‘महिला आन्दोलन के सामने चुनौतियां’ के विषय पर गोष्ठी

पुरोगामी महिला संगठन के संवाददाता की रिपोर्ट

एन.एफ़.आई.डब्ल्यू. (भारतीय महिला फेडेरशन) ने हाल में अपनी 70 वीं सालगिरह मनायी। इस अवसर पर एक राष्ट्रीय गोष्ठी आयोजित की गयी थी, जिसका विषय था – ‘बलात्कारियों की रिहाई से पहलवानों के संघर्ष तक: महिला आन्दोलन के सामने चुनौतियां’।

देश के अलग-अलग भागों से हज़ारों की तादाद में महिलाओं ने इसमें बड़े उत्साह के साथ हिस्सा लिया। इसमें अनेक महिला संगठनों – एडवा, पुरोगामी महिला संगठन, आल इंडिया महिला सांस्कृतिक संगठन, जॉइंट विमेंस प्रोग्राम – और कई अन्य संगठनों के प्रतिनिधिओं ने भी हिस्सा लिया तथा इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपने विचार पेश किये।

पुरोगामी महिला संगठन के प्रतिनिधि द्वारा गोष्ठी में पेश किये गए विचारों को यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है।

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मेरी प्यारी बहनों और साथियों,

एन एफ़ आई डब्ल्यू को बहुत-बहुत बधाई, कि इतने सालों से इस देश की महिलायों को पूंजीवादी शोषण, सामंती रिवाजों, पित्रसत्तावादी शोषण और हर प्रकार के शोषण-दमन के ख़िलाफ़ लामबंध करते आये हैं।

आज हमारे पहलवानों का संघर्ष इस देश की महिलाओं की आवाज़ के रूप में आगे आ रहा है – यह हमें बहुत कुछ बता रहा है।

पहला, कि महिलाओं पर हिंसा, यौन शोषण – यह इस समाज के कोने-कोने में, जीवन के हर पहलू में, कितनी गहराई से बसी हुयी, एक हक़ीकत है।

दूसरा, कि धनवान लोगों, बड़े-बड़े पूंजीपतियों, सत्ता में बैठे, ऊंचे पदों पर बैठे, आधिकारिक स्थानों पर बैठे लोगों द्वारा, अपने रुतबे का फ़ायदा उठाकर, महिलाओं का यौन उत्पीडन करना, यह हमारे समाज में एक सामान्य बात है।

तीसरा, हमारी रक्षा करने के नाम से बनाये गए संस्थान हमारी रक्षा नहीं करते, बल्कि धनवानों, सत्ता पर बैठे लोगों की ही रक्षा करते हैं।

चौथा, कि अदालत से भी हमें इन्साफ नहीं मिलता – बिलकिस बानो का दर्दनाक किस्सा, इंसाफ़ के लिए उसका कठिन संघर्ष और अदालत द्वारा गुनहगारों की रिहाई – यह चीख-चीख कर हमें यही कह रहा है।

पांचवा, जिन्हें हम चुन कर अपने प्रतिनिधि बतौर विधान सभा और संसद में भेजते हैं, वे ही हमारे ख़िलाफ़ काम करते हैं और हम उनके ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं कर सकते। उनसे जवाब नहीं मांग सकते। उन्हें वापस नहीं बुला सकते। उम्मीदवारों का चयन भी नहीं कर सकते, न अपने हित में क़ानून बना सकते हैं और न ही किसी क़ानून को अपने हित में बदल सकते हैं। किसान विरोधी क़ानून, चार लेबर कोड, वन-आदिवासी अधिकार कानून, भूमि अधिग्रहण क़ानून – ये सब अपने हितों का सरासर हनन हैं और इन्हें रद्द करवाने के लिए हमें कितना संघर्ष करना पड़ रहा है। फिर, नोट बंदी, जी.एस.टी., इन पर किसी संसद या विधान सभा में चर्चा करके फ़ैसले नहीं लिए गए। यानि कोई भी नीतिगत फैसला लेने के लिए हमारे पास कोई ताक़त नहीं है। यह ताक़त तो सिर्फ सरकार के मंत्रिमंडल के ही पास है।

और ये सब इस व्यवस्था के अन्दर सामान्य घटनाएं हैं — इस या उस राजनीतिक पार्टी की सरकार आयीं केंद्र में, किसी राज्य में, लेकिन इन हालातों में कोई बदलाव नहीं आया।

राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक कत्लेआमों में जो महिलाएं बलात्कार और यौन उत्पीडन का शिकार बनीं, उन्हें आज तक इंसाफ़ नहीं मिला, बलात्कारियों को आज तक सज़ा नहीं मिली, चाहे यह 1984 में सिखों के कत्लेआम में, 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद हुए कत्लेआम में, 2002 में गुजरात के कत्लेआम में, या फिर 2020 में पूर्वोत्तर दिल्ली के क़त्लेआम में – और इन सब में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें केंद्र में और राज्यों में बरक़रार रही हैं।

कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न से सुरक्षा के बारे में इतने सालों से संघर्ष करके हम महिलाओं ने जो-जो शर्तें क़ानून में डालने की कोशिश कीं, उनके बावजूद, आज भी अधिकांश पीड़िता महिलायों और बच्चियों को यौन उत्पीडन से छुटकारा नहीं मिला है। उन शर्तों को – मसलन, हर संस्था में यौन उत्पीडन पर अंदरूनी शिकायत कमेटी का होना — हर पीड़िता महिला को सुनिश्चित करने के लिए न तो उस समय की सरकार ने कोई क़दम लिया, न उसके बाद आई किसी सरकार ने।

तो साफ़ है यह समस्या इस या उस सरकार को चुन कर लाने से हल नहीं होने वाली है। यह भी साफ़ है कि महिलाओं पर शोषण सभी मेहनतकशों पर पूंजीवादी शोषण का ही एक हिस्सा है। महिलाओं का यौन शोषण, महिलाओं को समान काम के लिए समान वेतन न मिलना, इन से सभी मज़दूरों को दबाया और कम वेतन पर, असुरक्षित हालातों में काम करने को मज़बूर किया जाता है।

तो इससे मुक्ति पाने की आकांक्षा के साथ आज देश की महिलाएं आगे आ रही हैं, पहलवानों के समर्थन में संघर्ष के जरिये अपने इस सारे दुःख-दर्द को प्रकट कर रही हैं।

इससे मुक्ति पाने के लिए हम आज किसी दूसरी, पूंजीपतियों की विश्वसनीय पार्टी जो इसी पूंजीवादी शोषण-दमन की व्यवस्था को चलायेगी – उस पर भरोसा नहीं कर सकते। हम उसी कुचक्र में नहीं फंस सकते, जिसमें अब तक बार-बार फंसते आये हैं।

जब तक पैदावार के मुख्य साधनों के मालिक बड़े-बड़े इजारेदार पूंजीपति बने रहेंगे, और उन्हीं के करोड़ों रुपयों पर पली हुयी पार्टियों की सरकार होगी, वह सरकार उन्हीं की सेवा में काम करेगी। वह सरकार इसी व्यवस्था को बरकरार रखेगी जिसमें पूंजीपतियों को फ़ायदा है । और तब तक हम मेहनतकश स्त्री-पुरुषों के हाथ में न तो अर्थव्यवस्था को अपने हित में चलाने की ताक़त होगी और न ही मेहनतकशों के हित में कोई फैसले लेने की ताक़त होगी।

अब वक्त आ गया है, एक नए समाज, एक नयी व्यवस्था के बारे में सोचने और उस के लिए संगठित होने का, मज़दूर, किसान, महिला, नौजवान, आदिवासी, दलित, हर उत्पीड़ित तबक़े को एकजुट करके, उस नए समाज की ओर लामबंध होने का। एक ऐसा नया समाज, एक ऐसी नयी व्यवस्था, जिसमें इस देश की दौलत को पैदा करने वाले मेहनतकश स्त्री-पुरुष इसके मालिक होंगे। तब हम अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों पर नियंत्रण कर पाएंगे और यह सुनिश्चित कर पाएंगे कि सत्ता के सभी संस्थान सबसे पहले मेहनतकश स्त्री-पुरुष के अधिकारों को सुनिश्चित करें। तब हम अर्थयवस्था को लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में चला सकेंगे, न कि चंद पूंजीवादी मुनाफ़ाखोरों की लालच को पूरे करने की दिशा में। तब हम फ़ैसले ले सकेंगे और लागू कर सकेंगे, मेहनतकश स्त्री-पुरुष के अधिकारों की रक्षा करने के लिए, न कि पूंजीवादी लुटेरों के। और अपने अधिकारों का हनन करने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिला सकेंगे, चाहे वे कितने ही ऊंचे पद पर क्यों न हों।

तो आईये बहनों, भाईओं, उस भविष्य को साकार करने के लिए संगठित हों और संघर्ष करें — इस आह्वान के साथ मैं अपनी बात समाप्त करती हूं।

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