एक ऐतिहासिक पहल की 30वीं सालगिरह :
लोगों को सत्ता में लाने की आवश्यकता

हमारे हुक्मरान यह दावा करते हैं कि हिन्दोस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इस दावे को आज से 30 साल पहले चुनौती दी गयी थी, उन लोगों द्वारा, जो जनसमुदाय की शक्तिहीन स्थिति के खि़लाफ़ आवाज़ उठा रहे थे। 11 अप्रैल, 1993 को दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में मज़दूर यूनियनों व महिला संगठनों के नेताओं, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, न्यायाधीशों, वकीलों, शिक्षाविदों और सांस्कृतिक कलाकारों सहित कम्युनिस्ट और अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता, एक साथ मिले थे। उन्होंने प्रेपरेटरी कमेटी फॉर पीपल्स एम्पावरमेंट की स्थापना की थी।

ऐतिहासिक संदर्भ

1980 के दशक में राज्य द्वारा आयोजित सांप्रदायिक हिंसा और राजकीय आतंकवाद बहुत ज्यादा फैल रहे थे। 1993 की शुरुआत तक, लोगों की असुरक्षा अप्रत्याशित स्तर पर पहुंच गई थी। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक हत्याएं हुयी थीं। संसद की दोनों प्रमुख पार्टियां, कांग्रेस पार्टी और भाजपा, उन जघन्य अपराधों के लिए दोषी थीं। उन घटनाओं के प्रति लोगों में गुस्सा और नफ़रत बढ़ रहे थे, क्योंकि लोग उन्हें रोकने में खुद को शक्तिहीन महसूस कर रहे थे।

उस अराजकता और तनावपूर्ण स्थिति के बीच, 22 फरवरी, 1993 को फ़िरोज़शाह कोटला में एक ऐतिहासिक रैली हुई थी, ठीक उसी स्थान पर जहां शहीद भगत सिंह और उनके साथियों ने हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना सभा की थी। वह रैली दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की केंद्र सरकार द्वारा सभी सामूहिक सभाओं पर लगाये गये प्रतिबन्ध को चुनौती देते हुए, आयोजित की गयी थी।

फ़िरोज़शाह कोटला में रैली का आयोजन हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी, मज़दूर एकता कमेटी, पुरोगामी महिला संगठन, सहेली और पंजाब मानवाधिकार संगठन ने संयुक्त रूप से किया था। रैली में भाग लेने वालों ने सभी ज़मीर वाले महिलाओं और पुरुषों के लिये एक अपील जारी की थी। उन्होंने राजनीतिक प्रक्रिया में मूलभूत परिवर्तन का आह्वान किया था, ताकि लोगों को सत्ता में लाया जा सके और किसी भी पार्टी को अपनी मनमर्ज़ी से कार्य करने से रोका जा सके। उस अपील को देशभर के व्यापक राजनीतिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं से ज़बरदस्त समर्थन मिला था।

ये गतिविधियां ऐसे समय पर हो रही थीं, जब हिन्दोस्तानी सरमायदारों ने उदारीकरण और निजीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण का जन-विरोधी कार्यक्रम शुरू किया था। बाबरी मस्जिद के विध्वंस को अंजाम देने और साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने के बाद, कांग्रेस पार्टी और भाजपा संसद के बजट सत्र की तैयारी कर रही थीं। उन हालतों में, फ़िरोज़शाह कोटला में विरोध रैली को आयोजित किया गया था।

फ़िरोज़शाह कोटला रैली और प्रेपरेटरी कमेटी फॉर पीपल्स एम्पावरमेंट की स्थापना आज इसलिए महत्व रखती है क्योंकि उन्होंने शासन की मौजूदा पार्टी-प्रधान व्यवस्था के विकल्प को तलाशने के लिए लोगों में चर्चा की शुरुआत की थी। उन्होंने उस समय ऐसा किया था, जब लोगों से कहा जा रहा था कि मौजूदा व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है।

दुनिया के स्तर पर, वह ऐसा समय था जब सोवियत संघ का विघटन हो गया था और दुनिया के सरमायदारों ने ऐलान कर दिया था कि समाजवाद फेल हो गया है। प्रमुख साम्राज्यवादी शक्तियां समाजवाद को लोकतान्त्रिक अधिकारों का हनन करने वाली व्यवस्था बताते हुए, उसे बदनाम कर रही थीं। वे मांग कर रही थीं कि सभी देशों को बाज़ार द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था और बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्वावादी लोकतंत्र को अपना लेना चाहिए, जिसे वे लोकतंत्र की कसौटी मानते थे।

साम्राज्यवादी प्रचार, कि मौजूदा व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है, उसके बावजूद ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमरीका और हिन्दोस्तान सहित अन्य पूंजीवादी देशों में जनता उन राजनीतिक पार्टियों से नाराज़ थी, जो लोगों के नाम पर शासन करती थीं लेकिन लोगों के हितों के खि़लाफ़़ काम करती थीं। लोग बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र से नाखुश थे और अपना असंतोष प्रकट कर रहे थे। लोग अपने हाथों में फ़ैसले लेने की शक्ति चाहते थे।

गंभीर विश्लेषण

हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी ने लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था और राजनीतिक प्रक्रिया के गंभीर विश्लेषण को आगे बढ़ाने के लिए, कई विद्वानों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम किया, ताकि यह समझा जाये कि लोगों को सत्ता में लाने के लिए किस प्रकार के मूलभूत परिवर्तन आवश्यक हैं। उस काम से निम्नलिखित प्रमुख निष्कर्ष निकले :

  • शासन की वर्तमान पार्टीवादी व्यवस्था, जिसे बहुपार्टीवादी प्रतिनिधित्वावादी लोकतंत्र कहा जाता है, वह सरमायादारों की हुक्मशाही को थोपने और मज़दूर वर्ग तथा व्यापक जनसमुदाय को सत्ता से बाहर रखने के लिए बनायी गई है।
  • यह पूरी व्यवस्था इस धारणा पर आधारित है कि लोग खुद अपना शासन करने में सक्षम नहीं हैं; इसलिए उन्हें इस या उस राजनीतिक पार्टी को फ़ैसले लेने की शक्ति सौंपने की आवश्यकता है।
  • संविधान लोगों को संप्रभु नहीं बनाता है। सरकार चलाने वाली पार्टी संसद के सदस्यों के प्रति जवाबदेह नहीं है। संसद के सदस्य उस जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होते हैं जिसका प्रतिनिधि वे खुद को बताते हैं।
  • सबसे शक्तिशाली इजारेदार पूंजीपति अपने धनबल और मीडिया बल का प्रयोग करके, हर चुनाव में अपनी पसंदीदा पार्टी की जीत को सुनिश्चित करते हैं।
  • लोगों की भूमिका मतदान के दिन शुरू होती है और उसी समय समाप्त भी हो जाती है। संसद क्या-क्या क़ानून बनाएगा, सरकार क्या-क्या नीतिगत फैसले लेगी – इन्हें निर्धारित करने में मतदाताओं की कोई भूमिका नहीं होती है।
  • मौजूदा व्यवस्था ब्रिटिश उपनिवेशवादी हुकूमत की विरासत है। हालांकि 1947 में हिन्दोस्तानी हुक्मरान वर्ग को सत्ता का हस्तांतरण हुआ था, लेकिन लोग पहले की तरह ही शक्तिहीन बने रहे। (देखिये बॉक्स : कामरेड लाल सिंह के भाषण के कुछ अंश)
    कामरेड लाल सिंह के भाषण के कुछ अंश*

    सभी तथ्यों से यह स्पष्ट होता है कि वर्तमान राज्य की संस्थाओं को ब्रिटिश हुक्मरानों ने अपने हितों और अपने साथ जुड़ी ताक़तों के हितों की रक्षा के लिए विकसित किया था। आधुनिक हिन्दोस्तानी राज्य की नींव 1857 में डाली गयी थी। इसका मूल स्तंभ सेना थी, जिसे लोगों को दबाने के लिए सांप्रदायिक और जातिवादी आधार पर गठित किया गया था। तथाकथित प्रतिनिधित्व की संस्थाएं, जैसे गवर्नर जनरल की परिषद, केंद्रीय विधानमंडल, प्रांतीय विधानमंडल, आदि के दो उद्देश्य थे : पहला, लोगों के गुस्से के लिए एक सेफ्टी-वाल्व प्रदान करना … और दूसरा, हुक्मरानों के हितों को अधिक मजबूती से सुरक्षित करने के लिए, उनके समर्थकों को सरकार में शामिल करना तथा उन्हें देश चलाने के लिए तैयार करना।

    1947 में सत्ता का हस्तांतरण हुआ – ब्रिटिश हुक्मरानों के हाथों से हिन्दोस्तानी हुक्मरानों के हाथों में – लेकिन लोगों को सत्ता में लाने की दिशा में राजनीतिक प्रक्रिया और राजनीतिक संस्थानों का वास्तविक और ठोस परिवर्तन अभी तक नहीं हुआ है। तथाकथित प्रतिनिधित्व की संस्थाओं ने कार्यपालिका के विशेषाधिकारों और शक्तियों को संरक्षित और मजबूत किया है तथा अधिकांश लोगों को राजनीतिक सत्ता से बाहर रखा है।

    हिन्दोस्तान में पूरी प्रौढ़ आबादी के लिए मतदान के अधिकार के विस्तार ने, राजनीतिक प्रक्रिया या राज्य सत्ता का मूल चरित्र नहीं बदला है। इस राज्य सत्ता का मूल चरित्र यह है कि यह लोगों पर शासन करने का एक हथकंडा है, न कि लोगों द्वारा खुद अपना शासन करने का साधन।

    *4-5 सितंबर, 1993 को प्रेपरेटरी कमेटी फॉर पीपल्स एम्पावरमेंट के एक सम्मेलन में दिया गया भाषण

खतरनाक भ्रम

सरमायदारों ने पार्टीवादी शासन व्यवस्था के ज़रिये अपनी हुकूमत को वैधता दे रखी है। लोगों को सत्ता में लाने के लिए संघर्ष राज्य सत्ता के मूल चरित्र को बदलने का संघर्ष है। यह राज्य को पूंजीपतियों द्वारा लोगों पर शासन करने के एक हथकंडे से, लोगों द्वारा खुद अपना शासन करने के एक साधन में बदलने का संघर्ष है।

पिछले 30 वर्षों में एक तरफ लोगों को सत्ता में लाने के आंदोलन और दूसरी तरफ हुक्मरान सरमायदारों की लोगों को गुमराह करने व बांटने की राजनीति, इन दोनों के बीच टकराव देखने में आया है। हुक्मरान वर्ग एक के बाद एक हानिकारक भ्रम फैलाता रहा है ताकि लोगों को पार्टीवादी शासन व्यवस्था के अन्दर बांध कर रखा जा सके।

1992-93 की घटनाओं के बाद फैलाए गए भ्रमों में से एक यह है कि अगर एक गठबंधन सरकार हो तो वह एक पार्टी की सरकार से ज्यादा बेहतर तरीक़े से लोगों की समस्याओं को प्रकट कर सकती है। यहां तक कि 1996 में एक गैर-कांग्रेस और गैर-भाजपा गठबंधन सरकार भी बनी थी। उसके बाद एक के बाद एक, भाजपा की अगुवाई वाली और फिर कांग्रेस पार्टी की अगुवाई वाली गठबंधन सरकारें बनीं। लेकिन इनसे कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं हुआ।

जबकि पार्टियों ने एक-दूसरे की जगह ले ली, तो निजीकरण और उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण का कार्यक्रम बेरोक चलता रहा है। देश की भूमि, श्रम और प्राकृतिक संसाधनों को हिन्दोस्तानी और विदेशी इजारेदार पूंजीपतियों की अमीरी बढ़ाने की सेवा में लगाया जाता रहा है। अमीर और ग़रीब के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। मज़दूरों का शोषण तेज़ होता जा रहा है और करोड़ों-करोड़ों किसान बर्बाद हो रहे हैं।

चाहे किसी भी पार्टी या गठबंधन की सरकार बनी हो, राजनीति का अपराधीकरण बद से बदतर होता जा रहा है। राजकीय आतंक और साम्प्रदायिक हिंसा का बेलगाम इस्तेमाल पिछले 30 वर्षों की एक खासियत रही है।

राजनीतिक सत्ता से बाहर रखे जाने पर लोगों के बढ़ते असंतोष को देखते हुए, हुक्मरान वर्ग ने वर्ष 2000 में संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए, एक राष्ट्रीय आयोग बनाने का फ़ैसला किया था। उस आयोग के कार्य की शर्तों में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि वह संसदीय लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था के “मूल ढांचे“ में किसी भी बदलाव का प्रस्ताव नहीं दे सकता है। इसका मतलब यह था कि बहुसंख्यक जनसमुदाय को सत्ता से बाहर रखते हुए, फै़सले लेने की शक्ति हुक्मरान गुट के हाथों में केंद्रित रहेगी।

संविधान के कामकाज की समीक्षा करने का वह पूरा अभ्यास इस हक़ीक़त को छिपाने के लिए किया गया था, कि यह संविधान लोगों को संप्रभु नहीं बनाता है। उसका उद्देश्य यह भ्रम फैलाना था कि समस्या का स्रोत केवल कुछ विशेष व्यक्तियों और पार्टियों में है, जो भ्रष्ट, सांप्रदायिक और अपराधी हैं।

राष्ट्रीय आयोग की विभिन्न सिफ़ारिशों को लागू किया गया है। मगर उससे अधिकांश लोगों की शक्तिहीन स्थिति में थोड़ा-सा भी फ़र्क़ नहीं पड़ा है। कई सुधारों, जैसे कि चुनावी बोन्ड का प्रयोग और निर्दलीय उम्मीदवारों को हतोत्साहित करना, जिनकी वजह से राजनीतिक प्रक्रिया पर पूंजीपतियों की पसंदीदा पार्टियों का वर्चस्व और मजबूत हो गया है, जबकि राजनीतिक प्रक्रिया हमेशा की तरह अपराधी, भ्रष्ट और सांप्रदायिक बनी हुई है।

2004 से शुरू होकर, हुक्मरान वर्ग ने यह भ्रम फैलाया कि इजारेदार पूंजीवाद को “मानवीय चेहरा“ देना संभव है। यह भ्रम फैलाया गया कि सरमायादारी हुकूमत की मौजूदा व्यवस्था के चलते, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार से निजात पाना मुमकिन है। लेकिन हमारे जीवन के अनुभव ने इन सभी भ्रमों को चकनाचूर कर दिया है।

कांग्रेस पार्टी ने 2004 में भाजपा की जगह ले ली और भाजपा ने 2014 में कांग्रेस पार्टी की जगह ले ली। न तो भ्रष्टाचार ख़त्म हुआ और न ही सांप्रदायिकता। संसद ने “इस्लामी आतंकवाद“ के खि़लाफ़़ लड़ाई के नाम पर, एक के बाद एक कठोर क़ानून बनाए हैं, जिनमें टाडा (आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां-रोकथाम अधिनियम) और यू.ए.पी.ए. (अवैध गतिविधियां रोकथाम संशोधन अधिनियम) शामिल हैं। देश के दिन-प्रतिदिन के मामलों में लोगों को कोई भी भूमिका निभाने से रोका गया है।

निष्कर्ष

पिछले तीस वर्षों ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि जब तक पार्टीवादी शासन व्यवस्था बरकरार रहेगी, यानि कि राजनीतिक प्रक्रिया पर हुक्मरान वर्ग की पार्टियों का वर्चस्व बना रहेगा, तब तक लोगों की कोई भी समस्या हल नहीं होगी।

मौजूदा चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से, भाजपा की जगह पर कांग्रेस पार्टी या किसी अन्य पार्टी को लाने से मेहनतकश लोगों के हित में कुछ भी नहीं बदलेगा। इजारेदार पूंजीपति समाज के लिए एजेंडा तय करते रहेंगे। लोग शक्तिहीन ही रह जायेंगे।

लोगों की शक्तिहीनता को समाप्त करने के लिए, राजनीतिक प्रक्रिया और राज्य सत्ता के मूल चरित्र में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। यह मज़दूर वर्ग के हित में है कि वह इस तरह के परिवर्तन को अंजाम देने के लिए व्यापक जनता का नेतृत्व करे। मज़दूर वर्ग को लोगों को सत्ता में लाने के संघर्ष का समर्थन करना होगा।

लोगों को सत्ता में लाने के संघर्ष में एक बहुत बड़ी बाधा कम्युनिस्ट आंदोलन में विभिन्न पार्टियों द्वारा मौजूदा राज्य, उसके संविधान और शासन की पार्टीवादी व्यवस्था के बारे में फैलाये गए भ्रम हैं। सभी कम्युनिस्टों का यह फ़र्ज़ बनता है कि वे मज़दूरों, किसानों और व्यापक जनसमुदाय के सामने एक ऐसी नई राजनीतिक व्यवस्था और प्रक्रिया के लिए संघर्ष करने की सख्त ज़रूरत को पेश करें, जिसमें लोग खुद अपना शासन करेंगे। हमें एक ऐसी व्यवस्था के लिए लड़ना चाहिए जिसमें किसी राजनीतिक पार्टी की भूमिका यह सुनिश्चित करने की हो, कि मेहनतकश लोग खुद अपने फ़ैसले ले सकें। यही वह सबक है, जो 1993 में शुरू हुई ऐतिहासिक पहल के बाद के तीन दशकों के अनुभव से निकलता है।

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