डों के जत्थे बराबर स्मोलनी आते रहे। बोल्शेविक पार्टी ने उन्हें विंटर पैलेस को घेरने के लिये भेजा, जहां अस्थाई सरकार ने अपना अड्डा बनाया था।

7 नवम्बर (रूसी कैलेंडर के मुताबिक 25 अक्तूबर) को क्रांतिकारी मज़दूरों, सैनिकों और नौसैनिकों ने रेलवे स्टेशनों, डाक घरों, तार घरों, मंत्रालयों और राज्य के बैंक को अपने कब्ज़े में ले लिया। उन्होंने विंटर पैलेस पर हल्ला बोल दिया और कब्ज़ा कर लिया। अस्थाई सरकार के मंत्रियों को गिरफ़्तार कर लिया। बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में रूस के मज़दूर वर्ग ने राजनीतिक सत्ता को अपने हाथों में ले लिया। इससे पूरी दुनिया हिल गई। दुनिया के पूंजीपतियों के दिलों में खौफ़ पैदा हो गया।

जिस वक्त विंटर पैलेस पर क्रांतिकारी हल्ला बोल रहे थे, उसी वक्त, रात 10.40 बजे सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस शुरू हुई। 8 नवम्बर को सुबह 5 बजे लेनिन द्वारा प्रस्तावित एक घोषणा पत्र को अखिल रूसी कांग्रेस ने मंजूरी दी। इस घोषणा के ज़रिये रूस की सोवियतों की कांग्रेस ने देश के मज़दूरों, सैनिकों और किसानों को बताया कि उसने राजनीतिक सत्ता को अपने हाथों में ले लिया है।

8 नवम्बर की रात 9 बजे सोवियतों की दूसरी बैठक हुई। बैठक ने शांति का फ़रमान जारी करके बताया कि प्रथम विश्व युद्ध से रूस बाहर हो गया है। सोवियतों की इसी बैठक ने भूमि संबंधी फ़रमान जारी किया। इस फ़रमान के ज़रिये जमींदारों के क़ब्जे़ से सैंकड़ों-करोड़ों एकड़ ज़मीन को छीनकर किसान समितियों के हवाले करने का आदेश दिया गया। सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस ने पहली सोवियत सरकार – यानी कि जन कमीसारों की समिति – बनाई। कामरेड लेनिन को इस समिति का सभापति चुना गया।

सोवियत सत्ता को गिराने के लिये 14 पूंजीवादी देशों ने फौज़ी हमला किया। ये सारे देश बुरी तरह से हार गये। 1922 को सोवियत संघ (संयुक्त सोवियत समाजवादी गणराज्यों) की स्थापना हुई। ज़ार के साम्राज्य के विभिन्न राष्ट्र स्वेच्छा से सोवियत संघ में शामिल हुए।

नये सोवियत राज्य ने बड़े पूंजीपतियों के हाथों से उत्पादन के संसाधनों को छीन लिया। सोवियत राज्य ने बड़े उद्योगों, यातायात सेवाओं, बैंक तथा व्यापार का राष्ट्रीयकरण करके समाज के नियंत्रण में ला दिया। सोवियत राज्य ने ग़रीब किसानों को प्रोत्साहन दिया कि वे अपनी छोटी-छोटी जोतों को मिलाकर स्वेच्छा से सामूहिक खेती करें। मेहनतकश लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये एक देशव्यापी योजना के तहत वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन और वितरण किया गया। एक नयी समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण किया गया जिसमें न बेरोज़गारी, न मुद्रास्फीति और न ही कोई संकट था।

सोवियत सत्ता ने ऐसी हालतें तैयार कीं जिससे महिलाएं हर प्रकार के शोषण, दमन और भेदभाव से मुक्त हो सकीं। ऐसी हालतें तैयार की गईं जिसमें सामाजिक जीवन के हर पहलू में महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा मिल सके।

1936 में सोवियत लोगों ने दुनिया का सबसे आधुनिक तथा सबसे लोकतांत्रिक संविधान अपनाया जो स्टालिन संविधान के नाम से मशहूर है। दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मन, इटालवी और जापानी साम्राज्यवादियों के फ़ासीवादी गठबंधन को पराजित करने में सोवियत संघ की अहम भूमिका थी। इससे सोवियत संघ को दुनियाभर के लोगों का प्यार और सम्मान मिला।

महान अक्तूबर समाजवादी क्रांति इन्हीं कुछ ख़ास वजहों से एक ऐतिहासिक महत्व रखने वाली क्रांति है। बेशक आज सोवियत संघ नहीं रहा। महान अक्तूबर क्रांति ने एक नये राज्य और व्यवस्था को जन्म देकर दुनिया को प्रगति का रास्ता दिखाया। आज भी समाज में प्रगति और क्रांति के लिये संघर्ष करने वाले सभी लोगों के लिये यही रास्ता है।

साथियों!

अक्तूबर क्रांति ने वैज्ञानिक समाजवाद, यानी माक्र्सवाद के सिद्धांत की सच्चाई को धमाके से सिद्ध किया।

19वीं सदी में माक्र्सवाद का उदय हुआ। वह ऐसा समय था जब आधुनिक मशीनरी और बड़े स्तर पर औद्योगिक उत्पादों की वजह से कई यूरोपीय देशों में उत्पादक ताक़तों में बहुत तेज़ी से बढ़ोतरी हुई। वह ऐसा समय था जब पुरानी सामंती व्यवस्था ख़त्म हो रही थी। कई क्षेत्रों में वैज्ञानिक ज्ञान में प्रगति हुई। यह ऐसा भी समय था जब पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था बार-बार अति-उत्पादन के संकट में फंस जाती थी। दसों-हज़ारों मज़दूर ऐसे हर संकट में नौकरियों से निकाले जाते थे। समाज में बेरोज़गारी एक स्थाई बीमारी बन गयी।

कार्ल माक्र्स ने बार-बार होने वाले आर्थिक संकट की जड़ को ढूढ़कर उजागर किया। एक तरफ़ उत्पादन की प्रक्रिया सामाजिक है। दूसरी तरफ़ उत्पादन के संसाधन निजी मालिकों के हाथों में हैं। सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया और निजी मालिकी के बीच जो अंतर्विरोध है, यही पूंजीवादी व्यवस्था को बार-बार आर्थिक संकट में ढकेलता है। कार्ल माक्र्स ने यह निष्कर्ष निकाला कि पूंजीवादी व्यवस्था एक ऐसी व्यवस्था है जो ख़त्म हो जायेगी। निजी मालिकी सामाजिक मालिकी में अवश्य ही तब्दील हो जायेगी। पूंजीवादी व्यवस्था ख़त्म हो जायेगी और उसकी जगह पर कम्युनिज़्म आयेगा।

कार्ल माक्र्स से पहले के वैज्ञानिक, वर्गों और वर्ग संघर्ष के बारे में जानते थे। कार्ल माक्र्स ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस वर्ग संघर्ष के चलते अनिवार्य रूप से श्रमजीवी अधिनायकत्व की स्थापना होगी। पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्विरोधों को सुलझाने के लिये तथा वर्गहीन कम्युनिस्ट समाज की स्थापना की ओर बढ़ने के लिये श्रमजीवी अधिनायकत्व ज़रूरी शर्त है।

माक्र्स के इस निष्कर्ष का सरमायदारों के प्रवक्ताओं ने खूब मज़ाक़ उड़ाया। उन्हांेने ऐलान किया कि पंूजीपति वर्ग और निजी संपत्ति के बग़ैर समाज की कल्पना ही नहीं की जा सकती। उन्होंने ऐलान किया कि श्रमजीवी वर्ग के बस की बात नहीं है कि वह हुक्मरान बने और समाज चलाए। महान अक्तूबर क्रांति ने सरमायदारों के इन सभी ऐलानों को चकनाचूर कर दिया।

1871 में फ्रांस के मज़दूरों ने पैरिस कम्यून की स्थापना की। यह श्रमजीवी वर्ग द्वारा हुक्मरान वर्ग बनने की पहली कोशिश थी। पेरिस कम्यून 73 दिन चला। माक्र्स और एंगेल्स ने फ्रांसीसी मज़दूरों के इस बहादुर प्रयत्न से एक बहुत ही महत्वपूर्ण सीख निकाली। वह यह थी कि बने-बनाये पुराने राज्य तंत्र को श्रमजीवी वर्ग अपने हित के लिये – शोषण दमन ख़त्म करने के लिये और नये समाजवादी समाज के निर्माण के लिये – इस्तेमाल नहीं कर सकता। पूंजीवादी राज्य तंत्र मेहनतकशों को दबाने और कुचलने का तंत्र है। यह मेहनतकशों पर सरमायदारों का अधिनायकत्व क़ायम करने का तंत्र है। इस पूंजीवादी राज्य तंत्र को ख़त्म करना होगा। इसके बदले में एक नये राज्य की स्थापना करने की ज़रूरत है। यह नया राज्य श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व का तंत्र होगा। अक्तूबर क्रांति ने माक्र्स और एंगेल्स की इस खोज को ज़मीन पर उतारा।

अक्तूबर क्रांति ने पूंजीवादी राज्य तंत्र को नींव से उखाड़कर ख़त्म किया। इसकी जगह अक्तूबर क्रांति ने एक नये राज्य का निर्माण किया। सोवियत राज्य तंत्र श्रमजीवी वर्ग के लिये समाज में शासक वर्ग के रूप में उभरकर आने का तंत्र बना।

रूस में 1905 की क्रांति में पहली बार औद्योगिक मज़दूरों ने सोवियतें बनाईं। सोवियतें लड़ाकू मज़दूरों की राजनीतिक समितियां थीं। मज़दूर अपने बीच में से सबसे अनुभवी, परिपक्व और बहादुर साथियों को चुनकर इन समितियों में भेजते थे। ये सोवियतें 1905 की क्रांति के दौरान व्यापक मज़दूरों को नेतृत्व दे रही थीं। मज़दूर सोवियतों की परंपरा को नहीं भूले थे। फरवरी 1917 में ज़ारशाही के खि़लाफ़ क्रांतिकारी विद्रोह के दौरान मज़दूर दोबारा सोवियतें बनाने लगे। कई शहरों में मज़दूरों और सैनिकों की सोवियतें बनीं। ग्रामीण इलाकों में किसानों की सोवियतें भी बनने लगीं।

अक्तूबर क्रांति ने सोवियतों के हाथों में पूरी सत्ता देकर सोवियत राज्य की नींव रखी। यह एक बिल्कुल ही नये किस्म का राज्य था। पुराना राज्य तंत्र विशेष अधिकार वाले अफ़सरों से भरा हुआ था, जो मज़दूरों की तुलना मंे कई गुना ज्यादा कमाते थे। इन पुराने अफ़सरों की जगह पर सोवियत राज्य तंत्र ने नये लोगों को नियुक्त किया, जिनको कुशल मज़दूरों से अधिक वेतन नहीं मिलता था। इनको कभी भी वापस बुलाया जा सकता था। ज़ार की परजीवी फौज़ की जगह लाल सेना ने ले ली। शोषकों के राज्य का तख़्ता पलट करने के लिये चलाये गये क्रांतिकारी संघर्ष में इस लाल सेना का निर्माण हुआ था तथा वह मजबूत हुई थी। राज्य तंत्र में काम करने वाले लोग और सैनिक – ये सभी सोवियतों की अखिल रूसी कांग्रेस की कमान के नीचे काम करते थे। श्रमजीवी वर्ग का अधिनायकत्व श्रमजीवी वर्ग के हाथों में ऐसा तंत्र है जिसके ज़रिये शोषकों के विद्रोह को कुचला जा सकता है और सभी प्रकार के शोषण को समाप्त किया जा सकता है। सोवियत राज्य श्रमजीवी वर्ग के अधिनायकत्व का एक ख़ास रूप था।

साथियों!

19वीं सदी मंे माक्र्सवादियों में यह धारणा प्रचलित थी कि समाजवादी क्रांति उसी देश में विजयी हो सकती है, जहां पंूजीवाद काफ़ी विकसित है और जहां श्रमजीवी वर्ग संख्या मंे, सबसे बड़ा वर्ग बन गया हो। ज़ारशाही रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और कई अन्य यूरोपीय देशों के मुक़ाबले पूंजीवादी विकास के संदर्भ में पिछड़ा था। रूसी समाज में श्रमजीवी वर्ग एक अल्पसंख्यक वर्ग था। आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा किसान थे, जो छोटी-छोटी जोतांे पर खेती करते थे। इसलिये यह माना जाता था कि रूस में समाजवादी क्रांति का सफल होना असंभव है। कई माक्र्सवादियों ने यह धारणा फैलायी कि इन हालतों में सिर्फ़ पूंजीवादी जनवादी क्रांति ही संभव है। उन्होंने यह भी प्रचार किया कि ज़ारशाही को हटाकर पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना करना ही रूस में क्रांति का उद्देश्य हो सकता है।

लेनिन ने इन सभी विचारों को ठुकराया। उन्होंने श्रमजीवी वर्ग को रूस का शासक वर्ग बनने की ज़रूरत को लोगों के सामने रखा। बीसवीं सदी की शुरुआत में पूंजीवाद विश्व स्तर पर शोषण और लूट की एक व्यवस्था बन गया था। लेनिन ने इन हालातों का वैज्ञानिक समाजवाद के माक्र्सवादी सिद्धांत द्वारा विश्लेषण किया। लेनिन ने यह दर्शाया कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का अंतिम और आखिरी चरण है। साम्राज्यवाद के चरण में पूंजीवाद के तमाम अंतर्विरोध तीखे हो जाते हैं। इन अंतर्विरोधों को सुलझाने की परिस्थिति तैयार हो जाती है। लेनिन ने पूंजीवादी देशों के असमान विकास के नियम को उजागर किया। उन्होंने यह अनुमान लगाया कि साम्राज्यवादी श्रृंखला अपनी सबसे कमजोर कड़ी पर टूटेगी। लेनिन इस निर्णय पर पहुंचे कि श्रमजीवी क्रांति ऐसे देश में भी विजयी हो सकती है जिस देश में पंूजीवाद दूसरे देशों के मुक़ाबले बेशक कम विकसित हो।

श्रमजीवी वर्ग को शासक वर्ग बनने के लिए यह ज़रूरी है कि एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी उसकी अगुवाई करेे। दूसरे इंटरनेशनल की पार्टियां संसदीय संघर्षों के लिए क़ाबिल थीं। इन पार्टियों में श्रमजीवी वर्ग को राजनीतिक सत्ता को बलपूर्वक छीनने में नेतृत्व देने की क़ाबिलियत नहीं थी। लेनिन ने एक ऐसी क्रांतिकारी पार्टी के गठन का प्रस्ताव किया, जो श्रमजीवी वर्ग का अटूट हिस्सा भी होगी और वर्ग की अगुवा दस्ता भी होगी। यह पेशेवर क्रांतिकारियों की पार्टी होगी। इसमें वर्गीय दृष्टि से सबसे सचेत और लड़ाकू मज़दूर भर्ती होंगे। अपने सारे काम में यह पार्टी सबसे उन्नत सिद्धांत से मार्गदर्शन लेगी। श्रमजीवी वर्ग को अपने हाथों में राज्य सत्ता लेने के लिये अगुवाई देने के रास्ते से पार्टी को कभी नहीं भटकना चाहिए।

रूसी क्रांतिकारियों के बीच उस समय कई पार्टियां, गुट और रुझान थे। इनमें एक मुख्य रुझान नारोदिनिकों का था। नारोदिनिक किसानों को रूस की मुख्य क्रांतिकारी ताक़त मानते थे, न कि मज़दूर वर्ग को। वे मानते थे कि शासक वर्ग के कुछ गिने-चुने व्यक्तियों का किसी हीरो द्वारा क़त्ल करने से ज़ारशाही का तख़्ता पलट हो जायेगा। उस समय ऐसे कई माक्र्सवादी गुट थे जो यह सोचते थे कि सभी कम्युनिस्टों को एक पार्टी में एकजुट होना ज़रूरी नहीं है। ऐसे भी संगठन थे जो यह विचार फैलाते थे कि मज़दूरों की अपनी फ़ौरी मांगों को पूरा करने के लिये स्वतः स्फूर्त संघर्ष से ही समाजवाद आ जायेगा। कामरेड लेनिन ने ऐसे ग़लत और नुकसानजनक विचारों व धाराओं के खि़लाफ़ लगातार और बिना समझौते के संघर्ष चलाया। इस संघर्ष के ज़रिये उन्होंने मज़दूर वर्ग के अगुवा बतौर एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी में तमाम रूसी कम्युनिस्टों को लामबंध किया।

पार्टी की सदस्यता के नियमों पर बहुत तीखा संघर्ष चला। यह बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा था। कामरेड लेनिन ने ज़ोर दिया कि सिर्फ़ पार्टी के प्रोग्राम को मानना और नियमित तौर पर चंदा देना पार्टी सदस्य के लिये काफ़ी नहीं है। इसके साथ-साथ यह बहुत ज़रूरी है कि हर पार्टी सदस्य, पार्टी के किसी न किसी संगठन के अनुशासन में काम करे। तभी ऐसा होगा कि सभी पार्टी सदस्यों के लिये एक समान अनुशासन होगा। तभी सभी पार्टी सदस्य एक एकत्रित ताक़त बतौर काम करेंगे।

रूसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी की स्थापना 1898 में हुई। 1911 तक इसमें विचार और काम की अलग-अलग धाराओं के बीच टक्कर होती रही। लेनिन का विचार था कि सशस्त्र जन विद्रोह द्वारा ज़ारशाही का तख़्ता पलटना चाहिये। इसके बदले श्रमजीवी वर्ग को किसानों के साथ गठबंधन बनाकर अपनी हुकूमत स्थापित करनी चाहिये। लेनिन के विचार को सही मानने वाले बहुमत में थे। इसलिये उन्हें रूसी भाषा में बोल्शेविक कहते थे। दूसरी तरफ़ अल्पसंख्यक गुट चाहते थे कि सरमायदारों की पार्टी (कांस्टीट्यूशनल डेमोक्रेटिक पार्टी) के साथ गठबंधन बनाकर ज़ारशाही के बदले में सरमायदारी लोकतंत्र की स्थापना की जाये। क्योंकि वे अल्पसंख्यक थे उन्हें रूसी भाषा में मेंशेविक कहा जाता था। जनवरी 1912 में एक पार्टी सम्मेलन में तमाम क्रांतिकारी तत्वों ने बोल्शेविक लाइन को अपनाया। दूसरी तरफ़ मेंशेविकों के कट्टर समर्थक पार्टी छोड़कर एक अलग पार्टी के रूप में काम करने लगे। रूसी सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी (बोल्शेविक) में लोकतांत्रिक केन्द्रीयवाद के आधार पर एक फ़ौलादी एकता बनी। वह एक क्रांतिकारी पार्टी के माॅडल के रूप में आगे आयी। प्राव्दा नामक मज़दूरों के अख़बार के ज़रिये उसने क्रांतिकारी मज़दूरों की एक नयी पीढ़ी को तैयार किया और पार्टी में शामिल किया। जब क्रांति की लहर ऊपर उठ रही थी तब कैसे आगे बढ़ना है और जब क्रांति की लहर पीछे हटती है तब कैसे सुनियोजित तरीके़ से पीछे हटना – इन दोनों परिस्थितियों में बोल्शेविक पार्टी श्रमजीवी वर्ग को नेतृत्व देने में क़ामयाब रही। बोल्शेविक पार्टी क़ानूनी और गै़र-क़ानूनी काम दोनों करती थी। 1917 तक बोल्शेविक पार्टी श्रमजीवी वर्ग की सबसे अगुवा और संगठित दस्ता बन गयी थी। क्रांतिकारी कार्यदिशा के इर्द-गिर्द पार्टी में फ़ौलादी एकता बन गयी थी।

फरवरी क्रांति में जब ज़ारशाही का तख़्तापलट हुआ, उस वक़्त सोवियतों में बोल्शेविक अल्पमत में थे। सोवियत अपने हाथों में राज्य सत्ता लेने के लिये तैयार नहीं थे। एक अजीब स्थिति बन गयी जिसे लेनिन ने दोहरी सत्ता का नाम दिया था।

एक तरफ़ पूंजीपति वर्ग की सरकार, अस्थाई सरकार थी। पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवादी जंग में रूस की भागीदारी को कायम रखना चाहता था। दूसरी तरफ़ सोवियतें थीं, जो कि मज़दूरों, किसानों और सैनिकों के संगठन थीं। मज़दूर, किसान और सैनिक शांति, ज़मीन और रोटी के लिये तरस रहे थे। उस वक़्त सोवियतें सोशलिस्ट रेवोलूशनरी पार्टी और मेंशेविकों के प्रभाव में थीं। ये पार्टियां अस्थाई सरकार के बारे में मज़दूरों में भ्रम फैला रही थीं।

16 जून, 1917 को सोवियतों की पहली अखिल-रूसी कांग्रेस बुलाई गई। मज़दूरों, सैनिकों और किसानों की 300 से अधिक सोवियतों के प्रतिनिधियों ने इसमें भाग लिया। कुल 1090 प्रतिनिधियों में सिर्फ़ 105 बोल्शेविक थे। इस अधिवेशन ने अस्थाई सरकार को समर्थन देने का फ़ैसला किया।

बोल्शेविक पार्टी ने इन हालतों में संयम से काम लिया। मज़दूरों, किसानों और सैनिकों के बीच वे अस्थाई सरकार के पूंजीवादी और साम्राज्यवादी चरित्र का लगातार पर्दाफ़ाश करते रहे। बोल्शेविकों ने समझाया कि शांति, ज़मीन और रोटी की मांग को कभी भी अस्थाई सरकार पूरा नहीं करेगी। इसलिये सोवियतों को राज्य सत्ता को अपने हाथों में लेना चाहिये। निरंतर ऐसे काम करके ही बोल्शेविक पार्टी ने मज़दूरों के बीच वर्ग समझौते की लाइन को हराया।

सितम्बर 1917 की शुरुआत तक मज़दूर और किसान अपने अनुभव से अच्छी तरह समझ गये थे कि अस्थाई सरकार उनकी मांगों को पूरा नहीं करेगी। बोल्शेविक पार्टी का समर्थन लगातार बढ़ता गया। बोल्शेविक पार्टी की लाइन कि, सोवियतें सत्ता को अपने हाथों में ले लें, इसका समर्थन लगातार बढ़ता जा रहा था।

7 नवम्बर, 1917 को हुई सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस में 670 प्रतिनिधि थे। इनमें से 472 बोल्शेविक पार्टी के थे। सोवियतें सत्ता को अपने हाथों में ले लें – इस प्रस्ताव का समर्थन 505 प्रतिनिधियों ने किया।

अपने नेतृत्व में मेहनतकश लोगों को लामबंध करने के लिये बोल्शेविक पार्टी ने निरंतर काम किया। रूस में पूंजीपति वर्ग की पराजय और श्रमजीवी वर्ग की जीत के पीछे यही सबसे मुख्य वजह थी।

श्रमजीवी वर्ग शोषकों का तख़्ता पलट करके रूस में शासक वर्ग इसलिये बन पाया क्योंकि बोल्शेविक पार्टी ने उसके बीच क्रांतिकारी चेतना को विकसित किया और उसे संगठित किया था। मेहनतकश लोग बोल्शेविक पार्टी द्वारा दिखाई गई दिशा पर एक विशाल ताक़त बनकर चल पड़े। इसीलिये वे शोषकों का गला पकड़कर उनकी हुकूमत को उखाड़ कर फेंक सके। इसीलिये, महान अक्तूबर समाजवाद क्रांति को सराहने का मतलब है, कामरेड लेनिन और उनके नेतृत्व में गठित पार्टी को सराहना।

साथियों!

अक्तूबर क्रांति की शताब्दी के अवसर पर हम इस ऐतिहासिक घटना और उसके महान नेताओं को सिर्फ़ सराहने के लिये इकट्ठे नहीं हुये हैं।

हम हिन्दोस्तान के कम्युनिस्टों की एक राजनीतिक पार्टी हैं। हम इतिहास को एक राजनीतिक दृष्टिकोण से देखते हैं। हम कम्युनिस्ट आज के समय में हिन्दोस्तान में क्रांति की जीत की हालतें तैयार करने के लिये इस महान क्रांति से सीखना चाहते हैं।

मज़दूरों और मेहनतकश किसानों को हिन्दोस्तान के शासक बनाने के लिये हमें क्या करना चाहिये? हिन्दोस्तान में ऐसे राज्य की ज़रूरत है जो मेहनतकश जनता की नुमाइंदगी करेगा और टाटा, बिरला, अंबानी, अदानी और अन्य बड़े इज़ारेदार पूंजीपतियों की संपत्ति को जब़्त करने का फ़रमान जारी करेगा। हिन्दोस्तान की धरती पर श्रमजीवी वर्ग का अधिनायकत्व स्थापित करने के लिये हमें क्या करना चाहिये? यही है समस्या जिसका समाधान हमें करना है।

हम आज के हालातों के बारे में बहुत चिंतित होने की वजह अतीत में देखते हैं। हमें आज की बहुत ही भयानक परिस्थितियों से निपटने के लिये भूतकाल से सीखना है। हमारे देश के लोगों तथा दुनिया के मज़दूरों और शोषितों के लिये उज्ज्वल भविष्य का रास्ता खोलने के लिये हम भूतकाल से सीखना चाहते हैं। सौ साल पहले जो बोल्शेविकों ने किया उसे आज हमें करना होगा।

दुनिया के स्तर पर आज के हालातों और सौ साल पहले के हालातों में कुछ समानताएं होते हुए भी काफ़ी फ़र्क़ है। सौ साल पहले दो साम्राज्यवादी गठबंधनों ने दुनिया को एक भयानक विश्व युद्ध में धकेल दिया था। इस जंग में साम्राज्यवादियों ने अलग-अलग देशों के मज़दूरों और किसानों को एक दूसरे का क़त्ल करने के लिये मजबूर कर दिया था। आज अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके मित्रों ने ऐसी हालत तैयार कर दी हैं कि दुनिया के कई इलाकों में निरंतर जंग चल रहा है। हमारे सामने एक तीसरे विश्व युद्ध की संभावना दिखाई दे रही है जो पहले दो विश्व युद्धों से कहीं ज्यादा भयानक होगा।

अमरीकी साम्राज्यवाद पूरी दुनिया में अपनी एक ध्रुवीय चैधराहट जमाने में लगा हुआ है। अमरीका के इस अभियान का शिकार हुये देशों के लोग विरोध कर रहे हैं। अमरीका का मज़दूर वर्ग और लोग भी इसका विरोध कर रहे हैं। अमरीका और अन्य साम्राज्यवादी देशों के बीच में टक्कर बढ़ रही है। अमरीका के शासक वर्ग में गहरी फूट है। ये सब आज की साम्राज्यवादी दुनिया की कमजोरी और अस्थिरता को दर्शाते हैं।

25 साल पहले जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, तब दुनिया में क्रांति की लहर ज्वार से भाटे में तब्दील हो गयी थी। इसके साथ ही दुनिया के राजनीतिक मंच के केन्द्र से श्रमजीवी वर्ग बाहर हो गया। कई कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने नाम बदल दिये। कुछ पार्टियांे ने नाम तो नहीं बदले लेकिन श्रमजीवी अधिनायकत्व को स्थापित करने के लक्ष्य को ही छोड़ दिया। जो पार्टियां सोशल डेमोक्रेसी के साथ समझौता कर रही थीं वे उसी दल-दल में और फंसती चली गयीं। ऐसी पार्टियां ये भी मानने लगीं कि उदारीकरण और निजीकरण का कोई विकल्प नहीं है। कई देशों में मज़दूर अपने वर्ग के हितों के खि़लाफ़ और समाजवाद के खि़लाफ़ सरमायदारों के पीछे लामबंध हो गये। बीच की श्रेणी बड़े सरमायदारों की तरफ चली गयी।

आज 2017 में बढ़ते पूंजीवादी शोषण को सहने के लिये मज़दूर वर्ग तैयार नहीं है। इसका साफ़ संकेत आ रहा है। बीच की श्रेणी बहुत ही तेज़ी से बड़े सरमायदारों और उनके वादों पर विश्वास करने से हट रही है। नौजवानों में समाजवाद और कम्युनिज़्म के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। साम्राज्यवादी व्यवस्था के सारे मुख्य अंतर्विरोध तीखे हो रहे हैं। कुल मिलाकर क्रांति की लहर की भाटे से ज्वार में बदलने की संभावनाएं दिखाई दे रही हैं। बहुत कुछ इस पर निर्भर है कि क्या आज के कम्युनिस्ट वैसे काम करते हैं जैसे सौ साल पहले बोल्शेविकों ने किया था।

आज हमारे देश में लाखों की तादाद में मज़दूर, किसान और अन्य दबे-कुचले लोग संघर्ष कर रहे हैं। निजीकरण और श्रम क़ानूनों में मज़दूर-विरोधी संशोधन के खि़लाफ़ श्रमजीवी वर्ग अधिक से अधिक संख्या में सड़कों पर उतर रहा है। किसानों के बीच अशांति फैल रही है। किसान मांग कर रहे हैं कि राज्य उनकी रोज़ी-रोटी की सुरक्षा करे और इसके लिये वे आंदोलन कर रहे हैं। राजकीय आतंकवाद और राज्य व्यवस्था के बढ़ते सांप्रदायिकीकरण के खि़लाफ़ व्यापक जनसमुदाय आवाज़ उठा रहा है। ज़रूरी है कि मेहनतकश जनसमुदाय में क्रांतिकारी चेतना और संगठन हो, ताकि वह शोषकों के राज का तख़्ता पलट कर सके। लेकिन कमी इसी बात की है।

मज़दूरों और किसानों को पूंजीपति वर्ग के राज्य का तख़्ता पलट करके अपने हाथों में राज्य सत्ता लेनी होगी। यह संभव भी है और ज़रूरी भी है। इस चेतना से लैस होकर जब मज़दूर और किसान अपना संघर्ष चलाएंगे तभी क्रांति की जीत हो सकती है। ऐसी चेतना को तैयार करना क्रांति की जीत के लिये ज़रूरी शर्त है। ऐसी चेतना क्रांति के लिये आत्मगत हालतों को तैयार करने में अहम स्थान रखती है। सिर्फ़ एक क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टी, एक लेनिनवादी पार्टी ही इस भूमिका को निभा सकती है।

साथियों!

हिन्दोस्तान की क्रांति के लिये आत्मगत हालतों को तैयार करने के मक़सद से ही दिसम्बर 1980 में हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की स्थापना हुई। अपने देश का कम्युनिस्ट आंदोलन अलग-अलग पार्टियों में बंटा हुआ था। ये पार्टियां सोशल डेमोक्रेसी के साथ समझौता किये हुए थीं। ये पार्टियां वर्तमान राज्य और संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली में पूरी तरह से विलीन हो गयी थीं। “समाजवाद के लिये संसदीय रास्ते” के विरोध का झंडा जिन्होंने फहराया, वे भी अलग-अलग गुटों में बंटे हुये थे। ऐसी हालतों में हमने एक लेनिनवादी पार्टी का निर्माण करने का फै़सला लिया। एक ऐसी पार्टी जो हिन्दोस्तान के श्रमजीवी वर्ग की अगुवा होगी। एक ऐसी पार्टी जिसमें हिन्दोस्तान के तमाम कम्युनिस्ट शामिल होंगे।

हम सबको अच्छी तरह से पता था कि श्रमजीवी वर्ग की एकीकृत अगुवा पार्टी का निर्माण करना बहुत मुश्किल काम है। लेकिन यह नामुमकिन काम नहीं है। ज़रा सोचिये, रूस में 19वीं सदी के अंत में कम्युनिस्ट आंदोलन की क्या हालत थी। वहां भी अलग-अलग गुटों और ग्रुपों में कम्युनिस्ट विभाजित थे। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने लगातार और बिना समझौते के संघर्ष चलाया। इसी संघर्ष की बदौलत आखि़रकार सोच और काम में कम्युनिस्टों की मजबूत एकता बनी।

माक्र्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांत पर आधारित एक क्रांतिकारी पार्टी का निर्माण करने में हमने महत्वपूर्ण सफलता हासिल की है। हमने “समाजवाद के संसदीय रास्ते” के भ्रम का लगातार पर्दाफ़ाश किया है। हमने यह दिखाया कि वर्तमान राज्य और राजनीतिक प्रक्रिया सरमायदारों की तानाशाही का यंत्र और तंत्र है। साथ ही वर्तमान राज्य बर्तानवी उपनिवेशवाद की विरासत भी है। “शहरों को गांव से घेरने” की लाइन के खि़लाफ़ भी हमने बेरोक, बिना समझौता संघर्ष किया है। इस लाइन को मानने का यही मतलब है कि श्रमजीवी वर्ग पर विश्वास नहीं करना।

हमारी पार्टी चुनावी मशीन नहीं है। हमारी पार्टी सरमायदारी लोकतंत्र में विलीन नहीं हुई है। न ही हमारी पार्टी एक भूमिगत फौज़ी दस्ता है, जिसका मज़दूर वर्ग से कोई संबंध न हो। लेनिनवाद की शिक्षाओं पर अमल करते हुये, हम संगठनात्मक मामलों को गुप्त रखते हैं। साथ-साथ हम सुनिश्चित करते हैं कि हमारी राजनीति खुली हो और हमारे प्रचार व्यापक जनसमुदाय तक पहुंचते हों।

लोकतांत्रिक-केन्द्रीयवाद और पार्टी की सदस्यता पर लेनिनवादी नियमों का पालन करते हुये हमने एक ऐसी पार्टी बनायी है जिसमें कोई गुट नहीं है और जिसकी एकता फ़ौलादी है।

बड़े उद्योगों और बड़े सेवा क्षेत्रों के मज़दूरों के बीच पार्टी के बुनियादी संगठन बनाने में हमने शुरुआती सफलताएं प्राप्त की हैं। इसी दिशा में हमें निरंतर आगे बढ़ना चाहिये। मज़दूर-किसान गठबंधन बनाकर हिन्दोस्तान की धरती पर श्रमजीवी वर्ग का अधिकनायकत्व स्थापित करने के उद्देश्य से पूंजीवादी हमलों के विरोध में श्रमजीवियों के संघर्ष को नेतृत्व देते हुये, हमें बड़े उद्योगों और सेवा क्षेत्रों में पार्टी के बुनियादी संगठन बनाने चाहियें।

बेशक हमारी पार्टी को कुछ ही सफलतायें प्राप्त हुई हैं लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन अभी भी बंटा हुआ है। यही मुख्य वजह है कि अभी भी समाज में चल रहे वर्ग संघर्ष का लक्ष्य शोषकों के राज का क्रांति द्वारा तख़्ता पलट करना नहीं है। हमें श्रमजीवी वर्ग और क्रांति के लिये सभी नुकसानजनक विचारों के खि़लाफ़ संघर्ष तेज़ करना है। यह हिन्दोस्तान के कम्युनिस्टों की एकता की पुनः स्थापना के लिये यह ज़रूरी शर्त है।

कम्युनिस्ट आंदोलन में जो सोशल डेमोक्रेसी के साथ समझौता करते हैं वे क्रांति को एक दूर के सपने के रूप में पेश करते हैं। ऐसे लोग भाजपा के बदले में एक “धर्म-निरपेक्ष” विकल्प ढूढ़ना फ़ौरी काम बताते हैं। वर्तमान राज्य और तथाकथित धर्म-निरपेक्ष सरमायदारी पार्टियों के बारे में वे भ्रम फ़ैलाते हैं। वे रूस के मेंशेविक और सोशलिस्ट रेवोलूशनरी पार्टियों के जैसा रवैया अपना रहे हैं। रूस में मेंशेविक और सोशलिस्ट रेवोलूशनरी पार्टियां वहां के पूंजीपतियों की पार्टियों और उनकी अस्थाई सरकार के बारे में भ्रम फैलाती थीं। हमें वर्तमान सरमायदारी राज्य और तथाकथित धर्म-निरपेक्ष सरमायदारी पार्टियों के बारे में भ्रमों का पर्दाफ़ाश करना होगा।

यह भ्रम बहुत ही ख़तरनाक है कि मज़दूरों और किसानों के हित को पूरा करने के लिये संसदीय लोकतंत्र का इस्तेमाल किया जा सकता है। कम्युनिस्ट आंदोलन में जो ऐसे भ्रम फ़ैलाते हैं वे लोकतंत्र के बारे में सरमायदारों द्वारा फै़लाए ग़लत विचारों को हवा दे रहे हैं। सरमायदार और उनके बुद्धिजीवी लोकतंत्र और अधिनायक्तव के बारे में बहुत गुमराह करते हैं। उनके प्रचार के मुताबिक वर्तमान लोकतंत्र सभी वर्गों के हितों की हिफ़ाज़त कर सकता है। सरमायदारों के प्रचार के मुताबिक लोकतंत्र और अधिनायकत्व परस्पर विरोधी हैं।

सच तो यह है कि समाज परस्पर विरोधी वर्गों में बंटा हुआ है। ऐसे समाज में किसी एक वर्ग का शासन होता है। इसी वर्ग के लिये लोकतंत्र होता है। इसके विरोधी वर्गों के ऊपर अधिनायकत्व होता है। सरमायदारी राज्य शोषित जनसमुदाय के ऊपर क्रूर तानाशाही लागू करके शोषकों को अपनी अमीरी बढ़ाने की खुली छूट देता है। श्रमजीवियों का राज्य शोषकों के ऊपर अपना अधिनायकत्व लागू करके मेहनतकश लोगों को शोषण से मुक्त करता है।

लेनिन ने यह सच्चाई उजागर की कि संसदीय लोकतंत्र सरमायदार वर्ग की तानाशाही का एक रूप है। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि सरमायदारी तानाशाही का यह पसंदीदा रूप है। संसदीय लोकतंत्र जहां स्थापित हो जाता है वहां बेशक कोई भी पार्टी सरकार बनाये, बेशक कोई भी व्यक्ति मंत्री बने, सरमायदार का शासन सुरक्षित रहता है।

अक्तूबर क्रांति इसलिये सफल हुई क्योंकि बोल्शेविक पार्टी ने मज़दूरों, किसानों और सैनिकों के मन से संसदीय लोकतंत्र के बारे में भ्रमों को साफ़ कर दिया था। बोल्शेविक पार्टी ने सोवियत लोकतंत्र की स्थापना करने में मज़दूर वर्ग को अगुवाई दी। सोवियत लोकतंत्र श्रमजीवी लोकतंत्र का एक रूप था।

आंदोलन में गलत विचारों और लाइनों का सिर्फ खंडन करना ही काफ़ी नहीं है। हमें यह भी समझाना होगा कि मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिये यह क्यों ग़लत और हानिकारक है। हमें विश्वास है कि जो भी क्रांति और कम्युनिज़्म चाहते हैं वे आखि़रकार मज़दूर वर्ग की एक एकत्रित अगुवा पार्टी में एक हो जायेंगे। इस दृढ़ विश्वास के साथ हमें आंदोलन में संघर्ष चलाना चाहिए।

कम्युनिस्ट आंदोलन में ऐसी कई पार्टियां और व्यक्ति हैं जो अभी भी समझते हैं कि देहात में कुछ इलाकों को मुक्त कराकर शहरों को देहात से घेरना ही क्रांति का रास्ता है। उनके ख्याल के मुताबिक, क्योंकि चीन में सशस्त्र कृषि क्रांति सफल हुई, हिन्दोस्तान में भी ऐसा हो सकता है। बहुत साल पहले, 1951 में कामरेड स्टालिन ने हिन्दोस्तानी कम्युनिस्टों के एक प्रतिनिधिमंडल को यह समझाया था कि हिन्दोस्तान की हालतों में यह रास्ता सफल नहीं हो सकता है। कामरेड स्टालिन ने समझाया था कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी तभी सफल हो पायी जब उसने “लोंग मार्च” करके सोवियत संघ की सरहद के साथ लगे हुये इलाके में अपना मुक्त गढ़ बनाया। हिन्दोस्तान के बार्डर में ऐसा कोई दोस्ताना समाजवादी देश नहीं है। उन्होंने समझाया कि सिर्फ़ मज़दूरों और किसानों का गठबंधन ही हिन्दोस्तान मंे क्रांति ला सकता है।

आज हिन्दोस्तान के मज़दूर और किसान पूंजीवादी हमलों के खि़लाफ़ अपना संघर्ष तेज़ कर रहे हैं। कम्युनिस्टों के लिये आज अनुकूल हालतें हैं कि वे मज़दूर वर्ग की राजनीतिक एकता को मजबूत करें और मज़दूरों-किसानों का गठबंधन बनाएं। पूंजीपतियों के हमलों के खि़लाफ़ कई औद्योगिक क्षेत्रों और शहरों मंे एकताबद्ध संघर्ष के तंत्र के रूप में मज़दूर एकता समितियां बन रही हैं। कुछ देहाती इलाकों में मज़दूर-किसान समितियां बनी हैं। कई रिहायसी इलाकों में लोगों को सत्ता में लाने के लिये समितियां बन रही हैं। संघर्ष के दौरान बनी हुई ऐसी समितियां भविष्य में श्रमजीवी राज्य सत्ता के तंत्र में तब्दील हो सकती हैं। कम्युनिस्टों के सामने चुनौती है कि ऐसी समितियों को नेतृत्व देकर उन्हें इसी दिशा में ले जायें। बोल्शेविकों ने जैसे अपने देश में सोवियतों के साथ किया, वैसे ही हमें करना चाहिये।

साथियों!

पिछले 100 साल में दुनिया की बीती तमाम गतिविधियांे ने माक्र्सवादी-लेनिनवादी विचार को सही साबित किया है। विश्व क्रांति की लहर बार-बार ज्वार से भाटा और भाटे से ज्वार के दौरों से गुजरती रही है। लेकिन यह युग वही है जैसे लेनिन ने विश्लेषण किया था। विश्व स्तर पर दो परस्पर विरोधी सामाजिक व्यवस्थाओं के बीच में टकराव चल रहा है। पूंजीवाद अपने अंतिम चरण, यानी साम्राज्यवाद, पर पहुंच गया है। उसके सामने उसकी मौत मंडरा रही है। पूंजीवाद कोशिश कर रहा है कि कम्युनिज़्म का शुरुआती चरण यानी कि समाजवाद का जन्म और निर्माण न हो। पूंजीवाद अपने आपको ज़िन्दा रखने के लिये समाजवाद के खि़लाफ़ ज़िन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा है।

अक्तूबर क्रांति से पहले साम्राज्यवादी सरमायदार ने कभी भी नहीं सोचा था कि श्रमजीवी वर्ग उनके राज्य का तख़्ता पलट करके अपना राज्य स्थापित कर सकता है। अक्तूबर क्रांति की जीत के बाद साम्राज्यवादियों ने इससे सबक लेकर कोई कसर नहीं छोड़ी कि समाजवाद को जन्म लेने से पहले ही उसका गला घोट दिया जाये। साथ ही जहां-जहां समाजवाद की स्थापना हुई उसे नष्ट किया जाये। साम्राज्यवादी हर प्रकार की मक्कारी और खून-ख़राबे के ज़रिये अपने इस इरादे को क़ामयाब करने में लगे रहे हैं।

जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, तब हमारी पार्टी ने समझ लिया था कि दुनिया में एक नया दौर शुरू हो गया है। यह क्रांति के पीछे हटने का दौर है। इस दौर में हवा मज़दूर वर्ग और समाजवाद के खि़लाफ़ चल रही है।

अब साम्राज्यादी प्रणाली के सभी मुख्य अंतर्विरोध तीखे हो रहे हैं। यह इस बात का संकेत है कि विश्व क्रांति भाटे से ज्वार में बदलने वाली है। इन हालतों में अंदर और बाहर की ताक़तों से हिन्दोस्तान के लोगों के लिये ख़तरा बढ़ रहा है। हमारे सामने चुनौती है कि क्रांति के लिये आत्मगत हालतें तेज़ी से तैयार करें।

आओ साथियों, अपनी पार्टी को और मजबूत करें! राजनीतिक तौर पर एकीकृत मज़दूर वर्ग की अगुवा बतौर हिन्दोस्तान के कम्युनिस्ट आंदोलन की एकता की पुनः स्थापना करें!

महान अक्तूबर क्रांति को सलाम करते हुये, हमारे देश में श्रमजीवी क्रांति की जीत के लिये आत्मगत हालतें तैयार करें!

इंक़लाब ज़िन्दाबाद!

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