पूंजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ संघर्ष को आगे बढ़ाएं!
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी की केंद्रीय समिति का आह्वान, 1 मई, 2023
मज़दूर साथियों,
मई दिवस, अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर वर्ग दिवस के अवसर पर, कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी सभी देशों के मज़दूरों को सलाम करती है! हम उन सभी को सलाम करते हैं, जो बड़ी मुश्किल से हासिल किये गए अपने अधिकारों और जायज़ मांगों पर पूंजीपति वर्ग की सरकारों के क्रूर हमले के ख़िलाफ़़ लड़ रहे हैं।
विश्व पूंजीवादी व्यवस्था बहुत ही गहरे संकट में फंसी हुई है। 2023 में यूरोप और उत्तरी अमरीका की अर्थव्यवस्थाओं के लिए शून्य वृद्धि का पूर्वानुमान किया जा रहा है।
इजारेदार पूंजीपति और उनकी सेवा करने वाली सरकारें आर्थिक संकट के बावजूद अधिकतम मुनाफ़़ा हड़पने के उन्माद में, एक के बाद एक जन-विरोधी क़दम उठाती जा रही हैं। वे सामाजिक खर्च में कटौती कर रही हैं। स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसी जन-सेवाओं को बर्बाद किया जा रहा है। सार्वजनिक संसाधनों और आवश्यक सेवाओं को निजी पूंजीवादी कंपनियों के हवाले कर दिया जा रहा है, ताकि उन्हें अधिकतम पूंजीवादी मुनाफ़े के उद्देश्य से चलाया जा सके। ईंधन, खाद्यान्न और अन्य आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतों में लगातार वृद्धि हुई है। पिछले दो दशकों में मज़दूरों के असली वेतन लगातार गिरते रहे हैं। कई दशकों के संघर्ष से जीते गए अधिकारों, जैसे कि पेंशन और तरह-तरह की सामाजिक सुरक्षाओं, पर तीव्र हमले हो रहे हैं। 8 घंटे काम के दिन के अधिकार का खुलेआम हनन किया जा रहा है। अनेक मज़दूरों को 12 से 16 घंटे प्रतिदिन काम करने को मजबूर किया जाता है।
मज़दूरों की एकता को तोड़ने के लिए पूंजीवादी देशों में हुक्मरान वर्ग जातिवाद, साम्प्रदायिकता, प्रवासियों पर हमले, आदि के परखे हुए हथकंडों का इस्तेमाल कर रहे हैं। ब्रिटिश राज्य ने प्रवासी मज़दूरों के ख़िलाफ़ एक बेहद कठोर क़ानून पारित किया है। अमरीका और कई यूरोपीय देशों में नस्लवादी हमले फैल रहे हैं। हिन्दोस्तान में हुक्मरान वर्ग बड़े सुनियोजित तरीक़े से, धर्म और जाति के आधार पर लोगों को बांटता जा रहा है।
अमरीकी साम्राज्यवाद पूरी दुनिया पर अपना निरंकुश वर्चस्व जमाने के लिए, बेहद हमलावर रास्ते पर आगे बढ़ रहा है। उसने एशिया और अफ्रीका के कई देशों में गृहयुद्ध छेड़ दिया है। उसने अपने नाटो सहयोगियों को यूक्रेन पर, रूस के साथ लड़ने के लिए लामबंध किया है। इस जंग का उद्देश्य रूस को घेरना और नष्ट करना और जर्मनी को कमज़ोर करना है। अन्य साम्राज्यवादी ताक़तों के साथ मिलीभगत और टकराव, दोनों के ज़रिये, वह अफ्रीका को बेरहमी से लूट रहा है। एशिया में, अमरीकी साम्राज्यवाद चीन और उत्तर कोरिया के खि़लाफ़ लगातार उकसाने वाली हरकतें कर रहा है। उसने जापान के सैन्यीकरण को प्रोत्साहन दिया है। वह चीन को घेरने और एशिया पर हावी होने के इरादे से, एक एशियाई नाटो का निर्माण कर रहा है। संक्षेप में, अमरीकी साम्राज्यवादी मानवता को एक नए विश्व युद्ध में घसीटने की धमकी दे रहे हैं।
हमलावर अमरीकी साम्राज्यवादी अभियान का यूरोप के साथ-साथ एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमरीका के लोग भी विरोध कर रहे हैं। कई यूरोपीय देशों में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। वहां लोग यह मांग कर रहे हैं कि उनके देश को जंगफरोश नाटो गठबंधन से बाहर निकलना चाहिए। जंग और अपनी रोज़ी-रोटी व अधिकारों पर हमलों के विरोध में, फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, यूनान, इटली और यूरोप के अन्य देशों में बड़ी संख्या में मज़दूर सड़कों पर उतर आए हैं। सड़कों पर बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन और हड़ताल कर रहे लोगों में रेल कर्मचारी, विमान कर्मचारी, सड़क परिवहन कर्मचारी, डाक कर्मचारी, डॉक्टर और नर्स, स्कूल शिक्षक, औद्योगिक कर्मचारी और सरकारी कर्मचारी शामिल हैं। यूरोप में पिछले 30 वर्षों में, हड़तालों में मज़दूरों की इतनी बड़ी भागीदारी नहीं देखी गयी है।
अमरीका और अन्य पूंजीवादी देशों में भी बड़े हड़ताल संघर्ष हो रहे हैं। जापानी और दक्षिण कोरियाई मज़दूर सैन्यीकरण और जंगफरोशी के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।
दुनिया भर में, मज़दूर अपनी रोजी-रोटी और पूंजीवादी सरकारों द्वारा अपने अधिकारों पर किये जा रहे बर्बर हमले का विरोध कर रहे हैं। वे बढ़ती महंगाई का सामना करने के लिए वेतन वृद्धि की मांग कर रहे हैं। वे पेंशन और सामाजिक सुरक्षा पर की गई कटौती को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। वे निजीकरण और नौकरियों में कटौती का विरोध कर रहे हैं। वे प्रवासी मज़दूरों पर हमला करने वाले नस्लवादी क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं।
हिन्दोस्तान में मज़दूर अपने अधिकारों और किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए अनेक संघर्ष कर रहे हैं। मज़दूर उन क़ानूनों को रद्द करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जो अपनी पसंद की यूनियन बनाने के उनके अधिकार पर हमला करते हैं। वे सार्वजनिक संसाधनों और आवश्यक सेवाओं के निजीकरण के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। वे बढ़ती ठेका मज़दूरी का विरोध कर रहे हैं, पक्की नौकरियों और सामाजिक सुरक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। सरकारी कर्मचारी पेंशन में कटौती का विरोध कर रहे हैं और खाली पदों को भरने की मांग कर रहे हैं। ऑटोमोबाइल उद्योग, आईटी सेवाओं, चमड़ा उद्योग, वस्त्र उद्योग और अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में मज़दूर छंटनी और तालाबंदी के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। आंगनवाड़ी और आशा मज़दूर सुनिश्चित रोज़गार के साथ-साथ, मज़दूर बतौर अपने अधिकारों की मांग कर रही हैं। गिग वर्कर्स मज़दूर बतौर अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं।
“मेक इन इंडिया” के बैनर तले, हुक्मरान पूंजीपति वर्ग हमारे देश को साम्राज्यवादियों द्वारा पूंजी निवेश की पसंदीदा जगह बनाना चाहता है। टाटा, अंबानी, बिड़ला, अडानी और अन्य हिन्दोस्तानी इजारेदार पूंजीपति अपने बाज़ारों और प्रभाव क्षेत्रों का विस्तार करने के लिए अमरीका और रूस के बीच तथा अमरीका और चीन के बीच के अंतर्विरोधों का फ़ायदा उठाना चाहते हैं। हिन्दोस्तानी सरकार द्वारा अपनाए जा रहे रास्ते पर चलकर, न केवल मज़दूरों और किसानों का शोषण तेज़ हो रहा है। इससे इस इलाके में प्रतिक्रियावादी युद्ध में हिन्दोस्तानी लोगों के फंसने का ख़तरा बढ़ रहा है।
मज़दूर साथियों,
पूंजीवाद समाज को एक मुसीबत से दूसरी मुसीबत की ओर ले जा रहा है। अपने वर्तमान इजारेदार साम्राज्यवादी चरण में पूंजीवाद का मौलिक क़ानून, देश की बहुसंख्यक आबादी के शोषण, ग़रीबी और तबाही के ज़रिये, अन्य देशों, खासकर कम विकसित देशों, के लोगों की गुलामी और लूट के ज़रिये, जंग तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के सैन्यीकरण के ज़रिये, अधिकतम पूंजीवादी मुनाफे़ प्राप्त करना है।
पूंजीवाद का एक विकल्प है। वह वैज्ञानिक समाजवाद है।
एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना पूरी तरह से मुमकिन है जिसमें पूरे समाज की लगातार बढ़ती भौतिक और सांस्कृतिक ज़रूरतों की ज्यादा से ज्यादा हद तक पूर्ती को सुनिश्चित करना ही अर्थव्यवस्था की दिशा होगी।
नवंबर 1917 में रूस में हुयी महान अक्तूबर समाजवादी क्रांति के बाद, 20वीं सदी में समाजवादी व्यवस्था का जन्म हुआ और कई दशकों तक उसका विकास हुआ। दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद, नए-नए आज़ाद हुए देशों के लोग समाजवादी व्यवस्था से प्रेरित हुए थे, क्योंकि समाजवादी व्यवस्था ने पूंजीवादी व्यवस्था की तुलना में अपनी श्रेष्ठता साबित कर दी थी। यूरोप, एशिया और लैटिन अमरीका के कई राष्ट्र और लोग समाजवाद के निर्माण की राह पर चल पड़े थे।
अमरीकी सरमायदारों की अगुवाई में साम्राज्यवादियों ने समाजवाद को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब सैनिक तरीके़ नाक़ामयाब हुए, तो उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टियों के अन्दर अपने एजेंटों को पाल-पोस कर, अंदरूनी विनाश के तरीक़ों का सहारा लिया।
1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद, साम्राज्यवादी पूंजीपतियों ने घोषणा कर दी थी कि समाजवाद ख़त्म हो चुका है और पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। लेकिन इस अमानवीय व्यवस्था का विकल्प तलाशने की लोगों की ख़्वाहिश को साम्राज्यवादी नहीं मिटा पाए हैं।
पिछले 32 वर्षों में बार-बार इस बात की पुष्टि हुयी है कि पूंजीवाद मानव जाति के लिए ज़्यादा से ज़्यादा विपत्तियां ही पैदा कर सकता है। मेहनतकश बहुसंख्यकों और शोषक अल्पसंख्यकों की हालतों के बीच की खाई बहुत बढ़ गई है। पूंजीपतियों का जंग रहित दुनिया का वादा झूठा साबित हुआ है। तथाकथित जन-कल्याण की सरकारी नीतियों के ज़रिये पूंजीवादी व्यवस्था के अन्दर मज़दूरों की भलाई सुनिश्चित करने की संभावना के बारे में सभी भ्रम चकनाचूर हो गए हैं।
दुनिया के मज़दूर वर्ग और उत्पीड़ित लोग एक ऐसी दुनिया चाहते हैं जो कुछ व्यक्तियों द्वारा दूसरों के शोषण से मुक्त हो और कुछ राष्ट्रों द्वारा दूसरों के दमन से मुक्त हो, एक ऐसी दुनिया जो साम्राज्यवादी जंग से मुक्त हो। मज़दूर वर्ग को सरमायदारों के समाज-विरोधी हमले के ख़िलाफ़ संघर्ष को इसके तर्कसंगत निष्कर्ष तक ले जाना होगा – क्रांति के ज़रिये पूंजीवाद को उखाड़ फेंकना होगा और समाजवाद का निर्माण करना होगा। यही आज वक्त का बुलावा है।
मज़दूर साथियों,
हिन्दोस्तानी पूंजीपति वर्ग और उसकी सभी पार्टियां बार-बार हमें कहती रहती हैं कि संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। वे दावा करती हैं कि वर्तमान व्यवस्था सभी वर्गों के लिए हितकारी है। वे इस वास्तविकता को छिपाती हैं कि यह वास्तव में एक ऐसी व्यवस्था है जिसके ज़रिये सरमायदार वर्ग मज़दूरों और किसानों पर अपनी हुक्मशाही को लागू करता है।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने 1951 में यह माना था कि उपनिवेशवादी हुकूमत के ख़त्म होने के बाद स्थापित किया गया राज्य सरमायदारों की हुकूमत का राज्य था। परन्तु उसके बाद के वर्षों में कम्युनिस्ट आंदोलन उस समझ पर नहीं टिका रहा। कम्युनिस्ट आन्दोलन इस भ्रम का शिकार हो गया कि संसदीय लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जिसके ज़रिये मज़दूर वर्ग समाजवाद के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकता है। इससे सरमायादारों को इस व्यवस्था के बारे में भ्रमों को जीवित रखने में मदद मिली है।
वर्तमान संसदीय लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है जो इस मौलिक पूर्वधारणा पर आधारित है कि हम मज़दूर और किसान खुद अपना शासन करने के क़ाबिल नहीं हैं, इसलिए हमें किसी ऐसी ताक़त की ज़रूरत है जो हमसे ऊपर हो और हमारे ऊपर शासन कर रही हो।
मौजूदा व्यवस्था हमें फै़सले लेने की शक्ति से वंचित करती है। फै़सले लेने की शक्ति संसद में बहुमत प्राप्त पार्टी द्वारा गठित मंत्रिमंडल के हाथों में केंद्रित है। सरमायदार वर्ग यह सुनिश्चित करता है कि केवल उन्हीं पार्टियों को सरकार बनाने की इजाज़त दी जाए जो उसके एजेंडे को वफ़ादारी से लागू करेंगी। चुनाव के समय वह ऐसी पार्टियों में से उस पार्टी की जीत को सुनिश्चित करता है, जो मेहनतकश जनता को सबसे बेहतरीन तरीक़े से बेवकूफ़ बना सकती है। सरमायदारों की हुकूमत को वैधता दिलाने के लिए चुनावों का इस्तेमाल किया जाता है। यह सिर्फ पूंजीपतियों के लिए लोकतंत्र है।
सरमायदारी लोकतंत्र से बेहतर एक विकल्प है, जो श्रमजीवी लोकतंत्र है। श्रमजीवी लोकतंत्र एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें हम, मजदूर और किसान, खुद अपना शासन करेंगे। हम उन लोगों का चयन और चुनाव कर पाएंगे जिन पर हमें भरोसा है। हम उन लोगों पर नियंत्रण करने में सक्षम होंगे जिन्हें हम चुनते हैं, और जब भी वे हमारे हितों के ख़िलाफ़़ काम करते हैं तो उन्हें वापस बुलाने में सक्षम होंगे। हमें यह मांग करनी होगी कि हमारे हितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली सभी राजनीतिक पार्टियों को एकजुट होकर ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष करना चाहिए।
मज़दूर साथियों,
तमाम तथ्य बताते हैं कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार मज़दूरों और किसानों की रोज़ी-रोटी और अधिकारों को कुचल कर, हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों के लालच को पूरा करने के लिये प्रतिबद्ध है। जीवन के अनुभव ने यह दिखाया है कि विभिन्न राज्यों में सरकारें चलाने वाली कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी और अन्य पार्टियां भी पूंजीपति वर्ग के हितों की सेवा करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इसका एक हालिया उदाहरण कर्नाटक और तमिलनाडु की राज्य विधानसभाओं द्वारा फैक्ट्रियों में काम के दिन की अवधि को 8 घंटे से बढ़ाकर 12 घंटे करने के लिए पारित क़ानून हैं।
जैसे-जैसे हम 2024 के लोकसभा चुनावों की ओर बढ़ रहे हैं, वैसे-वैसे हुक्मरान वर्ग अपने प्रचार को तेज़ कर रहा है। इसका उद्देश्य हमें सरमायदारों की एक या दूसरी पार्टियों के पीछे लामबंध करना है। हमें इन फरेबी विकल्पों पर विश्वास नहीं करना चाहिए। हमें हिन्दोस्तान के नव-निर्माण, जो एकमात्र वास्तविक विकल्प है, के अपने कार्यक्रम के इर्द-गिर्द अपनी जुझारू एकता को और मज़बूत करने की आवश्यकता है। हमारा कार्यक्रम मज़दूरों और किसानों की हुकूमत स्थापित करना है और पूंजीवादी लालच को पूरा करने के बजाय लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने की दिशा में अर्थव्यवस्था को नया मोड़ देना है।
हमारा उद्देश्य जायज़ है। हम बहुसंख्यक लोगों के हितों के लिए लड़ रहे हैं। हम अवश्य जीतेंगे!
इंक़लाब ज़िंदाबाद!