29 अगस्त को मणिपुर विधानसभा का एक दिवसीय सत्र बुलाया गया था। पिछले 4 महीनों से राज्य में फैली हिंसा में मरे हुए लोगों की याद में सदन में दो मिनट का मौन रखा गया। मुख्यमंत्री द्वारा शांति का आह्वान करते हुए पेश किए गए एक प्रस्ताव को अपनाया गया। लेकिन राज्य में हिंसा के कारणों पर और शांति कैसे लाई जाए, इस पर कोई चर्चा नहीं हुई। स्थिति पर चर्चा के लिए सत्र को 5 दिनों तक बढ़ाने की विपक्ष की मांग को ख़ारिज़ कर दिया गया। विपक्ष ने इसके विरोध में वॉकआउट किया, जिसके बाद, विधानसभा सत्र 48 मिनट के अंदर अचानक समाप्त हो गया।
यह स्पष्ट है कि मणिपुर सरकार का राज्य की स्थिति पर चर्चा करने का कोई इरादा नहीं था। दस कुकी विधायक, जिनमें सत्तारूढ़ भाजपा के सात विधायक भी शामिल थे, इस सत्र में शामिल नहीं हुए, क्योंकि उन्होंने कहा कि राज्य सरकार इंफाल में उनकी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकती है। विधानसभा सत्र बुलाने का एकमात्र कारण इस संवैधानिक ज़रूरत को पूरा करना था कि दो विधानसभा सत्रों के बीच 6 महीने से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिए। मणिपुर विधानसभा का पिछला सत्र मार्च में आयोजित किया गया था।
इससे तीन हफ्ते पहले भी, लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान मणिपुर की मौजूदा स्थिति के पीछे के कारणों और आगे की राह पर कोई सार्थक चर्चा नहीं हुई थी। सरकार और विपक्ष के बीच सिर्फ आरोप-प्रत्यारोप होते रहे।
3-4 मई के बाद से सशस्त्र बलों द्वारा फैलाई गई तबाही और हिंसा के परिणामस्वरूप, कम से कम 180 लोगों की जान चली गई है और 60,000 से अधिक लोगों के घर तबाह हो गए हैं, जो शरणार्थी बन गए हैं। समाचार रिपोर्टों के अनुसार, हथियारबंद गिरोहों ने सभी कुकी परिवारों को राजधानी इंफाल से भागने के लिए मजबूर कर दिया है, जबकि मैतेई परिवारों को कुकी बहुल क्षेत्रों से भागने के लिए मजबूर किया गया है। इसके लिए सिर्फ़ हथियारबंद गिरोह ही दोषी नहीं हैं। मुख्य रूप से दोषी वे हैं जिन्होंने इन हथियारबंद गिरोहों को संगठित किया, उन्हें हथियार और धन दिए, उन्हें राज्य की सुरक्षा दी तथा उन्हें लामबंध किया व खुली छूट दी ।
जाना जाता है कि हिंसा की पहली घटनाओं के चार महीने बाद भी, हिन्दोस्तानी राज्य के सशस्त्र बलों के शस्त्रागारों से ली गई कम से कम 4,000 अत्याधुनिक हथियार अभी भी इन गिरोहों के हाथों में हैं। हिन्दोस्तानी राज्य ने इन हथियारों को वापस लेने की अब तक कोई कोशिश नहीं की है।
आम तौर पर यह माना जा रहा है कि अगर हिन्दोस्तानी राज्य चाहे तो वह कुछ ही दिनों में अराजकता और हिंसा को जल्दी से ख़त्म कर सकता है। परन्तु चार महीने से अधिक समय तक राज्य ने मणिपुर में ऐसा नहीं किया है। यह दर्शाता है कि इसके पीछे हिन्दोस्तानी राज्य के कुछ अति-दुष्ट इरादे हैं। मणिपुरी समाज में लोगों के आपसी बंटवारे को गहरा और कठोर बनाने और लोगों की एकता को तोड़ने के लिए अराजकता और हिंसा की स्थिति को जानबूझकर लंबे समय तक बनाए रखा जा रहा है।
हिन्दोस्तानी राज्य के सशस्त्र बल – केंद्रीय गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करने वाली असम राइफल्स और राज्य सरकार के नियंत्रण में मणिपुर पुलिस – को लोगों के जीवन और संपत्तियों की सुरक्षा और शांति सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी दी गई है। ये सशस्त्र बल लोगों के बीच पूरी तरह से बदनाम हैं। उन्होंने जनता के लिए सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की है। दूसरी ओर, यह व्यापक रूप से माना जाता है कि असम राइफल्स कुकी गिरोहों को हथियार दे रही है और उनकी रक्षा कर रही है। यह भी व्यापक रूप से माना जाता है कि मणिपुर पुलिस मैतेई गिरोहों को हथियार दे रही है और उनकी सुरक्षा कर रही है।
केंद्रीय गृह मंत्री और मणिपुर के मुख्यमंत्री, दोनों समस्या के कारण के बारे में अपने बयानों से भावनाओं को भड़का रहे हैं। वे उन शरणार्थियों को दोषी ठहरा रहे हैं जो म्यांमार में फ़ौजी शासन के लागू होने के बाद वहां से भाग कर आये हैं। कुकी-जो शरणार्थियों को पहाड़ियों में वन भूमि पर क़ब्ज़ा करने और उन ज़मीनों पर खसखस की खेती करने का दोषी बताया गया है।
पड़ोसी देश के शरणार्थियों को दोषी ठहराना एक आसान बहाना है लेकिन इसे मणिपुर में हाल की हिंसा की वजह नहीं माना जा सकता है। गौरतलब है कि मिज़ोरम में 40,000 से अधिक शरणार्थियों और विस्थापित लोगों का स्वागत किया गया है, लेकिन मिज़ोरम पूर्वोत्तर में सबसे शांतिपूर्ण राज्यों में से एक है। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करना केंद्र सरकार की ज़िम्मेदारी है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत असूलों के अनुसार दूसरे देश से आए शरणार्थियों की देखभाल की जाए।
खसखस की खेती के लिए कुकी – जो शरणार्थियों को दोषी ठहरा कर उस आम जानी-मानी बात से लोगों का ध्यान हटाने की कोशिश की जा रही है, कि खसखस की खेती के पीछे सत्ता में बैठे लोगों का हाथ है। इस खसखस की खेती से सत्ता में बैठे लोगों की तिजोरियां भरी जाती हैं और विभिन्न हथियारबंद गिरोहों के लिए धन जुटाया जाता है।
मुख्यमंत्री बीरेन सिंह को बख़ार्स्त करने की संसद के विभिन्न विपक्षी सदस्यों की मांग का उल्लेख करते हुए, गृहमंत्री शाह ने कहा है कि किसी मुख्यमंत्री को हटाने की आवश्यकता तभी होती है जब वह केंद्र सरकार के साथ सहयोग नहीं कर रहा हो। केंद्रीय गृहमंत्री ने घोषणा की है कि बीरेन सिंह की मणिपुर सरकार वर्तमान स्थिति से निपटने में केंद्र सरकार के साथ मिलकर सहयोग कर रही है। दूसरे शब्दों में, अराजकता और हिंसा की स्थिति को चार महीने से अधिक समय तक बनाए रखना एक ऐसी योजना का हिस्सा प्रतीत होता है, जिसमें दोनों केंद्र और राज्य सरकारें मिलजुलकर काम कर रही हैं।
समस्या का स्रोत
समस्या का स्रोत मणिपुर और उसके लोगों के प्रति हिन्दोस्तानी शासक वर्ग का दृष्टिकोण है। मणिपुर के हिन्दोस्तानी संघ में विलय के समय से, नई दिल्ली में आई एक के बाद दूसरी, सभी सरकारें लगातार मणिपुर के लोगों के अधिकारों की उपेक्षा और उल्लंघन करती रही हैं। हिन्दोस्तानी शासक वर्ग मणिपुर और देश के सभी राज्यों की भूमि और प्राकृतिक संसाधनों को अपनी निजी जागीर मानता है, जिसका अधिक से अधिक मुनाफ़ों के लिए दोहन किया जा सके। शासकों को मणिपुर के लोगों की कोई परवाह नहीं है – चाहे मैतेइ हों, कुकी हों, नागा हों या अन्य।
मणिपुर के लोगों के अपने अधिकारों के संघर्षों को कुचलने के लिए, हिन्दोस्तानी सरकार ने अलग-अलग नस्लों के समूहों को एक-दूसरे के खि़लाफ़ भड़काने की नीति अपनाई है। सरकार ने समय-समय पर विभिन्न हथियारबंद गिरोहों के साथ, अलग-अलग वार्तायें व तथाकथित शांति समझौते किये हैं। एक ऐसी स्थिति पैदा हो गई है जिसमें लोग सरकारी सशस्त्र बलों और गैर-सरकारी हथियारबंद गिरोहों की रहमत पर निर्भर हैं, जो खुद ही अपना क़ानून बनाते हैं और लागू करते हैं। तथाकथित शांति समझौतों के ज़रिये यह डर फैलाया गया है कि मणिपुर राज्य को छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिया जायेगा। इससे मणिपुर के सभी लोगों में भड़काऊ भावनाएं पैदा की गयी हैं ।
पिछले एक दशक से, केंद्र सरकार “एक्ट ईस्ट पॉलिसी” के नाम से जानी जाने वाली नीति अपना रही है। इस एक्ट ईस्ट पॉलिसी का एक हिस्सा हिन्दोस्तान को सड़क और रेल नेटवर्क के माध्यम से दक्षिण पूर्व एशिया के देशों से जोड़ना है। इसका एक दूसरा हिस्सा मणिपुर और उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों के अनमोल खनिज संसाधनों का शोषण करना है। मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में चूना पत्थर, क्रोमाइट और प्लैटिनम ग्रुप की धातुओं के भरपूर भंडार पाए गए हैं। कई पूंजीपतियों ने इन खनिज संसाधनों के शोषण के लिए मणिपुर सरकार के साथ समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। ये समझौते मणिपुर के लोगों की पीठ पीछे किये गये हैं। जब लोगों को पता चला कि शोषण के लिए उनकी ज़मीनों पर पूंजीपतियों द्वारा क़ब्ज़ा किया जा रहा है, तो उन्होंने विरोध प्रदर्शन आयोजित किये। उन्होंने दावा किया है कि उनकी ज़मीन उनकी अनुमति के बिना पूंजीपतियों को नहीं सौंपी जा सकती है।
वन संरक्षण अधिनियम 1980 में हालिया संशोधन, जो केंद्र सरकार को किसी भी क्षेत्र के लोगों की अनुमति के बिना, देश की सरहदों के 100 किलोमीटर के भीतर वन भूमि पर क़ब्ज़ा करने की अनुमति देता है, उसे इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। मणिपुर के सभी खनिज संपन्न जिले इस दायरे के अन्दर आते हैं।
अपने क़ीमती प्राकृतिक संसाधनों की बेरहम लूट के खि़लाफ़ मणिपुर के लोगों के एकजुट विरोध को तोड़ने के लिए, मणिपुर सरकार ने जानबूझकर यह झूठा प्रचार फैलाया है कि जो लोग अपनी भूमि के अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं, वे “शरणार्थी”, “अफीम की खेती करने वाले”, या “वन भूमि पर अवैध क़ब्ज़ा करने वाले”, आदि हैं। इस झूठे प्रचार का उद्देश्य अपनी भूमि के अधिग्रहण का विरोध कर रहे लोगों को बदनाम करना है, और बाकी लोगों को उनके ख़िलाफ़ लामबंध करना है।
कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मणिपुर की वर्तमान भयावह स्थिति के लिए हिन्दोस्तानी शासक वर्ग ज़िम्मेदार है। शासकों ने अपने संकीर्ण खुदगर्ज़ इरादों को पूरा करने के लिए यह स्थिति पैदा की है।
मणिपुर के लोगों को इस स्थिति से बाहर निकलना होगा। उन्हें शासक वर्ग की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का शिकार बनने से बचना होगा। उन्हें अपने संघर्ष का निशाना हिन्दोस्तानी शासक वर्ग को बनाना होगा, जो उनके सभी दुखों का स्रोत है।