सरकारी प्रवक्ताओं का दावा है कि हिन्दोस्तान दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली एक प्रमुख अर्थव्यवस्था है। परन्तु नौकरियों की संख्या नहीं बढ़ रही है और जो नौकरियां मिल रही हैं उनका स्तर (वेतन और काम की शर्तें) भी गिरता जा रहा है। हिन्दोस्तान की युवा आबादी, जो सबसे मूल्यवान उत्पादक शक्ति है, वह बर्बाद हो रही है, क्योंकि अर्थव्यवस्था पूंजीवादी लालच को पूरा करने की दिशा में चलायी जा रही है, न कि लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में।
हिन्दोस्तान की लगभग 140 करोड़ की कुल आबादी में से लगभग 90 करोड़ लोग 15-59 वर्ष की कामकाजी उम्र में हैं। लेकिन, सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सी.एम.आई.ई.) के अनुसार, मई 2023 में इस कामकाजी उम्र की आबादी में से केवल 40 करोड़ से कुछ अधिक लोगों को ही ऐसी नौकरियां मिल सकीं जिनसे उनका गुज़ारा हो सके। इनमें लगभग 36 करोड़ पुरुष थे और 4 करोड़ महिलाएं थीं। सी.एम.आई.ई. उसी व्यक्ति को रोज़गारशुदा मानता है, जो सर्वे करने के दिन पर कम से कम 4 घंटे की आमदनी कमाने वाले काम में लगा हुआ था। इस प्रकार से, काम पर लगे लगभग 40 करोड़ लोगों में से लगभग 22 करोड़ मासिक या दैनिक वेतन कमाने वाले हैं और लगभग 18 करोड़ स्व-रोज़गार वाले हैं, जिनमें लगभग 10 करोड़ किसान भी शामिल हैं।
अप्रैल 2023 में लगभग 3.2 करोड़ व्यक्ति बेरोज़गार थे; यानी कि वे सक्रिय रूप से रोज़गार की तलाश में थे, लेकिन उन्हें कोई रोज़गार नहीं मिला था। इस प्रकार, श्रम शक्ति में कामकाजी उम्र की आबादी का लगभग आधा हिस्सा ही शामिल है। इसमें वे लोग शामिल हैं जो या तो रोज़गारशुदा हैं या फिर काम की तलाश में हैं, लेकिन इस समय बेरोज़गार हैं। बाकी आधे जो श्रम शक्ति में नहीं हैं, उनमें वे लोग शामिल हैं जो अवैतनिक घरेलू काम में लगे हुए हैं, जो छात्र हैं, या जिन्होंने गुज़ारे लायक रोज़गार खोजने की कोशिश करनी छोड़ दी है।
वर्ष 2017-18 में कामकाजी उम्र की आबादी के अलग-अलग आयु-समूहों को तालिका-1 में दर्शाया गया है। इसमें देखा जा सकता है कि करोड़ों लोग जो काम करने में सक्षम और इच्छुक हैं, उनके पास कमाई योग्य कोई रोज़गार नहीं है। करोड़ों महिलाएं जो उत्पादक कार्य करने में सक्षम हैं, वे सामाजिक बाधाओं के कारण या बाहर काम करना असुरक्षित होने के कारण, घर पर ही रह रही हैं। करोड़ों युवा महिलाएं और पुरुष रोज़गार की तलाश भी नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें रोज़गार मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। ये सभी उत्पादक शक्तियों की भारी बर्बादी को दर्शाते हैं।
तालिका-1 2017-18 में कामकाजी उम्र के व्यक्तियों की स्थिति (करोड़ में)
स्थिति | 15-24 वर्ष आयु | 25-59 वर्ष आयु |
छात्र | 12.9 | 0.4 |
स्व-रोज़गार | 2.1 | 17.5 |
नियमित वेतनभोगी | 1.6 | 9.3 |
अस्थाई काम | 1.5 | 8.9 |
बेरोज़गार* | 1.9 | 1.3 |
घरेलू/घरेलू कार्य | 5.7 | 21.7 |
नियोक्ता | — | 0.7 |
अन्य | 0.4 | 1.6 |
कुल | 26.1 | 61.4 |
*बेरोज़गार वे हैं जो सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश कर रहे थे, लेकिन उन्हें कोई नौकरी नहीं मिली | ||
स्रोत : इंडिकस फाउंडेशन श्वेतपत्र; 21वीं सदी के हिन्दोस्तान के उभरते रोज़गार पैटर्न – लवीश भंडारी और अमरेश दूबे द्वारा, 2019 |
तालिका-2 : आयु समूहों के आधार पर श्रमशक्ति की संरचना (पूर्ण संख्या)
वर्ष | कुल नियोजित | 15 से 30 के बीच कुल नियोजित | 30 से 45 के बीच कुल नियोजित | 45 और उससे अधिक कुल नियोजित |
2016-17 | 41,27,19,418 | 10,34,17,128 | 15,69,29,377 | 15,23,72,914 |
2017-18 | 41,13,98,737 | 9,39,75,526 | 15,70,70,663 | 16,03,52,550 |
2018-19 | 40,61,06,308 | 8,77,18,559 | 15,58,01,007 | 16,25,86,742 |
2019-20 | 40,88,93,381 | 8,47,23,694 | 15,22,15,577 | 17,19.54,109 |
2020-21 | 38,72,14,189 | 7,12,90,790 | 14,08,07,839 | 17,51,15,563 |
2021-22 | 40,18,57,445 | 7,23,30,277 | 14,01,08,658 | 18,94,18,508 |
2022-23 | 40,58,36,970 | 7,10,03,678 | 13,52,38,752 | 19,95,94,541 |
स्रोतः सी.एम.आई.ई. का अर्थव्यवस्था का दृश्य, इंडियन एक्सप्रेस रिसर्च |
तालिका-2 से पता चलता है कि रोज़गारशुदा लोगों की कुल संख्या 2016-17 में 41.27 करोड़ से गिरकर 2022-23 में 40.58 करोड़ हो गई है; और सबसे बड़ी गिरावट युवाओं के रोज़गार में आई है। 2016-17 में श्रमशक्ति में 30 साल से कम उम्र के 10.34 करोड़ लोग थे। 2022-23 के अंत तक यह संख्या 3 करोड़ से अधिक से गिरकर, सिर्फ 7.1 करोड़ रह गई है।
2020-2030 के दशक में कामकाजी उम्र की आबादी 90 करोड़ से बढ़कर लगभग 100 करोड़ होने की संभावना है। यह संभावित रूप से एक विशाल राष्ट्रीय संपत्ति है, जिसे “जनसांख्यिकीय लाभ” कहा जाता है। परन्तु, मौजूदा व्यवस्था में यह संभावित संपत्ति बर्बाद हो रही है।
न सिर्फ़ उपलब्ध नौकरियों की संख्या स्थगित हो गई है, बल्कि नियमित और स्थायी रोज़गार से हटकर, ठेके पर काम की तरफ़ बदलाव हुआ है।
निजी क्षेत्र में, देशी और विदेशी पूंजीवादी कंपनियों में, अस्थायी ठेकों पर काम ही रोज़गार का प्रमुख रूप बनता जा रहा है। अस्थायी ठेकों पर काम करवाकर कंपनियां मज़दूरों पर किये जाने वाले खर्चों में बहुत कटौती कर सकती हैं, क्योंकि कंपनी को ठेके पर रखे गए मज़दूरों को वे सारे अधिकार और सुविधाएं नहीं देनी पड़ती हैं, जो क़ानूनी तौर पर नियमित मज़दूरों को देना होता है।
सार्वजनिक क्षेत्र में भी ठेका मज़दूरी का प्रयोग बढ़ रहा है। सरकारी विभागों और सार्वजनिक कारोबारों में पिछले कई वर्षों से नियमित कर्मचारियों के रिक्त पदों पर कोई भर्ती नहीं की जा रही है ।
2019 में, भारतीय रेल की 35,000 नौकरियों के लिए 1.25 करोड़ लोगों ने आवेदन किया था, यानी कि प्रत्येक नौकरी के लिए 357 आवेदन। जनवरी 2022 में रेलवे के अधिकारियों ने घोषणा कर दी कि वे इन आवेदनों के आधार पर कोई नौकरी नहीं देंगे!
हाल के वर्षों में, गिग अर्थव्यवस्था (जो कंपनी और मज़दूर के बीच के पारंपरिक मालिक-मज़दूर के संबंध के बाहर की एक व्यवस्था है), यह लगातार अर्थव्यवस्था के अधिक से अधिक क्षेत्रों में फैल रही है। वर्तमान में यह अनुमान है कि हिन्दोस्तान में 1.5 करोड़ से अधिक गिग मज़दूर काम कर रहे हैं। इनमें से लगभग 99 लाख डिलीवरी सेवाओं में काम कर रहे हैं। नीति आयोग की 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, 2029 तक गिग अर्थव्यवस्था में लगभग 2.35 करोड़ गिग मज़दूर काम करेंगे। गिग अर्थव्यवस्था में काम करने वाले मज़दूरों को हिन्दोस्तान के श्रम क़ानूनों के अनुसार मज़दूर नहीं माना जाता। यानी कि मज़दूर बतौर उनके अधिकारों की कोई क़ानूनी मान्यता नहीं है।
रोज़गार की बढ़ती असुरक्षा और नौकरियों के घटते स्तर का एक और पहलू यह है कि अधिक से अधिक मज़दूर स्व-रोज़गार का सहारा लेने को मजबूर हो रहे हैं।
पीरियोडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे 2020-21 (यह वार्षिक सर्वेक्षण एन.एस.एस.ओ. द्वारा, अर्थव्यवस्था में रोज़गार और बेरोज़गारी के प्रमुख सूचकांकों का अनुमान लगाने के लिए किया जाता है) की रिपोर्ट ने उजागर किया है कि देश में स्व-रोज़गार करने वाले मज़दूरों को जीवित रहने के लिए किस प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। अप्रैल-जून 2020 में एक वेतनभोगी मज़दूर औसतन प्रतिमाह 17,600 रुपये कमाता था। इसी अवधि में एक स्व-रोज़गार करने वाले व्यक्ति की औसत कमाई केवल 9,541 रुपये प्रति माह थी, जो कि एक वेतनभोगी मज़दूर की कमाई के आधे से थोड़ी अधिक है।
सरकार के प्रवक्ता दावा करते हैं कि स्व-रोज़गार, युवाओं को ‘नौकरी मांगने वालों’ के बजाए ‘नौकरी देने वालों’ बना देगा। परन्तु, वास्तविकता यह है कि स्व-रोज़गार करने वालों में से 5 प्रतिशत से भी कम लोग ही किसी और को नौकरी दे पाते हैं। बाकी स्व-रोज़गार वाले मज़दूर या तो अपने बल पर, या फिर परिवार के सदस्यों की अवैतनिक मदद के सहारे, छोटे व्यवसाय चलाते हैं। अधिकांश मामलों में, स्व-रोज़गार करने के लिये वही लोग मजबूर होते हैं जिन्हें कोई और रोज़गार नहीं मिल रहा हो।
कड़वी सच्चाई तो यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था, काम करने के इच्छुक लोगों को सुरक्षित रोज़गार प्रदान करने में असमर्थ है। पूंजीवादी व्यवस्था देश में मौजूद श्रम शक्ति का उत्पादक ढंग से उपयोग करने में असमर्थ है। वह “जनसांख्यिकीय लाभ” से फ़ायदा उठाने में असमर्थ है।
देश में रोज़गार की स्थिति का सारांश इस प्रकार दिया जा सकता है :
- हिन्दोस्तान की श्रमशक्ति, यानि कामकाजी लोगों की संख्या, कामकाजी उम्र के लोगों की बढ़ती संख्या के अनुपात में नहीं बढ़ रही है;
- पिछले पांच वर्षों में रोज़गारशुदा व्यक्तियों की संख्या मोटे तौर पर 40 करोड़ से कुछ अधिक पर स्थगित है, जो कामकाजी उम्र के लोगों की संख्या के आधे से भी कम है;
- नौकरियों का स्तर गिरता जा रहा है, क्योंकि निजी और सार्वजनिक, दोनों क्षेत्रों में अधिकांश नई नौकरियां अस्थायी ठेकों पर होती हैं;
- नई नौकरियों का एक बड़ा हिस्सा गिग अर्थव्यवस्था में है, जिसमें मज़दूरों के अधिकारों को मान्यता नहीं दी जाती है; और
- बहुत से लोग जिन्हें नौकरी नहीं मिल पाती है, वे स्व-रोज़गार करने को मजबूर हो जाते हैं और न्यूनतम वेतन से भी कम कमाई करके अपना गुज़ारा कर रहे हैं।
रोज़गार की कमी और नौकरियों के स्तर में गिरावट अर्थव्यवस्था की पूंजीवाद-परस्त दिशा की एक अनिवार्य विशेषता है। जब निजी मुनाफे़ को अधिकतम करना अर्थव्यवस्था का मक़सद होता है, तब मज़दूरों के वेतन को एक लागत के रूप में देखा जाता है, जिसे कम से कम किया जाता है।
पूंजीपति मालिक कम से कम मज़दूरों से अधिक से अधिक काम वसूलने की कोशिश करते हैं। मज़दूरों के एक हिस्से का अत्यधिक शोषण किया जाता है, जबकि दूसरे हिस्से को बिना किसी रोज़गार के, जबरन बेकार रखा जाता है। पूंजीपति बेरोज़गारों की रिज़र्व सेना का फ़ायदा उठाकर, मज़दूरों के वेतनों को कम करके रखते हैं और उनके शोषण को तेज़ करते हैं। सुरक्षित रोज़गार, निश्चित काम के घंटे, काम करने की सुरक्षित और आरामदायक परिस्थितियां, आदि सुनिश्चित नहीं की जाती हैं क्योंकि ये सब पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफे़ हासिल करने के रास्ते में बाधाएं हैं।
सामाजिक उत्पादन की व्यवस्था का उद्देश्य मज़दूरों, किसानों और अन्य मेहनतकश लोगों की ज़रूरतों को पूरा करना नहीं है। क्या उत्पादित किया जायेगा और कितना, यह इस बात से तय नहीं होता कि हिन्दोस्तानी समाज को किन-किन चीज़ों की ज़रूरत है। यह पूंजीपतियों के अधिकतम मुनाफ़े की लालच से निर्धारित होता है। इसकी वजह से असंतुलित विकास होता है। किसी एक क्षेत्र के आगे बढ़ने के कारण उसमें नौकरियों में वृद्धि होती है, जबकि अन्य क्षेत्रों को संकट में धकेल दिया जाता है। इसके परिणामस्वरूप, उन अन्य क्षेत्रों में नौकरियों में बड़े पैमाने पर छंटनी होती है। अर्थव्यवस्था के कई प्रमुख क्षेत्रों में बहुत कम वृद्धि हुई है या वे स्थगित हैं, क्योंकि पूंजीपतियों को उनमें अब निवेश करना ज्यादा मुनाफे़दार नहीं लगता है। 2016 में नोटबंदी के बाद, 2017 में जी.एस.टी. के लागू होने के बाद और 2020 में हुए लॉकडाउन के बाद से, लाखों-लाखों छोटी और मध्यम स्तर की कंपनियां बंद हो गई हैं।
पिछले कुछ दशकों से जो “विकास” हो रहा है, उसकी वजह से सबसे बड़े हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपति दुनिया के सबसे अमीर लोगों की श्रेणी में शामिल हो गए हैं। इसे मज़दूरों के शोषण, किसानों की लूट और हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट को तेज़ करके हासिल किया गया है। वर्तमान दौर में पूंजीवाद की अत्यंत परजीवी प्रकृति इस हक़ीक़त से प्रकट हो जाती है कि जबकि सरकार के प्रवक्ता “विकास” का दावा कर रहे हैं, तो ज़मीनी तौर पर, बेरोज़गारी और क्षमता से कम रोज़गार बढ़ता और फैलता जा रहा है। जितनी नई नौकरियां पैदा हो रही हैं, उनसे कहीं अधिक नौकरियां ख़त्म हो रही हैं।
मज़दूर वर्ग और सभी मेहनतकश लोगों को समाजवादी आर्थिक व्यवस्था के विकल्प के लिए संघर्ष करना होगा। समाजवादी आर्थिक व्यवस्था लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के मक़सद से संचालित की जायेगी। समाज के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खाद्य पदार्थ, कपड़े और अन्य सभी आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में भारी वृद्धि की आवश्यकता होगी। इसके लिए बहुत अधिक मात्रा में शिक्षकों, स्वास्थ्य कर्मियों और अन्य कर्मियों को नियुक्त करने की आवश्यकता होगी।
समाजवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें बड़े पैमाने पर उत्पादन करने के साधन पूंजीपतियों की निजी संपत्ति नहीं रहेंगे। इन्हें संपूर्ण जनता की सामाजिक संपत्ति में बदल दिया जायेगा। उत्पादन को एक समग्र योजना के अनुसार नियोजित किया जायेगा। बार-बार होने वाले संकटों और नौकरियों के विनाश के बिना, अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में संतुलित विकास होगा। प्रौद्योगिकी में प्रगति का उपयोग वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन को बढ़ाने के लिए किया जाएगा ताकि पूरे समाज की बढ़ती ज़रूरतों को पूरा किया जा सके। उनका उपयोग मेहनतकश लोगों की परिस्थितियों को सुधारने और उनके काम के बोझ को कम करने के लिए किया जाएगा, न कि उनका अत्यधिक शोषण करने या उन्हें बेरोज़गार करने के लिए। काम करने में सक्षम सभी लोगों को रोज़गार मिलेगा और समय के साथ, उनके काम के घंटे कम होते जाएंगे, क्योंकि श्रम की उत्पादकता बढ़ेगी। ऐसी व्यवस्था सभी के लिए रोज़गार की सुरक्षा और खुशहाली सुनिश्चित करेगी।