बैंकों द्वारा दिये गये क़र्ज़ों में बढ़ते पैमाने पर वृद्धि और बैंकों की बेहतर लाभकारिता को हिन्दोस्तानी अर्थव्यवस्था के लिये अच्छे हालातों के संकेत के रूप में पेश किया जा रहा है। हालांकि हक़ीक़त यह है कि यह क़र्ज़ वृद्धि, उत्पादन के लिए दिए जाने वाले क़र्ज़ों के बजाये, उपभोग के लिए दिए गये क़र्ज़ाें में बढ़ोतरी के कारण हो रही है। यह अर्थव्यवस्था के लिए एक अच्छा संकेत नहीं है। यह एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है। इसके अलावा, बैंकों की बेहतर लाभकारिता को हासिल करने के लिये बहुत अधिक सार्वजनिक धन का इस्तेमाल किया गया है, उन क़र्ज़ों की माफ़ी के लिये जिनकी भारपाई पूंजीपति नहीं कर रहे हैं। इसके साथ-साथ बैंकों द्वारा उभोक्ताओं की बचत पर कम ब्याज दिया जा रहा है, जबकि उभोक्ताओं द्वारा लिये गये क़र्ज़ाें पर अधिक ब्याज वसूला जा रहा है।
सितंबर 2023 में बैंकों का बकाया क़र्ज़ एक साल पहले की तुलना में लगभग 20 प्रतिशत अधिक है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का कुल मुनाफ़ा 2022-23 में 1,00,000 करोड़ रुपये से अधिक था। पांच साल पहले इन्हीं बैंकों को 85,000 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था। सरकार का दावा है कि अर्थव्यवस्था के लिये ये बहुत अच्छे संकेत हैं, कथित तौर पर जो दिखाते हैं कि आने वाले वर्षों में हिन्दोस्तान का वित्तीय क्षेत्र तेज़ी से आर्थिक विकास में मदद करने की स्थिति में होगा।
किसे अधिक क़र्ज़ मिल रहा है इसका विस्तृत विश्लेषण, एक काफ़ी अलग तस्वीर दिखाता है। हिन्दोस्तानी बैंक, औद्योगिक क्षेत्र में विस्तार के बजाये, व्यक्तिगत उपभोग की वस्तुओं के लिए अधिक क़र्ज़ दे रहे हैं।
उपभोक्ता-क़र्ज़ का तेज़ी से विकास
भारतीय रिज़र्व बैंक (आर.बी.आई.) के मासिक बुलेटिन में खुदरा क़र्ज़ (व्यक्तियों को दिए गए क़र्ज़) की हालिया समीक्षा में बताया गया है कि, “कोविड के बाद की अवधि में बैंकों के द्वारा दिये गये कुल क़र्ज़ में वृद्धि का बड़ा हिस्सा खुदरा क़र्ज़ में हुई वृद्धि से आया है।”
जबकि बैंकों द्वारा उद्योगों के लिए दिए जाने वाले क़र्ज़ में गिरावट आई है, व्यक्तिगत ग्राहकों के खुदरा क़र्ज़ (गृह क़र्ज़ या होम लोन, वाहनों और उपभोग की टिकाऊ वस्तुओं के लिए क़र्ज़ तथा क्रेडिट कार्ड के क़र्ज़), में वृद्धि हुई है। आर.बी.आई. द्वारा प्रकाशित आंकड़ों से पता चलता है कि मार्च 2014 में उद्योग, व्यापार और सेवाओं के लिए दिए जाने वाला क़र्ज़, बैंकों के कुल क़र्ज़ का 70 प्रतिशत हुआ करता था जो मार्च 2023 में घटकर 50 प्रतिशत से भी कम हो गया है। इसी अवधि के दौरान, कुल क़र्ज़ में खुदरा-क़र्ज़ का हिस्सा, 18 प्रतिशत से बढ़कर 32 प्रतिशत हो गया है।
इस साल, मार्च में बैंकों का बकाया खुदरा क़र्ज़ 41 लाख करोड रुपये था, जो पांच साल पहले की तुलना में दोगुना हो गया है। इससे निर्माण-सामग्री, टेलीविजन और अन्य टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं सहित विभिन्न वस्तुओं की मांग में वृद्धि होने में मदद मिली है।
हिन्दोस्तान में खुदरे-क़र्ज़ को बैंक एक सुरक्षित निवेश मानते हैं। मार्च 2023 तक, केवल 1.4 प्रतिशत खुदरे क़र्ज़ों को न चुकाये जाने वाले क़र्ज़ (डूबंत क़र्ज़) या गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एन.पी.ए.) के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
आवास क़र्ज़ (होम लोन्स) बैंकों द्वारा दिए जाने वाले खुदरा क़र्ज़ का एक बड़ा हिस्सा है। हमारे देश में, अधिकांश व्यक्तिगत क़र्ज़ लेने वालों के लिए, होम लोन, उनका सबसे बड़ा निवेश होता है। भले ही आर्थिक हालात खराब हो जाएं और लोगों की नौकरियां चली जाएं, वे अपने आवास क़र्ज़ पर डिफॉल्ट करने के बजाय, व्यक्तिगत खर्च में तेज़ी से कटौती करते हैं। यह बड़े पूंजीपतियों द्वारा लिए गए कर्ज़ों के बिल्कुल विपरीत है, जो “मुश्किल बाजार स्थितियों” का बहाना बनाकर अक्सर बैंकों को अपने क़र्ज़े की किश्त का भुगतान करना बंद कर देते हैं।
बैंक भी अधिक उपभोक्ता-क़र्ज़ देने के इच्छुक हैं क्योंकि वे अपेक्षाकृत अधिक लाभदायक हैं। ऐसे क़र्ज़ों पर अधिक ब्याज की गुंजाइश भी होती है। उदाहरण के लिए, अधिकांश बैंकों द्वारा, आवास-क़र्ज़ (हाउसिंग लोन्स) पर ली जाने वाली वार्षिक ब्याज की दर, वर्तमान में 8.5 से 11 प्रतिशत है, जबकि बचत बैंक में जमा राशि पर ब्याज की दर केवल 2.75 से 3.5 प्रतिशत तक है। टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के लिए क़र्ज़ पर ब्याज-दरें और भी अधिक हैं। सबसे अधिक लाभदायक क्रेडिट कार्ड क़र्ज़ हैं, जहां बैंकों द्वारा लिया जाने वाला ब्याज प्रति माह 2.5 से 3.5 प्रतिशत तक हो सकता है, यानी जो प्रति वर्ष 30 प्रतिशत से भी अधिक होता है! पिछले एक साल में बकाया क्रेडिट कार्ड क़र्ज़, लगभग 30 प्रतिशत बढ़कर, 2 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।
कई विकसित पूंजीवादी देशों का अनुभव बताता है कि उपभोक्ता क़र्ज़ की तीव्र वृद्धि एक ख़तरनाक प्रवृत्ति है। यह उपभोक्ता वस्तुओं की मांग को बढ़ावा देने का काम करता है, जिससे ऐसे सामान बेचने वाले पूंजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ता है। हालांकि, लोगों को, अपनी आमदनी से कहीं अधिक खर्च करने के लिए प्रेरित करके, उपभोक्ता क़र्ज़, लोगों के दिवालिया होने का ख़तरा बढ़ा देता है।
अमरीका में 2008 का वित्तीय संकट, आवास के लिए बैंकों द्वारा दिए गए अत्यधिक और बढ़ा-चढ़ाकर दिए गए क़र्ज़ का नतीजा था। इस संकट के कारण, कई बैंक दिवालिया हो गए क्योंकि लोग बैंकों को अपना क़र्ज़ नहीं चुका सके। जब बैंकों ने, उन घरों पर कब्जा कर लिया जिनके लिए क़र्ज़ दिया गया था, तो लाखों लोग बेघर हो गए।
अमरीकी लोगों को एक भयानक व्यक्तिगत क़र्ज़-चक्र में धकेल दिया गया था जिससे वे कभी बाहर नहीं निकल पाए। ब्याज के भुगतान और मूल क़र्ज़ की अदायगी ने उनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा उनसे छीन लिया। परिणामस्वरूप, लोगों को अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए भी उधार लेने के लिए मजबूर होना पड़ा।
बैंकों द्वारा खुदरा क़र्ज़ को आगे बढ़ाने की रणनीति के कारण, हिन्दोस्तान में ख़तरे के संकेत की खबरें पहले से ही आ रही हैं। एक हालिया-रिपोर्ट में बताया गया है कि पिछले दशक में उपभोग-व्यय की वृद्धि, घरेलू आय से अधिक रही है। इसका एकमात्र अपवाद 2020-21 का वर्ष है, जब लॉकडाउन ने उपभोग को दबा दिया था।
रिपोर्ट में बताया गया है कि लोगो की आमदनी उस दर पर नहीं बढ़ी है जिस दर पर उपभोग वस्तुओं की खरीद बढ़ी है, और इसलिए, लोगों को या तो बचत से या क़र्ज़ लेकर खर्च करना पड़ा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि घरेलू बचत में काफी कमी आई है और साथ ही उन पर क़र्ज़ का बोझ बढ़ गया है।
2009-10 और 2010-11 में, घरेलू क़र्ज़, घरेलू बचत से थोड़ा ही अधिक था, जिसका मतलब है कि एक वर्ष की बचत सभी घरेलू क़र्ज़ों का भुगतान करने के लिए पर्याप्त थी। 2021-22 में, घरेलू क़र्ज़ को चुकाने के लिए 1.8 वर्ष की बचत की आवश्यकता थी।
जून 2023 में, भारतीय रिजर्व बैंक की फाइनेंशियल स्टेबिलिटी रिपोर्ट (एफ.एस.आर.) ने बताया कि मार्च 2021 और मार्च 2023 के बीच खुदरा बैंक क़र्ज़ 24.8 प्रतिशत की चक्रवृद्धि वार्षिक दर से बढ़े, जो कि सभी क़र्ज़ों की वृद्धि की दर से लगभग दोगुना था।
हिन्दोस्तानी पूंजीपति, देश की उत्पादक क्षमता को बढ़ाने में निवेश नहीं कर रहे हैं। पूंजीपतियों द्वारा लिए जाने वाले औद्योगिक क़र्ज़ की मांग में कटोती के कारण, बैंकों के क़र्ज़ के पैटर्न में बदलाव जरूरी हो गया है।
बैंक लाभप्रदता में सुधार – किसके हित की बली चढ़ाकर?
बैंकों की अच्छी वित्तीय सेहत और अधिक क़र्ज़ देने की उनकी क्षमता, केंद्र सरकार के बजट से वित्त-पोषित पूंजीवादी कंपनियों द्वारा दिए गए क़र्ज़ों को बड़े पैमाने पर माफ करने से हासिल हुई है। 2022-23 तक, पिछले नौ वर्षों के दौरान, बैंकों द्वारा कुल 14.56 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ किये गये हैं। राइट-ऑफ (पूंजीपतियों के क़र्ज़ माफ करने की गतिविधि) की गति पिछले पांच वर्षों में और भी तेज़ हो गई जब हर साल लगभग दो लाख करोड़ रुपये राइट-ऑफ किए गए।
इससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का सकल एन.पी.ए., 2022-23 तक 10 लाख करोड़ रुपये से अधिक के शिखर से गिरकर 4.28 लाख करोड़ रुपये पर आ गया। भारतीय रिजर्व बैंक की एफ.एस.आर. के अनुसार, कुल क़र्ज़ के प्रतिशत के रूप में सकल एन.पी.ए. मार्च 2018 में 11.5 प्रतिशत के उच्च स्तर से घटकर मार्च 2023 में 10 साल के सबसे निचले स्तर पर, यानी 3.9 प्रतिशत पर आ गया है।
क़र्ज़ माफी के सबसे बड़े लाभार्थी इजारेदार पूंजीपति हैं जो बैंकों से सबसे बड़ी मात्रा में क़र्ज़ प्राप्त करते हैं। इजारेदार घरानों में से, दस सबसे बड़े क़र्ज़दारों को, 31 मार्च, 2015 तक सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पी.एस.बी.) द्वारा, कुल मिलाकर रु. 7,32,780 करोड़ रुपये का क़र्ज़ दिया गया था। इस सूची में रिलायंस, वेदांत, एस्सार, अदानी और जेपी समूह की कंपनियां शीर्ष पर थीं। इजारेदार घराने, किसी भी प्रकार के निवेश या सट्टेबाजी के लिए ऐसे क़र्ज़ स्वीकृत कराने में माहिर हैं। जब तक वे अधिकतम मुनाफ़ा कमाते हैं, वे बैंक क़र्ज़ चुकाते हैं। जब उन्हें उनका अपेक्षित मुनाफा नहीं मिलता, तो वे बैंकों को भुगतान करना बंद कर देते हैं।
इतने बड़ी पूंजीपतियों के लिए की गयी क़र्ज़ माफी के कारण सार्वजनिक बैंकों (पी.एस.बी.) को होने वाले नुक़सान की भरपाई के लिए, केंद्र सरकार ने 2014-15 और 2020-21 के बीच पी.एस.बी. में 3.4 लाख करोड़ रुपये से अधिक का निवेश किया। पूंजी के इस प्रवाह के बिना, पीएसबी आगे क़र्ज़ देने में सक्षम नहीं होते – चाहे खुदरा हो या औद्योगिक। इस प्रकार, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वर्तमान ‘अच्छी सेहत’ इजारेदार पूंजीपतियों के क़र्ज़ो को बड़ी मात्रा में माफ करके हासिल की गई है।
इसे बड़ी भारी सार्वजनिक खर्चे के द्वारा हासिल किया गया है। इसका मतलब स्पष्ट है कि सार्वजनिक धन का उपयोग क़र्ज़ न चुकाने वाले पूंजीवातियों (लोन डिफाल्टरस) के हित में किया गया है।
निष्कर्ष
यह हक़ीक़त कि बैंक क़र्ज़ में तेज़ी से वृद्धि मुख्य रूप से उपभोक्ता क़र्ज़ से प्रेरित है, यह अर्थव्यवस्था के स्वस्थ होने का संकेत नहीं है बल्कि एक ख़तरनाक प्रवृत्ति का संकेत है। यह इस बात का संकेत है कि कामकाजी लोग अधिक उधार ले रहे हैं और कम बचत कर रहे हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बेहतर लाभप्रदता भी जश्न मनाने की बात नहीं है, क्योंकि यह पूंजीपतियों द्वारा दिए गए क़र्ज़ों को माफ करने के लिए भारी मात्रा में सार्वजनिक धन खर्च करके हासिल किया गया है। इस हक़ीक़त पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि बैंक, कामकाजी लोगों को लूटकर मुनाफ़ा कमा रहे हैं, उपभोक्ता क़र्ज़ पर ब्याज की दर, जमा धन पर दिए जाने वाले ब्याज की दर की तुलना में बहुत अधिक हैं।